जानिए भवन निर्माण के समय कैसे करें भूमि शल्य साधन/शोधन/निष्कासन
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हर आदमी का अपना घर बनवाने का सपना होता है .वह हर संभव यह कोशिश करता है की उसका मकान शुभ हो और उसे कुछ पल सुकून के बिताने के लिए जगह मिले . यदि उसने सब कुछ दांव पर लगा कर मकान बना लिया  और यदि उसे वहाँ रहने के बाद परेशानियों से जुझना पड़े तो उसका क्या हाल होगा उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है .अतः मकान बनवाने से पहले सही जमीन का चुनाव करना जरूरी होता है .अभिशप्त जमीं में मकान बनवाने के बाद बहुत पछताना पड़ता है .इसलिए सबसे पहले आयताकार और समतल जमीन का चुनाव करना  जरूरी होता है. 
 

वेद सर्वविध ज्ञान और विज्ञान के प्राप्ति स्थान हैं। सभी प्रकार की विधाओं का उद्भव वेदों से ही हुआ है। वेद से अभिप्राय संपूर्ण वैदिक साहित्य से है। इसमें न केवल ऋक, यजु, साम और अथर्ववेद ही है अपितु शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष आदि छः वेदांग, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और सूत्र साहित्य की गणना भी है। 
 
भारतीय वास्तुविद्या के मूल में भी वेद ही है। वेदों के साथ वास्तुविद्या का दो प्रकार का संबंध है। एके तो अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद वास्तुविद्या का मूल है और दूसरा छः वेदांगों में से कल्प और ज्योतिष वेदांग से भी वास्तुविद्या का संबंध है।
 
ज्योतिष वेदांग के संहिता स्कंध के अंतर्गत वास्तुविद्या का विचार किया जाता है। भारतीय वास्तुशास्त्र का संबंध भवननिर्माण कला से है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति करता हुआ सुख, शांति और समृद्धि को प्राप्त करे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वास्तुशास्त्र के आचार्यों ने भवन निर्माण के विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश किया है उन्हीं सिद्धांतों में से एक है – शल्यशोधन सिद्धांत। शल्यशोधन सिद्धांत भूमि के शल्यदोष के निवारण की एक विधि है। भूमि की गुणवत्ता उसमें दोषों की न्यूनता होने पर बढ़ती है और भूमि के दोषों में से एक दोष शल्यदोष भी है। शल्य से युक्त भूमि पर भवन निर्माण सदैव अशुभ परिणामों को प्रदान करता है।
 
अतः भवन निर्माण से पूर्व शल्यशोधन विधि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। शल्यशोधन के विषय में वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में ‘शल्योद्धार’ के नाम से एक विधि का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार शल्यशोध्न कर शल्यरहित भवन का निर्माण किया जा सकता है। शल्य शब्द का अर्थ गौ, घोड़ा, कुत्ता या किसी भी जीवन की अस्थि से है। इस अस्थि के भवन की भूमि में रहने पर उस भूमि को शल्ययुक्त माना जाता है। भस्म, वस्त्र, खप्पर, जली हुई लकड़ी, कोयला आदि को भी शल्य की श्रेणी में ही परिगणित किया जाता है। इन सब वस्तुओं का भवन की भूमि से निष्कासन ही शल्यशोधन के नाम से जाना जाता है। वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में शल्यशोधन की कई प्रक्रियाएं वर्णित हैं जैसे – प्रश्नचक्र से शल्यविचार। इसके अनुसार जिस भूमि पर भवन निर्माण करना हो उस भूखंड के नौ भाग किए जाते हैं। उन नौ भागों में क्रमशः ”अ -क – च- ट- ए – त- श- प“ वर्ग पूर्वादिक्रम से लिखे जाते हैं। मध्य में यवर्ग लिखा जाता है।
 
