गणेश का अर्थ और -गणेश पूजन —-
श्री गणेश विध्नविनाशक हैं । सारे शुभ कार्यों में सबसे पहले पूजे जाते हैं इसलिए कि पूजक को कार्य में सफलता मिले और कार्य निर्विघ्न सम्पन्‍न हो । महर्षि व्यास ने गणेश जी को महाभारत बोल कर लिखवाया था । इस लेखन कार्य के संदर्भ के आधार पर उन्हें सुयोग्य आशुलिपिकार कहा जा सकता है । भारत का पहला आशुलिपिक हमारे भगवान गणेश हैं ।
गणेश जी का सिर हाथी का है । यह सिर बड़ा भी है और मजबूत भी । हर व्यक्‍ति अगर अपना कार्य लगन और निष्ठा लगन से करना चाहे तो पूरा कार्य भार अपने सिर पर लेना होता है ।
श्री गणेश के नेत्र छोटे हैं, पर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तु देख पाने में सक्षम हैं । गणेश की जीभ भीतर है । यह इस बात का प्रतीक है कि जीभ सदैव भीतर अर्थात्‌ नियंत्रण में रखें । श्री गणेश की लंबी और ऊँची नाक और कान पंखे की तरह लम्बे हैं । इसका अर्थ है कानों से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात सुनो पर उसे सब पर प्रकट मत करो ।
श्री गणेश जी की चार भुजाएँ चारों दिशाओं के प्रतीक हैं । साथ ही धर्म, अर्थ काम तथा मोक्ष, इन चार पुरूषार्थों की प्राप्ति के लिए सतत्‌ कार्यशील रहने के सूचक हैं । दूसरे हाथ में कमल है । यह सुख समृद्धि का प्रतीक है तथा सिखाता है कि धन के प्रति लालच नहीं होना चाहिए । धन के साथ हमारा वही संबंध होना चाहिए जितना कमल का जल से होता है ।
तीसरे हाथ में परशु है । यह कार्य में आने वाले विघ्नों को काटने का अर्थ देता है । चौथे हाथ की मुट्‌ठी जताती है कि हमें अपने रहस्य गुप्त रखने चाहिए । मुट्‌ठी बंद सफलता का प्रतीक है ।
गणेश मूषक पर सवार है । अर्थ यह है कि किसी को भी छोटा नहीं समझना चाहिए । * गणेश जी का एक नाम लंबोदर है । अर्थ यह है कि औरों की बातें पेट में रखकर उन्हें पचाने की क्षमता अपने भीतर उत्पन्‍न करनी चाहिए । ऐसा करने वाला व्यक्‍ति तरह-तरह के झंझटों से सुरक्षित रहता है ।
विघ्न निवारण के लिये गणेश प्रसिद्ध हैं । न केवल विघ्नविनाश ही वरन्‌ प्रत्येक कामना भी इनकी उपासना से पूर्ण होती है । हिन्दू धर्म का कोई भी मांगलिक कार्य बिना भगवान गणपति की पूजा के प्रारम्भ नहीं होता । इतना ही नहीं, प्रत्येक देवी-देवता की आराधना करने से पूर्व गणेश से ही प्रार्थना की जाती है कि वह साधना पूर्ण होने में सहायक बनें । इतना महत्व किसी अन्य देवी देवता को नहीं प्राप्त है । हिन्दू धर्म में अतिमहत्वपूर्ण देव हैं गणपति ।
लक्ष्मी और गणेश अपने क्षेत्र में अलग-अलग महत्व रखते हैं और अपने-अपने उपासकों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते रहते हैं । अगर यह दो शक्‍तियाँ परस्पर मिल जायें तो आप सभी मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकते हैं, आप प्राप्त कर सकते हैं निर्विघ्न अपार धन-यश-वैभव ।
श्री गणेश लक्ष्मी पूजा से, सुख-शांति व श्रीवृद्धि होती है, घर में वातावरण आनंददायक होता है । व्यवसाय में बाधा दूर होकर, धन का आवागमन होता है ।
भारत में हिन्दू धर्म के जिन देवताओं का महत्वपूर्ण स्थान है, उनमें श्री गणेश का नाम सर्वप्रथम आता है । प्रत्येक कार्य की सफलता एवं ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति और विघ्नों नाश करने के लिए सबसे पहले उन्हीं का पूजन किया जाता है । वह बुद्धि के विशेष प्रतिनिधि हैं । महादेव के पुत्र होने से उनका महत्व और भी बढ़ जाता है । भगवान गणेश विघ्नेश्‍वर हैं । उनकी कृपा दृष्टि होने से विघ्नों का पर्वत अपने आप धराशायी होकर क्षणमात्र में विनष्ट हो जाता है । अतएव साधना या उपासना अथवा किसी भी धार्मिक तथा मांगलिक कार्य के प्रारम्भ में भी श्री गणेश का पूजन किए बिना सिद्धि व सफलता संभव नहीं है । गणेश जी की आकृति रहस्यमयी है । उनके शरीर के हर एक अंग से महत्वपूर्ण तथ्यों का रहस्योद्‌घाटन होता है । इनका सिर हाथी का है, हाथी पशुओं में बुद्धिमान माना जाता है । हाथी के नेत्र भी दूसरे जीवों से भिन्‍न हैं । हर वस्तु को अपने वास्तविक आकार से बड़ा देखता है, इससे यह शिक्षा मिलती है कि दूसरों को अपने से बड़ा समझो, उनका आदर करो, यह नम्रता का दैवीगुण है जिसे सभी को अपनाना चाहिए । छोटे नेत्रों का यह भी अर्थ है कि हर वस्तु का निरीक्षण-परीक्षण सूक्ष्मता से करना चाहिए । बड़े कान हैं, लम्बी नाक है, बड़ा पेट है । मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गणेश जी के रहस्यमय आकार से समझाया गया है ।
