कुंडली और जीवनसाथी—
१॰ यदि जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादश स्थान स्थित मंगल होने से जातक को मंगली योग होता है इस योग के होने से जातक के विवाह में विलम्ब, विवाहोपरान्त पति-पत्नी में कलह, पति या पत्नी के स्वास्थ्य में क्षीणता, तलाक एवं क्रूर मंगली होने पर जीवन साथी की मृत्यु तक हो सकती है। अतः जातक मंगल व्रत। मंगल मंत्र का जप, घट विवाह आदि करें।
“ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।।”
“हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी कान्त कान्तां सुदुर्लभाम।।”
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोप सुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।”
“ॐ सुभगामै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्।।”
उक्त मन्त्र की ११ दिन तक लगातार १ माला रोज जप करें। दीपक और धूप जलाकर ११वें दिन एक मिट्टी के कुल्हड़ का मुंह लाल कपड़े में बांध दें। उस कुल्हड़ पर बाहर की तरफ ७ रोली की बिंदी बनाकर अपने आगे रखें और ऊपर दिये गये मन्त्र की ५ माला जप करें। चुपचाप कुल्हड़ को रात के समय किसी चौराहे पर रख आवें। पीछे मुड़कर न देखें। सारी रुकावट दूर होकर शीघ्र विवाह हो जाता है।
“सिन्दूरपत्रं रजिकामदेहं दिव्ताम्बरं सिन्धुसमोहितांगम् सान्ध्यारुणं धनुः पंकजपुष्पबाणं पंचायुधं भुवन मोहन मोक्षणार्थम क्लैं मन्यथाम।
महाविष्णुस्वरुपाय महाविष्णु पुत्राय महापुरुषाय पतिसुखं मे शीघ्रं देहि देहि।।”
यह प्रयोग एक मास करना चाहिए। गणेशजी पर चढ़ये गये दूर्वा लड़की के पिता अपने जेब में दायीं तरफ लेकर लड़के के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें।
फिर इस मन्त्र का १०८ बार जप करें-
“ॐ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्र प्रिय यामिनि। विवाहं भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।”
“मरवानो हाथी जर्द अम्बारी। उस पर बैठी कमाल खां की सवारी। कमाल खां मुगल पठान। बैठ चबूतरे पढ़े कुरान। हजार काम दुनिया का करे एक काम मेरा कर। न करे तो तीन लाख पैंतीस हजार पैगम्बरों की दुहाई।”
“ॐ ऐं ऐ विवाह बाधा निवारणाय क्रीं क्रीं ॐ फट्।”
मंगली दोष का ज्योतिषीय आधार (Astrological analysis of Manglik Dosha)—-
मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है.इसे पाप ग्रह माना जाता है. विवाह और वैवाहिक जीवन में मंगल का अशुभ प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है. मंगल दोष जिसे मंगली के नाम से जाना जाता है इसके कारण कई स्त्री और पुरूष आजीवन अविवाहित ही रह जाते हैं.इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है ताकि इसका भय दूर हो सके.
वैदिक ज्योतिष में मंगल को लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में दोष पूर्ण माना जाता है.इन भावो में उपस्थित मंगल वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है.जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ जितने क्रूर ग्रह बैठे हों मंगल उतना ही दोषपूर्ण होता है जैसे दो क्रूर होने पर दोगुना, चार हों तो चार चार गुणा.मंगल का पाप प्रभाव अलग अलग तरीके से पांचों भाव में दृष्टिगत होता है
जैसे: लग्न भाव में मंगल (Mangal in Ascendant ) लग्न भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है.लग्न भाव में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है.यह मंगल हठी और आक्रमक भी बनाता है.इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है.सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है.अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है.
द्वितीय भाव में मंगल (Mangal in Second Bhava) भवदीपिका नामक ग्रंथ में द्वितीय भावस्थ मंगल को भी मंगली दोष से पीड़ित बताया गया है.यह भाव कुटुम्ब और धन का स्थान होता है.यह मंगल परिवार और सगे सम्बन्धियों से विरोध पैदा करता है.परिवार में तनाव के कारण पति पत्नी में दूरियां लाता है.इस भाव का मंगल पंचम भाव, अष्टम भाव एवं नवम भाव को देखता है.मंगल की इन भावों में दृष्टि से संतान पक्ष पर विपरीत प्रभाव होता है.भाग्य का फल मंदा होता है.
चतुर्थ भाव में मंगल (Mangal in Fourth Bhava) चतुर्थ स्थान में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है.यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है.मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है.मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है.मंगली दोष के कारण पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ जाती है और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है.यह मंगल जीवनसाथी को संकट में नहीं डालता है.
सप्तम भाव में मंगल (Mangal in Seventh Bhava) सप्तम भाव जीवनसाथी का घर होता है.इस भाव में बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है.इस भाव में मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है.जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है.यह मंगल लग्न स्थान, धन स्थान एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है.मंगल की दृष्टि के कारण आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की संभावना बनती है.यह मंगल चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेत्तर सम्बन्ध भी बनाता है.संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है.मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण पति पत्नी में दूरियां बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं.जन्मांग में अगर मंगल इस भाव में मंगली दोष से पीड़ित है तो इसका उपचार कर लेना चाहिए.
अष्टम भाव में मंगल (Mangal in Eigth Bhava) अष्टम स्थान दुख, कष्ट, संकट एवं आयु का घर होता है.इस भाव में मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है.अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है.जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है.धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है.रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है.ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है.इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है.मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।
द्वादश भाव में मंगल (Mangal in Twelth Bhava) कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है.इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है.इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है.धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है.अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है..
भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी संभावना रहती है.
विवाह के बाद यदि दांपत्य सुख न मिले या पति-पत्नी के बीच मतभेद जीवनपर्यन्त चलते रहें, आपसी सामंजस का अभाव हो, तो इसका ज्योतिषीय कारण कुंडली में कुछ बाधक योगों का होना हो सकता है। क्योंकि बाधक योग होने पर ही पति-पत्नी के बीच वैचारिक मतभेद होते हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव कम होने लगता है। यदि ऎसी स्थिति किसी के साथ हो तो भयभीत नहीं हों, इन बाधक योगों के उपचार कर लेने से प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है। दांपत्य सुख में बाधक योग कौन से संभव हैं और उनका परिहार ज्योतिष में क्या बताया गया है इसे समझें।
