*****श्री विष्णु -स्तुति******-पवन तलहन **
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नमामि सर्वें सर्वे शमनन्तजमव्ययम! लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम!!
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम! समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम!!
यत्र सर्वें यात: सर्वमुत्पननं मतपुर:सरम! सर्वभूतश्च यो देव: पराणापि य: पर:!!
पर: परस्मात पुरुषात परमात्मस्वरुपधृक! योगिभिश्चिन्त्यते योSसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभि:!!
सत्त्वादयो न संतीशे यत्र च प्राकृता गुणा:! स शुद्ध: सर्वशुद्धेभ्य: पुमानाद्या: प्रसीदत!!
कलाकाष्ठामुहूर्तादिकालसूत्रस्य गोचरे! यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णु: प्रसीदतु!!
प्रोच्यते परमेशो हि य: शुद्धोSप्युपचारत:! प्रसीदतु स नो विश्नुरात्मा य: सर्वदेहिनाम!!
य: कारणं च कार्यं च कारणस्यापि कारणम! कार्यस्यापि च य: कार्यं प्रसीदतु स नो हरि:!!
भोक्तारं भोग्याभूत्न च स्त्रष्टारं सृज्यमेव च ! कार्यकर्तरिस्वरूपं तं प्रणता: स्म परं पदम्!!
विशुद्धबोधवन्नित्यमक्षयमव्ययम ! अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णो: परमं पदम्!!
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम ! तत्पदं परमं विष्णो: प्रणमाम सदामलम !!
यद्योगिन: सदोद्योक्ता: पुण्य पाप क्षयेSक्षयम! पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णो: परमं पदम्!!
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शंकर:! जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णो: परमं पदम्!!
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णोशिवात्मिका:! भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णो: परमं पदम्!!
सर्वेश सर्वभूतात्मन सर्व सर्वाश्रयाच्युत ! प्रसीद विष्णु भक्तानां व्रज नो दृष्टिगोचरम !!
—जो समस्त अणुओं से भि अणु और पृथ्वी आदि समस्त गुरुओं [भारी पदार्थों] से भि गुरु [भारी] हैं, उन निखिललोकविश्राम, पृथ्वी के आधारस्वरुप, अव्यक्त, अभेद, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनंत, अज और अविनाशी नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ! मेरे सहित सम्पूर्ण जगत जिनमें स्थित है, जिनसे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय हैं तथा जो पर [प्रधानादि] से भि पर हैं; जो पर पुरुष से पर हैं, मुक्ति लाभ के लिये मोक्षकामी मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं तथा जिन ईश्वर में सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों का सर्वथा अभाव है, वे समस्त शुद्ध पदार्थों से भि परम शुद्ध परमात्मस्वरुप आदिपुरुष हम पर प्रसन्न हों! जिन शुद्ध स्वरुप भगवा की शक्ति [VIBHIUUTI ] कला-काष्ठा-मुहूर्त आदि काल-क्रम का विषय नहीं है, वे भगवान विष्णु हम पर प्रसन्न हों! जो शुद्ध स्वरुप होकर भि उपचार से परमेश्वर [परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर=पति ] अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियों के आत्मा हैं, वे श्री विष्णु भगवान हम पर पसंन हों! जो कारण और कार्य रूप हैं तथा कारण के भि कारण और कार्य के भि कार्य हैं, वे श्रीहरि हम पर प्रसन्न हों! जो भक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा करता और कार्य रूप स्वयं ही हैं, उन परमपदस्वरुप को हम प्रणाम करते हैं! जो विशुद्ध बोधसम्पन्न, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है, वही विष्णु का परमपद [परस्वरुप ] है! जो न स्थूल है, न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषण का विषय है, वही भगवान विष्णु का नित्य-निर्मल परमपद है; चिंतनीय जिस अविनाशी पद का साक्षात्कार करते हैं, वही भगवान विष्णु का परमपद है! जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैं [ब्रह्मा] –कोई भी नहीं जान सकते, वही परमेश्वर श्रीविष्णु का परमपद है! जिस अभूतपूर्वक देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियां हैं, वही भगवान विष्णु का परमपद है! हे! सर्वभूतात्मन! हे! सर्वरूप ! हे सर्वाधार! हे अच्युत! हे विष्णु! हम भक्तों पर प्रसन्न कोकर हमें दर्शन दीजिये !!
