श्री बटुक भैरव जयंती .8 मई 2..5 (गुरुवार) को मनाई जाएगी—
श्री बटुक भैरव साधना- अकाल मौत से बचाती है ‘भैरव साधना’
श्री बटुक भैरव साधना से मिलेगा दुखों से छुटकारा—-
तंत्र साधना में शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण नामक छ: तांत्रिक षट् कर्म होते हैं। इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:- मारण, मोहनं, स्तंभनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये नौ प्रयोग हैं।
उक्त सभी को करने के लिए अन्य कई तरह के देवी-देवताओं की साधना की जाती है। अघोरी लोग इसके लिए शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना करते हैं। बहुत से लोग भैरव साधना, नाग साधना, पैशाचिनी साधना, यक्षिणी साधा या रुद्र साधना करते हैं। यह प्रस्तुत है अकाल मौत से बचाने वाली और धन संपत्ति प्रदान करने वाली बटुक भैरव साधना।
भैरव को शिव का रुद्र अवतार माना गया है। तंत्र साधना में भैरव के आठ रूप भी अधिक लोकप्रिय हैं-
1.असितांग भैरव, 2. रु-रु भैरव, .. चण्ड भैरव, 4. क्रोधोन्मत्त भैरव, 5. भयंकर भैरव, 6. कपाली भैरव, 7. भीषण भैरव तथा 8. संहार भैरव। आदि शंकराचार्य ने भी ‘प्रपञ्च-सार तंत्र’ मंद अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं। तंत्र शास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है।
हालांकि प्रमुख रूप से काल भैरव और बटुब भैरव की साधना ही प्रचलन में है। इनका ही ज्यादा महत्व माना गया है। आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है। भैरव का सबसे सौम्य रूप बटुक भैरव और उग्र रूप है काल भैरव।
‘महा-काल-भैरव’ मृत्यु के देवता हैं। ‘स्वर्णाकर्षण-भैरव’ को धन-धान्य और संपत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तो ‘बाल-भैरव’ की आराधना बालक के रूप में की जाती है। सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही करते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की। हालाँकि के नाम की सार्थकता के बारे में जाना जाय। क्योंकि ये ब्रह्मदेव के प्रतीक माने गए हैं साथ ही ब्रह्माजी के वरदान स्वरूप ये सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामर्थ्य हैं। अत: इनका नाम भैरव हुआ। भैरव शब्द का विग्रह करके समझा जाय तो “भ” अर्थात विश्व का भरण करने वाला, “र” अर्थात विश्व में रमण करने वाला और “व” अर्थात वमन यानी कि सृष्टि का पालन पोषण करने वाला। इन दायित्वों का निर्वहन करने के कारण इनका नाम भैरव हुआ।
अब इनके नाम के पहले जुडने वाले शब्द “बटुक” के बारे में जाना जाय—–
“बटुक” का अर्थ होता है छोटी उम्र का बालक। अर्थात आठ वर्ष से कम उम्र के बालक को “बटुक” कहा जाता है। वर्णन मिलता है कि महर्षि दधीचि भगवान शिव के परम भक्त थे। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शिवदर्शन रखा लेकिन भगवान शिव नें उसका एक नाम और रखा जो था “बटुक”। अर्थात यह नाम भगवान शिव को प्रिय है। इसीलिए बटुक भैरव को भगवान शिव का बालरूप माना जाता है। इनकी वेश-भूषा शिव के समान ही है। इनको श्याम वर्ण माना गया है। इनके भी चार भुजाएं हैं, जिनमें भैरव जी ने त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण कर रखा है। इनका वाहन श्वान अर्थात कुत्ता है। इनका निवास भी भगवान भूतनाथ की तरह श्मशान ही माना गया है। भैरव भी भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। इनके स्वरूप को देखकर सामान्यतय: ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म राक्षस अथवा अत्याचारियों को मारने के लिए हुआ होगा। परन्तु जैसा कि पहले ही बताया गया कि वास्तव में इनका अवतरण ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए हुआ है।
बटुक भैरवजी तुरंत ही प्रसन्न होने वाले दुर्गा के पुत्र हैं। बटुक भैरव की साधना से व्यक्ति अपने जीवन में सांसारिक बाधाओं को दूर कर सांसारिक लाभ उठा सकता है।