कुछ लोग यह कह सकते है कि ज्योतिषियों द्धारा मेलापक के बाद किए गये विवाह भी बहुधा असफल होते देखें गये है| अनेक दांम्पत्यो में वैचारिक मतभेद या वैमनस्य रहता है| अनेक युगल गृह-क्लेश से परेशान होकर तलाक ले लेते है तथा अनेक लोग धनहीन, सन्तानहीन या प्रेमहीन होकर बुझे मन से गाड़ी ढकेलते देखें जाते है| मेलापक का विचार करने के बाद विवाह करना सुखमय दांमपत्य जीवन की क्या गारंटी है| यह कैसे कहां जा सकता है इस प्रकार की शंकाएं अनेकलोगों के मन में रहती है ज्योतिषी द्धारा मेलापक मिलवाने के बाद विवाह करने पर भी काफी लोगों का दांमपत्य जीवन आज सुखमय नहीं है इसके कुछ कारण है |
. बिना जन्मपत्री मिलाएं विवाह करना . नकली जन्मपत्री बनवाकर मिलान करवाना . प्रचलित नाम से मिलान करवाना 4 जन्मकुंडली का ठीक न होना 5 जिस किसी व्यक्ति से जन्मपत्रियों का मिलान का निणर्य करा लेना|
जिस किसी से मिलवान करा लेना आज ज्योतिष कुछ ऐसे लोगों के हाथों में फंस गया है जिनको ज्योतिष शास्त्र की यथार्थ जानकारी तो क्या प्रारंभिक बातें भी ठीक-ठीक रूप से पता नहीं है ज्योतिष शास्त्र से अनभिज्ञ ज्योतिषीयो की संख्या हमारे देश में ज्यादा है यधपि तो पांच प्रतिशत व्यक्ति ज्योतिष शास्त्र के अधिकारी विदा्न भी है किन्तु मेलापक का कार्य करने वाले लोगों में अधिकांश लोग इस शास्त्र की पुरी जानकारी नही रखते| जो लोग इस शास्त्र के अच्छे ज्ञाता या विद्वान है सामान्य लोग उनके पास पहुंच नहीं पाते तथा ये विद्वान अपने स्तर से उतर कर कार्य नहीं करते| इन्ही कारणों से मेलापक का कार्य अनेक नीम-हकीम ज्योतिषीयो द्दारा हो जाता है|
कुडंलीयो का मेलापक करना या विधी मिलाना एक जिम्मेदारीपूर्ण कार्य है| जिसमें सुझबुझ की आवश्यकता है| बोलते नाम से नक्षत्र व राशियां ज्ञात कर उनके आधार पर रेडीमेड मेलापक सारणी से गुण संख्या निकाल लेते है यदि 18 से गुण कम हो तो विवाह को अस्वीकृत कर देते है| यदि 18 से ज्यादा गुण हो तो विवाह की स्वीकृति दे देते है यदि जन्मपत्री उपलब्ध हो तो यह देखते हैं कि वर कि कुडंली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्धादश, में मंगल तो नहीं है| अगर मंगल इन्ही भावों में हो तो कन्या की कुडंली में इन्ही भावों में मंगल ढुढते है| यदि कन्या कि कुडंली में इन्ही भावो में मंगल मिला तो गुण-दोष का परिहार बता देते है|
मंगल की बजाय यदि इन्ही भावों में से किसी में शनि, राहु, केतु, या सूर्य मिल जाय तो भी गुण दोष का परिहार बताकर जन्मपत्रियों के मिल जाने की घोषणा 5-1. मिनटों में ही कर देते है| मेलापक करना एक उत्तरदायित्य पूर्ण कार्य है इसे नामधारी ज्योतिषी दो अपरिचित व्यक्तीयो के भावी भाग्य एवं दामपत्य जीवन का फैसला कर देता है यह कैसी विडम्बना है कि आज हर एक पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचक, पुजारी, साधु एवं सन्यासी स्वयं को ज्योतिषी बतलाने में लगा हुआ है| इससे भी दुभाग्य की बात यह है कि जनता ऐसे तथाकथित ज्योतिषीयों के पास अपने भाग्य का निणर्य कराने, मुहूर्त और मेलापक पूछने जाती है तथा ये नामधारी ज्योतिषी लोगों के भाग्य का फैसला चुटकियाँ बजाते-बजाते कर देते है| यही कारण है कि इन लोगों से मेलापक मिलवाने के बाद ही वैवाहिक जीवन सुखमय न होने के असंख्य उदाहरण सामने आते है|
मै यह नहीं कहता कि पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचन या पुजारियों में सभी लोग ज्योतिष से अनभिज्ञ होते है इनमें भी कुछ लोग ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञात होते है परन्तु इनकी संख्या प्रतिशत की दष्टि काफी कम है| ज्योतिष को न जानने वाले लोगो की संख्या सवाधिक है|
मेरी राय में मेलापक का विचार ज्योतिष शास्त्र के अच्छे विद्वान से कराना चाहिए| उन्हें विचार करने के लिए भी पुरा अवसर देना चाहिए| मेलापक विचार कोई बच्चों का खेल नहीं है यह एक गूढ़ विषय है, जिसका सावधानी पूवर्क विचार करना चाहिए तथा नक्षत्र मेलापक के साथ-साथ लड़के की कुडंली से स्वास्थ्य, शिक्षा, भाग्य, आयु, चरित्र एवं संतान क्षमता का विचार अवश्य है| कन्या की कुडंली से स्वा स्वास्थ्य, स्वभाव, भाग्य, आयु, चरित्र एवं प्रजनन क्षमता का विचार कर लेना चाहिए| बाधक योग—–
जन्म कुंडली में 6, 8, 12 स्थानों को अशुभ माना जाता है। मंगल, शनि, राहु-केतु और सूर्य को क्रूर ग्रह माना है। इनके अशुभ स्थिति में होने पर दांपत्य सुख में कमी आती है।
-सप्तमाधिपति द्वादश भाव में हो और राहू लग्न में हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा होना संभव है।
-सप्तम भावस्थ राहू युक्त द्वादशाधिपति से वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है। द्वादशस्थ सप्तमाधिपति और सप्तमस्थ द्वादशाधिपति से यदि राहू की युति हो तो दांपत्य सुख में कमी के साथ ही अलगाव भी उत्पन्न हो सकता है।
-लग्न में स्थित शनि-राहू भी दांपत्य सुख में कमी करते हैं।
-सप्तमेश छठे, अष्टम या द्वादश भाव में हो, तो वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है।
-षष्ठेश का संबंध यदि द्वितीय, सप्तम भाव, द्वितीयाधिपति, सप्तमाधिपति अथवा शुक्र से हो, तो दांपत्य जीवन का आनंद बाधित होता है।
-छठा भाव न्यायालय का भाव भी है। सप्तमेश षष्ठेश के साथ छठे भाव में हो या षष्ठेश, सप्तमेश या शुक्र की युति हो, तो पति-पत्नी में न्यायिक संघर्ष होना भी संभव है।
-यदि विवाह से पूर्व कुंडली मिलान करके उपरोक्त दोषों का निवारण करने के बाद ही विवाह किया गया हो, तो दांपत्य सुख में कमी नहीं होती है। किसी की कुंडली में कौन सा ग्रह दांपत्य सुख में कमी ला रहा है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लें।
विवाह योग के लिये जो कारक मुख्य है वे इस प्रकार हैं-
- सप्तम भाव का स्वामी खराब है या सही है वह अपने भाव में बैठ कर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है।
- सप्तम भाव पर किसी अन्य पाप ग्रह की द्रिष्टि नही है।
- कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा नही है।
- यदि सप्तम भाव में सम राशि है।
- सप्तमेश और शुक्र सम राशि में है।
- सप्तमेश बली है।
- सप्तम में कोई ग्रह नही है।
- किसी पाप ग्रह की द्रिष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर नही है।
- दूसरे सातवें बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हैं,और गुरु से द्रिष्ट है।
- सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में कोई क्रूर ग्रह नही है।
विवाह नही होगा अगर—–
- सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है।
- सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है।
- सप्तमेश नीच राशि में है।
- सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है।
- चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।
- शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।
- शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।
- शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो।
- शुक्र बुध शनि तीनो ही नीच हों।
- पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।
- सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।
विवाह में देरी—–
- सप्तम में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह वादे चलते रहते है,विवाह आधी उम्र में होता है।
- चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो,सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है।
- सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं।
- चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है,यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है।
- सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो,कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो,तो पुरुष विवाह में देरी होती है।
- सूर्य मंगल बुध लगन या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।
- लगन में सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है।
- महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता है।
- राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।
विवाह का समय—–
- सप्तम या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
- कन्या की कुन्डली में शुक्र से सप्तम और पुरुष की कुन्डली में गुरु से सप्तम की दशा में या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
- सप्तमेश की महादशा में पुरुष के प्रति शुक्र या चन्द्र की अन्तर्दशा में और स्त्री के प्रति गुरु या मंगल की अन्तर्दशा में विवाह होता है।
- सप्तमेश जिस राशि में हो,उस राशि के स्वामी के त्रिकोण में गुरु के आने पर विवाह होता है।
- गुरु गोचर से सप्तम में या लगन में या चन्द्र राशि में या चन्द्र राशि के सप्तम में आये तो विवाह होता है।
- गुरु का गोचर जब सप्तमेश और लगनेश की स्पष्ट राशि के जोड में आये तो विवाह होता है।
- सप्तमेश जब गोचर से शुक्र की राशि में आये और गुरु से सम्बन्ध बना ले तो विवाह या शारीरिक सम्बन्ध बनता है।
- सप्तमेश और गुरु का त्रिकोणात्मक सम्पर्क गोचर से शादी करवा देता है,या प्यार प्रेम चालू हो जाता है।
- चन्द्रमा मन का कारक है,और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।
राहु तथा केतु गृह–
मंगल का सप्तम में प्रभाव—
मंगली दोष के उपाय—-
सातवें भाव का अर्थ—-
सातवां भाव और पति पत्नी—-
स्त्री कुन्डली में ग्रह-फ़ल—
House | Sun | Moon | Mars | Mercury | Jupiter | Venus | Saturn | Rahu | Ketu |
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1st | क्रोधी | अल्पायु | विधवा | भाग्यवान | परिव्रता | सुखी | बांझ | नि:संतान | दुखी |
2nd | गरीब | धनी | नि:संतान | धनी | धनी | भाग्यवान | दुखी | गरीब कपटी | चिंतित |
3rd | संतान अच्छी | सुखी | भाई नही | संतान सहित | अच्छे भाई | धनी | होशियार | धनी | रोगी |
4th | रोगी | दुर्भागिन | दुखी | अच्छे घरवाली | सुखी | सुखी | करुणावाली | रोगी | माता को कष्ट |
5th | पुत्र से दुखी | अच्छी संतान | नि:संतान | समझदार | कलाकुशल | बहुसंतान | नि:संतान | नि:संतान | संतान से दुख |
6th | सुखी | रोगी | स्वस्थ | क्रोधी | संकटवाली | गरीब | शिल्पी | धनी | धनी |
7th | दुखी | पतिप्रिया | विधवा | पतिव्रता | इज्जतदार | पतिप्रिया | विधवा | दुखी | पति से दुखी |
8th | विधवा | दुखी | चरित्रहीन | कृतघ्न | रोगी | दुखी | दुखी | पति से दुखी | दुखी |
9th | धार्मिक | बेकार संतान | शुभकार्य | शिष्ट | धनी | आचारहीन | दुष्कर्मा | दुष्कर्मा | चिन्तित |
10th | उच्चाभिलाषी | धार्मिक | बेकार संतान | शुभकार्य | सुशील | धनी | आचारहीन | दुष्कर्मा | आचारहीन |
11th | धनी | कलाकुशल | धनी | पतिव्रता | शिष्ट संतान | अतिधनी | शिष्ट संतान | स्वस्थ | भाग्यवान |
12th | क्रोधी | अपंग | पापिनी | वैरागिन | शुभव्यय | शुभकार्य | मूर्ख | मक्कार | बीमार |
भाव | सूर्य | चन्द्र | मंगल | बुध | गुरु | शुक्र | शनि | राहु | केतु |
1st | बहादुर | सुखी | घायल | सुखी | विद्वान | सुखी | दुखी | बीमार | अय्याश |
2nd | गरीब | धनी | ऋणी | विद्वान | धनी | धनी | निर्धन | निर्धन | पापी |
3rd | स्वस्थ | सराहनीय | साहसी | विजयी | पापी | पापी | साहसी | साहसी | बहादुर |
4th | दुखी | सुखी | दुखी | सुखी | सुखी | सुखी | दुखी | घर में अशुभ | दुखी |
5th | कम संतान | बहुसंतान | नि:संतान | निकम्मी संतान | प्रतापी | बुद्धिमान | संतान से कष्ट | कुबुद्धि | निर्बुद्धि |
6th | विजयी | अल्पायु | विजयी | बीमार | अय्याश | रोगी | विजयी | बहादुर | शक्तिवान |
7th | कुलटा स्त्री | सुभार्या | पत्नी से कष्ट | धर्मात्मा | सुभार्या | अय्याश | कुलटा स्त्री | रोगी पत्नी | कुभार्या |
8th | अल्पायु | रोगी | शरारती | कलाकुशल | अल्पायु | आचारहीन | नेत्ररोगी | रोगी | कलहकर्ता |
9th | अधर्मी | धर्मी | आचारहीन | सुखी | धर्मी | तपस्वी | अधर्मी | वक्ता | कुलपालक |
10th | बहादुर | पितृहीन | कटुवक्ता | राजपुरुष | अधर्मी | स्त्रीपालक | गरीब | इज्जतदार | पिता को कष्ट |
11th | धनी | धनी | धनी | धनी | धनी | बुद्धिमान | धनी | विख्यात | धनी |
12th | मूडी | कामी | कुभार्या | गरीब | कपटी | रोगी | दुखी | कुजाति | दु:स्वभाव
|
कुण्डली में प्रेम विवाह—-
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परिवार में अशांति और कलह।
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बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना।
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आर्थिक परेशानियां।
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योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन।
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विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना।
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परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो।
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घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना।
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इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना।
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भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना।
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पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना।
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हर कार्य में विफलता।
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हर कदम पर अपमान।
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दिल और दिमाग का काम नहीं करना।
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घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना।
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शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना।
इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें।
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स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें।
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गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें।
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इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें।
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जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें।
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कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें।
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घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें।
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हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें।
