आपका नन्हा शिशु और ज्योतिष—–
संसार की सबसे महत्वपूर्ण घटना जो हमारे जीवन में धटती हैं, वह है हमारे परिवार में बालक का जन्म। हिन्दू संस्कृति में विशेषकर संतान वह भी पुत्र संतान का जन्म विशेष महत्व का माना जाता है। यह कहा जाता है कि पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करने के लिये पुत्र संतान का जन्म होना ही चाहिये। आज मान्यतायें तेजी से बदल रही हैं। आज बहुत से परिवार हैं जो लड़के और लड़की के जन्म में कोई भेद नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि संतान का योग्य होना, स्वस्थ रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज यह वास्तविकता है कि लड़कियां किसी भी क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित करने में लड़कों से पीछे नहीं हैं।
संतान के चरण का निर्धारण——-
संतान के जन्म के समय पूछे जाने वाले प्रश्न साधारणतया निम्नलिखित होते हैं – कि उसके चरण कौन से हैं – चांदी, तांबा, स्वर्ण या फिर लौह के। इसके ग्रह माता-पिता, दादी-दादा या नाना-नानी के लिये कैसे हैं, ये मंगली है या नहीं। इसकी आयु कितनी है। विद्या-बुद्धि कैसी रहेगी या स्वास्थ्य ठीक रहेगा या नहीं। मूलों का जन्म है या नहीं। बालक के चरण कैसे हैं इसका निर्धारण चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर किया जाता है। जन्म लग्न चक्र में – ., 5, 9 भाव में चन्द्रमा हो तो चांदी के चरण होते हैं। ., 7, .. भाव में चन्द्रमा हो तो ताँबे के चरण होते हैं। 1, 6, 11 भाव में चन्द्रमा हो तो सोने के चरण होते हैं। 4, 8, 12 भाव में चन्द्रमा हो तो लोहे के चरण होते हैं। इनमें चांदी का पाया सबसे श्रेष्ठ, ताँबे का श्रेष्ठ, सोने का सामान्य और लोहे का अशुभ होता है।
मंगल ग्रह की स्थिति और मंगली——
मंगल ग्रह की स्थिति लग्न कुण्डली में 1, 4, 7, 8, 12 भाव में हो तो मंगली बालक कहा जाता है। ऐसे बालक का विवाह मंगली लड़के लड़की से किया जाना चाहिये। किन्तु इस अंधविश्वास और भय का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। मंगली होने का आशय हमेशा जातक की मृत्यु से नहीं लगाया जाना चाहिये। मूलों का जन्म तब कहा जाता है जब जन्म कुण्डली में चन्द्रमा किसी मूल संज्ञक नक्षत्र में हो। यह मूल संज्ञक नक्षत्र कुल 6 हैं – अश्विनी, मघा, मूल, आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती। इनमें भी अश्विनी, मघा, मूल का प्रथम चरण और आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्र का चौथा चरण होने पर विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। ऐसे में मूल शान्ति करवा लेनी चाहिये।
मूल का वास और संतान पर प्रभाव—–
कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि मूल का निवास आकाश या पाताल में हो तो हानिकारक नहीं है। केवल पृथ्वी पर निवास हो तभी शान्ति कराने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त मूल व ज्येष्ठा नक्षत्र का विशेष कुप्रभाव दिन में, आश्लेषा व मघा नक्षत्र का प्रभाव रात्रि में एवं अश्विनी व रेवती का सन्ध्या काल में विशेष कुप्रभाव होता है। चैत्र, श्रावण, कार्तिक और पौष मास में मूल वास भूमि पर होता है। आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन और माघ मास में मूल वास स्वर्ग में, व वैशाख, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष व फाल्गुन मास में मूल वास पाताल में होता है। लग्न व चन्द्रमा बली होने पर ही अन्य शुभ योगों का फल मिलता है व जातक धनी व सम्पत्तिवान बनता है। चतुर्थभाव व उनके स्वामी के मजबूत स्थिति में होने से जातक को मकान, वाहन का सुख प्राप्त होता है।
सूर्य तथा चंद्रमा का भाव——
पंचमेश या पंचम भाव के स्वामी की स्थिति शुभ राशि में होकर केन्द्र, त्रिकोण में हो साथ उक्त पर गुरु का प्रभाव भी हो तो बालक विद्या-बुद्धि व संतान सुख प्राप्त करता है। सूर्य पिता का कारक है, नवम भाव पिता की स्थिति बताता है। चन्द्रमा माता का कारक है, चतुर्थ भाव माता की स्थिति बताता है, अत; उक्त सूर्य, चन्द्रमा, नवम भाव, नवम भाव के साथी, चतुर्थ भाव व चतुर्थ भाव के स्वामी की उत्तम स्थिति होने पर माता-पिता का पूर्ण सुख मिलता है व उनकी उन्नति भी अच्छी होती है।
अन्य प्रभावों का विश्लेषण——
लग्न चक्र में लग्न लग्नेश का बल देखने से आयु का ज्ञान होता है, अष्टम भाव में ग्रह न हो, द्वादश स्थान में शुभ ग्रह हो, चन्द्रमा बली हो, गुरु की दृष्टि लग्न या चन्द्रमा पर हो, शनि केन्द्र में स्थित हो, चन्द्रमा से 6, 7 स्थानों में शुभ ग्रह हो, तो आयु सुख पूर्ण मिलता है। दशम भाव व इसके स्वामी पर गुरु का प्रभाव हो तो कार्य वकील, डाक्टर, सलाहकार, मंत्री, धनी होता है। शुक्र का प्रभाव होने पर ललित कलाओं, संगीत, नृत्य, फैशन आदि से सम्बन्धित व्यवसाय होता है।
