भोजपुर (मध्यप्रदेश) स्थित  “भोजेश्वर महादेव” शिव मंदिर का वास्तु विश्लेषण


विगत दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 4. किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में बेतवा (रायसेन जिले में वेत्रवती नदी के) किनारे बसा है। नदी के पूर्व की ओर स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्राचीन शिव मंदिर को “भोजेश्वर शिव-मंदिर, भोजपुर” के नाम से जाना जाता है। इस प्राचीन अनूठे परंतु अपूर्ण मंदिर का निर्माण धार के राजा भोज द्वारा किया गया था ।प्राचीन काल का यह नगर “उत्तर भारत का सोमनाथ’ कहा जाता है। गाँव से लगी हुई पहाड़ी पर एक विशाल शिव मंदिर है। इस नगर तथा उसके शिवलिंग की स्थापना धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज (१०१० ई.- १०५३ ई.) ने किया था। अतः इसे भोजपुर मंदिर या भोजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है।
     राजा भोज भारतीय स्थापत्य कला अर्थात शिल्प वास्तु शास्त्र के महान सरंक्षक एवं ज्ञाता थे पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की राजा भोज के द्वारा एक बहुत ही प्रसिद्ध वास्तु के प्रामाणिक ग्रंथ की रचना की गई थी जिसका नाम “समरांगण-सूत्रधार” है। यह एक भव्य शिव मंदिर है जिसकी ऊँचाई मय जलाधारी तकरीबन .2 फुट है जिसमे लिंग की ऊँचाई 2.0. मीटर अर्थात लगभग साढ़े छः फ़ीट है ।इस मंदिर में कई सारे वास्तु दोष हैं जिसके चलते दुर्गति और संघर्ष का शिकार हुआ।

आइए जानते हैं इस प्राचीन शिव मंदिर की भौगोलिक स्थिति, वास्तु नियमानुसार  ।

     पंडित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की यह मंदिर पूर्ण रुपेण तैयार नहीं बन पाया। इसका चबूतरा बहुत ऊँचा है, जिसके गर्भगृह में एक बड़ा- सा पत्थर के टूकड़े का पॉलिश किया गया लिंग है, जिसकी ऊँचाई ३.८५ मी. है। इसे भारत के मंदिरों में पाये जाने वाले सबसे बड़े लिंगों में से एक माना जाता है। विस्तृत चबूतरे पर ही मंदिर के अन्य हिस्सों, मंडप, महामंडप तथा अंतराल बनाने की योजना थी। ऐसा मंदिर के निकट के पत्थरों पर बने मंदिर- योजना से संबद्ध नक्शों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है। इस मंदिर के अध्ययन से हमें भारतीय मंदिर की वास्तुकला के बारे में बहुत- सी बातों की जानकारी मिलती है। भारत में इस्लाम के आगमन से भी पहले, इस हिंदू मंदिर के गर्भगृह के ऊपर बना अधुरा गुम्बदाकार छत भारत में ही गुम्बद निर्माण के प्रचलन को प्रमाणित करती है। भले ही उनके निर्माण की तकनीक भिन्न हो। 
     कुछ विद्धान इसे भारत में सबसे पहले गुम्बदीय छत वाली इमारत मानते हैं। इस मंदिर का दरवाजा भी किसी हिंदू इमारत के दरवाजों में सबसे बड़ा है। चूँकि यह मंदिर ऊँचा है, इतनी प्राचीन मंदिर के निर्माण के दौरान भारी पत्थरों को ऊपर ले जाने के लिए ढ़लाने बनाई गई थी। इसका प्रमाण भी यहाँ मिलता है। मंदिर के निकट स्थित बाँध को राजा भोज ने बनवाया था। बाँध के पास प्राचीन समय में प्रचूर संख्या में शिवलिंग बनाया जाता था। यह स्थान शिवलिंग बनाने की प्रक्रिया की जानकारी देता है। कुछ बुजुर्गों का कहना हैै कि मंदिर का निर्माण द्वापर युग में पांडवों द्वारा माता कुंती की पूजा के लिए इस शिवलिंग का निर्माण एक ही रात में किया गया था। विश्व प्रसिद्घ शिवलिंग की ऊंचाई साढ़़ेे इक्कीस फिट, पिंडी का व्यास १८ फिट आठ इंच व जलहरी का निर्माण बीस बाई बीस से हुुआ हैै। इस प्रसिद्घ स्थल पर साल में दो बार वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता हैै। जो मंकर संक्रांति व महाशिवरात्रि पर्व होता हैै। एक ही पत्थर से निर्मित इतनी बड़़ी शिवलिंग अन्य कहीं नहीं दिखाई देती हैै। इस मंदिर की ड्राइंंग समीप ही स्थित पहाड़़ी पर उभरी हुुई हैै जो आज भी दिखाई देती हैै। इससे ऐेसा प्रतीत होता हैै कि पूर्व में भी आज की तरह नक्शे बनाकर निर्माण कार्य किए जाते रहेे होंगे। 



