श्री कृष्ण भजन–
सौंप दिये मन-प्राण उसीको, मुखसे गाते उसका नाम ।
कर्माकर्म चुकाकर सारे चलते है अब उसके धाम ॥
इन्द्रियगण लेकर विषयोको मरा करें इच्छा-अनुसार ।
हम तो है अनुगत उसके ही, वही हमारा प्राणाधार ॥
प्रेम उसीके-से प्रेमिक बन, गाते सब उसका गुणगान ।
उसकी नासा पुष्प उसीके-से लेती नित उसकी घ्राण ॥
उसके प्राणोंकी व्याकुलता सब प्राणोंमें जाग रही ।
इसी हेतु बैठे योगासन वृत्ति उसीमें लाग रही ॥
उसके ही रससे रसिका बन रसना हो गइ दीवानी ।
विषयोंके रस विरस हुए सब, नही कर सके मनमानी ॥
आँख उसीकी देख रही नित उसका रूप परम सुन्दर ।
कान उसीके सुनते उसका सदा सुरीला कंठस्वर ॥
देह उसीकी करती नित आवेग-भरा परसन उससे ।
मन-पाण भर उठे, दीखता सारा जगत भरा उससे ॥
सभी भुलाकर सोच रहा वह कहाँ? कौन मेरा मनचोर ।
ह्रदय-सलिलके अगाध तलमें खोजूँगा, यदि पाऊँ छोर ॥
जब वह अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें दिखलाता ।
दोनों कूल डूब जाते है, कुछ भी नजर नही आता ॥
माता-पिता वही हम सबका, भाई-बन्धु-पुत्र-दारा ।
है सर्वस्व वही सबका बस, उससे भरा विश्व सारा ॥
है वह जीवनसखा हमारा, है वह परम हमारा धन ।
अन्तस्तलमें बैठे है टुक करनेको उसके दर्शन ॥
जब वह दोनों भुजा उठाकर, अपनी ओर बुलाता है ।
सब सुख तजकर मन उसके ही पीछे दौड़ा जाता है ॥
सब कुछ भूल नाच उठते है हँसना औ रोन तजकर ।
चरण-कूलकी तरफ दौड़ते, भग्न जीर्ण नौका लेकर ॥
आशा सकल बहाकर उस प्यारेके अरुण चरण-तलमें ॥
कूद पड़ेंगे डूबे चाहे तर निकले कूलस्थलमें ॥
इस जगके जो कुछ भी सुख है, सो सब रहे उसीके पास ।
अरुण-चरणके स्पर्शमात्रसे, मिटी हमारी सारी आस ॥
किसी वस्तुकी चाह नही है, मिटा चाहना, पाना सब ।
बैठे है भव ती भरोसा किये युगल चरणोंका अब ॥
अब तो बंध-मोक्षकी इच्छा ब्याकुल कभी न करती है ।
मुखडा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणसे झरती है ॥
चाहे अपने पास बिठा ले, चाहे दूर फेंक देवे ।
दूर रहे या पास रहे हम संतत चरणमूल सेवे ॥
कर्माकर्म चुकाकर सारे चलते है अब उसके धाम ॥
इन्द्रियगण लेकर विषयोको मरा करें इच्छा-अनुसार ।
हम तो है अनुगत उसके ही, वही हमारा प्राणाधार ॥
प्रेम उसीके-से प्रेमिक बन, गाते सब उसका गुणगान ।
उसकी नासा पुष्प उसीके-से लेती नित उसकी घ्राण ॥
उसके प्राणोंकी व्याकुलता सब प्राणोंमें जाग रही ।
इसी हेतु बैठे योगासन वृत्ति उसीमें लाग रही ॥
उसके ही रससे रसिका बन रसना हो गइ दीवानी ।
विषयोंके रस विरस हुए सब, नही कर सके मनमानी ॥
आँख उसीकी देख रही नित उसका रूप परम सुन्दर ।
कान उसीके सुनते उसका सदा सुरीला कंठस्वर ॥
देह उसीकी करती नित आवेग-भरा परसन उससे ।
मन-पाण भर उठे, दीखता सारा जगत भरा उससे ॥
सभी भुलाकर सोच रहा वह कहाँ? कौन मेरा मनचोर ।
ह्रदय-सलिलके अगाध तलमें खोजूँगा, यदि पाऊँ छोर ॥
जब वह अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें दिखलाता ।
दोनों कूल डूब जाते है, कुछ भी नजर नही आता ॥
माता-पिता वही हम सबका, भाई-बन्धु-पुत्र-दारा ।
है सर्वस्व वही सबका बस, उससे भरा विश्व सारा ॥
है वह जीवनसखा हमारा, है वह परम हमारा धन ।
अन्तस्तलमें बैठे है टुक करनेको उसके दर्शन ॥
जब वह दोनों भुजा उठाकर, अपनी ओर बुलाता है ।
सब सुख तजकर मन उसके ही पीछे दौड़ा जाता है ॥
सब कुछ भूल नाच उठते है हँसना औ रोन तजकर ।
चरण-कूलकी तरफ दौड़ते, भग्न जीर्ण नौका लेकर ॥
आशा सकल बहाकर उस प्यारेके अरुण चरण-तलमें ॥
कूद पड़ेंगे डूबे चाहे तर निकले कूलस्थलमें ॥
इस जगके जो कुछ भी सुख है, सो सब रहे उसीके पास ।
अरुण-चरणके स्पर्शमात्रसे, मिटी हमारी सारी आस ॥
किसी वस्तुकी चाह नही है, मिटा चाहना, पाना सब ।
बैठे है भव ती भरोसा किये युगल चरणोंका अब ॥
अब तो बंध-मोक्षकी इच्छा ब्याकुल कभी न करती है ।
मुखडा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणसे झरती है ॥
चाहे अपने पास बिठा ले, चाहे दूर फेंक देवे ।
दूर रहे या पास रहे हम संतत चरणमूल सेवे ॥