इन वास्तु उपायों से से लाएँ रिश्‍तों में मधुरता—
वास्तु अध्ययन व अनुभव यह बताता है कि जिस भवन में वास्तु स्थिति गड़बड होती है वहाँ व्यक्ति के पारिवारिक व व्यक्तिगत रिश्तों में अक्सर मतभेद, तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। वास्तु में पूर्व व ईशानजनित दोषों के कारण पिता-पुत्र के संबंधों में धीरे-धीरे गहरे मतभेद व दूरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और साथ ही कई परिवारों को पुत्र हानि का भी सामना करना पड़ता है। सूर्य को पुत्र का कारक ग्रह माना जाता है, जब भवन में ईशान व पूर्व वास्तु दोषयुक्त हो तो यह घाव में नमक का कार्य करता है। जिससे पिता-पुत्र जैसे संबंधों में तालमेल का भाव व पुत्र-पिता के प्रति दुर्भावना रखता है। वास्तु के माध्यम से पिता पुत्र के संबंधों को अति मधुर बनाया जा सकता है।
ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रों की चाल व ब्रह्मांड की क्रियाकलापों को देखते ही मन यह सोचने पर विवश हो जाता है कि यह परस्पर एक-दूसरे के चक्कर क्यों लगाते हैं। कभी तो अपनी परिधि में चलते हुए बिल्कुल पास आ जाते हैं तो कभी बहुत दूर। ब्रह्मांड की गतिशीलता व क्रियाकलाप परस्पर आपसी संबंधों पर निर्भर हैं। जिनको कभी हम प्रतिकूल और कभी अनुकूल स्थितियों में देखते या पाते हैं।
ठीक इसी के अनुरूप विश्व के देव-दानव, गंधर्व, नाग, किन्नर, मानव रिश्तों के डोर में आ बँधे। मानव जीवन के कई पवित्र व अनुपम रिश्ते हैं, जो जीवन के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इनमें समय के अनुसार उतार-चढ़ाव देखे जाते हैं, जो जीवन पथ पर कई खट्टी-मीठी यादें देते रहते हैं। किन्तु बढ़ती नीरसता, स्वार्थपरता, आपाधापी व अनैतिकता से आज सिर्फ पिता-पुत्र के मध्य ही नहीं बल्कि अनेक रिश्ते मतभेद, कटुता, कलह, नीरसता व कंलक के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं।
अक्सर लोग अपने घर का द्वार उत्तर या पूर्व दिशा में रखना चाहते हैं लेकिन समस्या तब आती है जब भूखंड के केवल एक ही ओर दक्षिण दिशा में रास्ता हो। वास्तु में दक्षिण दिशा में मुख्य द्वार रखने को प्रशस्त बताया गया है। आप भूखंड के 8. विन्यास करके आग्नेय से तीसरे स्थान पर जहां गृहस्थ देवता का वास है द्वार रख सकते हैं। द्वार रखने के कई सिद्धांत प्रचलित हैं जो एक दूसरे को काटते भी हैं ।
ऎसे में असमंजस पैदा हो जाता है। ऎसी स्थिति में सभी विद्वान मुख्य द्वार को कोने में रखने से मना करते हैं। ईशान कोण को पवित्र मानकर और खाली जगह रखने के उद्देश्य से कई लोग यहां द्वार रखते है लेकिन किसी भी वास्तु पुस्तक में इसका उल्लेख नहीं मिलता है।
दूसरी समस्या लेट-बाथ की आती है। क्योंकि जहां लैट्रिन बनाना प्रशस्त है वहां बाथरूम बनाया जाना वर्जित है। यहां ध्यान रखना चाहिए कि जहां वास्तु सम्मत लैट्रिन बने वहीं बाथरूम का निर्माण करे। यानी लैट्रिन को मुख्य मानकर उसके स्थान के साथ बाथरूम को जोड़े। यहां तकनीकी समस्या पैदा होती है कि लैट्रिन के लिए सेप्टिक टैंक कहां खोदे क्योंकि जो स्थान लैट्रिन के लिए प्रशस्त है वहां गड्डा वर्जित है। ऎसे में आप दक्षिण मध्य से लेकर नैऋत्य कोण तक का जो स्थान है उसके बीच में अटैच लेटबाथ बनाएं और उत्तर मध्य से लेकर वायव्य कोण तक का जो स्थान है उसके बीच सेप्टिक टैंक का निर्माण कराएं।
अक्सर लोग वास्तुपूजन को कर्म कांड कहकर उसकी उपेक्षा करते हैं। यह ठीक है कि वास्तुपूजन से घर के वास्तुदोष नहीं मिटते लेकिन बिना वास्तुपूजन किए घर में रहने से वास्तु दोष लगता है। इसलिए जब हम वास्तु शांति, वास्तुपूजन करते हैं तो इस अपवित्र भूमि कोे पवित्र करते हैं। इसलिए प्रत्येक मकान, भवन आदि में वास्तु पूजन अनिवार्य है। कुछ व्यक्ति गृह प्रवेश से पूर्व सुंदरकांड का पाठ रखते हैं। वास्तुशांति के बाद ही सुंदरकांड या अपने ईष्ट की पूजा-पाठ करवाई जानी शास्त्र सम्मत है।
