“यत् पिंडे तत् ब्राह्मंडे”—-
अर्थात जो ब्राह्मण्ड में है, वही इस हमारे शरीर में है. हम साढे तीन हाथ व्यास वाले इस मानव शरीर को अनन्त विस्तार वाले ब्राह्मण्ड का संक्षिप्त संस्करण कह सकते हैं. जैसे विस्तृत भूगोल का समस्त संस्थान छोटे से नक्शे में अंकित रहता है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण्ड में विद्यमान समस्त वस्तुओं का मूल स्त्रोत हमारा अपना ये शरीर है.
ब्राह्मण्ड यदि पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश—इन पाँच महाभूतों के मिश्रण का परिणाम है, तो हमारा ये शरीर भी इन्ही के संघात से निर्मित है. ब्राह्मण्ड में सूर्य है तो इस शरीर में सूर्य का प्रतिनिधि आत्मतत्व विद्यमान है, ब्राह्मण्ड में चन्द्रमा है तो शरीर में उसका प्रतीक मन है, ब्राह्मण्ड में मंगल नामक लाल रंग का ग्रह विद्यमान है तो शरीर में विभिन्न रंगों के खाये हुए भोजन के रस से यकृत और पलीहा (जिगर और तिल्ली) द्वारा रंजित, पित्त के रूप में परिणित होने वाला रूधिर(खून)विद्यमान है. ब्राह्मण्ड में बुध,बृहस्पति,शुक्र और शनि नामक ग्रहों की सत्ता है तो हमारे इस शरीर में इन सबके प्रतिनिधि क्रमश:—वाणी, ज्ञान, वीर्य और दु:खानुभूति विद्यमान है. पर्वत, वृक्ष, लता, गुल्मादि के प्रतीक अस्थियाँ, केश रोम, नदी-नालों की भान्ती नसें, नाडियाँ और धमनियों का जाल बिछा हुआ है—–कहने का तात्पर्य यह है कि सृष्टि की समस्त वस्तुएं हूबहू उसी रूप में हमारे इस शरीर में मौजूद हैं. आप इस शरीर को एक प्रकार से ब्राह्मण्ड का नक्शा कह सकते हैं.
हमारी उपर्युक्त स्थापना को सीधे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि “ब्राह्मण्ड” विराट का शरीर है, जिसे ज्योतिष में हम कालपुरूष के नाम से सम्बोधित करते हैं और “पिण्ड”—उसी के अंशभूत जीव का शरीर अर्थात अंशावतार है. अतैव यह सिद्ध है–इस ब्राह्मण्ड रूपी कालपुरूष में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों की विभिन्न गतिविधियों एवं क्रिया-कलापों में जो नियम काम करते है, ठीक वे ही नियम प्राणी मात्र के शरीर में स्थित इस सौरमंडल की ईकाई का संचालन करते हैं.
यदि हम प्राणी या पदार्थ की आन्तरिक संरचना के आधार पर ध्यान दें, तो इस सिद्धान्त को बहुत अच्छे से समझ सकते हैं. इस बात को तो हर व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक प्राणी या पदार्थ की सूक्ष्म तथा प्राथमिक संरचना का आधार परमाणु है और इन परमाणुओं की ईंटों को जोडकर प्राणी या पदार्थ का विशालतम भवन बनकर तैयार होता है. यह परमाणु भी आकार-प्रकार में हूबहू सौरजगत के समान ही होता है. इसके मध्य में एक घन विद्युत का बिन्दु होता है, जिसे केन्द्र कहते हैं. जिसका व्यास एक इंच के दस लाखवें भाग का भी दस लाखवां भाग होता है. परमाणु के जीवन का सार इसी केन्द्र में बसता है. इसी केन्द्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युतकण(Electrons) चक्कर लगाते रहते हैं और वे इस गतिविधि में हमारे सौरजगत के प्रत्येक क्रिया-कलाप का अनुकरण करते रहते हैं. इस प्रकार के अनन्त परमाणुओं—–जिन्हे शरीर विज्ञान की भाषा में कोशिकायें या Cells कहते हैं, के समाहार का एकत्र स्वरूप हमारा ये शरीर है.
हमारे शरीर के सैल्स “Law of Affinity” के नियम के अनुसार दलबद्ध होकर शरीर के टिश्यूज (Tisues) और उनके द्वारा अंग बनाते हैं. जिनके परस्पर मिलने से हमारा स्थूल शरीर बन जाता है. इस प्रकार जब हमारा शरीर एवं शरीर के अवयव उन कोशिकाओं से बने हैं, जो सौरजगत के क्रियाकलापों का अनुकरण करते हैं, तो यह अनायास ही समझ में आ जाता है कि इन कोशिकाओं द्वारा बना हमारा शरीर भी ब्राह्मण्ड की गतिविधियों का अनुकरण करता है.
अब ये तथ्य तो पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुका है कि हमारी इस अनन्त ब्राह्मण्ड से घनिष्ठता है. और इस विषय में मेरा ये मानना है कि यदि विज्ञान अपने अनुसन्धान का क्षेत्र सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की अपेक्षा इस शरीर को बनाए तो इसकी संरचना को जान,समझकर सम्पूर्ण ब्राह्मण्ड के अज्ञात रहस्यों से पर्दा उठाया जा सकता है. लेकिन उसके लिए आवश्यकता है पूर्ण अनासक्ति भाव की…….क्योंकि अनासक्ति के बिना न तो पूर्वाग्रह नष्ट होता है और न ही तटस्थरूप से अवलोकन किया जा सकता है. इसलिए ऎसी अनासक्ति के बिना अज्ञात क्षेत्र की खोज करना और फिर यथार्थ परिणाम निकाल लेना कहाँ सम्भव है. यह भाव तो सिर्फ उन भारतीय महर्षियों के ही पास था, जो बिना किसी साधन के ही काल के अभेद रहस्यों को जान लिया करते थे. क्या आज के विज्ञानवेताओं के पास अनासक्ति का यह गुण है ?