गज पृष्ठ और कूर्म पृष्ठ भूमि लेना हितकर होता है .गज पृष्ठ जमीन में दक्षिण , दक्षिण पश्चिम , पश्चिम और उत्तर पश्चिम की भूमि उँची होनी चाहिए .यह भूमि धन और आयु की बढ़ोतरी करता है . जबकि कूर्म पृष्ठ जमीन में बीच की भूमि उच्चीकृत होती है .यह जमीन सुख और धन की बढोतरी  करती है . जमीन लेने के बाद भूमि  का शोधन करना चाहिए . प्राचीन वास्तु शास्त्र  वास्तु रत्नाकर और वृहत संहिता में भी इनके बारे में विस्तार से बताया गया है .नीव शुरू करने से पहले जमीन  का शल्य शोधन कर लेना चहिये।
 
इसके लिए हल से भूमि को जोत कर भूमि के अन्दर दबे हुए विजातीय पदार्थो को दूर कर लेना चाहिए .यदि भूमि जोतते हुए लकड़ी मिले तो उस भूमि में अग्नि  भय की संभावना होती है  .इसी प्रकार पत्थर का  टुकड़ा मिले तो वह भूमि शुभ होती है .ईट हो तो धन की प्राप्ति होती है . यदि कोयला और राख मिले तो धन की हानी की संभावना होती है .यदि हड्डी या कंकाल सम्बन्धी कोई वास्तु प्राप्त हो तो कुल का नाश होता है . यदि सर्प और जानवर के कंकाल हो तो हमेशा  यहाँ पर रहने वालो को जानवर से भय सताता रहेगा .यदि खोदते हुए ताम्बा मिल जाये तो उसमे रहने वाले लोगो को सदैव लाभ मिलता रहेगा .यदि खोदते समय दीमक , चीन्टी और मेढ़क हो तो सुख की हानि होती है .यदि भूसी ,अस्थि , चमड़ा ,अंडे और सर्प हो तो सुख कम हो जाता है .यदि हल जोतेते हुए कौड़ी और कपास मिले तो घर स्वामी के लिए मरण का कारण हो सकता है .यदि लोहा मिले तो माकन बनने वाले को मौत का भय सताता है .इसलिए मकान बनवाने के लिए पहले भूमि की उपरी सतह  से एक पिंड मिटटी हटा कर वहाँ  पर शुभ मिटटी भर देनी चाहिए .इसके अलावा इस भूमि पर तिल के बीज बोकर तीन  दिन बाद यदि अंकुरण हो रहा है तो वह भूमि शुद्ध मानी जाती है. वहाँ भूमि के शोधन के लिए गायों के झुण्ड को बैठाने से भोमी शुद्ध हो जाती है .या फिर एक रात ब्राह्मणों को वाहन रुकवाने से जमीन शुद्ध हो जाती है .
        
 
भूमि शुद्धिकरण के बाद शुभ मुहूर्त में दही ,चावाल ,दूध  ,दीप ,धुप , मिठाई ,आदि से पूजा करके गृहस्वामी पूजा करके रेखा खिचे तो शुभ रहता है . जब शिलान्यास करे तो पहली शिला आग्नेय दिशा में लगाये .हमेशा याद रखे कि जब आसमान में पूर्ण चन्द्र ,गुरु ,शुक्र और सूर्य बलि हो तभी घर की नीव रखनी चाहिए .रविवार , मंगलवार के दिन और कर्क ,मेष , तुला ,मकर लग्न में तथा  रिक्ता तिथि में मकान  न बनवाना शुरु करें ।
 
ब्राह्मण् के द्वारा स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाग्नादि मांगलिक मंत्रों का उच्चारण करने के बाद स्थपति गृहपति को किसी देवता, फल या वृक्ष का नाम पूछता है। गृहपति के द्वरा उच्चारित शब्द का पहला अक्षर जिस कोष्ठक में हो, भूखण्ड की उसी दिशा में शल्य है। उस दिशा में खनन कर शल्य निकाल कर भवन का निर्माण करना चाहिए। 
 
 
तद्यथा- 
 
प्रश्नत्रयं चापि गृहाधिपेन देवस्य वृक्षस्य फलस्य चापि वाच्यं हि कोष्ठकेऽक्षरसंस्थिते च शल्यं विलोक्यं भवनेषुदृष्टयी। आ का चा टा ए ता शा पा य वर्गाः प्राच्यादिसंस्थे कोष्ठके शल्यमुक्तम्।। केशांगराः काष्ठलोहस्थिकाद्यास्तस्मात् कार्यं शोधनं भूमिकायाः।
 
