जाने की केसे करें वास्तु में  पांच तत्वों का समन्वयन..????
 
हमारे ऋषियों का सारगर्भित निष्कर्ष है, ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ जिन पंचमहाभूतों से पूर्ण ब्रह्मांड संरचित है उन्हीं तत्वों से हमारा शरीर निर्मित है और मनुष्य की पांचों इंद्रियां भी इन्हीं प्राकृतिक तत्वों से पूर्णतया प्रभावित हैं। आनंदमय, शांतिपूर्ण और स्वस्थ जीवन के लिए शारीरिक तत्वों का ब्रह्मांड और प्रकृति में व्याप्त पंचमहाभूतों से एक सामंजस्य स्थापित करना ही वास्तुशास्त्र की विशेषता है।
 
पंडित  दयानंद शास्त्री (मोब.-. ) के अनुसार वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है। यह संतुलन बिगड़ते ही मानव एकाकी और समग्र रूप से कई प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं का शिकार हो जाता है। 
 
पंडित  दयानंद शास्त्री (मोब.-.90.4.90067 ) के अनुसार वास्तुशास्त्र के अनुसार पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के विधिवत उपयोग से बने आवास में पंचतत्व से निर्मित प्राणी की क्षमताओं को विकसित करने की शक्ति स्वत: स्फूर्त हो जाती है।
अगर हर तत्व अपनी सही जगह पर हो जाये तो मानव जीवन की परेशानियों का दौर स्वत ही समाप्त हो जाता है। वास्तु विषय का परम उद्देश्य खुशहाल एवं समृद्धिदायक मकान का निर्माण करना है। वास्तु विषय में भूगर्भीय ऊर्जा, चुंबकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण बल, अंतरिक्ष से आने वाली किरणें, सूर्य रश्मियां, प्राकृतिक ऊर्जा इत्यादि का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करके विभिन्न सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है। वास्तु विज्ञान किसी भवन को निर्माण करने का एक सशक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह समस्त विश्व वास्तु के पंच तत्वों से निर्मित है। वास्तु विषय के आधार पर यह पंचतत्व, जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश, मानव जीवनशैली को प्रभावित करते हैं। अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर इन पंचतत्वों का प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है। यह तत्व प्रकृति में संतुलन बनाये रखते हैं। भवन निर्माण के लिये भूमि के आकार के साथ, दिशाओं के अनुसार, वास्तु के पंच-तत्वों का उचित तालमेल अति-आवश्यक होता है। हमारे आसपास के वातावरण में व्याप्त ऊर्जा शक्तियों में कई तरह की अनिष्ट ऊर्जा शक्तियां भी विद्यमान रहती हैं। इन अनिष्ट शक्तियों से बचने के लिये वास्तु विषय के पंच तत्वों के उचित संतुलन की आवश्यकता पूर्ति के लिये, वास्तु विषय पंच तत्वों के आधार पर दिशाओं के अनुसार सही निर्देश देता है।
सुख की हर कोई आशा करता है, लेकिन दुख से हर कोई पीछा छुड़ाना चाहता है। क्योंकि दुख-कष्ट, क्लेष, बीमारी व समस्याओं का दूसरा नाम है। न चाहते हुए भी हर इंसान के जीवन में कठिनाइयों के दौर आते रहते हैं। वास्तु के बदलते ही जीवनशैली में भी परिवर्तन आ जाता है। इंसान का जीवन अनेक शक्तियों से प्रभावित होता है। इसमें वास्तु एक महत्वपूर्ण शक्ति है। वास्तु विषय पांच तत्वों पर आधारित है। यह पांच तत्व, जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश है।