साधना का मंत्र :–
।।ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा।।
उक्त मंत्र की प्रतिदिन 11 माला 21 मंगल तक जप करें। मंत्र साधना के बाद अपराध-क्षमापन स्तोत्र का पाठ करें। भैरव की पूजा में श्री बटुक भैरव अष्टोत्तर शत-नामावली का पाठ भी करना चाहिए।
साधना यंत्र :— श्री बटुक भैरव का यंत्र लाकर उसे साधना के स्थान पर भैरवजी के चित्र के समीप रखें। दोनों को लाल वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर यथास्थिति में रखें। चित्र या यंत्र के सामने हाल, फूल, थोड़े काले उड़द चढ़ाकर उनकी विधिवत पूजा करके लड्डू का भोग लगाएं।
साधना समय : इस साधना को किसी भी मंगलवार या मंगल विशेष अष्टमी के दिन करना चाहिए शाम 7 से 10 बजे के बीच।
साधना चेतावनी : साधना के दौरान खान-पान शुद्ध रखें। सहवास से दूर रहें। वाणी की शुद्धता रखें और किसी भी कीमत पर क्रोध न करें। यह साधना किसी गुरु से अच्छे से जानकर ही करें।
साधना नियम व सावधानी :—-
1. यदि आप भैरव साधना किसी मनोकामना के लिए कर रहे हैं तो अपनी मनोकामना का संकल्प बोलें और फिर साधना शुरू करें।
2. यह साधना दक्षिण दिशा में मुख करके की जाती है।
3. रुद्राक्ष या हकीक की माला से मंत्र जप किया जाता है।
4. भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें।
5. भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिए।
6. साधक लाल या काले वस्त्र धारण करें।
7. हर मंगलवार को लड्डू के भोग को पूजन-साधना के बाद कुत्तों को खिला दें और नया भोग रख दें।
8. भैरव को अर्पित नैवेद्य को पूजा के बाद उसी स्थान पर ग्रहण करना चाहिए।
9. भैरव की पूजा में दैनिक नैवेद्य दिनों के अनुसार किया जाता है, जैसे रविवार को चावल-दूध की खीर, सोमवार को मोतीचूर के लड्डू, मंगलवार को घी-गुड़ अथवा गुड़ से बनी लापसी या लड्डू, बुधवार को दही-बूरा, गुरुवार को बेसन के लड्डू, शुक्रवार को भुने हुए चने, शनिवार को तले हुए पापड़, उड़द के पकौड़े या जलेबी का भोग लगाया जाता है।
इस साधना से बटुक भैरव प्रसन्न होकर सदा साधक के साथ रहते हैं और उसे सुरक्षा प्रदान करते हैं अगाल मौत से बचाते हैं। ऐसे साधक को कभी धन की कमी नहीं रहती और वह सुखपूर्वक वैभवयुक्त जीवन- यापन करता है। जो साधक बटुक भैरव की निरंतर साधना करता है तो भैरव बींब रूप में उसे दर्शन देकर उसे कुछ सिद्धियां प्रदान करते हैं जिसके माध्यम से साधक लोगों का भला करता है।
भैरव जी का रंग श्याम है। उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण किए हुए हैं। उनका वाहन श्वान यानी कुत्ता है। भैरव श्मशानवासी हैं। ये भूत-प्रेत, योगिनियों के स्वामी हैं। भक्तों पर कृपावान और दुष्टों का संहार करने में सदैव तत्पर रहते हैं।
भगवान भैरव अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर बल, बुद्धि, तेज, यश, धन तथा मुक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भैरव जयंती को अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव का व्रत रखता है, पूजन या उनकी उपासना करता है वह समस्त कष्टों से मुक्त हो जाता है। श्री भैरव अपने उपासक की दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं। स्कंद पुराण के अवंति खंड के अंतर्गत उज्जैन में अष्ट महाभैरव का उल्लेख मिलता है। भैरव जयंती पर अष्ट महाभैरव की यात्रा तथा दर्शन पूजन से मनोवांछित फल की प्राप्ति तथा भय से मुक्ति मिलती है। भैरव तंत्र का कथन है कि जो भय से मुक्ति दिलाए वह भैरव है।भय स्वयं तामस-भाव है। तम और अज्ञान का प्रतीक है यह भाव। जो विवेकपूर्ण है वह जानता है कि समस्त पदार्थ और शरीर पूरी तरह नाशवान है। आत्मा के अमरत्व को समझ कर वह प्रत्येक परिस्थिति में निर्भय बना रहता है। जहाँ विवेक तथा धैर्य का प्रकाश है वहाँ भय का प्रवेश हो ही नहीं सकता। वैसे भय केवल तामस-भाव ही नहीं, वह अपवित्र भी होता है।। इसीलिये भय के देवता महाभैरव को यज्ञ में कोई भाग नहीं दिया जाता। कुत्ता उनका वाहन है। क्षेत्रपाल के रूप में उन्हें जब उनका भाग देना होता है तो यज्ञीय स्थान से दूर जाकर वह भाग उनको अर्पित किया जाता है, और उस भाग को देने के बाद यजमान स्नान करने के उपरांत ही पुन: यज्ञस्थल में प्रवेश कर सकता है।
