शनि—-लावण्यता,सौम्यता,हठधर्मिता एवं गंभीरता के प्रतीक
शनि राजा को रंक व रंक को राजा बना सकते हैं। मान्यता है कि सूर्य पुत्र जिस घर को मित्रवत देखते हैं, उसे सुंदर तथा अधिकाधिक लाभ होता है। हालांकि जिस किसी पर इनकी शत्रु दृष्टि पड़ती है, उसे तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। आखिर शनि जी क्या हैं? पृथ्वी लोक पर उनका अधिकार कहां तक है? इन्हीं सब सवालों के जवाब दे रहे हैं वरिष्ठ ज्योतिषविद् पण्डित आनन्द अवस्थी:
धर्म ग्रन्थों, शास्त्रों के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी छाया (सुवर्णा) के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ। लेकिन शनि का श्याम वर्ण देखकर सूर्य देव ने उन्हें अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया। मां के ऊपर लगाए गए इस लांछन की वजह से ही शनि अपने पिता से शत्रुता का भाव रखते हैं। उन्होंने अपनी साधना, आराधना व तपस्या के बल पर शिव जी को प्रसन्न किया और उनसे कहा कि मेरी माता ने घोर अपमान व प्रताड़ना सहा है। मां की इच्छा है कि मैं अपने पिता सूर्य देव से भी अधिक शक्तिशाली बनूं। भोलेनाथ ने वरदान दिया कि नवग्रहों में तुम्हारा स्थान सर्वश्रेष्ठ रहेगा। मानव के साथ देवता भी शनि के कोप से डरेंगे। इस तरह शनि जी ने सूर्य देव की तरह शक्ति प्राप्त की।
सामान्य स्वभाव:—
शनि जी मुख्यत: गम्भीर माने जाते हैं। त्यागी, तपस्वी होने के साथ-साथ हठधर्मिता व क्रोध भी सामान्यत: उनके स्वभाव में पाया जाता है। वह आकाश मण्डल के सबसे सुन्दर ग्रह भी हैं और उन्हें वृद्ध अवस्था के प्रतीक के साथ पश्चिम दिशा, आलसी, तपोगुणी, श्यामवर्ण व कसैले रस का स्वामी माना गया है।
ज्योतिषीय आधार पर:—
शनि, मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी होता है। यह तुला राशि में उच्च और मेष राशि में नीच होता है। इसको रात्रि में, दक्षिणायन में, राश्यन्त में, कृष्ण पक्ष में एवं वक्री अवस्था में बलवान माना जाता है।
वैज्ञानिक रूप से:—-
शनि ग्रह पृथ्वी से लगभग ..5 अरब किलोमीटर दूर है। इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी से 95 गुना अधिक है। सभी ग्रहों में यह बेहद शक्तिशाली माना जाता है। मन्द गति से चलकर यह अपनी परिक्रमा पूरी करता है और गोचर में अच्छे-बुरे दोनों तरह के फलों की उत्पत्ति करता है।
शनि की साढ़ेसाती:—
स्वजन्म राशेर्यदि गोचरेअसिताअपायोपग: के जननो पगो हृदि।
पादे द्वितीये पशु-नन्दन-क्षयं-रुग्घानिभीति: कुरुते वृथा कलिम्।।
अपनी चन्द्र राशि से गोचरगत शनि जब बारहवें स्थान में आता है तो साढ़ेसाती की शुरुआत होती है। बारहवें शनि हों तो सिर में, जन्म राशि लग्न में हों तो हृदय में, द्वितीय पाद अर्थात दूसरे स्थान, धन स्थान, कुटुम्ब स्थान में हों तो पैरों पर शनि आया समझना चाहिए। द्वादश, चंद्र लग्न, द्वितीय भाव में आया शनि मुख्य रूप से मानसिक कष्ट, अपमान, अपयश, अपभय, निराशावादिता, क्लेश, गुप्त भय, रोग, खर्च व दुर्घटना आदि की स्थिति उत्पन्न करता है। अगर जन्मांक में शनि पाप प्रभाव वाले ग्रहों जैसे राहु, केतु, मंगल, क्षीणचंद्रमा, सूर्य आदि से योग करता हो तो ऐसी दशा में मनुष्य को शोक, दुख, असफलता और हानि का सामना करना पड़ता है। इसे वृहत्कल्याणी साढ़ेसाती कहते हैं। चन्द्र लग्न से चतुर्थ तथा अष्टम स्थान में गोचरकारी शनि आए तो लघुकल्याणी ढैया कही जाती है। शास्त्रों में ढैया का फल भी व्यवहारिक रूप से साढ़ेसाती के समान ही माना गया है।
शनि आमतौर पर .. वर्षों में अपना भ्रमण पूरा करता है। इसमें 1. वर्ष 6 महीने यदि यह मनुष्य को कष्टित करता है तो 7 वर्ष 6 महीने तृतीय भाव, षष्ट भाव और एकादश भाव में रह कर रंक से राजा बनाने का भी काम करता है। वर्तमान समय में मिथुन, सिंह, कन्या, तुला और कुम्भ राशि के लिए गोचरकारी कन्या राशि का शनि शारीरिक, मानसिक, आर्थिक कष्टकारी होगा। जबकि मेष, कर्क, वृश्चिक राशि वाले लोगों के लिए सोने में सुहागा वाली स्थिति होगी।
शनि दोष निवारण:—–
शनि ग्रह की प्रिय वस्तुएं जैसे गाली गाय, काला कपड़ा, तेल, उड़द, खट़टा-कसैला पदार्थ, काले पुष्प, चाकू, छाता, काली चप्पल और काले तिल आदि का शनिवार के दिन दान करना चाहिए।
शनि का रत्न नीलम, जामुनिया, कटेला पांच रत्ती से ऊपर का धारण करना चाहिए।
पीपल के पेड़ के नीचे प्रदोष काल में कड़ुए तेल का दीपक जलाना चाहिए। तिल्ली के तेल का दीपक भी जला सकते हैं। काला तिल चढ़ाने से विशेष लाभ मिलता है।
शनिवार को सायंकाल बूढ़े-बुजुर्ग की सेवा करनी चाहिए।
काले घोड़े की नाल का छल्ला पहनना उत्तम माना जाता है।
भैंसा या घोड़े को शनिवार के दिन काला देशी चना खिलाने से शनि जी प्रसन्न होते हैं।
शनिवार के दिन पुष्प नक्षत्र होने पर बिछुआ बूटी की जड़ एवं शमी (छोकर) की जड़ को काले धागे में बांधकर दाहिनी भुजा में धारण करने से शनि का प्रभाव कम होता है।
मंगलवार, शनिवार व्रत से शनि जी प्रसन्न होते हैं। बजरंगबाण का पाठ और हनुमान जी आराधना भी साढ़ेसाती/ढैया में विशेष रूप से प्रभावकारी मानी गई है।
शनि-मंगल मंत्र का जाप:—-
ऊं शं शनैश्चराय नम:।
ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।
ऊं हं हनुमते नम:।
शनि के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए इन मंत्रों का 23000 की संख्या में जाप करना चाहिए। इसके अलावा व्रत, रत्न, अन्धविद्यालय एवं कुष्ठाश्रम में दान करके भी शनि के प्रभाव को कम किया जा सकता है।