आकाश, अग्नि, जल, वायु एवं पृथ्वी इन पांच तत्वों को वास्तु-शास्त्र में पंचमहाभूत कहा गया है। शैनागम एवं अन्य दर्शन साहित्य में भी इन्हीं पंच तत्वों की प्रमुखता है। अरस्तु ने भी चार तत्वों की कल्पना की है। चीनी फेंगशुई में केवल दो तत्वों की प्रधानता है- वायु एवं जल की। वस्तुतः ये पंचतत्व सनातन हैं। ये मनुष्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण चराचर जगत पर प्रभाव डालते हैं। वास्तु शास्त्र प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समरसता रखकर भवन निर्माण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। ये सिद्धांत मनुष्य जीवन से गहरे जुड़े हैं। अथर्ववेद में कहा गया है- ¬ पन्चवाहि वहत्यग्रमेशां प्रष्टयो युक्ता अनु सवहन्त। अयातमस्य दस्ये नयातं पर नेदियो{वर दवीय ।। .0 /8 ।। सृष्टिकर्ता परमेश्वर पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), प्रकाश, वायु व आकाश को रचकर, उन्हें संतुलित रखकर संसार को नियमपूर्वक चलाते हैं। मननशील विद्वान लोग उन्हें अपने भीतर जानकर संतुलित हो प्रबल प्रशस्त रहते हैं। इन्हीं पांच संतुलित तत्वों से निवास गृह व कार्य गृह आदि का वातावरण तथा वास्तु शुद्ध व संतुलित होता है, तब प्राणी की प्रगति होती है। ऋग्वेद में कहा गया है- ये आस्ते पश्त चरति यश्च पश्यति नो जनः। तेषां सं हन्मो अक्षणि यथेदं हम्र्थ तथा। प्रोस्ठेशया वहनेशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः। स्त्रिायो या: पुण्यगन्धास्ता सर्वाः स्वायपा मसि !! हे गृहस्थ जनो ! गृह निर्माण इस प्रकार का हो कि सूर्य का प्रकाश सब दिशाओं से आए तथा सब प्रकार से ऋतु अनुकूल हो, ताकि परिवार स्वस्थ रहे। राह चलता राहगीर भी अंदर न झांक पाए, न ही गृह में वास करने वाले बाहर वालों को देख पाएं। ऐसे उत्तम गृह में गृहिणी की निज संतान उत्तम ही उत्तम होती है। वास्तु शास्त्र तथा वास्तु कला का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार वेद और उपवेद हैं। भारतीय वाड्.मय में आधिभौतिक वास्तुकला (आर्किटेक्चर) तथा वास्तु-शास्त्र का जितना उच्चकोटि का विस्तृत विवरण ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद में उपलब्ध है, उतना अन्य किसी साहित्य में नहीं। गृह के मुख्य द्वार को गृहमुख माना जाता है। इसका वास्तु शास्त्र में विशेष महत्व है। यह परिवार व गृहस्वामी की शालीनता, समृद्धि व विद्वत्ता दर्शाता है। इसलिए मुख्य द्वार को हमेशा बाकी द्वारों की अपेक्षा बड़ा व सुसज्जित रखने की प्रथा रही है। पौराणिक भारतीय संस्कृति के अनुसार इसे कलश, नारियल व पुष्प, केले के पत्र या स्वास्तिक आदि से अथवा उनके चित्रों से सुसज्जित करना चाहिए। मुख्य द्वार चार भुजाओं की चैखट वाला हो। इसे दहलीज भी कहते हैं। इससे निवास में गंदगी भी कम आती है तथा नकारात्मक ऊर्जाएं प्रवेश नहीं कर पातीं। प्रातः घर का जो भी व्यक्ति मुख्य द्वार खोले, उसे सर्वप्रथम दहलीज पर जल छिड़कना चाहिए, ताकि रात में वहां एकत्रित दूषित ऊर्जाएं घुलकर बह जाएं और गृह में प्रवेश न कर पाएं। गृहिणी को चाहिए कि वह प्रातः सर्वप्रथम घर की साफ-सफाई करे या कराए। तत्पश्चात