भारतीय ज्योतिष और नवरात्रि पर्व—by पं.डी.के.शर्मा”वत्स”–
काल (समय) चक्र के विभाग अनुसार पूरे एक दिन-रात में चार संधिकाल होते हैं. जिनको हम प्रात:काल, मध्यान्ह काल, सांयकाल और मध्यरात्रि काल कहते हैं. जब हमारा एक वर्ष हो जाता है, तब देव-असुरों का एक दिन-रात होता है. जिसे कि ज्योतिष शास्त्र में दिव्यकालीन अहोरात्र कहा गया है. ये दिन-रात छ:-छ: माह के होते हैं. इन्ही को हम उतरायण और दक्षिणायन के नाम से जानते हैं. यहाँ ‘अयन’ का अर्थ है—मार्ग. (उतरायण=उत्तरी ध्रुव से संबंधित मार्ग, जो कि देवों का दिन और दक्षिणायन=दक्षिणी ध्रुव से संबंधित मार्ग, जिसे देवों की रात्रि कहा जाता है)
जिस प्रकार मकर और कर्क वृ्त से अयन(मार्ग) परिवर्तन होता है, उसी प्रकार मेष और तुला राशियों से उत्तर गोल तथा दक्षिण गोल का परिवर्तन होता है. एक वर्ष में दो अयन परिवर्तन की संधि और दो गोल परिवर्तन की संधियाँ होती है. कुल मिलाकर एक वर्ष में चार संधियाँ होती हैं. इनको ही नवरात्री के पर्व के रूप में मनाया जाता है.
.. प्रात:काल (गोल संधि) चैत्री नवरात्र
.. मध्यान्ह काल (अयन संधि) आषाढी नवरात्र
.. सांयकाल (गोल संधि) आश्विन नवरात्र
4. मध्यरात्रि (अयन संधि) पौषी नवरात्र
उपरोक्त इन चार नवरात्रियों में गोल संधि की नवरात्रियाँ चैत्र और आश्विन मास की हैं, जो कि दिव्य अहोरात्र के प्रात:काल और सांयकाल की संधि में आती हैं—-इन्हे ही विशेष रूप से मनाया जाता है. हालाँकि बहुत से लोग हैं, जिनके द्वारा अयन संधिगत (आषाढ और पौष) मास की नवारत्रियाँ भी मनाई जाती हैं, लेकिन विशेषतय: यह समय तान्त्रिक कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है—गृ्हस्थों के लिए गोल संधिगत नवरात्रियों का कोई विशेष महत्व नहीं है.
जिन चान्द्रमासों में नवरात्रि पर्व का विधान है, उनके क्रमश: चित्रा, पूर्वाषाढा, अश्विनी और पुष्य नक्षत्रों पर आधारित हैं. वैदिक ज्योतिष में नाक्षत्रीय गुणधर्म के प्रतीक प्रत्येक नक्षत्र का एक देवता कल्पित किया हुआ है. इस कल्पना के गर्भ में विशेष महत्व समाया हुआ है, जो कि विचार करने योग्य है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र कालचक्र की संधियों की अभिव्यक्ति करने में समर्थ है. प्राचीन युगदृ्ष्टा ऋषि-मुनियों नें विभिन्न तौर-तरीकों से अभिनव रूपकों में प्रकृ्ति के सूक्ष्म तत्वों को समझाने के तथा उनसे समाज को लाभान्वित करने के अपनी ओर से विशेष प्रयास किए हैं. संधिकाल में सौरमंडल के समस्त ग्रह पिण्डों की रश्मियों का प्रत्यावर्तन तथा संक्रमण पृ्थ्वी के समस्त प्राणियों को प्रभावित करता है. अत: संधिकाल में दिव्यशक्ति की आराधना, संध्या उपासना आदि करने का ये विधान बनाया गया है.
अयन, गोल तथा ऋतुओं के परिवर्तन मानव मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं. मानव मस्तिष्क, जो कि अनन्त शक्ति स्त्रोतों का अक्षय भंडार है. उसमें जहाँ संसार के निर्माण करने की स्थिति है, वहीं संहार करने की शक्ति भी केन्द्रित है. यही कारण है कि त्रिगुणात्मक महाकाली, महासरस्वती और महादुर्गा हमारी आराध्य रही हैं.
यह पर्व रात्रि प्रधान इसलिए है कि शास्त्रों में “रात्रि रूपा यतोदेवी दिवा रूपो महेश्वर:” अर्थात दिन को शिव(पुरूष)रूप में तथा रात्रि को शक्ति(प्रकृ्ति)रूपा माना गया है. एक ही तत्व के दो स्वरूप हैं, फिर भी शिव(पुरूष)का अस्तित्व उसकी शक्ति(प्रकृ्ति) पर ही आधारित है.
सो, इस बात को समझने की जरूरत है कि अखिल पिण्ड ब्राह्मंड के समस्त संकेत के पारखी ऋषि-मुनियों नें नैसर्गिक सुअवसरों को परख कर हमें विशेष रूप से संस्कारित बनाने का प्रयास किया है. त्रिविध ताप नाश की इस पुनीत पर्व की गरिमा को समझते हुए हमें दिव्यशक्ति की आराधना, उपासना करते हुए पूर्ण मर्यादासहित(मन को विषय भोगों से दूर रख) नवरात्रि पूजन करना आवश्यक है. यह समय किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित न होकर मानव मात्र के लिए कल्याणप्रद है………….
