इस माह(अगस्त,…1) के पर्व त्योहार—-
कामदा एकादशी- 06 अगस्त
भौमवती अमावस्या- 10 अगस्त
हरियाली तीज- 12 अगस्त
नाग पंचमी- 14 अगस्त
तुलसी जयंती- 16 अगस्त
पुत्रदा एकादशी- 20 अगस्त
रक्षाबंधन- 24 अगस्त
हलषष्ठी- .0 अगस्त
श्री कृष्ण का साक्षात स्वरूप हैं गिरिराज गोवर्द्धन
भगवान श्रीकृष्ण की लीला के साक्षी रहे गिरिराज गोवर्द्धन को संत और भक्त साक्षात श्रीकृष्ण का ही रूप मानते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा जिले के पश्चिमी क्षेत्र में गोवर्द्धन पर्वत विराजमान हैं।
प्रचलित कथा
वाराह पुराण के अनुसार त्रेतायुग में श्रीरामावतार के समय जब समुद्र पर सेतु का निर्माण हो रहा था, तब सभी वानर जहां-तहां से बडे-बडे पत्थर ला रहे थे। हनुमान जी भी बडे उत्साहपूर्वक उत्तरांचल से गोवर्द्धन पर्वत को लेकर चले, लेकिन रास्ते में ही किसी वानर ने उन्हें बताया कि सेतु निर्माण का कार्य संपन्न हो गया है। यह सुनते ही हनुमान जी ने गोवर्द्धन पर्वत को ब्रजभूमि पर रख दिया। इससे गोवर्द्धन जी अत्यंत दुखी हो गए। भगवान श्रीराम की सेवा से वंचित होने के कारण उनके मन को गहरा आघात लगा। इस पर हनुमान जी ने गोवर्द्धन जी को सांत्वना देते हुए यह आश्वासन दिया कि द्वापर युग में जब भगवान का कृष्णावतार होगा तब आपको उनकी सेवा का सुअवसर मिलेगा।
श्रीकृष्ण ने बढाया मान
प्राचीनकाल से प्रचलित परंपरा के अनुसार ब्रजवासी प्रतिवर्ष अच्छी वर्षा की कामना से देवराज इंद्र की विशेष पूजा किया करते थे। परंतु एक बार श्रीकृष्ण ने नंद बाबा और ब्रजवासियों से कहा कि यह पर्वत हमारे सुख-दुख का साझीदार है। इसकी तराई में हम अपनी गाएं चराने आते हैं, इसलिए हमें इंद्र के बजाय गोवर्द्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। श्रीकृष्ण के तर्कसंगत वचनों से प्रेरित होकर ब्रजवासियों ने मेघों के स्वामी इंद्र के लिए एकत्रित सारी पूजन-सामग्री गोवर्धन जी को अर्पित कर दी।
ब्रजवासियों की उपेक्षा से कुपित होकर देवराज इंद्र ने जलप्रलय करने वाले मेघों को ब्रज में मूसलाधार वर्षा करने की आज्ञा दी। भीषण वर्षा से ब्रजमंडल में भयानक बाढ आ गई। निरंतर हो रही वर्षा से भयभीत होकर ब्रजवासी श्रीकृष्ण की शरण में पहुंचे। अपने प्रियजनों और गउओं की रक्षा करने के लिए मात्र सात वर्ष की अवस्था में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत को अपने बाएं हाथ की कनिष्ठा अंगुली पर धारण कर लिया। सात दिनों तक श्रीकृष्ण जी ने गोवर्द्धन को उठाए रखा, ताकि ब्रजवासी उनके नीचे शरण लेकर प्रलयंकारी वर्षा से बच सकें। एक सप्ताह तक निरंतर वर्षा करने बाद इंद्र को श्रीकृष्ण के भगवान होने का आभास हुआ और वे उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण की अर्चना की। इस प्रकार उन्होंने गोवर्द्धन पर्वत का मान बढाया और वे सामान्य पर्वत से गिरिराज बन गए।
गिरिराज की परिक्रमा
वैसे तो गोवर्द्धन पर्वत के दर्शन करने पूरे वर्ष श्रद्धालु यहां आते हैं, लेकिन सावन-भादो मास में इनकी पूजा एवं परिक्रमा का विशेष महत्व है। श्रद्धालु अपनी सुविधानुसार पंचकोसी, सप्तकोसी या नौकोसी परिक्रमा करते हैं। यदि आप भी गोवर्धन की परिक्रमा करने जा रहे हैं तो उस समय श्रीकृष्ण का कोई मंत्र जपें या उनका ध्यान करें। इस दौरान मन-वचन और कर्म से पवित्र रहें। कोशिश करें कि परिक्रमा के समय गिरिराज गोवर्द्धन आपके दाहिने हाथ की ओर हों। परिक्रमा से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं तथा बडे से बडा संकट भी दूर हो जाता है। संतों ने भी गिरिराज को श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरूप बताया है। इनकी परिक्रमा करने से संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्यफल प्राप्त हो जाता है।
क्या गिरिराज गोवर्द्धन की शिला को ब्रज के बाहर ले जाना अनुचित है?
गिरिराज गोवर्द्धन की शिला ही नहीं, बल्कि ब्रजमंडल से पत्थर का छोटा सा टुकडा या मिट्टी ले जाना भी आध्यात्मिक अपराध माना गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि गिरिराज गोवर्द्धन किसी भी हाल में श्रीकृष्ण की लीला भूमि ब्रजमंडल को त्यागना नहीं चाहते। अत: उनके किसी भी अंश को ब्रज की सीमा से बाहर ले जाना सर्वथा अनुचित है। वस्तुत: गिरिराज भगवान श्रीकृष्ण के प्रमुख सेवक ही नहीं, बल्कि उनके साक्षात स्वरूप भी हैं। ब्रजवास के लिए तो उन्होंने पुलस्त्य ऋषि से नित्य तिल-तिल घटने का शाप तक पाया, पर वे अपने निश्चय पर अडिग रहे। रोज उनका एक सूक्ष्म अंश ब्रज की रजकणों में मिल जाता है पर वे ब्रज को छोडने की कल्पना तक नहीं करते। इसीलिए गिरिराज जी के किसी भी अंश को ब्रज से बाहर नहीं ले जाना चाहिए।