स्वयं नहा-धोकर मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर एकदम सामने स्थल पर सामथ्र्य के अनुसार रंगोली बनाए। यह भी नकारात्मक ऊर्जाओं को रोकती है। मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर केसरिया रंग से 9ग9 परिमाण का स्वास्तिक बनाकर लगाएं। मुख्य प्रवेश द्वार को हरे व पीले रंग से रंगना वास्तुसम्मत होता है। खाना बनाना शुरू करने से पहले पाकशाला का साफ होना अति आवश्यक है। रोसोईये को चाहिए कि मंत्र पाठ से ईश्वर को याद करे और कहे कि मेरे हाथ से बना खाना स्वादिष्ट तथा सभी के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक हो। पहली चपाती गाय के, दूसरी पक्षियों के तथा तीसरी कुत्ते के निमित्त बनाए। तदुपरांत परविार का भोजन आदि बनाए। विशेष वास्तु उपचार निवास गृह या कार्यालय में शुद्ध ऊर्जा के संचार हेतु प्रातः व सायं
शंख-ध्वनि करें। गुग्गुल युक्त धूप व अगरवत्ती प्रज्वलित करें तथा ¬ का उच्चारण करते हुए समस्त गृह में धूम्र को घुमाएं। प्रातः काल सूर्य को अघ्र्य देकर सूर्य नमस्कार अवश्य करें। यदि परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य अनुकूल रहेगा, तो गृह का स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ध्यान रखें, आईने व झरोखों के शीशों पर धूल नहीं रहे। उन्हें प्रतिदिन साफ रखें। गृह की उत्तर दिशा में विभूषक फव्वारा या मछली कुंड रखें। इससे परिवार में समृद्धि की वृद्धि होती है।भारतीय वास्तुशास्त्र की तरह चीनी वास्तु में भी मुख्य रूप से पांच तत्वों को मान्यता मिली है। चीनी विद्वानों का ऐसा विश्वास है कि समग्र सृष्टि के प्राणी जगत मनुष्य, पर्वत, वनस्पतियां एंव जो कुछ भी इस संसार में दृष्टिगोचर है, वो इन पांच तत्वों में विभाजित है। इन पांच तत्वों से सृष्टि का निर्माण एंव विनाश क्रम संचालित होता है। इन तत्वों से हमारे जीवन के सभी पहलू प्रभावित होते है। चीनी वास्तुशास्त्र के पांच तत्व निम्न प्रकार से है- 1- अग्नि तत्वः रंग-लाल, नारंगी, दिशा-दक्षिण, आकार- त्रिकोण, ऋतु- गर्मी, अंक- 9, वस्तुयें- मोमबत्ती, धूपदान, लैम्प, प्रकाश आदि। 2- पृथ्वी तत्वः रंग-पीला, भूरा, दिशा- नै़ऋत्यकोण, आकार- वर्ग, ऋतु- गर्मी, अंक- 2, 5, 8, वस्तुयें- मिट्टी के बर्तन, शिल्प एंव चीनी मिट्टी के बर्तन आदि। 3- धातु तत्वः रंग- श्वेत, दिशा- पश्चिम, आकार- गोलाकार, ऋतु- वर्षा, अंक- 6, 7, वस्तुयें- तांबे या धातु से बनी सभी वस्तुयें। 4- जल तत्वः रंग- नीला, आसमानी, आकार- सर्पिल, ऋतु- सर्दी अंक- 1, वस्तुयें- जल से सम्बन्धित वस्तुयें जैसे- फब्बारा, मछली घर, तालाब, कुएं आदि। 5- लकड़ी तत्वः रंग- हरा, दिशा- पूर्व, आकार- आयताकार, ऋतु- वंसत, अंक- 3, 4, वस्तुयें- पौधें एंव लकड़ी से निर्मित सभी वस्तुयें। उत्पादक चक्र- लकड़ी जलाकर अग्नि उत्पन्न करती है, अग्नि पृथ्वी का निर्माण करती है, पृथ्वी से धातु का निर्माण होता है, धातु से जल का निमार्ण होता है और जल से लकड़ी का निर्माण होता है। विध्वंसक चक्र- पृथ्वी जल से नष्ट होती है, जल अग्नि को नष्ट करता है, अग्नि धातु को पिघलाकर नष्ट करती है, धातु लकड़ी को काटकर नष्ट करती है और लकड़ी से पृथ्वी को हानि पहुंचती है। 