क्या है भैरव का मूल स्थान :-
श्मशान तथा उसके आसपास का एकांत जंगल ही भैरव का मूल स्थान है। संपूर्ण भारत में मात्र उज्जैन ही एक ऐसा स्थल है, जहां ओखलेश्वर तथा चक्रतीर्थ श्मशान हैं। अष्ट महाभैरव इन्हीं स्थानों पर विराजमान है।
उज्जैन में विराजित अष्ट भैरव :-
स्कंद पुराण की मान्यता अनुसार उज्जैन में अष्ट भैरव कई स्थानों पर विराजमान है।
* भैरवगढ़ में काल भैरव,
* दंडपाणी भैरव
* रामघाट पर आनंद भैरव,
* ओखलेश्वर श्मशान में विक्रांत भैरव,
* चक्रतीर्थ श्मशान में बम-बटुक भैरव,
* गढ़कालिका के समीप काला-गौरा भैरव,
* कालिदास उद्यान में चक्रपाणी भैरव,
* सिंहपुरी में आताल-पाताल।
भैरव नाम जाप से कई रोगों से मुक्ति—–
भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्ठाान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगाना लाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार भैरव को स्वयं ब्रह्मदेव का प्रतीक माना गया है। जबकि रूद्राष्टाध्यायी और भैरव तंत्र के अनुसार भैरव जी को भगवान शिव का ही अंशावतार माना गया है। ऐसे में एक शंका का मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। वास्तव में भैरव जी शिव के ही अवतार है। शास्त्रों में इनको शिवांश मानते हुए कहा गया है कि भैरव पूर्ण रूप से देवाधिदेव शंकर ही हैं। लेकिन भगवान शंकर की माया से ग्रस्त होने के फलस्वरूप एक सामन्य व्यक्ति इस तथ्य को नहीं जान पाता। लेकिन भैरव के रूप में शिव के प्राकट्य के पीछे जो कारण है वह ब्रह्मदेव के कार्यों सम्पन्न करना है। वास्तव में इनका अवतरण ब्रम्हा जी की मति फिर जाने की अवस्था में उन्हें धर्म का मर्म समझाने हेतु हुआ है। इसीलिए इन्हें ब्रह्मदेव का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हैं तो ये शिव के ही अंश या अवतार लेकिन ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए इनका अवतरण हुआ है अत: इनकी पूजा आराधना से दोनो ही देवों की कृपा स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है। खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
तंत्र साधक का मुख्य लक्ष्य भैरव की भावना से अपने को आत्मसात करना होता है। कालभैरव की पूजा प्राय: पूरे देश में होती है, और अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने जाते हैं। महाराष्ट्र में खण्डोबा उन्हीं का एक रूप है, और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही उनको मान्यता मिली हुई है, और उनकी अनेक प्रकार की मनौतियां भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है। एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।
भैरव के कोई लौकिक माता पिता नहीं हैं। अत: इन्हें अवतार ही माना गया है। इन्हें कलियुग में प्रभावी देवी देवताओं में प्रमुखता प्राप्त है। यद्यपि अन्य देवताओं की तरह श्री भैरव के भी अनेक रूप माने गए हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। फिर भी सभी भैरवों में बटुक भैरव की उपासना प्रमुख है। बटुक भैरव जी कि विस्तृत कथा स्कंध पुराण में है साथ ही भगवान शिव द्वारा रचित रुद्रमाल्या ग्रन्थ में भी भगवान भैरव नाथ कि कथा का वर्णन मिलता है जिसमें स्वयं भगवान शिव ने कहा है कि जो कोई बटुक भैरव की आराधना सच्चे मन से करता है, उसे मृत्योपरांत कैलाश धाम की प्राप्ति होती है।
