भवन हेतु प्लाट/ भूखण्ड (का आकार– वास्तु सम्मत) लेते / खरीदते समय सावधानियां ——
अनेकों व्यक्ति भूखण्ड के शुभ-एव अशुभ तथ्वों के
ध्यान में रखे विना ही भवन निर्माण प्रारम्भ करवा
देते है, जिसके फलस्वरूप अशुभ फल, आर्थिक हानि, दुख
तथा कष्ट में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। फिर व्यक्ति
ढूंडता फिरता है की भवन निर्माण में क्या त्रुटि रह गई है।
भवन निर्माण से पूर्व हमें भूमि का परिक्षण करना चाहिए
और भूखण्ड की आकृति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
अपने आकार के अनुसार एक भूखण्ड शुभ-अशुभ फल दे
सकता है। निचे अलग-अलग भूमि आकार एवं उनके फल
दिए जा रहे है –
.. आयताकार भूखण्ड (Rectangular)– जिस भूमि की
दोनों भुजाएं और चारो कोण समान हो उसे आयताकार
भूखण्ड कहते है। यह हर प्रकार से धनदायक एवं पुष्टि
दायक होता है।
..वर्गाकार भूखण्ड (Square plot)— जिस भूखण्ड की
चारों भुजाएँ और चारों कोण समान हो उसे वर्गाकार भूखण्ड
कहते है। यह भूखण्ड भी धनदायक और दरिद्रता को मिलने
वाला होता है।
4. वृत्ताकर भूखण्ड (circular shapped plot) गोल आकार वाली
भूमि को वृत्ताकार कहते है। यह भूखण्ड वास करने के लिए
शुभ माना गया है। यह धनदायक होता है।
5. शट्कोण अथवा अष्टकोण भूखण्ड (hebagnal or wheel shapped Plot) जिस भूखण्ड के छह या उससे ज्यादा
भुजाएँ हो या जो दिखने में एक चक्र के समान लगता है उस
भूमि पर वास करने से दरिद्रता आती है। तथा यह त्याज्य
होती है।
6. त्रिकोणात्मक (tringular shapped Plot) जो भूमि त्रिकोण के
आकार की होती है उसे त्रिकोणात्मक कहते है। यह भूमि
गृहस्वामी के लिए अशुभ मानी जाती है। यहां वास करने
वालों को कानूनी उलझनों में फसते हुए देखा गया है।
7. शकटाकार भूखण्ड (cait shapped plot) जो भूमि दिखने में
बैलगाड़ी अथवा रथ के समान दिखाई पड़े उसे शकटाकार
भूखण्ड कहते हैं। यह गृहस्वामी के आगे पीछे दौड़ने वाला
अशुभ भूखण्ड होता है।
8. छाजमुखी या शर्पाकार भूखण्ड (trapezium shapped Plot) घर
वास्तुशास्त्र में रंगों का भी अत्यन्त
महत्त्व है। प्रकृत्ति ने अनेक रंगों का
सृजन किया है परन्तु प्रत्येक रंग का
अपना पृथक प्रभाव व नियति है। भवन
का फर्श बनाते समय काले रंग के
पत्थरों को अधिक प्रयोग नहीं करना
चाहिए। ऐसा करने से राहु के प्रभाव में
वृद्धि होती है जिससे जीवन में चिंता
बढ़ती है। सफेद रंग का भी अधिक
प्रयोग दीवारों व फर्शो पर नहीं करना
चाहिए, यदि ऐसा करेगें तो गृहस्थ जीवन
अत्याधिक महत्वाकांक्षी हो जाएगा तो
भविष्य में विलासिता व भोग के कारण
गृहस्थ सुख की हानि ही करेगा।
में सुख सम्पन्नि को नष्ट करने वाला अशुभ भूखण्ड माना
जाता है।
9. मृदंगनुमा भूखण्ड (Mridanga) ऐसी भूमि जो देखने में
ढोलक या मृदंग के आकार की हो उसे त्याग देना चाहिए।
इस प्रकार की गृहस्वामी को ढोलक के समान खाली रखती
है।
… अण्डाकार भूखण्ड (Dule Shapped plot) अण्डाकार भूखण्ड
पर वास करना कष्टदायक होता है परन्तु यह धार्मिक कार्यों
के लिए शुभ फलदायक होती है।
12. सिंहमुखाकार भूखण्ड- जिस भूखण्ड का आकार आगे से
अधिक और पीछे से कम हो यानि आगे की लम्बाई ज्यादा
और पीछे की लम्बाई कम उसे सिंहमुखाकार भूखण्ड कहते