फेंगशुई में भारतीय वास्तु शास्त्र के वायु और आकाश की जगह लकड़ी और धातु को लिया गया है। फेंग शुई का जो शाब्दिक अर्थ है- हवा और पानी, इनमें से हवा का तो कहीं जिक्र ही नहीं है। भारतीय वास्तुशास्त्र में हवा (वायु) को बहुत महत्व देते हैं। यहां पर हम फेंग शुई का संक्षिप्त परिचय देते हुए, फेंग शुई के उन्हीं उपायों का जिक्र करेंगे, जिन्हें भारतीय परिवेश में अपनाया जा सकता है। चीनी वास्तु शास्त्र के अनुसार फेंग शुई के पांच तत्वों को एक-दूसरे से दो तरीके से संबंध किया गया है। पहला है उत्पादक चक्र व दूसरा है विनाशक चक्र। फेंग शुई के महत्वपूर्ण उपकरण : बागुआ : फेंग शुई के अनुसार प्रत्येक वस्तु एक प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न करती है, वह ऊर्जा नकारात्मक भी हो सकती है और सकारात्मक भी। यिन अर्थात नकारात्मक ऊर्जा और यांग अर्थात सकारात्मक ऊर्जा। यिन और यांग एक दूसरे के पूरक हैं जैसे रात और दिन, स्त्री और पुरुष, मृत्यु और जीवन। काला रंग यिन का प्रतीक है और सफेद रंग यांग का। ये दोनों चिह्न बागुआ के मध्य में होते हैं और आठों दिशाओं में आठ डाईग्राम होते हैं। फेंग शुई के अनुसार प्रत्येक वस्तु एक प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न करती है, वह ऊर्जा नकारात्मक भी हो सकती है और सकारात्मक भी। यिन अर्थात नकारात्मक ऊर्जा और यांग अर्थात सकारात्मक ऊर्जा। यिन और यांग एक दूसरे के पूरक हैं जैसे रात और दिन, स्त्री और पुरुष, मृत्यु और जीवन। काला रंग यिन का प्रतीक है और सफेद रंग यांग का। ये दोनों चिह्न बागुआ के मध्य में होते हैं और आठों दिशाओं में आठ डाईग्राम होते हैं। यह बागुआ की तरह का होता है लेकिन इसके बीच में यिन-यांग के स्थान पर उभरा हुआ शीशा लगा होता है। मुखय द्वार के सामने किसी भी प्रकार का द्वार वेध या अशुभ स्थान होने पर इसे द्वार से ऊपर बाहर लगाया जाता है। यह द्वार के सामने पेड़, खंभा, टूटा-फूटा मकान, कूड़ा घर व मंदिर आदि होने पर लगाया जाता है जिससे नकारात्मक ऊर्जा अंदर नहीं आती। क्रिस्टल बॉल : क्रिस्टल ऊर्जा वर्धक होते हैं। यह सकारात्मक किरणों के प्रभाव को बढ़ा देते हैं। यदि इसे पूर्व दिशा में इस प्रकार लगाया जाए कि प्रातः सूर्य की किरणें इस पर पड़ें तो यह सारे घर को जगमगा देता है। पूर्व दिशा में लगाने से स्वास्थ्य लाभ होता है। उत्तर-पश्चिम दिशा में लगाने से परिवार में आपस का प्रेम बढ़ता है और आपके मित्रों व सहायकों की संखया में वृद्धि करता है। पश्चिम में लगाने से संतान सुख व दक्षिण पश्चिम में लगाने से दाम्पत्य संबंधों में सुधार होता है। विंड चाइम : विंड चाइम अर्थात हवा से जिसमें झंकार हो, ऐसी पवन घंटी घर व व्यापार के वातावरण को मधुर बनाती है। वास्तु और फेंग शुई के पांच तत्वों को दर्शाने वाली पांच रॉड की विंड चाइम शुभ मानी जाती है। ब्रह्म स्थान पर लगाने से स्वास्थ्य लाभ व उत्तर पश्चिम में लगाने से जीवन में नये सुअवसर प्राप्त होते हैं। इसकी आवाज मधुर व दिलकश होनी चाहिए। इसे मुखय द्वार के पास भी लगाया जा सकता है, जिससे द्वार आने वाली हवा से इसमें झंकार हा लाफिंग बुद्धा : हंसते हुए बुद्धा की मूर्ति धन दौलत के देवताओं में से एक मानी जाती है। इससे घर में संपन्नता, सफलता और समृद्धि आती है। इसे घर में या व्यापारिक स्थल में इस प्रकार लगाना चाहिए, जिससे यह लगे कि यह धन लेकर घर के अंदर की तरफ आ रहे हैं। यह मूर्ति शयन कक्ष तथा भोजन कक्ष में नहीं रखनी चाहिए। ड्रॉइंगरुम में रख सकते हैं। पीठ पर धन की पोटली लेकर अंदर आते हुए लाफिंग बुद्धा सबसे उत्तम माने गये हैं। तीन टांग का मेंढक : मुंह में सिक्का लिए तीन टांग का मेंढक भी इस प्रकार ही लगाना चाहिए जिससे यह लगे कि यह धन लेकर घर के अंदर आ रहा है। इसे रसोई या शौचालय में कभी नहीं रखना चाहिए। यदि व्यापारिक स्थल पर लगा
ना हो तो भी इस प्रकार लगाएं कि ग्राहक से धन लेकर आपके पास आ रहा है। इसे छिपा कर भी रख जा सकता है। धातु का कुछआ : धातु का कछुआ दो प्रकार का होता है। एक तो कूर्म पृष्ठीय मेरु यंत्र है। इसको पूजा स्थान या घर के उत्तर दिशा में रखा जाता है। इसे एक प्लेट में पानी भरकर उसमें रख दिया जाता है। दूसरा कछुआ इस प्रकार का होता है कि उसकी पीठ पर ढक्कननुमा कटोरा बना होता है। इसमें चावल भरकर उत्तर दिशा में रखा जाता है इन दोनों ही प्रकार के कछुओं में यह ध्यान रखें कि इसका मुंह पूर्व की ओर हो अर्थात यह चलकर पूर्व दिशा की ओर जा रहा हो। यह आयु को बढ़ाने वाला व धन-समृद्धि को देने वाला है। इसे भगवान विष्णु का कच्छप अवतार माना गया है।