 इसको एक तालिका के माध्यम से भी समझा जा सकता है। तद्यथा – अशुभ परिणामों का वर्णन भी वास्तु ग्रंथों में प्राप्त होता है। जैसे गौ का शल्य होने पर राजभय, अश्व का शल्य होने पर रोग, कुत्ते का शल्य होने पर क्लेश और गधे का शल्य होने पर संतान का नाश होता है।
 
तद्यथा – ”शल्यं गवां भूपभयं हयानां रुजं शुनोत्वोः कलहप्रणाशौ। श्वरोष्ट्रयोर्हानिमपत्यनाशं स्त्रीणामजस्याग्निभयं तनोति।। 
 
इसके अतिरिक्त शल्यज्ञान की एक और विधि के अनुसार गृहपति गृहनिर्माण या प्रवेश के समय अपने शरीर के जिस अंग पर खुजली करें, वास्तुपुरुष के शरीर के उसी अंग में शल्य होता है। एक अन्य विधि के अनुसार, ब्राह्मण स्वस्तिवाचन आदि कर निरीक्षण करे कि गृहपति अपने निर्मित या निर्माणाधीन भवन में आकर अपने शरीर के किस अंग का स्पर्श करता है।
 
यदि वह अपने सिर का स्पर्श करे तो उसी स्थान पर डेढ़ हाथ नीचे शल्य होता है। 
 
तद्यथा – 
कण्डूयते यदंग गृहभतुर्यत्र वाडमराहुत्याम्। अशुभं भवेन्निमित्तं विकृतेर्वाग्रः सशल्यं तत्।।
 
एक अन्य विधि के अनुसार, स्थपति निरीक्षण करें कि गृह स्वामी अपने निर्मित या निर्माणाधीन भवन में प्रवेश कर संयोगवश अपने शरीर के किस अंग का स्पर्श करता है, जिस समय वह अपने किसी शरीरांग का स्पर्श करे, उसी समय दीप्त दिशा में यदि पक्षी शब्द करें तथा गृहपति भवन के जिस भाग पर खड़ा होता है, उसी भाग पर भूमि के नीचे शल्य होता है। दीप्त दिशा के विषय में कहा गया है
 
कि भुवनभास्कर सूर्य उदय होने के बाद पहले पहर में पूर्व, दूसरे पहर में आग्नेय, तीसरे पहर में दक्षिण, सायंकाल में नैर्ऋत्य में, पुनः रात्रि के प्रथम पहर में पश्चिम, दूसरे में वायव्य, तीसरे में उत्तर और चतुर्थ पहर में ईशान में रहते हैं। सूर्य जिस दिशा का भोग कर चुके हैं, वह अंगारिण् और जिस दिशा में है, वह दीप्तदिशा कहलाती है, इससे आगे घूमिता और शेष शान्ता दिशाएं कहलाती है।
 
 तद्यथा- 
 
अर्द्धनिचितं कृतं वा प्रविशन् स्थपतिर्गृहे निमित्तानि। अवलोक्येद्गृहपतिः क्क संस्थितः स्पृशति किंगंकम। रविदीप्तो यदि शकुनिस्तस्मिन् काले विरौति पुरुषरवम् संस्पृष्टांगमानं तस्मिन् देशेऽस्थि निर्देश्यम्।। 
 
 
इसी प्रकार से शकुन के माध्यम से शल्य ज्ञान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि दीप्त दिशा के सम्मुख यदि हाथी अश्व आदि जीव शब्द करें तो भूमि में उसी जीवन का शल्य होता है और जीव के उसी अंग का शल्य होता है जिस अंग का स्पर्श गृहपति संयोगवश करता है।
 
एक अन्य मत सूत्र्र प्रसारण काल से संबंधित है। सूत्र फैलाने के समय यदि गधा शब्द करें तो गृहपति भूखंड में जहां खड़ा हो उसी स्थान पर शल्य होता है। ‘वास्तुसौख्यम’ में भी यही प्रक्रिया वर्णित है। एक अन्य मत के अनुसार, सूत्र को फैलाते समय जो जीव उसे लांघता है, उसी जीव का शल्य भूमि में होता है। भवन निर्माण से पहले यदि शल्य को निकाला न गया हो तो भी गृहप्रवेश के समय यह जाना जा सकता है कि भूमि में शल्य है या नहीं। जिस भवन में रहने वाले लोगों को दफःस्वप्न, रोग और धन नाश जैसी समस्याएं रहती हो, उस भूमि के नीचे अवश्य शल्य होता है।
 
