हिंसा… विश्व की प्रमुख समस्या बन चारों और तांडव कर रही है । हर देश इस आग में झुलस रहा है । बचपन आतंक के साये में पनप रहा है,युवा भ्रष्टाचार के दलदल में फस रहे है और बुजुर्ग वक्त की चक्की में पीस रहे हैं । वास्तव में देख जाए तो दूर-दूर तक भी अहिंसा,शांति,त्याग और मैत्री नजर नही आती है । प्रतिक्षण हम सब अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं,एक भय सभी के भीतर दस्तक देता है रहता है । चाहे वह मृत्यु का हो,वैभव के नाश होने का हो,परिवार के विघटन का हो,किसी से अलग होने का हो ।
पद-सम्मान के न रहने का हो या फिर कुछ और…भय हम सभी में है और इसका मूल हैं हिंसक प्रवृति का बढाना! हमारे आचार-विचार,खान-पान,क्रिया-क्रियापों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से हिंसा ने अपने पैर पसार लिए हैं । आखिर कब तक आतंक हमारे भीतर से दूर होगा ? कब हम शांतवातावरण में चैन की सांस ले पाएंगे …? कब बचपन फिर खिलकर हंसेगा…? कब युवा विकास की सही राहा चल सकेंगे…?
इन सब सवालों का जवाब जब भी खोजना चाहेंगे तो शायद वह केवल भगवान महावीर के सन्देशों-अहिंसा परमो धर्मः,जीओ और जीने दो में ही मिलेगा । जब तक हम इसे जीवन में आत्मसात नहीं करेगें तब तक न तो समस्या हल होगी नही चैन और अमन का सपना साकार होगा ।
हर प्राणी को मन-वचन-काय में दया,करुणा,प्रेम,स्नेह और वात्सल्य की भावना का बीजारोपण होगा । इसके लिए प्राणी मात्र के सुख-दुःख को अपना मानना होगा । इतना करने से अहिंसा हमारे आस-पास अपनी सुखमय महक बिखरने लगेगी और शांति,त्याग,मैत्री और समृद्धि चारों ओर नजर आने लगेगी । इस भाव को मन में सदा जागृत रखने के लिए प्रतिक्षण इस भावना का चिंतन करना होगा…
मैत्री भाव जगत में मेरा,सब जीवों से नित्य रहे,
दीन-दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्त्रोत बहे ।
दुर्जन क्रूमार्ग रतों पर,क्षोभ नहीं मुझको आवे,
साम्यभाव रक्खूं मैं उन पर,ऐसी परिणति हो जावे ।।
मैत्री भाव का यह संकल्प लेने के लिए भगवान महावीर के जन्म महोत्सव से बेहतर अवसर और क्या हो सकता है । भगवान महावीर के जन्म दिवस …जैसी पावन तिथि पर ही हम उनके अनुयायी होने का कर्तव्य
अदा करने की पहल कर सकते हैं ।
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महावीर ने कहा था–
जियो और जीने दो—
-स्वस्ति श्री क्षुल्लक अतुल्य सागर—
महावीर ने केवल अहिंसा की बात नहीं की, बल्कि उसे अपने आचरण में भी उतारा। उनका कहना था, आत्म कल्याण के लिए राग-द्वेष, ईर्ष्या, आकांक्षा की भावनाओं का परित्याग करना होगा, तभी हिंसा की आग से हम बच सकते हैं।
जब इस धरती पर चारों ओर हिंसा का तांडव मचा हुआ था। चारों ओर राग-द्वेष की भावना बढ रही थी। क्रोध, माया, लोभ हर तरफ पसरा हुआ था। शिष्टाचार समाप्त होता जा रहा था, तब भारत के वैशाली राज्य में अहिंसा के अग्रदूत भगवान महावीर का जन्म हुआ। बचपन से ही उन्होंने अपने आचरण में अहिंसा को अपनाया था। जियो और जीने दो तथा अहिंसा परमो धर्म, इन दो मुख्य उपदेश के आधार पर उन्होंने मनुष्य के आत्म कल्याण की राह बताई।
भगवान महावीर ने अहिंसा को ही सबसे बडा धर्म बताते हुए संदेश दिया था कि समस्त आत्माएं एक समान हैं। कोई बडा-छोटा नहीं हैं। सब अपने कर्म से बडे-छोटे बनते हैं। सब अपनी-अपनी क्षमता और मर्यादाओं में रह कर अहिंसा और धर्म की परिपालन कर सकते हैं। उन्होंने जोर दिया था कि हमें मन में दूसरों के प्रति क्षमा भाव, वात्सल्य व करूणा का भाव धारण करना होगा। तभी हमें आत्मिक शांति मिल सकती हैं। एक बार कुमार वर्धमान की मां त्रिशला दर्पण के सामने अपना श्रृंगार कर रही थी। इतने में कुमार वहां आ गए। मां त्रिशला ने पूछा कि उनके बालों में गजरा कैसा लग रहा हैं। कुमार वर्धमान बोले, मां, से फूल भी किसी वृक्ष से उत्पन्न हुए हैं। उस वृक्ष की आत्मा कितनी दुखी हुई होगी। आपने अपनी सुंदरता के लिए इस कली को तुडवा लिया। राजा श्रेणिक ने बेटे से भगवान महावीर ने एक बार कहा था कि चिंता उसे होती हैं, जो पिछली बात को याद करता हैं। जो वर्तमान में संतोषी हैं, वह हमेशा चिंता मुक्त रहता हैं। उसके चेहरे पर सदैव शांति और मुस्कान रहती हैं। ये शांति और प्रसन्नता वापस तभी आ सकती हैं, जब हम प्रत्येक प्राणी में अपने आफा देखेंगे।
मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दिन-दुखी जीवों पर मेरे उस से करूणा स्त्रोत बहे। यही भगवान महावीर का संदेश और सिद्धांत था। इसके द्वारा उन्होंने अपने आपको तीर्थंकर बना दिया।