सुखी दाम्पत्य जीवन का आधार—सप्तपदी—by पं.डी.के.शर्मा”वत्स”—
विवाह समय फेर इत्यादि समस्त आवश्यक कार्य हो जाने पर भी जब तक कन्या वर के वाम भाग में नहीं आती, तब तक विवाह कार्य सम्पन्न नहीं होता तथा कन्या भी तब तक कुमारी ही कहलाती है. यहाँ पर कन्या वर से सात वचन माँगती है, जिनसे उसके भावी जीवन की सुरक्षा, मान-सम्मान, गरिमा-गौरव तथा अस्मिता की रक्षा हो सके. पति द्वारा इन वचनों को स्वीकारने के पश्चात वह निश्चिंत होकर भावी जीवन का प्रारम्भ करती है. इस प्रकार से जो ये सात वचन माँगे जाते हैं, वे सप्तपदी के रूप में प्रचलित हैं. प्राचीनकाल से इन वचनों का हिन्दू समाज में बहुत अधिक प्रभाव रहा है. यह सात वचन वर-वधू को सुखी दाम्पत्य जीवन की ओर प्रेरित करते हैं.
वर्तमान में दाम्पत्य सम्बंधों के कमजोर होने तथा टूटने-बिखरने का सम्वतय: यह भी एक बडा कारण हो सकता है.
सात वचन—सुखी जीवन के सात आधार स्तम्भ—–
विवाह समय पति द्वारा पत्नि को दिए जाने वाले सात वचनों के महत्व को देखते हुए यहाँ उन वचनों के बारे में कुछ जानकारी देने का प्रयास कर रहा हूँ. यदि आज भी इनके महत्व को समझ लिया जाता है तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा.
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!
यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना. कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांती ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें. यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है. जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है.पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है.
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है. आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है–गृ्हस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है. उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए.
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं(युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ)
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे. अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती का दायित्व आपके कंधों पर है. यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ )
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं. विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु प्रयाप्त धन की आवश्यकता होती है. अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी भला कैसे चल पाएगी. इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके. इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो प्रयाप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे.
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है. वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है. बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते. अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है.
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें. यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं. विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं. ऎसे व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा. यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले.
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें. यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है–ये आप सब भली भान्ती से जानते हैं. इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है.