वास्तु की दृष्टि से भवन निर्माण के समय पांच प्राकृतिक तत्वों का ठीक अनुपात रखें तो हर तत्व का हम समुचित लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इनमें भी जल व अग्नि का महत्व सबसे अधिक है। फिर भी इससे दूसरे तत्वों का महत्व कम नहीं होता।
 
जल तत्व से घर की शांति बनी रहती है। 
 
अग्नि तत्व से घर में कलह, खर्चे, काम करने की क्षमता आती है। 
 
पृथ्वी तत्व से घर की स्थिरता, काम की स्थिरता बनी रहती है। 
 
वायु तत्व से घूमने-फिरने की आदत, चंचलता बढ़ती है। 
 
आकाश तत्व से अच्छी सोच, सपने साकार करने की क्षमता आती है। आकाश तत्व घर के मध्य में आता है। बाकी तत्व पूर्ण रूप से उत्तर-पूर्व, दक्षिण-पूर्व, उत्तर-पश्चिम व दक्षिण-पश्चिम दिशाओं पर अपना प्रभुत्व बनाए रहते हैं।
भवन में पांच तत्वों का सामंजसय स्थापित करके सुखमय जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
वास्तु के सिद्धांतों का परिपालन करके बनाये गये मकान में रहने वाले प्राणी सुख, शांति, स्वास्थ्य, समृद्धि इत्यादि प्राप्त करते हैं। जबकि वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत बनाये गये मकान में रहने वाले देर-सवेर इन्हीं बातों के प्रति प्रतिकूलता का अनुभव करते हैं एवं कष्टपद जीवन व्यतीत करते हैं। कई सज्जनों के मन में यह शंका होती है कि वास्तु विषय का अधिकतम उपयोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग ही करते हैं। मध्यम वर्ग के लिये इस विषय का उपयोग कम होता है। निस्संदेह यह धारणा गलत है। वास्तु विषय किसी वर्ग या जाति विशेष के लिये ही नहीं है, बल्कि वास्तु विज्ञान संपूर्ण मानव जाति के लिये प्रकृति की ऊर्जा शक्तियों का एक अनुपम वरदान है।
 
जिस प्रकार सूर्य की किरणें अमीर-गरीब एवं किसी जाति विशेष का भेदभाव किये बिना सभी को समान रूप से प्रभावित करती है, उसी प्रकार वास्तु के पंच तत्वों का उचित संतुलन सभी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से प्रभावित करता हैं। यह व्यक्ति की स्वयं की इच्छा शक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है कि वास्तु विज्ञान के इस अनमोल खजाने से वह कितना ज्ञान ग्रहण करके इसके उपयोग से लाभान्वित हो सकता है।
पृथ्वी ——
 