भैरवनाथ को आपत्तियों का विनाश करने वाला देवता कहा गया है साथ ही ये एक ऐसे देवता है जिनकी पूजा उपासना से मनोकामना पूर्ति अवश्य होती है। इनकी उपासना से भूत-प्रेत बाधा से त्वरित मुक्ति मिलती है। लोगों की इन पर अपार श्रद्धा है। इनकी लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से सहज लगाया जा सकता है कि प्राय: हर गांव के पूर्व में स्थित देवी-मंदिर में स्थापित सात पीढियों के पास में आठवीं भैरव-पिंडी अवश्य होती है। नगरों के देवी-मंदिरों में भी भैरव महराज विराजमान रहते हैं। देवी के भक्तों की पूजा उपासना से जब देवी प्रसन्न होती है तब भैरव को आदेश देकर ही देवी मां भक्तों की कार्य सिद्धि और मनोकामना पूर्ण कराती हैं।
इनसे काल भी भयभीत रहता है। इनमें दुष्टों का संहार करने की असीम क्षमता है। शिवजी ने इन्हें काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। शिवजी का यह कोतवाल ऐसा है जिसके राज्य में मानव जीवन में दुख-दर्द जैसे अपराधी नहीं पनपने पाते। जो व्यक्ति अपनी कुण्डली में स्थित पाप ग्रहों के दुष्प्रभाव से पीडित हों या शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से दुखी हों। जिन्हें मंगल, शनि, राहू, केतू आदि ग्रहों से अशुभफल मिल रहे हैं। अथवा कोई ग्रह नीच या शत्रु क्षेत्रीय होकर कष्ट दे रहा है तो भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार या मंगलवार से प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूलमंत्र की एक माला का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिनों तक करें। ऐसा करने से आपके जीवन में अशुभता की कमी होगी और शुभ फलों की प्राप्ति अवश्य होगी।
तांत्रोक्त भैरव कवच—
ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः |
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ||
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा |
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ||
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे |
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ||
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा |
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ||
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः |
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ||
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु |
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ||
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः |
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ||
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः |
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ||
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा |
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ||
इस आनंददायक कवच का प्रतिदिन पाठ करने से प्रत्येक विपत्ति में सुरक्षा प्राप्त होती है| यदि योग्य गुरु के निर्देशन में इस कवच का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाए तो साधक सर्वत्र विजयी होकर यश, मान, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि से पूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है|
—क्या हैं विज्ञान भैरव तंत्र—-
एक अद्भुत ग्रंथ है भारत मैं। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अद्भुत ग्रंथ पृथ्वी् पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव तंत्र। छोटी सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनियां में खोजनी मुश्किल है। कुछ एक सौ बारह सूत्र है। हर सुत्र में एक ही बात है। पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात, और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
शिव-पार्वती–विज्ञान भैरव तंत्र—-