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नमामि सर्वें सर्वे शमनन्तजमव्ययम! लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम!!
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम! समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम!!
यत्र सर्वें यात: सर्वमुत्पननं मतपुर:सरम! सर्वभूतश्च यो देव: पराणापि य: पर:!!
पर: परस्मात पुरुषात परमात्मस्वरुपधृक! योगिभिश्चिन्त्यते योSसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभि:!!
सत्त्वादयो न संतीशे यत्र च प्राकृता गुणा:! स शुद्ध: सर्वशुद्धेभ्य: पुमानाद्या: प्रसीदत!!
कलाकाष्ठामुहूर्तादिकालसूत्रस्य गोचरे! यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णु: प्रसीदतु!!
प्रोच्यते परमेशो हि य: शुद्धोSप्युपचारत:! प्रसीदतु स नो विश्नुरात्मा य: सर्वदेहिनाम!!
य: कारणं च कार्यं च कारणस्यापि कारणम! कार्यस्यापि च य: कार्यं प्रसीदतु स नो हरि:!!
भोक्तारं भोग्याभूत्न च स्त्रष्टारं सृज्यमेव च ! कार्यकर्तरिस्वरूपं तं प्रणता: स्म परं पदम्!!
विशुद्धबोधवन्नित्यमक्षयमव्ययम ! अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णो: परमं पदम्!!
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम ! तत्पदं परमं विष्णो: प्रणमाम सदामलम !!
यद्योगिन: सदोद्योक्ता: पुण्य पाप क्षयेSक्षयम! पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णो: परमं पदम्!!
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शंकर:! जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णो: परमं पदम्!!
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णोशिवात्मिका:! भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णो: परमं पदम्!!
सर्वेश सर्वभूतात्मन सर्व सर्वाश्रयाच्युत ! प्रसीद विष्णु भक्तानां व्रज नो दृष्टिगोचरम !!
—जो समस्त अणुओं से भि अणु और पृथ्वी आदि समस्त गुरुओं [भारी पदार्थों] से भि गुरु [भारी] हैं, उन निखिललोकविश्राम, पृथ्वी के आधारस्वरुप, अव्यक्त, अभेद, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनंत, अज और अविनाशी नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ! मेरे सहित सम्पूर्ण जगत जिनमें स्थित है, जिनसे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय हैं तथा जो पर [प्रधानादि] से भि पर हैं; जो पर पुरुष से पर हैं, मुक्ति लाभ के लिये मोक्षकामी मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं तथा जिन ईश्वर में सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों का सर्वथा अभाव है, वे समस्त शुद्ध पदार्थों से भि परम शुद्ध परमात्मस्वरुप आदिपुरुष हम पर प्रसन्न हों! जिन शुद्ध स्वरुप भगवा की शक्ति [VIBHIUUTI ] कला-काष्ठा-मुहूर्त आदि काल-क्रम का विषय नहीं है, वे भगवान विष्णु हम पर प्रसन्न हों! जो शुद्ध स्वरुप होकर भि उपचार से परमेश्वर [परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर=पति ] अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियों के आत्मा हैं, वे श्री विष्णु भगवान हम पर पसंन हों! जो कारण और कार्य रूप हैं तथा कारण के भि कारण और कार्य के भि कार्य हैं, वे श्रीहरि हम पर प्रसन्न हों! जो भक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा करता और कार्य रूप स्वयं ही हैं, उन परमपदस्वरुप को हम प्रणाम करते हैं! जो विशुद्ध बोधसम्पन्न, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है, वही विष्णु का परमपद [परस्वरुप ] है! जो न स्थूल है, न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषण का विषय है, वही भगवान विष्णु का नित्य-निर्मल परमपद है; चिंतनीय जिस अविनाशी पद का साक्षात्कार करते हैं, वही भगवान विष्णु का परमपद है! जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैं [ब्रह्मा] –कोई भी नहीं जान सकते, वही परमेश्वर श्रीविष्णु का परमपद है! जिस अभूतपूर्वक देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियां हैं, वही भगवान विष्णु का परमपद है! हे! सर्वभूतात्मन! हे! सर्वरूप ! हे सर्वाधार! हे अच्युत! हे विष्णु! हम भक्तों पर प्रसन्न कोकर हमें दर्शन दीजिये !!