।। पति-पत्नि विरहपीड़ा विनाशक स्त्तोत्रम् ।।
पति-पत्नि में क्लेश, वाद-विवाद या पत्नि के रुठकर पीहर चले जाने आदि कारणों से उत्पन्न विरह-पीड़ा इस स्तोत्र का पाठ करने से दूर होती है एवं दोनों में प्रेम भाव बना रहता है ।
ब्राह्मी ब्रह्मस्वरुपे त्वं मां प्रसीद सनातनि ! ।
परमात्मस्वरुपे च परमानन्दरुपिणि ।।१।।
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे मां प्रसीद भवार्णवे ।
सर्वमंगलरुपे च प्रसीद सर्वमंगले ! ।।२।।
विजये शिवदे देवी ! मां प्रसीद जयप्रदे ।
वेद-वेदांग-रुपे च वेदमातः ! प्रसीद मे ।।३।।
शोकघ्ने ज्ञानरुपे च प्रसीद भक्तवत्सले ।
सर्वसम्पत्-प्रदे माये प्रसीद जगदम्बिके ।।४।।
लक्ष्मीर्नारायण क्रोडे स्त्रष्टुर्वक्षसि भारती ।
मम क्रोडे महामाया विष्णुमाये प्रसीद मे ।।५।।
कालरुपे कार्यरुपे प्रसीद दीन वत्सले ।
कृष्णस्य राधिके भद्रे प्रसीद कृष्णपूजिते ! ।।६।।
समस्तकामिनीरुपे कलांशेन प्रसीद मे ।
सर्वसम्पत्-स्वरुपे त्वं प्रसीद सम्पदां प्रदे ! ।।७।।
यशसस्विभिः पूजिते त्वं प्रसीद यशसां निधेः ।
चराचरस्वरुपे च प्रसीद मम मा चिरम् ।।८।।
मम योगप्रदेदेवी ! प्रसीद सिद्धयोगिनि ।
सर्वसिद्धिस्वरुपे च प्रसीद सिद्धिदायिनि ! ।।९।।
अधुना रक्ष मामीशे प्रदग्धं विरहाग्नि ।
स्वात्मदर्शनपुण्येन क्रीणीहि परमेश्वरी ! ।।१०।।
।।फलश्रुति।।
एतत् पठेच्छ्रणुयाच्चन वियोगज्वरो भवेत् ।
न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि ।।
परमात्मस्वरुपे च परमानन्दरुपिणि ।।१।।
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे मां प्रसीद भवार्णवे ।
सर्वमंगलरुपे च प्रसीद सर्वमंगले ! ।।२।।
विजये शिवदे देवी ! मां प्रसीद जयप्रदे ।
वेद-वेदांग-रुपे च वेदमातः ! प्रसीद मे ।।३।।
शोकघ्ने ज्ञानरुपे च प्रसीद भक्तवत्सले ।
सर्वसम्पत्-प्रदे माये प्रसीद जगदम्बिके ।।४।।
लक्ष्मीर्नारायण क्रोडे स्त्रष्टुर्वक्षसि भारती ।
मम क्रोडे महामाया विष्णुमाये प्रसीद मे ।।५।।
कालरुपे कार्यरुपे प्रसीद दीन वत्सले ।
कृष्णस्य राधिके भद्रे प्रसीद कृष्णपूजिते ! ।।६।।
समस्तकामिनीरुपे कलांशेन प्रसीद मे ।
सर्वसम्पत्-स्वरुपे त्वं प्रसीद सम्पदां प्रदे ! ।।७।।
यशसस्विभिः पूजिते त्वं प्रसीद यशसां निधेः ।
चराचरस्वरुपे च प्रसीद मम मा चिरम् ।।८।।
मम योगप्रदेदेवी ! प्रसीद सिद्धयोगिनि ।
सर्वसिद्धिस्वरुपे च प्रसीद सिद्धिदायिनि ! ।।९।।
अधुना रक्ष मामीशे प्रदग्धं विरहाग्नि ।
स्वात्मदर्शनपुण्येन क्रीणीहि परमेश्वरी ! ।।१०।।
।।फलश्रुति।।
एतत् पठेच्छ्रणुयाच्चन वियोगज्वरो भवेत् ।
न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि ।।
इस स्तोत्र का पाठ करने अथवा सुनने वाले को वियोग-पीड़ा नहीं होती है और जन्म-जन्मान्तर तक कामिनी भेद नहीं होता है अर्थात् वह अभीष्ट कामिनी जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहती है ।
विधानम् – पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की संभावना होने पर इसका पाठ करना चाहिए । प्रणय संबधों में बाधाऐं आने पर भी इसका पाठ अभीष्ट फल-दायक होगा । अपने इष्ट-देवता या सती (भगवती गौरी) का विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करे । अभीष्ट प्राप्ति के लिये कातरता, समर्पण आवश्यक है ।
विधानम् – पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की संभावना होने पर इसका पाठ करना चाहिए । प्रणय संबधों में बाधाऐं आने पर भी इसका पाठ अभीष्ट फल-दायक होगा । अपने इष्ट-देवता या सती (भगवती गौरी) का विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करे । अभीष्ट प्राप्ति के लिये कातरता, समर्पण आवश्यक है ।