पार्वती पूछ रहीं है शंकर से,शांत कैसे हो जाऊँ? आनंद को कैसे उपलब्धर हो जाऊँ? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तिैयों में शंकर उत्त र देते है। दो पंक्तिायों में वे कहते है, बाहर जाती है श्वागस, भीतर जाती है श्वाास। दोनों के बीच में ठहर जा, अमृत को उपलब्धव हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वाजस, भीतर आती है श्वादस, दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्धु हो जाएगा। पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। शंकर दो-दो में कहते चले जाते है। हर बार पार्वती कहती है। नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तिरयां। और हर पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति् का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वामस, अंदर जाती श्वा स। जन्म् और मृत्युक, यह रहा जन्म यह रही मृत्युर। दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहे। एक सौ बारह बार। पर एक ही बात दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रतिकार-आसक्तिछ–विरक्तिथ, ठहर जा—अमृत की उपलब्धि। दो के बीच दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए वह गोल्डकन मीन, स्वथर्ण सेतु को उपलब्धृ हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वहीं है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है। कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थर हो जाना। सम्मानन-अपमान, ठहर जाओ—मुक्तिक। दुख-सुख, रूक जाओ—प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु,ठहर जाओ—सच्चिदानंद में गति। कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना ओर दो के बीच में तटस्थ् हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्तक योग का सार इतना ही है। दो के बीच में जो ठहर जाता,वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्धी हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठि त हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत में च्युित हो जाती है।
विघ्नहर्ता भैरव—-
शिवपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान भैरव प्रकट हुए थे, जिसे श्रीकाल भैरवाष्टमी के रूप में जाना जाता है। रूद्राष्टाध्यायी तथा भैरव तंत्र के अनुसार भैरव को शिवजी का अंशावतार माना गया है। भैरव का रंग श्याम है। उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण किए हुए हैं। इनका वाहन श्वान (कुत्ता) है। इनकी वेश-भूषा लगभग शिवजी के समान है। भैरव श्मशानवासी हैं। ये भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। भक्तों पर स्नेहवान और दुष्टों का संहार करने में सदैव तत्पर रहते हैं। भगवान भैरव अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर बल, बुद्धि, तेज, यश, धन तथा मुक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भैरव जयंती को अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव का व्रत रखता है, पूजन या उनकी उपासना करता है वह समस्त कष्टों से मुक्त हो जाता है।
रविवार एवं मंगलवार को भैरव की उपासना का दिन माना गया है। कुत्ते को इस दिन मिष्ठान खिलाकर दूध पिलाना चाहिए।
ब्रह्माजी के वरदान स्वरू प भैरव जी में सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामथ्र्य है, अत: इन्हें “भैरव” नाम से जाना जाता है। इनसे काल भी भयभीत रहता है अत: “काल भैरव” के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें “आमर्दक” कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार या मंगलवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी।
काशी में भैरव—–