श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्‌म साक्षात्‌ परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात्‌ स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्‍तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ ः ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्‍च बहुभिर्युत ः ॥
गणेश तत्व का रहस्य—
गणेश तत्व क्या है, इसका आध्यात्मिक रहस्य क्या है? इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है । श्री गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रामायण में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्‍वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्‍वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्‍वास नहीं हो सकता तथा विश्‍वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । “योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्‌मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्‍ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।
गणेशपूजन—-
गणपति पूजन के द्वारा ‘परमेश्‍वर’ का ही पूजन होता है । जो साधक दत्तचित्त होकर उपासना में तत्पर होता है, उसकी बुद्धि और चित्त शुद्ध होते हैं । इसके साथ ही साथ देवताओं का अपना विघ्नरूप सिद्धि रूप में परिणत हो जाता है । ‘श्रुति’ भी कहती हैं- ‘एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति ।’ वह परतत्व एक है तथा बुद्धिमान लोगों के द्वारा अनेक नामों से पुकारा जाता है । स्वशुद्धावस्था में वह अखंडा, चिद्‌थन, एकरस और नेति-नेतीवाच्य ‘ब्रह्‌म’ हैं, वही ‘परमात्मा’ है या ‘ईश्‍वर’ कहलाता है । उसी को कोई साधक ब्रह्‌म, कोई विष्णु, कोई शिव और कोई ईशानी कहता है । गणपति के उपासक उसे ही ‘महागणाधिपति’ कहते हैं और गणपति तत्व को “ब्रह्‌म्‌” से अभिन्‍न मानते हैं ।
श्री गणेशजी के पास प्रायः “अकुंश” रहते हैं । “पाश” मोह का और तमोगुण का चिह्‌न । “मोद” का अर्थ आनंद प्रदान करने वाला है । “वरमुद्रा” सत्वगुण- इन तीनों से ऊपर उठकर एक विशेष आनन्द का अनुभव करने लगता है । चम्पत रायजी के अनुसार चूहा विवेचक, विभाचक, भेद कारक, विस्तारक और विशेषक बुद्धि है । गणेश जी का सिर काटना अहंकार का नाश होना है । हाथों का सिर लगना संयोजक है, समन्वयकारक और संशेषक बुद्धि का उदय होना होना है । ज्ञान और तन्मूलक व्यवहार के लिए सामान्य और विशेष दोनों का परिचय आवश्यक है । विभाजन और समाहारक, दोनों प्रकार की बुद्धि के होते हुए भी प्रधानता समन्वयात्मक बुद्धि की ही होती है । इसलिए गणेशजी का वाहन मूषक है ।
इस संशेषक बुद्धि के कारण ही वे “बुद्धि सागर” कहे जाते हैं । गणेशजी की ‘एकदन्तता’; उनकी अद्वैत प्रियता की सूचक है । “लम्बोदर” का तात्पर्य यह है कि अनेक ब्रह्‌मांड उनके उदर में हैं । “गणेश पुराण” के उपासना खण्ड के अंतर्गत “गणेशाष्टक” में कहा भी है- यतश्‍च विरासी जगत्‌ सर्चमेतत्‌ तथाब्जा सनो विश्‍वगो विश्‍व गोप्ता । तथेन्द्रा दयो देवसंघा मनुष्याः सदा तं गणेश नामामो भजामः ॥
अर्थात्‌ “जिनसे इस समस्त जग का प्रादुर्भाव हुआ है, जिनसे कमलासन ब्रह्‌मा, विश्‍वव्यापी, विश्‍व रक्षक विष्णु, इंद्र आदि देव- समुदाय और मनुष्य प्रकट हुए हैं, उन गणेश का हम सदा ही नमन और भजन करते हैं ।” इसी प्रकार “एकदन्त स्तोत्र” में भी कहा गया है-
सदात्म रूपं सकलादि भूत ममायिनं सोअहम्‌ चिन्त्य बोधम्‌ । अनादि मध्यान्त विहीनमेक तमेक दन्त शरणं ब्रजामः ॥
अर्थात्‌ – “जो सदात्म स्वरूप सबके आदि कारण, माया रहित तथा “ओअहमस्मि” है, वह परमात्मा मैं हूँ । इस अचिन्त्य बोध से सम्पन्‍न हैं जिनका आदि मध्य और अंत नहीं है, उन एक अद्वितीय एकदंतधारी भगवान गंणेश की हम शरण लेते हैं । ”
II श्री गणेश शलोक II II Shri Ganesha Shloka II “>II
II Shri Ganesha Shloka II
II श्री गणेश शलोक II
II श्री गणेश मूल मंत्र II
संकटनाशनगणेशस्तोत्रम्

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