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व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें औरउसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा।
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हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा।
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अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं।
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गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें।
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यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें।
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बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें।
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पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है।
अक्सर परिवार से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए मां पार्वती की आराधना की बात कही जाती है। शास्त्रों के अनुसार परिवार से जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या के लिए मां पार्वती भक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। मां पार्वती की प्रसन्नता के साथ ही शिवजी, गणेशजी आदि सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। अत: सभी प्रकार के ग्रह दोष भी समाप्त हो जाते हैं।
ज्योतिष के अनुसार कुंडली में कुछ विशेष ग्रह दोषों के प्रभाव से वैवाहिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में उन ग्रहों के उचित ज्योतिषीय उपचार के साथ ही मां पार्वती को प्रतिदिन सिंदूर अर्पित करना चाहिए। सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। जो भी व्यक्ति नियमित रूप से देवी मां की पूजा करता है उसके जीवन में कभी भी पारिवारिक क्लेश, झगड़े, मानसिक तनाव की स्थिति निर्मित नहीं होती है।
– मंगल का दान करें ।
– गुरुवार का व्रत करें।
– माता पार्वती का पूजन करें।
– सोमवार का व्रत करें।
– प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और पीपल की परिक्रमा करें।
किसी भी श्रद्धा-विश्वास-युक्त स्त्री के द्वारा स्नानादि से शुद्ध होकर सूर्योदय से पहले नीचे लिखे मन्त्र की १० माला प्रतिदिन जप किये जाने से घर में सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है तथा उसका सौभाग्य बना रहता है। किसी शुभ दिन जप का आरम्भ करना चाहिये तथा प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में विधिपूर्वक हवन करवा कर यथाशक्ति कुमारी, वटुक आदि को भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिये। इस मन्त्र के हवन में समिधा केवल वट-वृक्ष की लेनी चाहिये।
मन्त्रः- ” ॐॐ ह्रीं ॐ क्रीं ह्रीं ॐ स्वाहा।”
साथ ही नीचे लिखे “सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र” का प्रतिदिन कम-से-कम एक पाठ करना चाहिये। इससे सौभाग्य की रक्षा होती है।
सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र—
निशम्यैतज्जामदग्न्यो माहात्म्यं सर्वतोऽधिकम्।
स्तोत्रस्य भूयः पप्रच्छ दत्तात्रेयं गुरुत्तमम्।।१
भगवंस्त्वन्मुखाम्भोजनिर्गमद्वाक्सुधारसम्।
पिबतः श्रोत्रमुखतो वर्धतेऽनुरक्षणं तृषा।।२
अष्टोत्तरशतं नाम्नां श्रीदेव्या यत्प्रसादतः।
कामः सम्प्राप्तवाँल्लोके सौभाग्यं सर्वमोहनम्।।३
सौभाग्यविद्यावर्णानामुद्धारो यत्र संस्थितः।
तत्समाचक्ष्व भगवन् कृपया मयि सेवके।।४
निशम्यैवं भार्गवोक्तिं दत्तात्रेयो दयानिधिः।
प्रोवाच भार्गवं रामं मधुराक्षरपूर्वकम्।।५
श्रृणु भार्गव यत्पृष्टं नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
श्रीविद्यावर्णरत्नानां निधानमिव संस्थितम्।।६
श्रीदेव्या बहुधा सन्ति नामानि श्रृणु भार्गव।
सहस्त्रशतसंख्यानि पुराणेष्वागमेषु च।।७
तेषु सारतरं ह्येतत् सौभाग्याष्टोत्तरात्मकम्।
यदुवाच शिवः पूर्वं भवान्यै बहुधार्थितः।।८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य भार्गव।
ऋषिरुक्तः शिवश्छन्दोऽनुष्टुप् श्रीललिताम्बिका।।९
देवता विन्यसेत् कूटत्रयेणावर्त्य सर्वतः।
ध्यात्वा सम्पूज्य मनसा स्तोत्रमेतदुदीरयेत्।।१०
।।अथ नाममन्त्राः।।
ॐ कामेश्वरी कामशक्तिः कामसौभाग्यदायिनी।
कामरुपा कामकला कामिनी कमलासना।।११
कमला कल्पनाहीना कमनीय कलावती।
कमलाभारतीसेव्या कल्पिताशेषसंसृतिः।।१२
अनुत्तरानघानन्ताद्भुतरुपानलोद्भवा।
अतिलोकचरित्रातिसुन्दर्यतिशुभप्रदा।।१३
अघहन्त्र्यतिविस्तारार्चनतुष्टामितप्रभा।
एकरुपैकवीरैकनाथैकान्तार्चनप्रिया।।१४
एकैकभावतुष्टैकरसैकान्तजनप्रिया।
एधमानप्रभावैधद्भक्तपातकनाशिनी।।१५
एलामोदमुखैनोऽद्रिशक्रायुधसमस्थितिः।
ईहाशून्येप्सितेशादिसेव्येशानवरांगना।।१६
ईश्वराज्ञापिकेकारभाव्येप्सितफलप्रदा।
ईशानेतिहरेक्षेषदरुणाक्षीश्वरेश्वरी।।१७
ललिता ललनारुपा लयहीना लसत्तनुः।
लयसर्वा लयक्षोणिर्लयकर्त्री लयात्मिका।।१८
लघिमा लघुमध्याढ्या ललमाना लघुद्रुता।
हयारुढा हतामित्रा हरकान्ता हरिस्तुता।।१९
हयग्रीवेष्टदा हालाप्रिया हर्षसमुद्धता।
हर्षणा हल्लकाभांगी हस्त्यन्तैश्वर्यदायिनी।।२०
हलहस्तार्चितपदा हविर्दानप्रसादिनी।
रामा रामार्चिता राज्ञी रम्या रवमयी रतिः।।२१
रक्षिणी रमणी राका रमणीमण्डलप्रिया।
रक्षिताखिललोकेशा रक्षोगणनिषूदिनी।।२२
अम्बान्तकारिण्यम्भोजप्रियान्तभयंकरी।
अम्बुरुपाम्बुजकराम्बुजजातवरप्रदा।।२३
अन्तःपूजाप्रियान्तःस्थरुपिण्यन्तर्वचोमयी।
अन्तकारातिवामांकस्थितान्तस्सुखरुपिणी।।२४
सर्वज्ञा सर्वगा सारा समा समसुखा सती।
संततिः संतता सोमा सर्वा सांख्या सनातनी ॐ।।२५
।।फलश्रुति।।
एतत् ते कथितं राम नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
अतिगोप्यमिदं नाम्नां सर्वतः सारमुद्धृतम्।।२६
एतस्य सदृशं स्तोत्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।
अप्रकाश्यमभक्तानां पुरतो देवताद्विषाम्।।२७
एतत् सदाशिवो नित्यं पठन्त्यन्ये हरादयः।
एतत्प्भावात् कंदर्पस्त्रैलोक्यं जयति क्षणात्।।२८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं मनोहरम्।
यस्त्रिसंध्यं पठेन्नित्यं न तस्य भुवि दुर्लभम्।।२९
श्रीविद्योपासनवतामेतदावश्यकं मतम्।
सकृदेतत् प्रपठतां नान्यत् कर्म विलुप्यते।।३०
अपठित्वा स्तोत्रमिदं नित्यं नैमित्तिकं कृतम्।
व्यर्थीभवति नग्नेन कृतं कर्म यथा तथा।।३१
सहस्त्रनामपाठादावशक्तस्त्वेतदीरयेत्।
सहस्त्रनामपाठस्य फलं शतगुणं भवेत्।।३२
सहस्त्रधा पठित्वा तु वीक्षणान्नाशयेद्रिपून्।
करवीररक्तपुष्पैर्हुत्वा लोकान् वशं नयेत्।।३३
स्तम्भेत् पीतकुसुमैर्णीलैरुच्चाटयेद् रिपून्।
मरिचैर्विद्वेषणाय लवंगैर्व्याधिनाशने।।३४
सुवासिनीर्ब्राह्मणान् वा भोजयेद् यस्तु नामभिः।
यश्च पुष्पैः फलैर्वापि पूजयेत् प्रतिनामभिः।३५
चक्रराजेऽथवान्यत्र स वसेच्छ्रीपुरे चिरम्।
यः सदाऽऽवर्तयन्नास्ते नामाष्टशतमुत्तमम्।।३६
तस्य श्रीललिता राज्ञी प्रसन्ना वाञ्छितप्रदा।
एतत्ते कथितं राम श्रृणु त्वं प्रकृतं ब्रुवे।।३७
।।श्रीत्रिपुरारहस्ये श्रीसौभाग्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं।।
यदि विवाह हो जाये तो पति-पत्नी को मानसिक और दैहिक सुख का ऐसा अभाव होता है, जो उनके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ जाता हैं। वैद्यनाथ ने जातक पारिजात, अध्याय 14, श्लोक 17 में लिखा है, ‘नीचे गुरौ मदनगे सति नष्ट दारौ’ अर्थात् सप्तम भावगत नीच राशिस्थ बृहस्पति से जातक की स्त्री मर जाती है। कर्क लग्न की कुंडलियों में सप्तम भाव गत बृहस्पति की नीच राशि मकर होती है। व्यवहारिक रूप से उपयरुक्त कथन केवल कर्क लग्न वालों के लिए ही नहीं है, बल्कि कुंडली के सप्तम भाव अधिष्ठित किसी भी राशि में बृहस्पति हो, उससे वैवाहिक सुख अल्प ही होते हैं।