त्रैलोक्य से न्यारी, मुक्ति की जन्मभूमि, बाबा विश्वनाथ की राजधानी “काशी’ की रचना स्वयं भगवान शंकर ने की है। प्रलय काल में काशी का नाश नहीं होता। उस समय पंचमहाभूत यहीं पर शवरुप में शयन करते हैं। इसलिए इसे महाश्मशान भी कहा गया है। काशी का संविधान भगवान शिव का बनाया हुआ है, जबकि त्रैलोक्य का ब्रह्मा द्वारा। त्रैलोक्य का पालन विष्णु और दण्ड का कार्य यमराज करते हैं, परंतु काशी का पालन श्री शंकर और दण्ड का कार्य भैरव जी करते हैं। यमराज के दण्ड की पीड़ा से बत्तीस गुनी अधिक पीड़ा भैरव के दण्ड की होती है। जीव यमराज के दण्ड को सहन कर लेता है, परंतु भैरव का दण्ड असह्य होता है। भगवान शंकर अपनी नगरी काशी की व्यवस्था अपने गणों द्वारा कराते हैं। इन गणों में दण्डपाणि आदि भैरव, भूत- प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी, वीर आदि प्रमुख है।
कैसे हुई भैरव की उत्पत्ति—-
ब्रह्मा और विष्णु में एक समय विवाद छिड़ा कि परम तत्व कौन है ? उस समय वेदों से दोनों ने पूछा :- क्योंकि वेद ही प्रमाण माने जाते हैं। वेदों ने कहा कि सबसे श्रेष्ठ शंकर हैं। ब्रह्मा जी के पहले पाँच मस्तक थे। उनके पाँचवें मस्तक ने शिव का उपहास करते हुए, क्रोधित होते हुए कहा कि रुद्र तो मेरे भाल स्थल से प्रकट हुए थे, इसलिए मैंने उनका नाम “रुद्र’ रखा है। अपने सामने शंकर को प्रकट हुए देख उस मस्तक ने कहा कि हे बेटा ! तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी रक्षा कर्रूँगा।
(स्कंद पुराण, काशी खण्ड अध्याय ३०)
भैरव का नामकरण—
इस प्रकार गर्व युक्त ब्रह्मा जी की बातें सुनकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने अंश से भैरवाकृति को प्रकट किया। शिव ने उससे कहा कि “काल भैरव’ ! तुम इस पर शासन करो। साथ ही उन्होंने कहा कि तुम साक्षात “काल’ के भी कालराज हो। तुम विश्व का भरण करनें में समर्थ होंगे, अतः तुम्हारा नाम “भैरव’ भी होगा। तुमसे काल भी डरेगा, इसलिए तुम्हें “काल भैरव’ भी कहा जाएगा। दुष्टात्माओं का तुम नाश करोगे, अतः तुम्हें “आमर्दक’ नाम से भी लोग जानेंगे। हमारे और अपने भक्तों के पापों का तुम तत्क्षण भक्षण करोगे, फलतः तुम्हारा एक नाम “पापभक्षण’ भी होगा।
भैरव को शंकर का वरदान—-
भगवान शंकर ने कहा कि हे कालराज ! हमारी सबसे बड़ी मुक्ति पुरी “काशी’ में तुम्हारा आधिपत्य रहेगा। वहाँ के पापियों को तुम्हीं दण्ड दोगे, क्योंकि “चित्रगुप्त’ काशीवासियों के पापों का लेखा- जोखा नहीं रख सकेंगे। वह सब तुम्हें ही रखना होगा।
कपर्दी- भैरव—
शंकर की इतनी बातें सुनकर उस आकृति “भैरव’ ने ब्रह्मा के उस पाँचवें मस्तक को अपने नखाग्र भाग से काट लिया। इस पर भगवान शंकर ने अपनी दूसरी मूर्ति भैरव से कहा कि तुम ब्रह्मा के इस कपाल को धारण करो। तुम्हें अब ब्रह्म- हत्या लगी है। इसके निवारण हेतु “कापालिक’ व्रत ग्रहण कर लोगों को शिक्षा देने के लिए सर्वत्र भिक्षा माँगो और कापालिक वेश में भ्रमण करो। ब्रह्मा के उस कपाल को अपने हाथों में लेकर कपर्दी भैरव चले और हत्या उनके पीछे चली। हत्या लगते ही भैरव काले पड़ गये। तीनो लोक में भ्रमण करते हुए वह काशी आये।
कपर्दी (कपाल) भैरव व कपालमोचन तीर्थ—
श्री भैरव काशी की सीमा के भीतर चले आये, परंतु उनके पीछे आने वाली हत्या वहीं सीमा पर रुक गयी। वह प्रवेश नहीं कर सकी। फलतः वहीं पर वह धरती में चिग्घाड़ मारते हुए समा गयी। हत्या के पृथ्वी में धंसते ही भैरव के हाथ में ब्रह्मा का मस्तक गिर पड़ा। ब्रह्म- हत्या से पिण्ड छूटा, इस प्रसन्नता में भैरव नाचने लगे। बाद में ब्रह्म कपाल ही कपाल मोचन तीर्थ नाम से विख्यात हुआ और वहाँ पर कपर्दी भैरव, कपाल भैरव नाम से (लाट भैरव) अब काशी में विख्यात हैं। यहाँ पर श्री काल भैरव काशीवासियों के पापों का भक्षण करते हैं। कपाल भैरव का सेवक पापों से भय नहीं खाता।
भैरव के भक्तों से यमराज भय खाते हैं—-