ऐसा है मोजेश्वर मन्दिर का गर्भगृह (अंदर से)—

     निरन्धार शैली में निर्मित इस मंदिर में प्रदक्षिणा पथ (परिक्रमा मार्ग) नहीं है। मन्दिर ११५ फ़ीट (३५ मी॰) लम्बे, ८२ फ़ीट(२५ मी॰) चौड़े तथा १३ फ़ीट(४ मी॰) ऊंचे चबूतरे पर खड़ा है। चबूतरे पर सीधे मन्दिर का गर्भगृह ही बना है जिसमें विशाल शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की अभिकल्पन योजना में ६५ फ़ीट (२० मी॰) चौड़ा एक वर्ग बना है; जिसकी अन्दरूनी नाप ४२.५ फ़ी॰(१३ मी॰) है। शिवलिंग को तीन एक के ऊपर एक जुड़े चूनापत्थर खण्डों से बनाया गया है। इसकी ऊंचाई ७.५ फ़ी॰(२.३ मी॰) तथा व्यास १७.८ फ़ी॰(५.४ मी॰) है। यह शिवलिंग एक २१.५ फ़ी॰(६.६ मी॰) चौड़े वर्गाकार आधार (जलहरी) पर स्थापित है।  आधार सहित शिवलिंग की कुल ऊंचाई ४० फ़ी॰ (१२ मी॰) से अधिक है।
     गर्भगृह का प्रवेशद्वार ३३ फ़ी॰ (१० मी॰) ऊंचा है।] प्रवेश की दीवार पर अप्सराएं, शिवगण एवं नदी देवियों की छवियाँ अंकित हैं।मन्दिर की दीवारें बड़े-बड़े बलुआ पत्थर खण्डों से बनी हैं एवं खिड़की रहित हैं। पुनरोद्धार-पूर्व की दीवारों में कोई जोड़ने वाला पदार्थ या लेप नहीं था। उत्तरी, दक्षिणी एवं पूर्वी दीवारों में तीन झरोखे बने हैं, जिन्हें भारी भारी ब्रैकेट्स सहारा दिये हुए हैं। ये केवल दिखावटी बाल्कनी रूपी झरोखे हैं, जिन्हें सजावट के रूप में दिखाया गया है। ये भूमि स्तर से काफ़ी ऊंचे हैं तथा भीतरी दीवार में इनके लिये कुछ खुला स्थान नहीं दिखाई देता है। 
     पंडित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं की उत्तरी दीवार में एक मकराकृति की नाली है जो शिवलिंग पर चढ़ाए गये जल को जलहरी द्वारा निकास देती है।सामने की दीवार के अलावा, यह मकराकृति बाहरी दीवारों की इकलौती शिल्पाकृति है। पूर्व में देवियों की आठ शिल्पाकृतियां अन्दरूनी चारों दीवारों पर काफ़ी ऊंचाई पर स्थापित थीं, जिनमें से वर्तमान में केवल एक ही शेष है। किनारे के पत्थरों को सहारा देते चारों ब्रैकेट्स पर भगवानों के जोड़े – शिव-पार्वती, ब्रह्मा-सरस्वती, राम-सीता एवं विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियां अंकित हैं। प्रत्येक ब्रैकेट के प्रत्येक ओर एक अकेली मानवाकृति अंकित है। हालांकि मन्दिर की ऊपरी अधिरचना अधूरी है, किन्तु ये स्पष्ट है कि इसकी शिखर रूपी तिरछी सतह वाली छत नहीं बनायी जानी थी। किरीट मनकोडी के अनुसार, शिखर की अभिकल्पना एक निम्न ऊंचाई वाले पिरामिड आकार की बननी होगी जिसे समवर्ण कहते हैं एवं मण्डपों में बनायी जाती है।
     ऍडम हार्डी के अनुसार, शिखर की आकृति फ़ामसान आकार (बाहरी ओर से रैखिक) की बननी होगी, हालांकि अन्य संकेतों से यह भूमिज आकार का प्रतीत होता है। इस मन्दिर की छत गुम्बदाकार हैं जबकि इतिहासकारों के अनुसार मन्दिर का निर्माण भारत में इस्लाम के आगमन के पहले हुआ था। अतः मन्दिर के गर्भगृह पर बनी अधूरी गुम्बदाकार छत भारत में गुम्बद निर्माण के प्रचलन को इस्लाम-पूर्व प्रमाणित करती है। हालांकि इस्लामी गुम्बदों से यहां के गुम्बद की निर्माण की तकनीक भिन्न थी। अतः कुछ विद्वान इसे भारत में सबसे पहले बनी गुम्बदीय छत वाली इमारत भी मानते हैं।
     पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार इस मोजेश्वर मन्दिर का प्रवेश द्वार भी किसी अन्य हिंदू इमारत के प्रवेशद्वार की तुलना में सबसे बड़ा है। यह द्वार ११.२० मी॰ ऊंचा एवं ४.५५ मी॰ चौड़ा है। यह अधूरी किन्तु अत्यधिक नक्काशी वाली छत ३९.९६ फ़ी॰(१२.१८ मी॰) ऊंचे चार अष्टकोणीय स्तंभों पर टिकी हुई है। प्रत्येक स्तंभ तीन पिलास्टरों से जुड़ा हुआ है। ये चारों स्तंभ तथा बारहों पिलास्टर कई मध्यकालीन मन्दिरों के नवग्रह-मण्डपों की तरह बने हैं, जिनमें १६ स्तंभों को संगठित कर नौ भागों में उस स्थान को विभाजित किया जाता था, जहाँ नवग्रहों की नौ प्रतिमाएं स्थापित होती थीं।  यह मन्दिर काफ़ी ऊँचा है, इतनी प्राचीन मन्दिर के निर्माण के दौरान भारी पत्थरों को ऊपर ले जाने के लिए ढ़लाने बनाई गई थीं। इसका प्रमाण भी यहाँ मिलता है। मन्दिर के निकट स्थित बाँध का निर्माण भी राजा भोज ने ही करवाया था। बाँध के पास प्राचीन समय में प्रचुर संख्या में शिवलिंग बनाये जाते थे। यह स्थान शिवलिंग बनाने की प्रक्रिया की जानकारी देता है।

