*****धी–अथवा— विज्ञान–
पवन तलहन
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…………………सत्य को जानो…………………
विज्ञान को समझाते हुए अष्टावक्र-गीता में बताया है—–
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रस:!
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु!!
विषयों में से रस का चला जाना ही मोक्ष है और विषयों में रस का होना ही बंधन है! विज्ञान इतना ही है! आप की जैसी इच्छा हो, वैसा करें! इस संसार में विषय रूपी विषों से बचाते रहना आवश्यक है, क्योंकि ये तो विषय वस्तुत: विष से भी बढ़ कर भयंकर है! विष के तो खानेपर मनुष्य मरता है या किसी प्रकार की विकृत्ति का अनुभव करता है, किन्तु विषयों का तो केवल ध्यान ही पतन के लिये पर्याप्त है! इनके बारे में गीता ने बहुत सफल रीति से बताया है!
“विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन-उन विषयों में आसक्ति होती है, आसक्ति से कामना का उदय होता है, कामना की पूर्ति में बाधा उपस्थित होने पर क्रोध होता है, क्रोध से मूढत्व होता है, मूढ़त्व से स्मृति-विभ्रम उपस्थित होता है, स्मृति के नष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है एवं बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है!
अत: ये इतने भयानक है कि इनका चिंतन ही मनुष्य को क्रमश: अध्:पतन के मार्ग पर ले जाकर उसका सर्वथा नाश कर देता है! इसी जानकारी को विज्ञान कहते हैं! इशी का नाम “धी” है!
विद्या—–
विद्या-शब्द की निरुक्ति करते बताया गया है!—–
विद्याद्यदाभिर्निपुणं चतुर्वर्गमुदारधी:!
विद्यात तदासां विद्यात्वं विदिर्ज्ञाने निरुच्यते !!
जिन विद्याओं के कारण चतुर बुद्धिवाला मनुष्य धर्म-अर्थ-कम एवं मोक्ष —इन चारों पुरुषार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वे ही विद्याएँ कहलाती हैं! अतएव कहा गया है—–
“नास्ति विद्यासमं चक्षु:!”
केवल अमुक विषयों की जानकारी ही विद्या नहीं है! वास्तव में हो विद्या मनुष्य को राग-द्वेष, क्रोध-वैर आदि मानव-मन की क्षुद्र वृत्तियों से मुक्ति दिलाती है, वही है! यदि मनुष्य के पास इस प्रकार की विद्या होगी तो वह विद्यापीठों के प्रमाणपत्रों के अभाव में भि सच्चा विद्यावान होगा!
सत्य——
वाल्मीकिरामायण में बताया गया है—–
“आहु: सत्यं हि परमं धर्मं धर्मविदो जना:!”
धर्म को जानने वाले लोग सत्य को ही परम धर्म मानते हैं! तो यह सत्य क्या है? इसके बारे में महाभारत कि दो सूक्तियां मननीय हैं—-
[१]–यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा !
[२]– सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशय:!
अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्ति तिक्षान सूयता !!
त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया!
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश !!
जो भूतों के लिये कल्याणकारी है, वही सत्य है और पक्षपात का अभाव, इन्द्रियजय, अमात्सर्य, सहिष्णुता, लज्जा, दुखों को अप्रतिकारपूर्वक सहन करने की क्षमता, गुणों में दोषों का दर्शन न करना तथा त्याग, ध्यान, करने योग्य कार्य को करने की एवं न करने योग्य कार्यों को न करने की आतंरिक वृत्ति और धृति, स्व तथा परका उद्धार करने वाली दया और अहिंसा —-ये तेहरा सत्य के ही आकार हैं! हमारे धर्म ने तो सत्यनारायण नामक देव की प्रतिष्ठा की है! इससे बढ़ कर सत्य का महत्त्व क्या हो सकता है! केवल यही गुण मनुष्य के शांतिपूर्ण सामाजिक जीवन के लिये पर्याप्त है!
क्रोध——
क्रोध मन का भाव है, जो काम के प्रतिहित होने पर उत्पन्न होता है और शारीरिक चेष्टाओं द्वारा वह प्रकट होता है एवं जब वह प्रकट होता है, तब हम अवशतया हिंसा का आश्रय स्वीकार कर लेते हैं! ऐसा होने के कारण श्रीमद्बभगवत फीता में नरक के तीन द्वार-काम-क्रोध एवं लोभ में इसकी गणना की गयी है! यदि क्रोध करना हो तो क्रोध के ऊपर क्रोध करना चाहिये! क्रोध को चंडाल कह कर लोग उसकी निंदा करते है! अत: क्रुद्ध होने वाले की ही हानि होती है!