हैं। यह भूमि व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए शुभ होती है।
परन्तु निवास के लिए कष्टदायक होती है।
13. गोमुखाकार- जो भूमि आगे से कम और पीछे से
अधिक चैड़ी हो उसे गोमुखाकार भूखण्ड कहते हैं। व्यापार
के लिए हानिकारक होती है।
14. पेट कटा हुआ भूखण्ड (न्ेींचमक) इस प्रकार का
भूखण्ड न तो निवास योग्य है और न ही व्यापार योग्य।
जिसका स्वयं ही पेट कटा हुआ हो वह दूसरों का पेट कैसे
भर सकता है। वास्तुशास्त्र गहन गंभीर विषय है। घर अथवा
दुकान लेने से पहले उसे वास्तु की नजर से जाँच लेना
आवश्यक है जिससे कि सुख समृद्धि प्राप्त हो सके।
रंग—
वास्तुशास्त्र में रंगों का भी अत्यन्त महत्त्व है। प्रकृत्ति ने
अनेक रंगों का सृजन किया है परन्तु प्रत्येक रंग का अपना
पृथक प्रभाव व नियति है। भवन का फर्श बनाते समय काले
रंग के पत्थरों को अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा
करने से राहु के प्रभाव में वृद्धि होती है जिससे जीवन में
चिंता बढ़ती है। सफेद रंग का भी अधिक प्रयोग दीवारों व
फर्शो पर नहीं करना चाहिए, यदि ऐसा करेगें तो गृहस्थ
जीवन अत्याधिक महत्वाकांक्षी हो जाएगा, तो भविष्य में
विलासिता व भोग के कारण गृहस्थ सुख की हानि ही होगी।
यदि गृह स्वामी की कुन्डली में शुक्र उच्च राशि का या बली
हो तो सफेद रंग शुभ है, और शुक्र निर्बल हो तो सफेद रंग
का प्रयोग करना अशुभ है। बली शुक्र केन्द्र या त्रिकोण में हो
या मित्रक्षेत्री हो तो भवन की साज-सज्जा में निर्मलता व
पीले व केशरी रंग का प्रयोग परिवार में विरोध बढ़ाता है।
गुरू-शुक्र का संबध होने पर भी पीले व सफेद रंग का
अधिक प्रयोग आत्म-क्लेश की स्थिति बनाता है।
पानी की टंकी—-
वास्तुशास्त्र में भवन की छत पर पानी की टंकी बनाने हेतु
वायव्य व उत्तर दिशा के मध्य या वायव्य व पश्चिम दिशा के
मध्य का स्थान उपयुक्त बताया गया है। वास्तुशास्त्र के
अनुसार भूमिगत पानी की टंकी के लिए ईशान कोण सर्वोत्तम
स्थान है। भवन कि छत पर रखी जाने वाली आॅवर हेड
पानी की टंकी दक्षिण, पश्चिम अथवा नैऋत्य कोण में बनानी
चाहिए। भवन की छत पर पानी की टंकी ईशान में वर्जित
है क्योंकि ईशान किसी भी प्रकार की ऊँचाई या भार को वहन
नहीं कर सकती। ऐसा करने से अनेक कठिनाईयाँ पैदा
होंगी। यदि किसी कारण वश विवश होकर ईशान कोण में
पानी की टंकी लगानी ही हो, तो इससे अधिक ऊँचा आग्नेय
कोण में तथा आग्नेय कोण से अधिक ंऊँचा नैर्ऋत्य कोण में
निर्माण अवश्य करवाना होगा। ऐसा करने पर ईशान कोण
में टैंक के निर्माण का वास्तुदोष दूर हो जाएगा। तालाब अथवा
स्वीमिंग पूल भी पूर्वी अथवा उत्तरी ईशान कोण में ही बनाये
जाने चाहिएं, तभी शुभफल प्राप्त होते है।
भवन में वृक्ष—
भवन में ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण-पश्चिम में लगाने चाहिए।
पेड़ भवन में ढंग से लगाएं और उनमें दूरी इतनी रखें कि
प्रातः से तीसरे प्रहर (तीन बजे तक) भवन पर उनकी छाया
न पड़े। पीपल का वृक्ष पश्चिम, बरगद का पूर्व, गूलर दक्षिण
और कैथ का वृक्ष उत्तर में लगाना चाहिए अन्य वृक्ष किसी
भी दिशा में लाभदायक हैं।
भवन की ऊँचाई—-
भवन-निर्माण के समय ऊँचाई के लिए भवन के 16 वें भाग
में चार हाथ जोड़कर जितना योग हो उसके समान ऊँचाई