संसार की सबसे महत्वपूर्ण घटना जो हमारे जीवन में धटती हैं, वह है हमारे परिवार में बालक का जन्म। हिन्दू संस्कृति में विशेषकर संतान वह भी पुत्र संतान का जन्म विशेष महत्व का माना जाता है। यह कहा जाता है कि पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करने के लिये पुत्र संतान का जन्म होना ही चाहिये। आज मान्यतायें तेजी से बदल रही हैं। आज बहुत से परिवार हैं जो लड़के और लड़की के जन्म में कोई भेद नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि संतान का योग्य होना, स्वस्थ रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज यह वास्तविकता है कि लड़कियां किसी भी क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित करने में लड़कों से पीछे नहीं हैं।
संतान के चरण का निर्धारण——-
संतान के जन्म के समय पूछे जाने वाले प्रश्न साधारणतया निम्नलिखित होते हैं – कि उसके चरण कौन से हैं – चांदी, तांबा, स्वर्ण या फिर लौह के। इसके ग्रह माता-पिता, दादी-दादा या नाना-नानी के लिये कैसे हैं, ये मंगली है या नहीं। इसकी आयु कितनी है। विद्या-बुद्धि कैसी रहेगी या स्वास्थ्य ठीक रहेगा या नहीं। मूलों का जन्म है या नहीं। बालक के चरण कैसे हैं इसका निर्धारण चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर किया जाता है। जन्म लग्न चक्र में – ., 5, 9 भाव में चन्द्रमा हो तो चांदी के चरण होते हैं। ., 7, .. भाव में चन्द्रमा हो तो ताँबे के चरण होते हैं। 1, 6, 11 भाव में चन्द्रमा हो तो सोने के चरण होते हैं। 4, 8, 12 भाव में चन्द्रमा हो तो लोहे के चरण होते हैं। इनमें चांदी का पाया सबसे श्रेष्ठ, ताँबे का श्रेष्ठ, सोने का सामान्य और लोहे का अशुभ होता है।
मंगल ग्रह की स्थिति और मंगली——
मंगल ग्रह की स्थिति लग्न कुण्डली में 1, 4, 7, 8, 12 भाव में हो तो मंगली बालक कहा जाता है। ऐसे बालक का विवाह मंगली लड़के लड़की से किया जाना चाहिये। किन्तु इस अंधविश्वास और भय का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। मंगली होने का आशय हमेशा जातक की मृत्यु से नहीं लगाया जाना चाहिये। मूलों का जन्म तब कहा जाता है जब जन्म कुण्डली में चन्द्रमा किसी मूल संज्ञक नक्षत्र में हो। यह मूल संज्ञक नक्षत्र कुल 6 हैं – अश्विनी, मघा, मूल, आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती। इनमें भी अश्विनी, मघा, मूल का प्रथम चरण और आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्र का चौथा चरण होने पर विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। ऐसे में मूल शान्ति करवा लेनी चाहिये।
मूल का वास और संतान पर प्रभाव—–
कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि मूल का निवास आकाश या पाताल में हो तो हानिकारक नहीं है। केवल पृथ्वी पर निवास हो तभी शान्ति कराने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त मूल व ज्येष्ठा नक्षत्र का विशेष कुप्रभाव दिन में, आश्लेषा व मघा नक्षत्र का प्रभाव रात्रि में एवं अश्विनी व रेवती का सन्ध्या काल में विशेष कुप्रभाव होता है। चैत्र, श्रावण, कार्तिक और पौष मास में मूल वास भूमि पर होता है। आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन और माघ मास में मूल वास स्वर्ग में, व वैशाख, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष व फाल्गुन मास में मूल वास पाताल में होता है। लग्न व चन्द्रमा बली होने पर ही अन्य शुभ योगों का फल मिलता है व जातक धनी व सम्पत्तिवान बनता है। चतुर्थभाव व उनके स्वामी के मजबूत स्थिति में होने से जातक को मकान, वाहन का सुख प्राप्त होता है।
सूर्य तथा चंद्रमा का भाव——
पंचमेश या पंचम भाव के स्वामी की स्थिति शुभ राशि में होकर केन्द्र, त्रिकोण में हो साथ उक्त पर गुरु का प्रभाव भी हो तो बालक विद्या-बुद्धि व संतान सुख प्राप्त करता है। सूर्य पिता का कारक है, नवम भाव पिता की स्थिति बताता है। चन्द्रमा माता का कारक है, चतुर्थ भाव माता की स्थिति बताता है, अत; उक्त सूर्य, चन्द्रमा, नवम भाव, नवम भाव के साथी, चतुर्थ भाव व चतुर्थ भाव के स्वामी की उत्तम स्थिति होने पर माता-पिता का पूर्ण सुख मिलता है व उनकी उन्नति भी अच्छी होती है।
अन्य प्रभावों का विश्लेषण——
लग्न चक्र में लग्न लग्नेश का बल देखने से आयु का ज्ञान होता है, अष्टम भाव में ग्रह न हो, द्वादश स्थान में शुभ ग्रह हो, चन्द्रमा बली हो, गुरु की दृष्टि लग्न या चन्द्रमा पर हो, शनि केन्द्र में स्थित हो, चन्द्रमा से 6, 7 स्थानों में शुभ ग्रह हो, तो आयु सुख पूर्ण मिलता है। दशम भाव व इसके स्वामी पर गुरु का प्रभाव हो तो कार्य वकील, डाक्टर, सलाहकार, मंत्री, धनी होता है। शुक्र का प्रभाव होने पर ललित कलाओं, संगीत, नृत्य, फैशन आदि से सम्बन्धित व्यवसाय होता है।