एक नियम यह भी है कि किसी भाव के स्वामी की अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर स्थिति से उस भाव के फलों का नाश होता है। सप्तम से षष्ठ स्थान पर द्वादश भाव- भोग का स्थान और सप्तम से अष्टम द्वितीय भाव- धन, विद्या और परिवार तथा उनसे प्राप्त सुखों का स्थान है। यद्यपि इन भावों में पाप ग्रह अवांछनीय हैं, किन्तु सप्तमेश के रूप में शुभ ग्रह भी चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र किसी भी राशि में हों, वैवाहिक सुख हेतु अवांछनीय हैं। चंद्रमा से न्यूनतम और शुक्र से अधिकतम वैवाहिक दुख होते हैं। दांपत्य जीवन कलह से दुखी पाया गया, जिन्हें तलाक के बाद द्वितीय विवाह से सुखी जीवन मिला।
पुरुषों की कुंडली में सप्तम भावगत बुध से नपुंसकता होती है। यदि इसके संग शनि और केतु की युति हो तो नपुंसकता का परिमाण बढ़ जाता है। ऐसे पुरुषों की स्त्रियां यौन सुखों से मानसिक एवं दैहिक रूप से अतृप्त रहती हैं, जिसके कारण उनका जीवन अलगाव या तलाक हेतु संवेदनशील होता है। सप्तम भावगत बुध के संग चंद्रमा, मंगल, शुक्र और राहु से अनैतिक यौन क्रियाओं की उत्पत्ति होती है, जो वैवाहिक सुख की नाशक है।
‘‘यदि सप्तमेश बुध पाप ग्रहों से युक्त हो, नीचवर्ग में हो, पाप ग्रहों से दृष्ट होकर पाप स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की स्त्री पति और कुल की नाशक होती है।’’सप्तम भाव के अतिरिक्त द्वादश भाव भी वैवाहिक सुख का स्थान हैं। चंद्रमा और शुक्र दो भोगप्रद ग्रह पुरुषों के विवाह के कारक है। चंद्रमा सौन्दर्य, यौवन और कल्पना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण उत्पन्न करता है।
दो भोगप्रद तत्वों के मिलने से अतिरेक होता है। अत: सप्तम और द्वादश भावगत चंद्रमा अथवा शुक्र के स्त्री-पुरुषों के नेत्रों में विपरीत लिंग के प्रति कुछ ऐसा आकर्षण होता है, जो उनके अनैतिक यौन संबन्धों का कारक बनता है। यदि शुक्र -मिथुन या कन्या राशि में हो या इसके संग कोई अन्य भोगप्रद ग्रह जैसे चंद्रमा, मंगल, बुध और राहु हो, तो शुक्र प्रदान भोगवादी प्रवृति में वृद्धि अनैतिक यौन संबन्धों की उत्पत्ति करती है।
ऐसे व्यक्ति न्यायप्रिय, सिद्धांतप्रिय और दृढ़प्रतिज्ञ नहीं होते बल्कि चंचल, चरित्रहीन, अस्थिर बुद्धि, अविश्वासी, व्यवहारकुशल मगर शराब, शबाब, कबाब, और सौंदर्य प्रधान वस्तुओं पर अपव्यय करने वाले होते हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों का गृहस्थ जीवन सुखी रह सकता है? कदापि नहीं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों की भांति शुभ ग्रहों की विशेष स्थिति से वैवाहिक सुख नष्ट होते हैं।
इन कुंडलियों को देखते हैं—
कुंडली 1
एक उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छे पद पर कार्यरत युवती का विवाह 21अक्टूबर 1996 को हुआ और फिर परस्पर वैचारिक मतभेद एवं अहं भाव के कारण दो वर्ष बाद नवंबर 1998 में तलाक हो गया, क्यों? सप्तम भावगत बृहस्पति, द्वादश भावगत सप्तमेश और सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि इसके दोषी हैं। राजवधू डायना की कुंडली के सप्तम भावगत शुक्र से यौन शक्ति का अतिरेक उत्पन्न हुआ, जिसके कारण उनके अनेक व्यक्तियों से यौन संबन्ध स्थापित हुए और अन्तत: अपनी मानसिक एवं दैहिक सुखों की अन्यत्र तृप्ति हेतु उन्होंने राजमहल के सुखों का त्याग कर दिया।
कुंडली 2
इसके द्वादश भावगत मिथुन राशिस्थ शुक्र के संग बुध और केतु से जातक का भोगवादी स्वभाव चरम सीमा पर है। सप्तम भाव पर तीन मित्र,सूर्य, मंगल और बृहस्पतिद्ध मगर दूषित ग्रहों की दृष्टि से सप्तम भाव पीड़ित है। उच्च राशिस्थ बृहस्पति की मूलत्रिकोण धनु राशि षष्ठ भाव में है, इसलिए षष्ठेश के रूप में बृहस्पति से लग्न भाव भी दूषित है और इसकी पंचम, सप्तम एवं नवम सभी दृष्टियां निष्फल है, जिसके कारण यह व्यक्ति विद्या, पुत्र, रोजगार और भाग्य समृद्धि से वंचित है। इसके अनेक युवतियों से अनैतिक यौन संबन्ध स्थापित हुए। इसने अपने घर-परिवार के स्थापन और व्यवसायिक कार्यों पर कभी ध्यान केन्द्रित नहीं किया, बल्कि अपना सारा धन शराब, शबाब और लाटरी-सट्टा के माध्यम से नष्ट कर दिया। इसका विवाह 40 वर्ष की उम्र में हुआ।
कुंडली 3
तमिलनाडू की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की कुंडली में सप्तम भावगत स्वगृही और पाप ग्रहों से मुक्त बृहस्पति से बलवान हंस योग, दशम भावगत उच्च राशिस्थ शुक्र से बलवान बलवान मालव्य योग और नवम भावगत सूर्य-बुध से बुध-आदित्य योग के रुप में अनेक राजयोग विद्यमान हैं, जो सामाजिक और राजनैतिक जीवन में धन, पद एवं प्रतिष्ठा देय हैं, मगर वैवाहिक सुख नहीं। इतनी सुदृढ़ कुंडली होने पर भी जयललिता जी अविवाहित हैं। इसके दोषी केवल सप्तम भावगत देव गुरु बृहस्पति है। 40 वर्षीय अभिनेत्री मनीषा कोईराला जल्द ही शादी करने जा रही हैं। उनकी कुंडली में भी सप्तम भावगत बृहस्पति है और जो बहुत देर से शादी का योग बनाता है। गायिका अनुराधा पौड़वाल की कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति और उस पर मंगल एवं शनि की दृष्टि है, वह दो विवाहों के उपरांत भी वैवाहिक सुखों से वंचित है।
कुंडली 4
राजवधू डायना की कुंडली के सप्तम भावगत शुक्र से यौन शक्ति का अतिरेक उत्पन्न हुआ, जिसके कारण उनके अनेक व्यक्तियों से यौन संबन्ध स्थापित हुए और अन्तत: अपनी मानसिक एवं दैहिक सुखों की अन्यत्र तृप्ति के लिए उन्होंने राजमहल के सुखों का त्याग कर दिया। स्वग्रही शुक्र के कारण ही उनका विवाह प्रिंस चाल्र्स से हुआ। यही नहीं चतुर्थ भाव में चंद्र केतु की युति ने जहां डायना को मानसिक रूप से परेशान रखा वहीं उनके पारिवारिक जीवन को भी नष्ट किया। कुटुंब भाव का स्वामी बृहस्पति नीच का होकर तृतीय भाव में शनि के साथ बैठा है जिसने डायना के पति के साथ विवाहके बाद वैचारिक मतभेद बनाए रखने में मदद की। शनि की तृतीय दृष्टि पंचम यानी बृहस्पति के घर पर है जिसके कारण उसकी प्रेम संबंधी अपेक्षाएं कभी पूरी नहीं हो सकीं और वह सच्चे प्रेम को पाने के लिए भटकती रही।
दाम्पत्य सुख और मंगल ग्रह—
सामान्यतः लोग मंगल के नाम से भयभीत रहते हैं। विशेषकर जब कुण्डली को मंगली या मंगलीक कह दिया जाता है। जबकी
मेरे अनुभव में मंगल जैसा मंगलकारी ग्रह कोई नहीं हो सकता। तभी तो कहा गया है-
धरणी गर्भ संभूतं पिद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं मंगलं प्रणाम्यहम।।
अर्थात्- जो धरती के गर्भ से उत्पन्न हुये हैं, जिनकी प्रभा बिजली के समान लाल है। जो कुमार हैं तथा अपने कर में शक्ति
लिये हुये हैं उन मंगल को मैं नमस्कार करता हूँ।
मानव को सफलता हेतु जितना आवष्यक परिश्रम हैं उतनाही आवष्यक हमारा घरेलु योगदान हैं ,हमे हमारे घर का वातावरण कब शांत तथा सोहार्दपूर्ण मिल सकता है, जब हमारी अघोगिनी सुलक्षणा हो, गृहस्थ धर्म जानती हो, पति को उसके हर सुख-दुख में साथ देने वाली हो, त्याग, सेवा, धैर्य, क्षमा तथा सहिष्णुता जानती हो और इनके द्वारा पती को हरदम उन्नती कि और अग्रेसर करने का प्रयास करती हों।
