वेदमाता गायत्री महिमा – 5
गायत्री के २४ छन्द
ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं । मोटे रूप से इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि-स्वर संहिता कह सकते हैं । सामवेद में मंत्र विद्या के महत्त्वपूर्ण आधार उच्चारण विधान-स्वर संकेतों का विस्तारपूर्वक विधान, निर्धारण मिलता है । प्रत्येक वेद मंत्र के साथ उदात्त-अनुदात्त-स्वरित के स्वर संकेत लिखे मिलते हैं । यह जप एवं पाठ प्रक्रिया का सामान्य विधान हुआ । पर यह वर्णन भी बालबोध जैसा ही है । वस्तुतः छन्द उस साधना प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें प्रगति के लिए समग्र विधि-विधानों का समावेश हो ।
साधना की विधियाँ वैदिकी भी हैं और तांत्रिकी भी । व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उनके क्रम-उपक्रम में अन्तर भी पड़ता है । किस स्तर का व्यक्ति किस प्रयोजनों के लिए, किस स्थिति में क्या साधना करे, इसका एक स्वतंत्र शास्र है । इसका स्पष्ट र्निदेश ग्रंथ रूप में करा सकना कठिन है । इस प्रक्रिया का निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक की सूक्ष्म दृष्टि पर निर्भर है । रोगों के निदान और उनके उपचार का वर्णन चिकित्सा ग्रंथों में विस्तार पूर्वक मिल जाता है । इतने पर भी अनुभवी चिकित्सक द्वारा रोगी की विशेष स्थिति को देखते हुए उपचार का विशिष्ट निर्धारण करने की आवश्यकता बनी ही रहती है । यह चिकित्सक की स्वतंत्र सूझबूझ पर ही निर्भर है । इसके लिए कोई लक्ष्मण रेखा खिंच नहीं सकती, जिसके अनुसार चिकित्सक पर यह प्रतिबंध लगे कि वह अमुक स्थिति के रोगी का उपचार अमुक प्रकार करने के लिए प्रतिबंधित है ।
चिकित्सक की सूझ-बूझ को मौलिक कहा जा सकता है । ठीक इसी प्रकार छन्द को अनुभवी मार्ग दर्शक द्वारा किया गया इंगित कहा जा सकता है । साधना विधियों का वर्णन एक ही प्रक्रिया का अनेक प्रकार से हुआ है । उसमें से किस परिस्थिति में क्या उपयोग हो सकता है, इसकी बहुमुखी निर्धारण प्रज्ञा को ‘छन्द’ कह सकते हैं ।
समस्त गायत्री साधना का स्वतंत्र विधान है । यों स्थिति के अनुरूप उस विधान के भी भेद और उपभेद हैं, किन्तु २४ अक्षरों में सन्निहित किसी शक्ति विशेष की साधना करनी हो तो व्यक्ति के स्तर तथा प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए जो निर्धारण करना पड़े, उसका संकेत ‘छन्द’ रूप में किया गया है । अच्छा तो यह होता है कि पिंगलशास्र में जिस प्रकार छन्दों के स्वरूप का स्पष्ट निर्धारण कर दिया गया है, उसी प्रकार साधना की छन्द-प्रक्रिया का भ्ाी शास्र बना होता, भले ही उसका विस्तार कितना ही बड़ा क्यों न करना पड़ता, यदि ऐसा हो सका होता तो सरलता रहती, किन्तु इतने पर भी स्वतंत्र निर्धारण की आवश्यकता से छुटकारा नहीं ही मिलता ।
जो भी हो आज स्थिति यही है कि छन्द रूप में यह संकेत मौजूद हैं कि उपचार की दिशा-धारा क्या होनी चाहिए । यह सांकेतिक भाषा है । पारंगतों के लिए इस अंगुलि र्निदेश से भी काम चल सकता है और प्राचीन काल में चलता भी रहा है । पर आज की आवश्यकता यह है कि ‘गुरु परम्परा’ तक सीमित रहने वाली रहस्मयी विधि-व्यवस्था को अब सर्व सुलभ बनाया जाय । प्राचीनकाल में ऐसे प्रयोजन गोपनीय रखे जाते थे । आज भी अणु-विस्फोट जैसे प्रयोगों की विधियाँ गोपनीय ही रखी जा रही हैं । राजनैतिक रहस्यों के सम्बन्ध में भी अधिकारियों को गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती है । पर एक सीमा तक ही यह उचित है । ‘छन्द’ के सम्बन्ध में भी एक सीमा तक गोपनीयता बरती जा सकती है, फिर भी उसका उतना विस्तार तो होना ही चाहिए कि उसके लुप्त होने का खतरा न रहे ।
गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक स्वतंत्र छन्द स्वतंत्र साधना विधान है, जिसका संकेत-उल्लेख ‘गायत्री’ तंत्र में इस प्रकार मिलता है-
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप च बृहती पंक्तिरेव च ।
त्रिष्टुभं जगती चैव तथाऽतिजगती मता॥
शक्वर्यतिशक्वरी च धृतिश्चातिधृतिस्तथा ।
विराट् प्रस्तारपंक्तिश्च कृतिः प्रकृतिराकृतिः॥
विकृतिः संकृतिश्चैवाक्षरपंक्तिस्तथैव च॥
र्भूभुवः स्वरिति छन्दस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम् ।
इत्येतानि च छन्दासि कीर्तितानि महामुने॥
अर्थात्-हे नारद! गायत्री के २४ अक्षरों में २४ छन्द सन्निहित हैं-
(१)गायत्री
(२) उष्णिक
(३) अनुष्टुप
(४) वृहती
(५) पंक्ति
(६) त्रिष्टुप
(७) जगती
(८) अतिजगती
(९) शक्वरी
(१०) अतिशक्वरी
(११) धृति
(१२) अतिधृति
(१३) विराट्
(१४) प्रस्तार पंक्ति
(१५) कृति
(१६) प्रकृति
(१७) आकृति
(१८) विकृति
(१९) संकृति
(२०) अक्षर पंक्ति
(२१) भूः
(२२) भुवः
(२३) स्वः
(२४) ज्योतिष्मती ।
संक्षेप में ऋषि गुण हैं, देवता प्रभाव, छन्द को विधाता कह सकते हैं ।

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