इसी प्रकार भवन निर्माण के बाद सात दिवस तक रात के समय यदि गौ शब्द करें अथवा कोई जंगली पशु शब्द करें तो भी भूमि में शल्य है। ‘वास्तुसारसंग्रह’ नामक ग्रंथ में शकुन के माध्यम से शल्य ज्ञान वर्णित है। ‘बृहद्वास्तुमाला’ में यह विषय शल्य अधिकार नाम से वर्णित है। ब्राह्मणादि वर्णों से पुष्पादि के नाम पूछ कर शल्यज्ञान का वर्णन है। अहिबलचक्र के माध्यम से भी शल्यज्ञान की प्रक्रिया वर्णित है। आठ सीधी और पांच टेढ़ी रेखाओं के माध्यम से अहिबलचक्र का निर्माण किया जाता है। अट्ठाईस कोष्ठकों में अट्ठाईस नक्षत्रों की स्थापना की जाती है।
 
इनमें चैदह नक्षत्र सूर्य के और चैदह चंद्रमा के होते हैं। जिस दिन शल्यज्ञान करना हो, उस दिन सूर्य-चंद्र की स्थिति अहिबलचक्र में देखी जाती है। यदि सूर्य-चंद्र दोनों चंद्रमा के नक्षत्र में हो तो भूमि में शल्य और यदि दोनों अपने-अपने नक्षत्रों में हो तो भूमि में न तो शल्य और न ही निधि होती है।
 
 तद्यथा – ऊध्र्वरेखाष्टकं लेख्यं तिर्यक्पंच तथैव च। अहिचक्रं भवत्येवमष्टाविंशतिकोष्ठकम्।। 
 
इस प्रकार शल्य का ज्ञान होने पर भूमि में खनन कर शल्य निकाल लेना चाहिए। खनन के विषय में वर्णन प्राप्त होता है कि शल्यशोधन हेतु होने वाला खनन जलान्त, प्रसरांत अथवा पुरुषान्त होना चाहिए। इसका अर्थ है कि खनन करते समय जब जल दिखाई दे, पत्थर दिखाई दें तो एक पुरुष की जितनी लंबाई हो, उतना ही खनन करना चाहिए। इससे आगे शल्य के होने पर भी वह अशुभ प्रभाव नहीं करता।
 
यथोक्तम्- जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा। क्षेत्रं संशोध्य चोदृत्य शल्यं सदनमारभेत्।। 
 
इस प्रकार से शल्य ज्ञान कर और उसका निष्कासन कर ही भूमि पर भवन निर्माण करना चाहिए। 
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भूमि परीक्षा का तरीका–
 
चउवीसंगुलभूमी खणेवि पूरिज्ज पुण वि सा गत्ता।
तेणेव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया।।३।।
 
मकान आदि बनाने की भूमि में २४ अंगुल गहरा खड्डा खोदकर निकली हुई मिट्टी से फिर उसकी खड्डे को पूरे। यदि मिट्टी कम हो जाय, खड्डा पूरा भरे नहीं तो हीन फल, बढ़ जाय तो उत्तम और बराबर हो जाय तो समान फल जानना।।३।।
 
अह सा भरिय जलेण य चरणसयं गच्छमाण जा सुसइ।
ति–दु—इग अंगुल भूमी अहम मज्झम उत्तमा जाण।।४।।
 
अथवा उसी ही २४ अंगुल के खड्डे में बराबर पूर्ण जल भरे, पीछे एक सौ कदम दूर जाकर और वापिस लौटकर उसी ही जलपूर्ण खड्डे को देखे। यदि खड्डे में तीन अंगुल पानी सूख जाय तो अधम, दो अंगुल सूख जाय तो मध्यम और एक अंगुल पानी सूख जाय तो उत्तम भूमि समझना।४।।
 