काशीवासी भैरव के सेवक होने के कारण कलि और काल से नहीं डरते। भैरव के समीप अगहन बदी अष्टमी को उपवास करते हुए रात्रि में जागरण करने वाला मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है। भैरव के सेवकों से यमराज भय खाते हैं। काशी में भैरव का दर्शन करने से सभी अशुभ कर्म भ हो जाते हैं। सभी जीवों के जन्मांतरों के पापों का नाश हो जाता है। अगहन की अष्टमी को विधिपूर्वक पूजन करने वालों के पापों का नाश श्री भैरव करते हैं। मंगलवार या रविवार को जब अष्टमी या चतुर्दशी तिथि पड़े, तो काशी में भैरव की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। इस यात्रा के करने से जीव समस्त पापो से मुक्त हो जाता है। जो मूर्ख काशी में भैरव के भक्तों को कष्ट देते हैं, उन्हें दुर्गति भोगनी पड़ती है। जो मनुष्य श्री विश्वेश्वर की भक्ति करता है तथा भैरव की भक्ति नहीं करता, उसे पग- पग पर कष्ट भोगना पड़ता है। पापभक्षण भैरव की प्रतिदिन आठ प्रदक्षिणा करनी चाहिए। आमर्दक पीठ पर छः मास तक जो लोग अपने इष्ट देव का जप करते हैं, वे समस्त वाचिक, मानसिक एवं कायिक पापों में लिप्त नहीं होते। काशी में वास करते हुए, जो भैरव की सेवा, पूजा या भजन नहीं करे, उनका पतन होता है।
श्री भैरवनाथ साक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है-
विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-
भैरव: सर्वशक्तिभरित:। शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं।
ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिव ही हैं।
शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती।
काशी (वाराणसी स्थित) कोतवाल बटुक भैरव की उपासना गृहस्थों के लिए सर्वाधिक फलदायी है। श्रद्धा विश्वास के साथ इनकी उपासना करने वालों की इच्छा बाबा जरुर पूरा करते है। रूद्रावतार बटुक भैरव हर समस्याओं से छुटकारा दिलाते है। राहु व शनि के पीड़ित व्यक्ति को बाबा की उपासना अवश्य करनी चाहिए। बड़े से बड़ा यज्ञ बिना इनके पूरा नहीं होता।
यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें।
उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरव की भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती।
इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है।
महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष आसव-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
काल भैरव अष्टमी तंत्र साधना के लिए अति उत्तम मानी जाती है। कहते हैं कि भगवान का ही एक रुप है भैरव साधना भक्त के सभी संकटों को दूर करने वाली होती है। यह अत्यंत कठिन साधनाओं में से एक होती है जिसमें मन की सात्विकता और एकाग्रता का पूरा ख्याल रखना होता है। भैरवाष्टमी या कालाष्टमी के दिन पूजा उपासना द्वारा सभी शत्रुओं और पापी शक्तियों का नाश होता है और सभी प्रकार के पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। भैरवाष्टमी के दिन व्रत एवं षोड्षोपचार पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायक माना जाता है। इस दिन श्री कालभैरव जी का दर्शन-पूजन शुभ फल देने वाला होता है।
भैरव जी की पूजा उपासना मनोवांछित फल देने वाली होती है। यह दिन साधक भैरव जी की पूजा अर्चना करके तंत्र-मंत्र की विद्याओं को पाने में समर्थ होता है। यही सृष्टि की रचना, पालन और संहारक हैं। इनका आश्रय प्राप्त करके भक्त निर्भय हो जाता है तथा सभी कष्टों से मुक्त
रहता है।
भैरवाष्टमी पूजन—
भगवान शिव के इस रुप की उपासना षोड्षोपचार पूजन सहित करनी चाहिए। रात्री समय जागरण करना चाहिए व इनके मंत्रों का जाप करते रहना चाहिए। भजन कीर्तन करते हुए भैरव कथा व आरती की जाती है। इनकी प्रसन्नता हेतु इस दिन काले कुत्ते को भोजन कराना शुभ माना जाता है। मान्यता अनुसार इस दिन भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं, भूत, पिशाच एवं काल भी दूर रहता है।