पृथ्वी मानवता और प्राणी मात्र का पृथ्वी तत्व (मिट्टी) से स्वाभाविक और भावनात्मक संबंध है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। इसमें गुरूत्वाकर्षण और चुम्बकीय शक्ति है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि पृथ्वी एक विशालकाय चुम्बकीय पिण्ड है। एक चुम्बकीय पिण्ड होने के कारण पृथ्वी के दो ध्रुव उत्तर और दक्षिण ध्रुव हैं। पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणी, सभी जड़ और चेतन वस्तुएं पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण से प्रभावित होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वी अनेक तत्वों और अनेक प्रकार के खनिजों जैसे लोहा, तांबा, इत्यादि से भरपूर है उसी प्रकार हमारे शरीर में भी अन्य धातुओं के अलावा लौह धातु भी विद्यमान है। कहने का तात्पर्य है कि हमारा शरीर भी चुम्बकीय है और पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित होता है। वास्तु के इसी सिद्धांत के कारण यह कहा जाता है कि दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए। इस प्रकार सोते समय हमारा शरीर ब्रह्मांड से अधिक से अधिक शक्ति को ग्रहण करता है और एक चुम्बकीय लय में सोने की स्थिति से मनुष्य अत्यंत शांतिप्रिय नींद को प्राप्त होता है और सुबह उठने पर तरोताजा महसूस करता है।
 
वास्तुशास्त्र में पृथ्वी (मिट्टी) का निरीक्षण, भूखण्ड का निरीक्षण, भूमि आकार, ढलान और आयाम आदि का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। मात्र पृथ्वी तत्व ही एक ऐसा विशेष तत्व है, जो हमारी सभी इंद्रियों पर पूर्ण प्रभाव रखता है।
 
जल——
भाग जल के रूप में और पृथ्वी का दो तिहाई भाग भी जल से पूर्ण है। पुरानी सभ्यताएं अधिकतर नदियों और अन्य जल स्त्रोतों के समीप ही बसी होती थी। वास्तुशास्त्र जल के संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे कि कुएं, तालाब या हैडपंप की खुदाई किस दिशा में होनी चाहिए, स्वच्छ और मीठा पानी भूखंड के किस दिशा में मिलेगा, नगर को या घर को पानी के स्त्रोत के सापेक्ष में किस दिशा में रखा जाए या पानी की टंकी या जल संग्रहण के साधन को किस स्थान पर स्थापित किया जाए इत्यादि। पानी के भंडारण के अलावा पानी की निकासी, नालियों की बनावट, सीवर और सेप्टिक टैंक इस प्रकार से रखे जाएं, जिससे जल तत्व का गृहस्थ की खुशहाली से अधिकतम सामंजस्य बैठे।
 