पर्णानुकूल भूमि—
सयविप्पि अरुणखत्तिणि पीयवइसी अ कसिणसुद्दी अ।
भट्टियवण्णपमाणा भूमी निय निय वण्णसुक्खयरी।।५।।
 
सपेद वर्ण की भूमि ब्राह्मणों को, लाल वर्ण की भूमि क्षत्रियों को, पीले वर्ण की भूमि वैश्यों को और काले वर्ण की भूमि शूद्रों को, इस प्रकार अपने अपने वर्ण के सदृश रङ्गवाली भूमि सुखकारक होती है।।५।।
 
साधन—
रमभूमि दुकरवित्थरि दुरेह चक्कस्स मज्झि रविसंवं।
मंतछायगब्भे जमुत्तरा अद्धि—उदयत्थं।।६।।
 
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समतल भूमि पर दो हाथ के विस्तार वाला एक गोल चक्र करना और इस गोल के मध्य केन्द्र में बारह अंगुल का एक शंकु स्थापन करना। पीछे सूर्य के उदयाद्र्ध में देखना, जहाँ शंकु की छाया का अत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ एक चिह्न करना, इसको पश्चिम दिशा समझना। पीछे सूर्य के अस्त समय देखना, जहाँ शंकु की छाया का अंत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ दूसरा चिह्न करना, इसको पूर्व दिशा समझना। पीछे पूर्व और पश्चिम दिशा तक एक सरल रेखा खींचना। इस रेखा तुल्य व्यासाद्र्ध मानकर एक पूर्व िबदु से और दूसरा पश्चिम िंबदु से ऐसे दो गोल खींचने से पूर्व पश्चिम रेखा पर एक मत्स्याकृति (मछली की आकृति) जैसा गोल बनेगा। इसके मध्य बिन्दु से एक सीधी रेखा खींची जाय जो गोल के संपात के मध्य भाग में लगे, जहाँ ऊपर के भाग में स्पर्श करे यह उत्तर दिशा और जहाँ नीचे भाग में स्पर्श करे यह दक्षिण दिशा समझना।।६।। जैसे—‘इ उ ए’ गोल का मध्य बिन्दु ‘अ’ है, इस पर बारह अंगुल का शंकु स्थापन करके सूर्योदय के समय देखा तो शंकु की छाया गोल में ‘श’ बिन्दु के पास प्रवेश करती हुई मालूम पड़ती है, तो यह ‘क’ बिन्दु पश्चिम दिशा समझता और यही छाया मध्याह्न के बाद ‘च’ बिन्दु के पास गोल से बाहर निकलती मालूम होती हे, तो यह ‘च’ बिन्दु पूर्व दिशा समझना। पीछे ‘क’ बिन्दु से ‘च’ बिन्दु तक एक सरल रेखा खींचना, यही पूर्वापर रेखा होती है। यही पूर्वापर रेखा से बराबर व्यासाद्र्ध मान कर एक ‘क’ बिन्दु से ‘च छ ज’ और दूसरा ‘च’ बिन्दु से ‘क ख ग’ गोल किया जाय तो मध्य में मछली के आकार का गोल बन जाता है। अब मध्य बिन्दु ‘अ’ से ऐसी एक लम्बी सरल रेखा खींची जाय, जो मछली के आकार वाले गोल के मध्य में होकर दोनों गोल के स्पर्श बिन्दु से बाहर निकले, यही उत्तर दक्षिण रेखा समझना। मानलो शंकु की छाया तिरछी ‘इ’ बिन्दु के पास गोल में प्रवेश करती है, तो ‘इ’ पश्चिम बिन्दु और ‘उ’ बिन्दु के पास बाहर निकलती है, तो ‘उ’ पूर्व बिन्दु समझना। पीछे ‘इ’ बिन्दु से ‘उ’ बिन्दु तक सरल रेखा खींची जाय तो यह पूर्वापर रेखा होती है। पीछे पूर्ववत् ‘अ’ मध्य बिन्दु से उत्तर दक्षिण रेखा खींचना।
 
चौरस भूमि साधन—
समभूमीति ट्ठीए वट्टंति अट्ठकोण कक्कडए।
वूण दुदिसि त्तरंगुल मज्झि तिरिय हत्थुचउर्रसे।।७।।
 