सौरमण्डल की प्रथम राषि मेष का स्वामी मंगल है। मेष राषि अग्नि तत्व राषि है। अतएव इसका स्वामी मंगल भी अग्नि ग्रह है। यह शौर्य का कारक है। यह सेनापति का भी कारक है। इसका रंग सिंदूरी है। यह भूमि का भी कारक है। ‘मंगल’ का नाम सुनते ही मनुष्यो में हलचल मच जाती है क्योंकि इसके द्वादष, प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम भाव में होने पर जातक या जातिका मंगली कहलाते हैं। मंगली प्रभाव के संबध में प्रथक से विवेचना की जायेगी। प्रस्तुत आलेख में मंगल का दाम्पत्यसुख पर क्या अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा उसका ही विवेचन किया जा रहा है।विवाह एवं दाम्पत्य सुख हेतु सप्तम भाव,सप्तमेश,कारक ग्रह इन के साथ साथ सम्पम भाव में उपस्थित ग्रह भी सत्य को उजागर करते है, महर्षि पाराशर के अनुसार सप्तम भाव विवाह, यौन संबंध और पति-पत्नी के आपसी विचारों को प्रस्तुत करता हैं, कुछ ग्रह सप्तमेश होकर परम सुख प्रदान करते तो कुछ निस्टता प्रदान करता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का ज्यिोतीष शास्त्र के सभी विद्वानों का मानना है कि सप्तम भाव का मंगल अशुभ फलदाई होता है, ऐसे जातक को स्त्री झगडालु, रोगी,कुरूप,पराजित कराने वाली, कुलक्षणी निर्धन तथा दुराचरणी मिलती हैं। जिस कारण जातक का दाम्पत्य जीवन दुख भरा होता हैं, मिथुन,कन्या,वृच्छिक,मकर,सिंह तथा धनु राशि वाले जातकों के जन्म कंुडली में सप्तम भाव में मंगल हो तो ऐसे जातकों की स्त्री संताप प्राप्ती हेतु व्याभिचार करती हैं, मंगल यदि कर्क या मिन का हो तो ऐसे जातक की स्त्री का स्वभाव बहुत ही कठोर होता हैं। जिस कारण जातक का दांपत्य जीवन दुःखदाई हो जाता हैं, ऐसे जातकोकी रूचि अपके से कम उम्र की कन्याओं में होती है, जातक के जन्म कुंडली में मंगल पर यदि शनि की दृष्टि हो तो ऐसे जातक रति क्रिया में उटपंताग हरकते करते हैं जिस कारण जातक के पत्नी की अपने पति में रूची खत्म हो जाती हैं तथा ऐसे जातक का दांपत्य जीवन बदतर बन जाता हैं। सप्तम भाव का मंगल जातक को प्रबल मंगली बनाता तथा ऐसे जातक को मंगली लडकी से ही विवाह करना चाहिए जिससे उनका दांपत्य जीवन सुखि रहता हैं।
लग्ने व्यये च पाताले-जामित्रे-चाष्टमे,
कुजे कन्या मर्तृ विनाशाय भर्ता कन्या निवाशकः।।
मंगल के मारकत्व हेत यह श्लोक प्रचलित हैं अर्थात जिस जातक के जन्म कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तमया द्वादश भाव में मंगल विराजमान हो तो ऐसे में कन्या के पति की मृत्यु निश्चित हैं इस योग के अनेकों अपवाद भी हैं, जातक के जन्म कुंडली में लग्न में मेष, चतुर्थ में वृश्चिक सप्तम में मकर, अष्टम में कर्क तथा द्वादश भाव में धनु राशि हो तब वैधन्य योग नहीं बनता तात्पर्य सप्तम भाव य मंगल जातक का वैवाहिक जीवन सामान्य नहीं रखता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का विचार उनकी रूची, प्रकृति समानता आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन कर सुखमय दाम्पत्य जीवन हेतु कुछ नियम बना रखे हैं।
1. यदि किसी जातक/जातिका की अन्य कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में हो तो जातक किसी रजस्वला स्त्री से
संभोग करता है। कतिपय विद्वान ज्योतिषियों ने महिला की कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में होने पर बांझ होना कहा है। हमारे
अनुभाव में आया है कि पुरुष की कुण्डली में मंगल द्वितीयेष षष्टेष या अष्टमेष होकर सप्तम भाव में हो तो पत्नी बांझ या
गर्भ को गिराने की इच्छुक रहती है। महिला के सप्तम् भाव में मंगल उसे बांझ बनाता है। यह शोध का विषय है। मंगल रज
का कारण हैं षिषु पर मांस, मंगल ग्रह से ही चढ़ता है।
2. यदि जातक/जातिका की कुण्डली में मंगल एवं बुध सम-विषम राषियों में बैठकर एक दूसरे को देखे तो पुरुष
जातक नपुंसक तथा जातिका षण्डत्व दोष से पीड़ित होंगे। यहां सम विषम राषियों से तात्पर्य यथा मंगल मेष का हो तथा
बुध कर्क राषि का हो। यह योग जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में घटित हो सकता है। स्त्रियों में आयुर्वेद के अनुसार षण्डत्व
दोष होता है। इस दोष से पीड़ित स्त्री में ठण्डापन होता है। वह पुरूष संग के लिये उत्तेजित नहीं होती हैं। पुरुष उसके इस
दोष को जान नहीं पाता है, वह यौन क्रिया के लिये उत्कृष्ठित नहंीं रहती।
3. इसी प्रकार का फलित मंगल और सूर्य एक दूसरे को देखे अर्थात मंगल और सूर्य समसप्तक हो तो भी पुरुष से
नपंुसकता के लक्षण रहते हैं। इस योग में मंगल और सूर्य दोनों ही अग्नि ग्रह होते हैं। जो पुरुषत्व की ऊर्जा को कम करते
हैं। संभव है कि जातक शरीर से हृष्ठ-पुष्ठ हो परन्तु उसकी जननेंद्रिय में उत्तेजना कम रहती है।
4. यदि किसी महिला की जन्म कुण्डली मे सप्तम भाव में मंगल की राषि या मंगल का नवांष हो तो जातिका का
पति पर स्त्री गामी हो सकता है। क्योंकि पति पूर्ण पौरुष वाला होता है। जातिका को इस प्रकार का अनुभव मंगल की महादषा
में देखने को मिल सकता है? यदि यह दषा विवाह से पूर्व या जन्म से पूर्व ही निकल गयी हो तो अंतरदषा। प्रत्यंतर दषा
में संभव है। जातिका का लग्नेष कमजोर होगा तो पति उसको दबाकर रखेगा तथा उसकी यौन लिप्तता में वृद्धि रहेगी।
5. मंगल सप्तम भाव में हो तो जीवन साथी की मृत्यु 30 वर्ष की आयु में हो सकती है। यदि मंगल 10 से 20 अंष
के मध्य हो कथित योग घटित हो सकता है। मंगल विच्छेदात्यक ग्रह है अतएव विवाह विच्छेद की परिस्थितियाँ बन सकती
है। पति-पत्नी अलग-अलग रह सकते हैं। मंगल के साथ सूर्य या बुध या दोनों हों तो विवाह में एक साल के अंदर ही उक्त
फलित में से कोई एक फल अवष्य अनुभव में आयेगा।
6. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के
लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं। किन्तु मैं मकर राषि में चंद्र के ऐसे फल से सहमत नहीं हँू। इसी राषि में मंगल उच्च का तथा शनि स्वक्षेत्री होता है। जो चरित्र नहंी गिरने देता है।पाठक शोध करें।
7. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तमेष होकर 6, 8 या 12 वें भाव में हो तथा शनि सूर्य एक साथ कहीं भी हो एवं लग्न भाव में राहू हो तो जातिका शीध्र ही निष्चित रूप से विघवा हो जाती है। सप्तमेष का जिस भाव में बैठना सप्तम भाव के फल को नष्ट
करता हैं वैधव्य कारक राहू का लग्न में होना भी सप्तम भाव के फल को बिगाड़ता है। सौर मंडल की प्राकृतिक कुण्डली में सूर्य तुला राषि में नीच का होता है उसका शनि के साथ बैठना भी उत्तम फल नहीं देता है। क्योंकि दोनों परस्पर शत्रु ग्रह है।
8. किसी जातिका की द्विस्वभाव लग्न हो तथा मंगल और चन्द्र दोनों सम सप्तम होकर लग्न सप्तमभाव में स्थित होकर परस्पर देख रहे हो तो जातिका शीध्र ही विधवा हो जाती है। मंगल चंद्र का सम सप्तक होना दाम्पत्य सुख में बाधक होता है।
9. यदि किसी पुरूष जातक की जन्मकुण्डली में मंगल तथा सूर्य कर्क राषि के होकर सप्तम भाव में हो तो जातक की पत्नी उसके निर्देष पर पर पुरूष से यौन संम्बंध स्थापित करती हैं। कर्क राषि में सूर्य अष्टमेष होकर मंगल से पुष्टि करता है। अष्टमेष जहां भी बैठता है उस
भाव की शुचिता को शंकास्पद बना देता है। सुखेष का सप्तम भाव में स्थित होना भी अधिक सुखद स्थिति नहीं है। दोनों में संबध विच्छेद की जिम्मेदारी भी मंगल सूर्य पर रहती है। जातक धन या पुत्र प्राप्ति के उद्देष्य से अपनी पत्नी से इस प्रकार का अवैध कृत्य कराता है।
10. किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल तथा शनि एक दूसरे के नवांष मे हो तो जातिका बहुत अधिक कामुक रहती है। यहां तक की एक महिला दूसरी महिला के साथ समलैंगिक संबन्ध रखती हैं पर पुरुष गामिनी होना तो उसके लिये सहज है। (मंगल और षनि एक दूसरे की राषि में हो तब भी कथित फल अवष्य घटित होता है। यदि मंगल और शनि एक दूसरे के नक्षत्र में हो तब भी समलैंंिगकता पुर्व
