मनुस्मृति—खींवराज शर्मा
भारतीय पंरपरा में मनुस्मृति को (जो मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से प्रसिद्ध है) प्राचीनतम स्मृति एवं प्रमाणभूत शास्त्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृंहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस भार्गवीया मनुस्मृति की तरह नारदीया मनुस्मृति भी प्रचलित है।
मनुस्मृति’ वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल देश में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।
मनुस्मृति’ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसकी गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है। इसमें प्रश्न केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, किसी भी प्रकार आपसी सहयोग तथा सुरुचिपूर्ण ढंग से हो सके, यह अपेक्षा और आकांक्षा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति में होती है। विदेशों में इस विषय पर पर्याप्त खोज हुई है, तुलनात्मक अध्ययन हुआ है, और समालोचनाएँ भी हुई हैं। हिन्दु समाज में तो इसका स्थान वेदत्रयी के उपरांत हैं। मनुस्मृति के बहुत से संस्करण उपलब्ध हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता
मनुस्मृति के प्रणेता एवं काल
मनुस्मृति के काल एवं प्रणेता के विषय में नवीन अनुसंधानकारी विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। किसी का मत है कि “मानव” चरण (वैदिक शाखा) में प्रोक्त होने के कारण इस स्मृति का नाम मनुस्मृति पड़ा। कोई कहते हैं कि मनुस्मृति से पहले कोई मानव धर्मसूत्र था (जैसे मानव गृह्यसूत्र आदि हैं) जिसका आश्रय लेकर किसी ने एक मूल मनुस्मृति बनाई थी जो बाद में उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में प्रचलित हो गई। मनुस्मृति के अनेक मत या वाक्य जो निरुक्त, महाभारतादि प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलते हैं, उनके हेतु पर विचार करने पर भी कई उत्तर प्रतिभासित होते हैं। इस प्रकार के अनेक तथ्यों का बूहलर (Buhler, G.) (सैक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट सीरीज, संख्या २५), मदृ मदृ काणे (हिस्ट्री ऑव धर्मणात्र में मनुप्रकरण) आदि विद्वानों ने पर्याप्त विवेचन किया है। यह अनुमान बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है कि मनु के नाम से धर्मशास्त्रीय विषय परक वाक्य समाज में प्रचलित थे, जिनका निर्देश महाभारतादि में है तथा जिन वचनों का आश्रय लेकर वर्तमान मनुसंहिता बनाई गई, साथ ही प्रसिद्धि के लिये भृगु नामक प्राचीन ऋषि का नाम उसके साथ जोड़ दिया गया। मनु से पहले भी धर्मशास्त्रकार थे, यह मनु के “एके” आदि शब्दों से ही ज्ञात हुआ है। कौटिल्य ने “मानवा: (मनुमतानुयायियों) का उल्लेख किया है।
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार मनु परंपरा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यह बात दूसरी है कि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं) यह बात यवन, शक, कांबोज, चीन आदि जातियों के निर्देश से ज्ञात होती है। यह भी निश्चित हे कि स्मृति का वर्तमान रूप द्वितीय शती ईसा पूर्व तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया।
मनुस्मृति भारतीय आचार-संहिता का विश्वकोश है, मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म व प्रायश्चित आदि विषयों का उल्लेख है। ब्रिटिश शासकों ने भी मनुस्मृति को ही आधार बनाकर ‘इण्डियन पेनल कोड’ बनाया तथा स्वतन्त्र भारत की विधानसभा ने भी संविधान बनाते समय इसी स्मृति को प्रमुख आधार माना।
(१) जगत् की उत्पत्ति;
(२) संस्कारविधि; व्रतचर्या, उपचार;
(३) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प;
(४) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत;
(५) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्रीधर्म;
(६) वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास;
(७) राजधर्म;
(८) कार्यविनिर्णय, साक्षिप्रश्नविधान;
(९) स्त्रीपुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटकशोधन, वैश्यशूद्रोपचार;
(१०) संकीर्णजाति, आपद्धर्म;
(११) प्रायश्चित्त;
(१२) संसारगति, कर्म, कर्मगुणदोष, देशजाति, कुलधर्म, निश्रेयस।
मनुस्मृति के कुछ चुने हुए श्लोक
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध ) )
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु ।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥
कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे । जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे । चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े ।
नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा ।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥
न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये ।
तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत ॥
अर्थ – तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात – व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता – मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है ।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥
अर्थ – अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले – ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।