फेंगशुई के सिद्धांत भारतीय वास्तु शास्त्र से समानता रखते हैं वहीं कई मामलों में बिल्कुल विपरीत देखे गए हैं। भारतीय वास्तु शास्त्र को आधार मानकर घर का निर्माण या जांच की जानी चाहिए और जहां निदान की आवश्यकता हों वहां फेंगशुई के उपकरणों को काम में लेने से फायदा देखा गया है।
वास्तु का प्रभाव हम पर क्यों होगा, हम तो मात्र किराएदार हैं। ऎसे उत्तर अक्सर सुनने को मिलते हैं। यहां स्पष्ट कर दें वास्तु मकान मालिक या किराएदार में भेद नहीं करता है। जो भी वास्तु का उपयोग करेगा वह उसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक फल भोगेगा। व्यक्ति पर घर के वास्तु का ही नहीं बल्कि दुकान कार्यालय, फैक्ट्री या जहां भी वह उपस्थित है उसका वास्तु प्रभाव उस पर पड़ेगा। घर में व्यक्ति ज्यादा समय गुजारता है। इसलिए घर के वास्तु का महत्व सर्वाधिक होता है। पड़ोसियों का घर भी अपना वास्तु प्रभाव हम पर डालता है।
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सुख-समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व स्थान का महत्व—
खुले स्थान का महत्व : वास्तु शास्त्र के अनुसार भूखण्ड में उत्तर, पूर्व तथा उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला स्थान अधिक रखना चाहिए। दक्षिण और पश्चिम में खुला स्थान कम रखें।
बॉलकनी, बरामदा, पोर्टिको के रूप में उत्तर-पूर्व में खुला स्थान ज्यादा रखें, टैरेस व बरामदा खुले स्थान के अन्तर्गत आता है। सुख-समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व में ही निर्मित करना शुभ होता है।
यदि दो मंजिला मकान बनवाने की योजना है, तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊँचाई कम रखें। उन्हीं दिशाओं में ही छत खुली रखनी चाहिए। उत्तर-पूर्व में ही दरवाजे व खिड़कियाँ सर्वाधिक संख्या में होने चाहिए। यह भी सुनिश्चित करें कि दरवाजे व खिड़कियों की संख्या विषम न होने पाएँ। जैसे उनकी संख्या ., 4, 6, 8 आदि रखें।मकान में गार्डेनिंगः आजकल लोग स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक होते जा रहे हैं। प्रायः शहरों में बन रहे मकानों में गार्डेनिंग की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है। वास्तु के अनुसार मकान में गार्डेनिंग के कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण-पश्चिम भाग में लगाएँ।
पौधे भवन में इस तरह लगाएँ कि प्रायः तीसरे प्रहर अर्थात्‌ तीन बजे तक मकान पर उनकी छाया न पड़े। वृक्षों में पीपल पश्चिम, बरगद पूर्व, गूलर दक्षिण और कैथ का वृक्ष उत्तर में लगाएँ।
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महत्वपूर्ण व उपयोगी तथ्य जो पिता-पुत्र के संबंधों को प्रभावित करते हैं :—
– ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूखण्ड कटा हुआ नहीं होना चाहिए।
– भवन का भाग ईशान (उत्तर-पूर्व) में उठा होना अशुभ हैं। अगर यह उठा हुआ है तो पुत्र संबंधों में मधुरता व नजदीकी का आभाव रहेगा।
– उत्तर-पूर्व (ईशान) में रसोई घर या शौचालय का होना भी पुत्र संबंधों को प्रभावित करता है। दोनों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी रहती है।
–दबे हुए ईशान में निर्माण के दौरान अधिक ऊँचाई देना या भारी रखना भी पुत्र और पिता के संबंधों को कलह और परेशानी में डालता रहता है।