अग्नि——
 
सूर्य अग्नि तत्व का प्रथम द्योतक है। सूर्य संपूर्ण ब्रह्मांड की आत्मा है, क्योंकि सूर्य उर्जाऔर प्रकाश दोनों का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है। रात्रि और दिन का उदय होना और ऋतुओं का परिवर्तन सूर्य के संदर्भ में पृथ्वी की गति से ही निर्धारित होता है। अग्नितत्व हमारी श्रवण, स्पर्श और देखने की शक्ति से संबंध रखता है। सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी असंभव है। सूर्य की ऊर्जा रश्मियां और प्रकाश सूर्योदय से सूर्यास्त तक पल-पल बदलता है। उषाकाल का सूर्य सकारात्मक शक्तियों का प्रतीक है और आरोग्य वृद्धि करता है। भवन का पूर्व दिशा में नीचा रहना और अधिक खुला रहना सूर्य की इन प्रभावशाली किरणों को घर में निमंत्रित करता है। इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम में ऊंचे और बड़े निर्माण दोपहर बाद के सूर्य की नकारात्मक और हानिकारक किरणों के लिए अवरोधक हैं।
पंडित  दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार सूर्य की किरणों का विभाजन (7+2) नौ रंगों में किया जा सकता है। सर्वाधिक उपयोगी पूर्व में उदित होने वाली परा-बैगनी किरणें हैं, जिसका ईशान कोण से सीधा संबंध है। इसके बाद सूर्य के रश्मि-जाल में बैगनी, गहरी नीली, नीली, हरी, पीली, संतरी, लाल तथा दक्षिण-पूर्व में रक्ताभ किरणों में विभक्त किया जा सकता है। सूर्य रश्मिजाल के परा-बैगनी और ठंडे रंग स्वास्थ्य पर अत्यंत लाभदायक और शुभ प्रभाव छोड़ते हैं। इसलिए ईशान कोण में अधिक से अधिक जगह खाली रखी जानी चाहिए। जब इन किरणों का संबंध जल से होता है, तो यह और भी बेहतर है। इसलिए पानी के भंडारण के लिए ईशान कोण का प्रयोग करने का सुझाव दिया जाता है।
उत्तरपूर्व में दीवार बनाना या इस तरफ शौचालय इत्यादि बनाना भी भवन की सबसे पवित्र दिशा को दूषित करता है। इस दोष से इस दिशा का सही उपयोग और लाभ नहीं मिल पाता, बल्कि घर में कलह और बीमारी के करण बन सकते हैं।
उषाकाल के सूर्य की परा-बैगनी किरणें शरीर के मेटाबॉलिज़्म को संतुलित रखते हैं। भारतीय जीवन में सूर्य नमस्कार और सुबह सूर्य को जल चढ़ाने जैसे उपाय परा-बैगनी किरणों के शुभ प्रभावों में वृद्धि करने वाले होते हैं। सूर्य की किरणें जल में से पारदर्शित होकर और भी सशक्त और उपयोगी हो जाती हैं।
दोपहर बाद और शाम के सूर्य की रक्ताभ किरणें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं और इनका बहिष्कार अति उत्तम है। वास्तु के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊंचे और बड़े वृक्ष लगाए जाने चाहिए, जिससे दूषित किरणों से बचाव हो सके या यह किरणें परावर्तित हो सके।
 
वायु——
 
वायु जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी तत्व है। वायु का हमारी श्रवण और स्पर्श इंद्रियों से सीधा संबंध है। पृथ्वी और ब्रह्मांड में स्थित वायु नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन और हीलियम जैसी गैसों का सम्मिश्रण है। जीवन के लिए इन सभी गैसों की सही प्रतिशतता, सही वायुमंडलीय दबाव और आर्द्रता का सही अनुपात होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र में जीवनदायिनी वायु के शुभ प्रभाव के लिए दरवाज़े, खिड़कियां, रोशनदानों, बालकनी और ऊंची दीवारों को सही स्थान और अनुपात में रखना बहुत आवश्यक है। इसी के साथ घर के आसपास लगे पेड़ और पौधे भी वायुतत्व को संतुलित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
 
आकाश—–
 
सामान को अव्यवस्थित ढंग से रखना आकाश तत्व को दूषित करना है। मकान में अपनी ज़रूरत से अधिक अनावश्यक निर्माण और फिर उन फ्लोर या कमरों को उपयोग में न लाना, बेवजह के सामान से कमरों को ठूंसे रखना भवन के आकाश तत्व को दूषित करता है। नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सुझाव है कि भवन में उतना ही निर्माण करें जितना आवश्यक हो।
 
वास्तुशास्त्र भवन में पंचमहाभूतों का सही संतुलन और सामंजस्य पैदा कर घर के सभी सदस्यों के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण पैदा करता है। आजकल घरों में साज-सज्जा के बेहतरीन नमूने और अत्याधुनिक उपकरणों की कोई कमी नहीं पाई जाती। अगर कमी होती है, तो प्राकृतिक प्रकाश, वायु और पंचतत्वों के सही संतुलन की। एक घर में सही स्थान पर बनी एक बड़ी खिड़की की उपयोगिता कीमती और अलंकृत साजसज्जा से कहीं ज्यादा है।
पंडित  दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार वास्तुविद्या मकान को एक शांत, सुसंस्कृत और सुसज्जित घर में तब्दील करती है। यह घर परिवार के सभी सदस्यों को एक हर्षपूर्ण, संतुलित और समृद्धि जीवन शैली की ओर ले जाता है।

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