पर पुरूष गामिनी होते देखा गया है।
11. यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तम या अष्टम भाव में दो पापग्रहों के साथ स्थित हो परन्तु इस योग में सप्तमेष सप्तम भाव में न हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु विवाह के पष्चात दो से पांच वर्ष के अन्दर हो जाती हैं यही योग किसी महिला की कुण्डली में भी हो तो उसके साथ भी यही फलित होगा। ग्रहों की बलवत्ता भी फल कथन के लिये विचार में रखना अत्यंत आवष्यक हैं यदि कोई कुयोग जिस प्रकार लिखा गया है। उसी प्रकार हो तब तो जीवन कथित फल अवष्य घटित होते हैं परन्तु किसी कुयोग पर शुभ ग्रह के फल के अवसर जुटाकर पूर्णतः घटित नहीं होने देगा। उसी प्रकार कोई सुयोग कुण्डली में हो तथा पाप ग्रह उसे प्रभावित कर रहे हो तो पष्चात् हताष हो जाने पर मिलेगा। यह सर्वत्र विचारणीय है।
12. इसी प्रकार मंगल तथा शुक्र किसी जातिका की जन्म कुण्डली में समसप्तक हो तो भी इस प्रकार के योग वाली दो महिलाओं के मध्य समलैंगिक संबध रहते हैं। मंगल और शुक्र दोनों ही समसप्तक होने पर महिला जातकों को यौन क्रीड़ा के लिये उत्तेजित करते हैं। दुष्चरिचत्र होना अंसभव नहंी है। पर पुरुष से अतिषय कामुकता की पूर्ति हेतु संबंध रखती है। पुरुष के षिषन का भी चुंबन तक कर लेती हैं।
13. यदि किसी जाति का मंगल, वृष राषि को हो तो भी जातिका में अतिषय कामुकता रहती है। यह योग किसी भाव में हो जातिका को यौन संतुष्टि के लिये उकसाता हैं कोई भी पुरूष जातक समान्य स्तर तक अपनी पत्नी की यौन संतुष्टि कर सकता है। फलतः स्त्री अपनी तृप्ति के
लिये पर पुरुष का या अन्य स्त्री के साथ कृत्रिम साधनों से काम तृप्ति करती है।
14. मंगल, सूर्य तथा राहू लग्न में स्थित हों तो जीवन साथी की मृत्यु शीध्र हो जाती है। या लम्बें समय के लिये दोनों के यौन सम्पर्क टूट जाते हैं साथ ही यदि द्वितीय भाव में शुक्र स्थित हो तो जातक के किसी अन्य स्त्री/पुरूष से अनैतिक यौन सम्बन्ध रहे।
15. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक
राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन में मन व प्रेम की विशेष भूमिका रहती हैं। यदि मंगल दोष विद्यमान हो लेकिन अपने मन को नियंत्रित कर जीवन साथी से प्रेम भाव बढ़ा दिया जावे तो दाम्पत्य जीवन अच्छा रहता हैं। लेकिन प्रतिरोध की स्थित अशुभ ही करती हैं। अतः मन के कारक चंद्र व शुक्र जो प्रेम कारक हैं से भी मंगल दोष बन रहा हो तो जातक अपने अंह स्वभाव, जिद्दिपन एव जीवनसाथी से प्रेम की कमी, घृणा के कारण मंगल दोष अपना प्रभाव अवश्य दिखाता हैं।
जिस जातक की जन्म कुंडली, लग्न/चंद्र कुंडली आदि में मंगल ग्रह, लग्न से लग्न में (प्रथम), चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों में से कहीं भी स्थित हो, तो उसे मांगलिक कहते हैं।
गोलिया मंगल ‘पगड़ी मंगल’ तथा चुनड़ी मंगल : जिस जातक की जन्म कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12वें भाव में कहीं पर भी मंगल स्थित हो उसके साथ शनि, सूर्य, राहु पाप ग्रह बैठे हो तो व पुरुष गोलिया मंगल, स्त्री जातक चुनड़ी मंगल हो जाती है अर्थात द्विगुणी मंगली इसी को माना जाता है।
मांगलिक कुंडली का मिलान : वर, कन्या दोनों की कुंडली ही मांगलिक हो तो विवाह शुभ और दाम्पत्य जीवन आनंदमय रहता है। एक सादी एवं एक कुंडली मांगलिक नहीं होना चाहिए।
मंगल-दोष निवारण : मांगलिक कुंडली के सामने मंगल वाले स्थान को छोड़कर दूसरे स्थानों में पाप ग्रह हो तो दोष भंग हो जाता है। उसे फिर मंगली दोषरहित माना जाता है तथा केंद्र में चंद्रमा 1, 4, 7, 10वें भाव में हो तो मंगली दोष दूर हो जाता है। शुभ ग्रह एक भी यदि केंद्र में हो तो सर्वारिष्ट भंग योग बना देता है।
शास्त्रकारों का मत ही इसका निर्णय करता है कि जहाँ तक हो मांगलिक से मांगलिक का संबंध करें। िफर भी मांगलिक एवं अमांगलिक पत्रिका हो, दोनों परिवार अपने पारिवारिक संबंध के कारण पूर्ण संतुष्ट हो, तब भी यह संबंध श्रेष्ठ नहीं है। ऐसा नहीं करना चाहिए।ऐसे में अन्य कई कुयोग हैं। जैसे वैधव्य विषागना आदि दोषों को दूर रखें। यदि ऐसी स्थिति हो तो ‘पीपल’ विवाह, कुंभ विवाह, सालिगराम विवाह तथा मंगल यंत्र का पूजन आदि कराके कन्या का संबंध अच्छे ग्रह योग वाले वर के साथ करें। मंगल यंत्र विशेष परिस्थिति में ही प्रयोग करें। देरी से विवाह, संतान उत्पन्न की समस्या, तलाक, दाम्पत्य सुख में कमी एवं कोर्ट केस इत्यादि में ही इसे प्रयोग करें। छोटे कार्य के लिए नहीं। विशेष : विशेषकर जो मांगलिक हैं उन्हें इसकी पूजा अवश्य करना चाहिए। चाहे मांगलिक दोष भंग आपकी कुंडली में क्यों न हो गया हो फिर भी मंगल यंत्र मांगलिकों को सर्वत्र जय, सुख, विजय और आनंद देता है। निम्न 21 नामों से मंगल की पूजा करें :-
1. ऊँ मंगलाय नम:
2. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
3. ऊँ ऋण हर्वे नम:
4. ऊँ धनदाय नम:
5. ऊँ सिद्ध मंगलाय नम:
6. ऊँ महाकाय नम:
7. ऊँ सर्वकर्म विरोधकाय नम:
8. ऊँ लोहिताय नम:
9. ऊँ लोहितगाय नम:
10. ऊँ सुहागानां कृपा कराय नम:
11. ऊँ धरात्मजाय नम:
12. ऊँ कुजाय नम:
13. ऊँ रक्ताय नम:
14. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
15. ऊँ भूमिदाय नम:
16. ऊँ अंगारकाय नम:
17. ऊँ यमाय नम:
18. ऊँ सर्वरोग्य प्रहारिण नम:
19. ऊँ सृष्टिकर्त्रे नम:
20. ऊँ प्रहर्त्रे नम:
21. ऊँ सर्वकाम फलदाय नम:
विशेष : किसी ज्योतिषी से चर्चा करके ही पूजन करना चाहिए। मंगल की पूजा का विशेष महत्व होता है। अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की गई पूजा प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है..
मंगल दोष/ योग निवारणार्थ…..कृपया मंगलनाथ मंदिर , जो उज्जैन ( मध्य प्रदेश ) में स्थित हे ..वहा जाकर विशेष रूप से “भात पूजा” अवश्य करवाएं…इस पूजा से शादी में विलम्ब/ कर्जमुक्ति..आदि में लाभ मिलता हे..अतः ऐसे जातक शीघ्र लाभ हेतु मंगलनाथ मंदिर आकर भात पूजा जरुर करवाएं..संपर्क—पंडित दयानंद शास्त्री-०९०२४३९००६७
१ विवाह गृहस्थ जीवन का प्रवेश द्वारा है| देश व समाज का भविष्य को सजने संवारने की विधा है|पति-पत्नी का परस्पर प्रगाढ प्रेम बच्चों मे स्नेह, संवेदना परस्पर सहयोग व सहायता के गुणो को पुब्ट करता है| भावी पीढ़ी में सहजता सजगता व सच्चाई देश के भविष्य को उज्ज्वल बनती है| वैवाहिक जीवन में सभी प्रकार के तनाव व दबाव सहने की क्षमता का आंकलन करने के लिए भारत में कुंडली मिलान विधा का प्रयोग शताब्दीयो से प्रचलित है|
( 2 ) यदि सप्तम भाव हीनबली है तो उसका मिलान ऐसी कुंड़ली से जो उस अशुभता का प्रतिकार कर सके| उदाहरण के लिए मंगलीक कन्या के लिए मंगलिक वर का ही चयन करें| कुंड़लियो का बल परास्पर आकषर्ण देह व मन की समता जानकर किए गए विवाह दामपत्य खुख व स्थायित्व को बढाते हैं|
उदृाहरण >>के लिए यदि वर या कन्या की कुंड़ली में शुक्र अथवा मंगल सप्तमस्थ है तो इसे यौन उत्तेजना व उदात संवेगों का कारक जानें| वहां दूसरी कुंड़ली के सप्तम भाव में मंगल या शुक्र की उपस्थिति एक अनिवार्य शर्त बन जाती है| यदि असावधानी वश सप्तमस्थ बुध या गुरु वाले जातक से विवाह हो जाए तो यौन जीवन में असंतोष परिवार में कलह, कलेश व तनाव को जन्म देता है| इतिहास ऐसें जातकों से भरा पड़ा है जहां अनमेल विवाह के कारण परिवारिक जीवन नरक सरीखा होगा|