…………………सत्य को जानो…………………
विज्ञान को समझाते हुए अष्टावक्र-गीता में बताया है—–
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रस:!
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु!!
विषयों में से रस का चला जाना ही मोक्ष है और विषयों में रस का होना ही बंधन है! विज्ञान इतना ही है! आप की जैसी इच्छा हो, वैसा करें! इस संसार में विषय रूपी विषों से बचाते रहना आवश्यक है, क्योंकि ये तो विषय वस्तुत: विष से भी बढ़ कर भयंकर है! विष के तो खानेपर मनुष्य मरता है या किसी प्रकार की विकृत्ति का अनुभव करता है, किन्तु विषयों का तो केवल ध्यान ही पतन के लिये पर्याप्त है! इनके बारे में गीता ने बहुत सफल रीति से बताया है!
“विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन-उन विषयों में आसक्ति होती है, आसक्ति से कामना का उदय होता है, कामना की पूर्ति में बाधा उपस्थित होने पर क्रोध होता है, क्रोध से मूढत्व होता है, मूढ़त्व से स्मृति-विभ्रम उपस्थित होता है, स्मृति के नष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है एवं बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है!
अत: ये इतने भयानक है कि इनका चिंतन ही मनुष्य को क्रमश: अध्:पतन के मार्ग पर ले जाकर उसका सर्वथा नाश कर देता है! इसी जानकारी को विज्ञान कहते हैं! इशी का नाम “धी” है!
विद्या—–
विद्या-शब्द की निरुक्ति करते बताया गया है!—–
विद्याद्यदाभिर्निपुणं चतुर्वर्गमुदारधी:!
विद्यात तदासां विद्यात्वं विदिर्ज्ञाने निरुच्यते !!
जिन विद्याओं के कारण चतुर बुद्धिवाला मनुष्य धर्म-अर्थ-कम एवं मोक्ष —इन चारों पुरुषार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वे ही विद्याएँ कहलाती हैं! अतएव कहा गया है—–
“नास्ति विद्यासमं चक्षु:!”
केवल अमुक विषयों की जानकारी ही विद्या नहीं है! वास्तव में हो विद्या मनुष्य को राग-द्वेष, क्रोध-वैर आदि मानव-मन की क्षुद्र वृत्तियों से मुक्ति दिलाती है, वही है! यदि मनुष्य के पास इस प्रकार की विद्या होगी तो वह विद्यापीठों के प्रमाणपत्रों के अभाव में भि सच्चा विद्यावान होगा!
सत्य——
वाल्मीकिरामायण में बताया गया है—–
“आहु: सत्यं हि परमं धर्मं धर्मविदो जना:!”
धर्म को जानने वाले लोग सत्य को ही परम धर्म मानते हैं! तो यह सत्य क्या है? इसके बारे में महाभारत कि दो सूक्तियां मननीय हैं—-
[१]–यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा !
[२]– सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशय:!
अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्ति तिक्षान सूयता !!
त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया!
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश !!
जो भूतों के लिये कल्याणकारी है, वही सत्य है और पक्षपात का अभाव, इन्द्रियजय, अमात्सर्य, सहिष्णुता, लज्जा, दुखों को अप्रतिकारपूर्वक सहन करने की क्षमता, गुणों में दोषों का दर्शन न करना तथा त्याग, ध्यान, करने योग्य कार्य को करने की एवं न करने योग्य कार्यों को न करने की आतंरिक वृत्ति और धृति, स्व तथा परका उद्धार करने वाली दया और अहिंसा —-ये तेहरा सत्य के ही आकार हैं! हमारे धर्म ने तो सत्यनारायण नामक देव की प्रतिष्ठा की है! इससे बढ़ कर सत्य का महत्त्व क्या हो सकता है! केवल यही गुण मनुष्य के शांतिपूर्ण सामाजिक जीवन के लिये पर्याप्त है!
क्रोध——
क्रोध मन का भाव है, जो काम के प्रतिहित होने पर उत्पन्न होता है और शारीरिक चेष्टाओं द्वारा वह प्रकट होता है एवं जब वह प्रकट होता है, तब हम अवशतया हिंसा का आश्रय स्वीकार कर लेते हैं! ऐसा होने के कारण श्रीमद्बभगवत फीता में नरक के तीन द्वार-काम-क्रोध एवं लोभ में इसकी गणना की गयी है! यदि क्रोध करना हो तो क्रोध के ऊपर क्रोध करना चाहिये! क्रोध को चंडाल कह कर लोग उसकी निंदा करते है! अत: क्रुद्ध होने वाले की ही हानि होती है!
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत !
do unto others as you would have them do
do unto others as you would have them do