******पुराणों के अनुसार देवोपासना की कुछ विधियां!*—पवन तलहन *****
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नित्योपासना में दो प्रकार की पूजा बतायी गयी है—
१–मानसपूजा,
२–बाह्यापूजा !
साधक को दोनों प्रकार की पूजा करनी चाहिये, तभी पूजाकी पूर्णता है! अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार बाह्यपूजा के उपकरण अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निवेदन करना चहिये!
शास्त्रों में लिखा है कि “वित्तशाठयं न समाचरेत” अर्थात देव-पूजानादि कार्यों में कंजूसी नहीं करनी चाहिये! सामान्यत: जो वस्तु हम अपने उपयोग में लेते हैं, उससे हल्की वस्तु अपने आराध्य को अर्पण करना उचित नहीं है! वास्तव में भगवान को वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं! वे उपचारों को तभी स्वीकार करते हैं, जब निष्कपट भाव से व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से निवेदन करता है!
बाह्यपूजा के विविध विधान हैं, यथा– राजोपचार, सहस्त्रोपचार,, चतु:षष्टपचार, षोडशोपचार, पंचोपचार-पूजन आदि!
यद्यपि सम्प्रदाय-भेद से पूजन किंचित भेद भी हो जाते हैं, परन्तु सामान्यत: सभी देवों के पूजन की विधि समान है! गृहस्त प्राय: स्मार्ट होते हैं, जो पंचदेवों की पूजा करते हैं! पंचदेवों में
१-गणेश, २–दुर्गा, २–शिव, ४–विष्णु, और ५–सूर्य हैं!
ये पाँचों देव स्वयं में पूर्ण ब्रह्म-स्वरुप है, जिन्हें वह सिंहासन पर मध्य में सथापित करता है! फिर यथालब्धोपचार-विधि से उनका पूजन करता है! संक्षेप और विस्तार-भेद से अनेक प्रकार के उपचार हैं, जैसे–
चौंसठ, अठारह, सोलह, दस और पांच!
मानस-पूजा में उपचार ही ध्यान करा देते हैं! बाह्यपूजा में उपचारों का अभाव होने पर भी स्थिरभाव से मन्त्रों का पाठ कर लेनेपर पूजा का ही फल मिलता है!
विशेष——
देवी की पूजा के लिये चौंसठ उपचारों का प्रयोग होता है!

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