भैरव उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है। भैरव देव जी के राजस, तामस एवं सात्विक तीनों प्रकार के साधना तंत्र प्राप्त होते हैं।
भारत में भैरव के अनेक प्रसिद्ध मंदिर हैं जिनमें काशी का काल भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है। भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रतीकवादी रही है और यहाँ की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के प्रतीक उपलब्ध हैं। यह प्रतीक उभयात्मक हैं – अर्थात स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक को ही कहा जाता है देवता। चूँकि भय भी एक भाव है, अत: उसका भी प्रतीक है – उसका भी एक देवता है, और उसी भय का हमारा देवता हैं महाभैरव।
श्री भैरव चालीसा–
दोहा
श्री गणपति गुरु गौरी पद प्रेम सहित धरि माथ।
चालीसा वंदन करो श्री शिव भैरवनाथ॥
श्री भैरव संकट हरण मंगल करण कृपाल।
श्याम वरण विकराल वपु लोचन लाल विशाल॥
जय जय श्री काली के लाला। जयति जयति काशी- कुतवाला॥
जयति बटुक- भैरव भय हारी। जयति काल- भैरव बलकारी॥
जयति नाथ- भैरव विख्याता। जयति सर्व- भैरव सुखदाता॥
भैरव रूप कियो शिव धारण। भव के भार उतारण कारण॥
भैरव रव सुनि हवै भय दूरी। सब विधि होय कामना पूरी॥
शेष महेश आदि गुण गायो। काशी- कोतवाल कहलायो॥
जटा जूट शिर चंद्र विराजत। बाला मुकुट बिजायठ साजत॥
कटि करधनी घुंघरू बाजत। दर्शन करत सकल भय भाजत॥
जीवन दान दास को दीन्ह्यो। कीन्ह्यो कृपा नाथ तब चीन्ह्यो॥
वसि रसना बनि सारद- काली। दीन्ह्यो वर राख्यो मम लाली॥
धन्य धन्य भैरव भय भंजन। जय मनरंजन खल दल भंजन॥
कर त्रिशूल डमरू शुचि कोड़ा। कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोडा॥
जो भैरव निर्भय गुण गावत। अष्टसिद्धि नव निधि फल पावत॥
रूप विशाल कठिन दुख मोचन। क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन॥
अगणित भूत प्रेत संग डोलत। बम बम बम शिव बम बम बोलत॥
रुद्रकाय काली के लाला। महा कालहू के हो काला॥
बटुक नाथ हो काल गंभीरा। श्वेत रक्त अरु श्याम शरीरा॥
करत नीनहूं रूप प्रकाशा। भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा॥
रत्न जड़ित कंचन सिंहासन। व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन॥
तुमहि जाइ काशिहिं जन ध्यावहिं। विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं॥
जय प्रभु संहारक सुनन्द जय। जय उन्नत हर उमा नन्द जय॥
भीम त्रिलोचन स्वान साथ जय। वैजनाथ श्री जगतनाथ जय॥
महा भीम भीषण शरीर जय। रुद्र त्रयम्बक धीर वीर जय॥
अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय। स्वानारुढ़ सयचंद्र नाथ जय॥
निमिष दिगंबर चक्रनाथ जय। गहत अनाथन नाथ हाथ जय॥
त्रेशलेश भूतेश चंद्र जय। क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय॥
श्री वामन नकुलेश चण्ड जय। कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय॥
रुद्र बटुक क्रोधेश कालधर। चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर॥
करि मद पान शम्भु गुणगावत। चौंसठ योगिन संग नचावत॥
करत कृपा जन पर बहु ढंगा। काशी कोतवाल अड़बंगा॥
देयं काल भैरव जब सोटा। नसै पाप मोटा से मोटा॥
जनकर निर्मल होय शरीरा। मिटै सकल संकट भव पीरा॥
श्री भैरव भूतों के राजा। बाधा हरत करत शुभ काजा॥
ऐलादी के दुख निवारयो। सदा कृपाकरि काज सम्हारयो॥
सुन्दर दास सहित अनुरागा। श्री दुर्वासा निकट प्रयागा॥
श्री भैरव जी की जय लेख्यो। सकल कामना पूरण देख्यो॥
दोहा
जय जय जय भैरव बटुक स्वामी संकट टार।
कृपा दास पर कीजिए शंकर के अवतार॥
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शुभेच्छु —
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-पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री.
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ऊँ ह्रीं बं बटुकाय, आपदुद्धाणाय कुरू-कुरू बटुकाय बं ह्रीं ऊँ नमः
बहुत अच्छा लेख हे ।