होनी चाहिए और यदि भवन की दो मंजिल या इससे
अधिक का निर्माण कराना हो तो पहली ऊँचाई में से 12 वां
भाग कम करके दूसरी मंजिल की ऊँचाई रखनी चाहिए। यही
क्रम तीसरी मंजिल के लिए भी होना चाहिए इसमें दूसरी
मंजिल कि लिए यह सामान्य क्रम ऊँचाई के लिए है। यदि
इस क्रम से 4, 3-1/2, 3 हाथ जोड़ा जाए तो ऊँचाई उत्तम,
मध्यम, कनिष्ठ तीन प्रकार की होगी। यदि इस क्रम में
क्रमशः 4 हाथ में 20, 18, 16 अंगुल तथा 3-1/2 और 3
हाथ में 27, 21, 15 अंगुल और जोड़ने पर उत्तम मध्यम
कनिष्ठ ऊँचाई के जहाँ शिलान्यास करके वास्तुक्षेत्र स्थापित
किया गया हो उसके दक्षिण तथा पश्चिम दिशा की ओर
गृहनिर्माण करना चाहिए। आठों दिशाओं में भवन के ऊँचे
अथवा नीचे होने के परिणाम भी इस प्रकार जानने चाहिए।
दिशा नीचे होंने के परिणाम ऊँचे होने के परिणाम—-
पूर्व आयु, सुख एवं यश वृद्धि। संतान की हानि।
आग्नेय दक्षिण-पश्चिम कोण की अपेक्षा नैर्ऋत्य से ऊँचा होने पर
नीचे हो तो शुभ फल होता है। अशुभ।
वायव्य तथा ईशान कोण की वायव्य ईशान कोण की
अपेक्षा नीचा हो तो, अग्नि, अपेक्षा अधिक ऊँचा हो तो
शत्रुभय एवं दृष्ट प्रकृति जन्य धन लाभ होता है।
होता है।
दक्षिण रोग एवं आर्थिक कठिनाइयां आर्थिक एवं स्वास्थ्य लाभ
नैर्ऋत्य बुरे व्यसन, दीर्घ व्याधियां और धन-धान्य की वृद्धि।
आकस्मिक मृत्यु।
पश्चिम संतान हानि, बीमारियां। संतान वृद्धि,कीर्ति विस्तार।
वायव्य ईशान की अपेक्षा नीचा हो तो ईशान की अपेक्षा ऊँचा हो तो
तो विवाद एवं रोग कष्ट, न्यायालय में विजय, धनागम,
नैर्ऋत्य आग्नेय की नैर्ऋत्य आग्नेय की अपेक्षा ऊँचा हो तो
से नीचा हो तो शुभदायक। अशुभ फल होता है।
उत्तर नीचा रहे तो मंगलकारक एवं ऊँचा रहे तो सब प्रकार की शुभकारक।
ईशान समस्त प्रकार की संपत्ति लाभ। ऊँचा हो तो दरिद्रता।
वास्तु विज्ञान के अनुसार ईशान-कोण पर विशेष ध्यान रखना चाहिए।
सम्पूर्ण भवन वास्तुशास्त्र के सिद्धान्त पर आधारित होने के पश्चात् भी ईशान कोण नीचा नहीं रहने से उस भवन के गृहस्वामी और उसमे निवासकर्ता विकास नही कर पाएगें इसलिए ईशान कोण का सर्वाविध शुद्ध रखना चाहिए। यदि ईशान कोण सही है तो सम्पूर्ण गृह शुद्ध रहेगा ।
गृह निर्माण में दिशा का बड़ा महत्व है, आठों दिशाएं मावन-जीवन को उपयोगी बनाती हैं । साथ ही दिशाओं का महत्व तो होता ही है किन्तु कोणों का महत्व भी दिशाओं से अधिक फलीभूत होता है क्योंकि कोण दो दिशाओं के संयोग से बने हैं इसलिए लाभ-हानि भी दोहरी ही मानी जानी चाहिए । इन दिशाओं के अधिपति निम्न प्रकार से होते हैं—
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दिशा अधिपति फल
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पूर्व इंद्र अभ्युदत
आग्नेय अग्नि तेजोभिवृद्धि
दक्षिण यम मृत्युदाता
नैर्ऋत्य निऋति शुद्धता एवं स्वच्छता
पश्चिम वरूण जल आदि की प्राप्ति
वायव्य कुबेर धन-धान्य, समृद्धि
ईशान ईश्वर धर्म, देवाराधन, स्वर्ग प्राप्ति
ऊध्र्व ब्रह्मा अध्यात्म का ज्ञान
भूमि अन्नत भूसम्पदा व सांसारिक सुख
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पं0 दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार,
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) 326023
मो0 नं0.. .