नवरात्रि पर्व चैत्र और आश्विन मास में ही क्यों मनाया जाता है????????——-
नवरात्र पर्व हमेशा चैत्र और आश्विन मास में ही क्यों होते हैं? इसका भी एक वैज्ञानिक कारण है कि मौसम-विज्ञान के अनुसार ये दोनों ही मास सर्दी,गर्मी की सन्धि के महत्वपूर्ण मास हैं। यूँ तो ऋतुऎं कहने को छ: मानी जाती हैं परन्तु यदि देखा जाए तो हैं तो वे दो ही—-एक गर्मी और दूसरी सर्दी।
शीत ऋतु का आगमन आश्विन मास से आरंभ हो जाता है और ग्रीष्म का चैत्र मास से। ज्यों हि एक ऋतु का पदार्पण हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक जगत में एक हलचल प्रारंभ होने लगती है। पेड-पौधे,वनस्पति जगत,जल,आकाश और वायुमंडल तक सबमें परिवर्तन होने लगता है। ये दोनो मास दोनों ऋतुओं के संधिकाल है,अत: हमारे स्वास्थय पर इनका विशेष प्रभाव पडता है। चैत्र में गर्मी के प्रारंभ हो जाने से पिछले कईं मास से जो रक्त का प्रवाह मंद था,अब वो हमारी नसों नाडियों में तीव्र गति से प्रवाहित होने लगता है। केवल रक्त की ही बात नहीं यह नियम शरीर के वात,पित्त,कफ इन तीनों तत्वों पर भी लागू होता है। यही कारण है कि संसार के अधिकांश रोगी इन दोनों मासों में या तो शीघ्र अच्छे हो जाते हैं या फिर मृ्त्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए शास्त्रकारों नें सन्धि काल के इन्ही मासों में शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिए नौ दिन तक विशेष रूप से व्रत-उपवास आदि का विधान किया है।
नव रक्त संचारी वसन्त के इन मादक दिनों में मन में विषय वासना की नईं तरंगें भी मन को खूब आंदोलित करती हैं,किन्तु यदि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन नौ दिनों में आपके विधिपूर्वक व्रत-उपवास का आश्रय लिया तो समझिए कि आगामी ऋतुकाल के लिए आपने अपने भीतर शक्ति का संचय कर लिया—जिसका फल आपको ये मिलेगा कि आगामी ऋतु परिवर्तन तक न तो कोई रोग,व्याधी और न किसी प्रकार की चित्त की विकलता ही आपको पीडित करेगी।
अन्त में आपसे एक बात कहना चाहूँगा कि ये जो पर्व है,इसे रात्रि प्रधान माना गया है। जैसा कि आप देखते हैं कि इसके नाम के साथ ही रात्रि शब्द जुडा हुआ है(नव+रात्रि)। इस विषय में शास्त्र वाक्य है कि “रात्रि रूपा यतोदेवी, दिवा रूपो महेश्वर:” अर्थात दिन को शिव(पुरूष) रूप में तथा रात्रि को (शक्ति) प्रकृ्ति रूपा माना गया है। एक ही तत्व के दो स्वरूप हैं फिर भी शिव(पुरूष) का अस्तित्व उसकी शक्ति(प्रकृ्ति) पर ही आधारित है। यदि आप शक्ति(देवी) के उपासक हैं और उनके निमित किसी भी प्रकार का मंत्र जाप,पाठ इत्यादि करते हैं तो सदैव रात्रिकाल का ही चुनाव करें। दिनवेला में आत्मसंयंम पूर्वक व्रत-उपवास रखें और रात्रिवेला में कुछ समय किसी भी मंत्र,स्तुति अथवा ग्रन्थ का,उसके अर्थ को ह्रदयंगम करते हुए पारायण कीजिए,उसमें प्रोक्त गुणों को अपनी आत्मा में उतारिए……तत्पश्चात भूमी शयन कीजिए तो फिर देखिए आपकी आत्मिक शक्ति सर्वात्मना विकसित होती है या नहीं?
कभी कभी तो ये देखकर विस्मित हो जाना पडता है कि पिंड ब्राह्मंड के संबंध संकेतों के पारखी हमारे ऋषि-मुनियों नें प्रकृ्तिप्रद नैसर्गिक सुअवसरों को परख कर हमें विशेष रूप से संस्कारित बनाने के कैसे कैसे प्रयास किए है,जिन्हे कि हम लोग यूँ ही गवाँ देते हैं। देखा जाए तो ऎसे सुअवसर किसी धर्म,सम्प्रदाय विशेष से संबंधित न होकर समस्त मानवमात्र के लिए कल्याणप्रद हैं।
(नवरात्री पर्व की आप सब को हार्दिक शुभकामनाऎं………माँ भगवती आप सब के जीवन में खुशियों का संचार करे,सबकी मंगलकामनाओं को परिपूर्ण करे )