समझें मुख्य वास्तु दोषों को—

     यह प्राचीन शिव मंदिर बेतवा नदी के पूर्व में स्थित एक ऊंची चट्टान पर बना हुआ है मंदिर में प्रवेश करने के लिए लोहे का एक द्वार दक्षिण में स्थित है जो वास्तु शास्त्र के अनुसार पैशाच वीथी के पित्र ,मृग पदों पर बना हुआ है(यह व्यस्था मंदिर प्रांगण के अनुसार है जो अधिग्रहित क्षेत्र अर्थात प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के अंदर का ही  हिस्सा है) वास्तु शास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति अत्यधिक मात्रा में संघर्ष और दुर्गति देती है साथ ही आर्थिक रूप से भी असम्पन्न बनाती है मंदिर में गर्भ स्थल का प्रवेश पश्चिम दिशा से है जहाँ द्वार नही है अर्थात खुला हुआ है एवं क्रमशः उत्तर, पूर्व एवं दक्षिण में दीवारें एवं बड़े पिल्लर हैं जो कई जगहों से टूटे एवम खंडित हैं. मंदिर के ठीक बाहर में पूर्व -उत्तर ईशान की ओर एक काफी बड़ा एवं भारी पत्थर-मिट्टी का टीला है जो प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के लगभग शिखी एवं दिति पदों पर बनता है जो वास्तु शास्त्र के बड़े दोषों की श्रेणी में आता है और किसी भी वास्तु की आर्थिक स्थिति और प्रसिद्धि से संबंधित होता है।
     इस मंदिर प्रांगण के अग्नि कोण (प्रोटेक्टेड एरिया) के कुछ पद वितीथ, पूषा, अनिल,नभ,भृष,सत्य आदि  कटे हुए हैं इन पदों द्वारा रचनात्मकता ,नए सृजनात्मक विचारों और नई योजनाओं के क्रियांवयन का विचार किया जाता है वो पद ही नही हैं तो सृजनात्मकता ऐसी वास्तु में  कहाँ दिखेगी… प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल का मध्य दक्षिण अर्थात यम का पद भी कटा हुआ है दक्षिण दिशा का प्रतिनिधित्व मंगल द्वारा किया जाता है और शास्त्रों में मंगल को सेनापति की पदवी प्राप्त है… ऐसा राजा और सैनिक जिनका सेनापति ही ना हो तो राज्य तो दिशाहीन की होगा.वहीं सम्पूर्ण प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल का दक्षिण पश्चिम नेऋत्य भी बढ़ा हुआ है अर्थात संघर्ष, दुर्गति, किसी भी काम मे पूर्णता के ना होने को दर्शाता है.. अब सम्पूर्ण प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के पश्चिम दिशा को देखें तो पाते हैं कि बेतवा नदी सम्पूर्ण पश्चिम दिशा को कवर किये हुए है अर्थात जल तत्व है..
     पण्डित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार इस मंदिर के पश्चिम दिशा में वरुण पद में जल शुभ माना गया है परन्तु उत्तर-पश्चिम वायुवीय के पश्चिम और दक्षिण – पश्चिम नैरत्य के पश्चिम में जल तत्व का होना अशुभ है इस दोष के चलते आर्थिक असम्पन्नता, रोग, संघर्ष एवं एकलता आती है तो यहाँ देखा जा सकता है. कि यहाँ विशेष त्योहार जैसे महाशिवरात्रि, श्रावण मास आदि के अलावा भीड़ कम ही देखने को मिलती है (जिस अनुसार मंदिर प्राचीनतम है) और शाम तक होते-होते वीरान सा हो जाता है इसे ही एकलता का वास होना कहा जाताहै… अब प्लव दोष की बात की जाए तो तीन प्रकार के प्लव दोष भी यहाँ हैं पहला पूर्व से पश्चिम (अर्थात पूर्व ऊंचा और पश्चिम नीचा) इसे जल वीथी प्लव दोष कहा जाता है जो दरिद्रता देता है.. दूसरा उत्तर से दक्षिण के प्लव जिसे यम वीथी प्लव दोष कहते हैं जो जीवन हानि करता है और तीसरा पूर्व-उत्तर ईशान से दक्षिण-पश्चिम नैरत्य का प्लव जिसे भूत वीथी कहते हैं यह भी दरिद्रता और निःसंतनता लाता है(उक्त प्लव दोष का विवरण मनुष्यालय चंद्रिका ग्रंथ के श्लोक क्रमांक .9 में मिलता है) मौजूद हैं..
     उपरोक्त समस्त वास्तु दोषों के चलते आज तक कई सदियां बीत गयी पर मंदिर अपूर्ण है खंडहर स्वरूप है दीवार पर बनी मूर्तियाँ और स्तंभ खंडित हैं साथ ही भव्यता , सुंदरता, प्रसिद्धि में प्राचीनतम होते हुए भी तुलनात्मक रूप से कमी है यदि इस मंदिर का  जीर्णोधार कार्य करवाते समय उक्त दोषों पर विचार कर दोष निवारण कर दिया जाय तो इस बात में तनिक भी संदेह नही है कि इस मंदिर की भव्यता, प्रसिद्धि, ख्याति, सुंदरता और आकर्षण देखते सुनते ही बनेगी…
     उक्त शोध का आधार भारतीय वास्तु शास्त्र के साथ साथ मेरा निजी अनुभव है इस लेख का उद्देश्य वास्तु कला का ज्ञान फैलाना है ।

कैसे पहुंचे–

वायुसेवा —
     भोजपुर से २८ कि ॰मी॰ की दूरी पर स्थित राज्य की राजधानी भोपाल का राजा भोज विमानक्षेत्र यहाँ के लिये निकटतम हवाई अड्डा है। दिल्ली, मुम्बई, इंदौर और ग्वालियर से भोपाल के लिए उड़ानें उपलब्ध हैं।
रेल सेवा–
     दिल्ली-चेन्नई एवं दिल्ली-मुम्बई मुख्य रेल मार्ग पर भोपाल एवं हबीबगंज सबसे निकटतम एवं उपयुक्त रेलवे स्टेशन हैं।
बस सेवा–
     भोजपुर के लिए भोपाल से बसें मिलती हैं।




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