– ईशान (उत्तर-पूर्व) में स्टोर रूम, टीले या पर्वतनुमा आकृति के निर्माण से भी पिता-पुत्र के संबंधों में कटुता रहती है तथा दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।
– इलेक्ट्रॉनिक आइटम या ज्वलनशील पदार्थ तथा गर्मी उत्पन्न करने वाले अन्य उपकरणों को ईशान (उत्तर-पूर्व) में रखने से पुत्र, पिता की बातों की अवज्ञा अर्थात्‌ अवहे‌लना करता रहता है, और समाज में बदनामी की स्थिति पर ला देता है।
– इस दिशा में कूड़ेदान बनाने या कूड़ा रखने से भी पुत्र, पिता के प्रति दूषित भावना रखता हैं। यहाँ तक मारपीट की नौबत आ जाती है।
– ईशान कोण खंडित होने से पिता-पुत्र आपसी मामलों को लेकर सदैव लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
– यदि कोई भूखंड उत्तर व दक्षिण में सँकरा तथा पूर्व व पश्चिम में लंबा है तो ऐसे भवन को सूर्यभेदी कहते हैं यहाँ भी पिता-पुत्र के संबंधों में अनबन की स्थिति सदैव रहती है। सेवा तो दूर वह पिता से बात करना तथा उसकी परछाई में भी नहीं आना चाहता है।
इस प्रकार ईशान कोण दोष अर्थात्‌ वास्तुजनित दोषों को सुधार कर पिता-पुत्र के संबंधों में अत्यंत मधुरता लाई जा सकती हैं। सूर्य संपूर्ण विश्व को ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है तथा इसी के सहारे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संचालित होती है तथा पराग कण खिलते हैं जिसके प्रभाव से वनस्पति ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत्‌ प्रभावित होता है। पूर्व व ईशानजनित दोषों से प्राकृतिक तौर पर प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिल पाती और पिता-पुत्र जैसे संबंधों में गहरे तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव वास्तुजनित दोषों को समझते हुए ईशान की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
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वास्तु अनुसार इन दिशाओं में छुपी हैं आपकी उन्नति/प्रगति—
– उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है। जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
– उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता हैं। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान मामले प्रभावित होते हैं।
– पूर्व दिशा के देवता इंद्र हैं जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आम तौर पर सूर्य ही को इस दिशा का स्वामी माना जाता जो प्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तुनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं। जिससे सुख-संतोष तथा आत्मविश्वास प्रभावित होता है।
– दक्षिण-पूर्व (अग्नेय कोण) के देवता अग्नि देव हैं जो आग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं।
– दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं। जिन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियाँ व शांति प्राप्ति होती है।
– दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं जिन्हे दैत्यों का स्वामी कहा जाता है। जिससे आत्मशुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एव आयु प्रभावित होती है।
– पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं जिन्हें जलतत्व का स्वामी कहा जाता है। जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं। जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है।
– उत्तर-पश्चिम के देवता पवन देव है। जो हवा के स्वामी हैं। जिससे सम्पूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है।

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