( ३ )लग्न में मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि होने पर जातक विवाहेतर प्रणय संबंधो की और उन्मुख होता है| कारण उस अवस्था में सप्तम भाव बाधा स्थान होता हैं| अतः यौन जीवन में असंतोष बना रहता है| यदि दशम भाव का संबंध गुरु से हो तो जातक दुराचार मे संलिप्त नहीं होता|
काम सुख के लिए अभिमान,अंहता यदि विष तो दैन्यता, विनम्रता, सेवा सहयोग की भावना, रुग्ण दंपत्य को सवस्थ व निरोग बनाने की अमृत औषधीहै|मधुर गृहस्थ जीवन कैसे बनाएँ यह प्रत्येक गृहस्थी के लियें ज्योतिषीय द्ष्टि से चितन करना अवश्यक हैं| गृहस्थ जीवन काम-वासना या स्वेच्छाचारिता के लिए नहीं हुआ करता यह एक पवित्र बंधन होता है जिसमें आत्मवंश की वल्ली को निरन्तर बनाने के साथ-साथ लौकिक एंवं पारपौकिक सुख की कामना छिपी रहती हैं| विवाह से पूर्व प्रायः जीवन साथी बचपन से विवाह तक अलग-अलग परिवार के सदस्य होते हैं और बच्चपन के संस्कार प्रायः स्थाई भाव जमाएं रहते हैं, ये संस्कार और स्थाई भाव समय के साथ बदल नहीं पाते और गृहस्थी को नारकीय या स्वणिैम बना डालते है|
ज्योतिषिय गृह योगों के अधार पर एक दुसरे की अपेक्षाओं को समझकर चला जाय तो गृहस्थ जीवन मधुर बना रहता है|
गृहस्थ जीवन के वैसे तो कईं भाग महत्वपूर्ण होते है लेकिन अभिव्यक्ति एंव चितन ही सबसे महत्वपूर्ण होते है छोटी-छोटी बातों पर आशंका करना या अंतर्मन में कुछ और होते हुएं वाणी से कुछ का कुछ कह देना दामपत्य जीवन में बिगाड़ ला देता हैं|
यहां पर कुछ ज्योतिषीय योग दे रहा हूँ| ( 1 ) दादश भाव में धनु या वृश्चिक का राहु हो, चन्द्र शनिदेव सप्तम, दितीय, लग्न या नवम में हो तो एक दूसरे के प्रति भा्तिया, आशंकाएं तथा आत्मभय पैदा करवा देतें हैं|
( 2 ) नीच के गुरु, चन्द्र मीन में बुध-शनि भी अनावश्यक प्रंसगो में आंशकाए खडीं करवा देता है यह योग स्त्री कि कुंडली में हो तीव्रतर प्रभाव डालता हैं|
( 3 ) तीसरे एवं पाचवें भाव का अधिपति सूर्य शनि मंगल में से कोई भी हो तथा नीचस्थ होकर गुरु से संबध कर रहें हो तो अपने ही परिजनो के यवहार में दोहरापन रहने से गृहस्थ जीवन में आशांति हो जाती है|
(4) दुसरे तीसरे स्थान पर नीचस्थ ग्रहो का बैठना अप्रिय भाषण का कारण होता है लेकिन सूर्य वास्तविकता को उजागार करवाता हैं चन्द्रमा चंचलता पैदा करवाकर कुत्रिम व्यवहार करवा देता है जिसकी पोल कुछ समय में ही खुल जाती है और स्वंय को लज्जित भी करवा देती हैं|
(5)सत्तमेश, लग्नेश का नीचस्थ शुक्र से संबंध बना हो या स्वंय शुक्र ही इनका स्वामी हो और नवमांश में हीनाश मंगल के साथ संबंध कर रहा हो तो अंतरंग संबधों को लेकर शीतयुद्ध चलता रहता है तथा इन्ही की महादशा एंव अन्तरदशा आ जाय तब भंयकर विस्फोट की आंशका बन जाती है|
ऐसी स्थती में पुरुष के ग्रह हो तो स्त्री को वयर्थ भातिंयो से बचना चाहिए ऐसी स्थती में सोमवार को भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिएं|
(6 )मंगल-चन्द्रमा कर्क राशि में एक साथ हो तो दोहरी बातें करने के कारण गृहस्थ जीवन में निराधार आशंकाए खड़ी हो जाती हैं
(7 )मीन राशि में बुध के साथ शनि या केतु दुसरे,तीसरे भाव में हो आधी बात छोड़कर रहस्य बनायें रखने कि आदत हो जाती है|
(8 )गुरु – शुक्र मकर राशि में हो तो दोहरी वार्ताओ में दक्ष बनाता है तथा रहस्यवादी होकर भी बहुत व्यवहारिक व्यक्तित्व दिखाईं देता है जबकि आंतरिक रुप से स्वार्थ पराकाष्ठा होती है पुरुष के योग तो संकारात्मक परिणामकारी होते है| लेकिन स्त्री वर्ग को असुरक्षा सी महसुस करवाता है|
( 9 ) दुसरें भाव में पापगृह हो तथा बारहवें भाव में शुभ गृह हो या देखते हो तो जीवन साथी को समझने में भूल करवा देता हैं|
( 10 ) चतुर्थ भाव में शुक्र या चंन्द्रमा नीच राशि का हो तो घर का सुख की क्षति करते है
( 11 ) ब्यव भाव में वृषभ का शनि बकि् हो अब्टम भाव में चंन्द्र,राहु हो गोचर का शनि जब भी मेषराशि पर भ्रमण करेगा उस समय गृह कलह लड़ाई झगड़े.दुर्घटना आदि के योग बनतें है| विवाह शब्द वि+वाह से बना हैं| वि विशेष या महत्वपूर्ण विशिष्ट के लिए प्रयुक्त हुआ है तो वाह का अर्थ हैं वहन करना ,ढोना ,बोझ उठाना यथा माल वाहक=माल ले जाने वाला, निवाँह=गुजारा करना प्रवाह= बहाव आदि|
कुछ जातक अज्ञानता वश विवाद तथा विवाह का अन्तर भुल जाते है| वे शायद यह नही जानते ‘द’का अर्थ है दाता तथा ‘ह’ का अर्थ है हरणं करने वाला मिटाने वाला| जहां विवाद में दुसरे के दोषों व दुरबॅलता को उजागर कर उसे शत्रु मानते हुए नीचे दिखाने का प्रयास किया जाता है| इसके विपरीत विवाह में दुसरे के दोष व दुबॅलताओ की अनदेखी कर उन्हे छिपाकर, स्नेह व आत्मीयता के साथ उसे सम्मान दिया जाता है| विवाह में तो सभी विषमता दुरबलता व दोष का हरण है, स्ने हपूण निरकरण है या फिर उन्हें सवीकार कर धैयपूर्वक सहना है|
रति या मैथुन को विद्धानो ने पाशविक कर्म माना हैं| उनका कहना है पशु पक्षी तो मात्रा विशेष ॠतु में ही कामोन्मुख होते हैं किन्तु मनुष्य तो शायद पशुओं से भी हीन है| प्राचीन मनीषियो ने गहन चिन्तन मनन के बाद काम को नियंत्रित कर विवाह प्रणाली को विकासित किया समाज में सुख शान्ति बनाए रखने के लिए अगम्यागमन का निषेध किया| परस्त्री आसक्ति की निन्दा की| इतनी ही नही विवाह को धार्मिक सामाजिक समारोहों के रूप में मान्यता दी उसे गरीमा मंडित किया पत्नी को धर्मपत्नी की संज्ञा दी |यज्ञ व सभी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को बराबर का स्थान दिया उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी गई विवाह में वर को विष्णु तथा वधु को लक्ष्मी का रूप मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा आज भी प्रचलित है| राम विवाह, शिव विवाह राधा विवाह का शास्त्रो में विस्तार पूवर्क किया गया है|
विवाह गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्धार है| घर परिवार समाज की ईकाई है घर के योगदान से समाज मजबुत होता है तो समाज के सहयोग व सहायता से परिवार में सुख शान्ति बढ़ती है बालक के जन्म से परिवार बढ़ता है तो समाज का भविष्य भी सुरक्षित होता है |बच्चों के पालन -पोषण के लिए धर परिवार में स्नेह सौहार्दपूर्ण वातावरण आवश्यक है| किसी विवाह का टूटना मात्र दो ब्यक्तीयो का अलग हो जाना नहीं बल्कि परिवार व समाज का बिखराव है| बचपन की बगिया में कंटीली झाड़ियों का उगना जिससे न केवल वर्तमान आहत होता है बल्की भविष्य भी मुरझा जाता है| जब कभी विवाह का प्रशन हो तो ज्योतिषी का फर्ज हैं कि वह विवाह का महत्त्व स्वयं समझें व दुसरे को भी समझाएं|
मानव मन की कामेच्छा को नियमित व नियंत्रित करने के लिए ही विवाह संस्था बनायी गईं| योग एक प्रकार से कामेच्छा को नियमित एवं नियंत्रण करने की प्रकिया ही है| लेकिन अगर सभी योगी बन जाएंगे तो सृस्टी के विस्तार जीवन मत्यु की प्रकि्या में व्यवधान आ जाएगा| इसलिये समाज में विधिपूर्वक शुक्र को नियंत्रण करने के लिए मनीषियों ने विवाह प्रकि्या का सृष्टि में प्रावधान किया| प्रत्येक व्यक्ति के लिए कामेच्छा की नियमित व निमन्त्रण में रखना उसके अपने वश में नहीं है इसकों ज्यादा नियन्त्रित करने में यह अनियंत्रित हो जाती है और दुरचार को बढावा मिलता है| उस स्थती में व्यक्ति और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता| समाज में यौन दुराचार पर अंकुश लगाना एक स्वस्थ व सुखी समजा निमार्ण करना ही इसका उद्देश्य था
भावी संतती देह व मन से स्वास्थय व सबल हो इसके लिए विवाह पूर्व शौर्य प्रदर्शन तथा बुद्धि बल परीक्षा या स्पधाँ का आयोजन एक सामान्य बात थी| कन्या को भी विविध कलाओं तथा विधाओ में निपुण बनाने का प्रयास होता था उसका यह करणा होता की उस कन्या का विवाहित जीवन सुखी व खुशहाल हो|