समस्त तीर्थों का वास है हाथों में –कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती—डॉ. गोविन्दवल्लभ जोशी
शास्त्रों एवं पुराणों में मानव शरीर में अनेक दिव्य शक्तियों के केंद्र बताए गए हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों एवं ज्योतिर्विज्ञानियों ने पृथ्वी में रहते हुए ब्रह्मांड के अनंत रहस्यों को खोज निकाला जो ग्रंथों के रूप में आधुनिक काल में भी विद्वानों के अध्ययन का सशक्त माध्यम बने हुए हैं। गणितज्ञ भास्कराचार्य, वराहमिहिर एवं आर्यभट्ट जैसे नामों की चर्चा आज भी लोगों की जुबान पर रहती है। कहा जाता है कि हमारे सिर जिसे ब्रह्मांड भी कहा जाता है उसमें स्थित मेघा शक्ति के जागरण से नक्षत्रलोक आकाश गंगाएँ एवं ब्रह्मांड के रहस्य सुलझने लगते हैं।
इसी प्रकार शरीर के अंग-अंग में अनेक देवता निवास करते हैं लेकिन कर्म के प्रतीक हाथों में तीर्थों का वास है जिनमें अँगुलियों का अग्रभाग देवतीर्थ, तर्जन और अँगूठे के पास पवित्र तीर्थ, हथेली का मध्य भाग अग्नितीर्थ, छोटी अँगुली से नाड़ी तक का कायतीर्थ एवं नाड़ी के पास मणिबंध के पास ब्रह्मतीर्थ क्षेत्र कहलाता है। इसीलिए देवकर्म और पितृ कर्मों में इन स्थानों से जलधार देने का विधान है। इसीलिए संध्यावंदन के समय गायत्री जप के समय की जाने वाली मुद्राओं से शक्ति केंद्र जागृत होने लगते हैं और मनुष्य सुख समृद्धि वान बनता है।
इसी प्रकार हाथों में नवग्रहों की भी स्थिति होने से रत्न धारण, जप एवं मुद्राओं के द्वारा उन्हें अनुकूल करके प्रभावशाली बनाने की बात मुद्रा विज्ञान में कही गई हैं क्योंकि तर्जनी अँगुली बृहस्पति का स्थान मध्यमा शनि, अनामिका सूर्य, कनिष्ठा बुध का स्थान निर्धारित है। इसी प्रकार मणिबँध (नाड़ी) के ऊपर से छोटी अँगुली के बीच का उभरा हुआ क्षेत्र चंद्रमा का एवं अँगूठे के नीचे उभरा हुआ स्थान शुक्र ग्रह का है। हथेली के ऊपर चंद्र क्षेत्र के ऊपर का हिस्सा मंगल ग्रह का क्षेत्र माना गया है।
इसीलिए संध्या एवं अनुष्ठानों के समय इन मुद्राओं का अभ्यास करने से ग्रहजनित दोषों का निवारण होता है। मनुष्य अलौकिक उन्नति की ओर बढ़ता है। इस बारे में हस्तरेखा ज्ञाता डॉ. रामधर द्विवेदी आचार्य कहते हैं-जो जिस प्रकार हाथों से परिम करके मनुष्य ने अनेक असंभव कार्य कर दिए उसी प्रकार हाथों के द्वारा होने वाली मुद्राओं के सतत्‌ अभ्यास से मनुष्य असंभव को संभव कर सकता है। इसी सिद्धांत के द्वारा हमारे ऋषि-मुनियों ने मुद्रा विज्ञान को दैनिक संध्योपासना के लिए अति आवश्यक बना दिया। गायत्री जप से पूर्व .4 मुद्राएँ एंव जप के बाद 8 प्रकार की मुद्राएँ मानव की शक्तियाँ जागृत करती हैं।
आज भी जो साधक संध्योपासना के समय गायत्री जप से पूर्व एवं बाद में इन मुद्राओं को करते हैं वह प्रखर विद्वता के धनी बन जाते हैं। इसके अभाव में जो केवल कपोल कल्पित बातों से समाज को उलझाए रखना चाहते हैं वे स्वयं भ्रम में रहते हुए समाज को भ्रमित करने के अलावा कुछ नहीं करते। मनुष्य स्वाभवतः कर्मयोगी है। इसीलिए कर्म करने के लिए हाथ शरीर के सबसे प्रमुख अंग है। इसीलिए मुद्राओं का अभ्यास करने से ग्रहों के क्षेत्र हाथों की रेखाएँ विकसित होकर मनुष्य की बुद्धि का विकास करते हुए महान कर्मयोगी बना देती हैं।

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