एक हाथ प्रमाण समतल भूमि पर आठ कोनों वाला त्रिज्या युक्त ऐसा एक गोल बनाओ कि कोने के दोनों तरफ सत्रह २ अंगुल के भुजा वाला एक तिरछा समचोरस हो जाय।।७।। यदि एक हाथ के विस्तार वाले गोल में अष्टमांश बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप नव अंगुल होगा और चतुर्भुज बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप सत्रह अंगुल होगा।
 
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अष्टमांश भूमि स्थापना—
चउरंसि क्कि क्कि दिसे बारस भागाउ भाग पण मज्झे।
कुणेिह सड्ढ तिय तिय इय जायइ सुद्ध अट्ठंसं।।८।।
 
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सम चौरस भूमि की प्रत्येक दिशा में बारह २ भाग करना, इनमें से पाँच भाग मध्य में और साढ़े तीन २ भाग कोने में रखने से शुद्ध अष्टमांश होता है।।८।। इस प्रकार का अष्टमांश मंदिरों के और राजमहलों के मंडपों में विशेष करके किया जाता है।
भूमि परीक्षा
चउवीसंगुलभूमी खणेवि पूरिज्ज पुण वि सा गत्ता।
तेणेव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया।।३।।
 
मकान आदि बनाने की भूमि में २४ अंगुल गहरा खड्डा खोदकर निकली हुई मिट्टी से फिर उसकी खड्डे को पूरे। यदि मिट्टी कम हो जाय, खड्डा पूरा भरे नहीं तो हीन फल, बढ़ जाय तो उत्तम और बराबर हो जाय तो समान फल जानना।।३।।
 
अह सा भरिय जलेण य चरणसयं गच्छमाण जा सुसइ।
ति–दु—इग अंगुल भूमी अहम मज्झम उत्तमा जाण।।४।।
 
अथवा उसी ही २४ अंगुल के खड्डे में बराबर पूर्ण जल भरे, पीछे एक सौ कदम दूर जाकर और वापिस लौटकर उसी ही जलपूर्ण खड्डे को देखे। यदि खड्डे में तीन अंगुल पानी सूख जाय तो अधम, दो अंगुल सूख जाय तो मध्यम और एक अंगुल पानी सूख जाय तो उत्तम भूमि समझना।४।।
 
पर्णानुकूल भूमि—
सयविप्पि अरुणखत्तिणि पीयवइसी अ कसिणसुद्दी अ।
भट्टियवण्णपमाणा भूमी निय निय वण्णसुक्खयरी।।५।।
 
सपेद वर्ण की भूमि ब्राह्मणों को, लाल वर्ण की भूमि क्षत्रियों को, पीले वर्ण की भूमि वैश्यों को और काले वर्ण की भूमि शूद्रों को, इस प्रकार अपने अपने वर्ण के सदृश रङ्गवाली भूमि सुखकारक होती है।।५।।
 
साधन—
रमभूमि दुकरवित्थरि दुरेह चक्कस्स मज्झि रविसंवं।
मंतछायगब्भे जमुत्तरा अद्धि—उदयत्थं।।६।।
 
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समतल भूमि पर दो हाथ के विस्तार वाला एक गोल चक्र करना और इस गोल के मध्य केन्द्र में बारह अंगुल का एक शंकु स्थापन करना। पीछे सूर्य के उदयाद्र्ध में देखना, जहाँ शंकु की छाया का अत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ एक चिह्न करना, इसको पश्चिम दिशा समझना। पीछे सूर्य के अस्त समय देखना, जहाँ शंकु की छाया का अंत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ दूसरा चिह्न करना, इसको पूर्व दिशा समझना। पीछे पूर्व और पश्चिम दिशा तक एक सरल रेखा खींचना। इस रेखा तुल्य व्यासाद्र्ध मानकर एक पूर्व िबदु से और दूसरा पश्चिम िंबदु से ऐसे दो गोल खींचने से पूर्व पश्चिम रेखा पर एक मत्स्याकृति (मछली की आकृति) जैसा गोल बनेगा। इसके मध्य बिन्दु से एक सीधी रेखा खींची जाय जो गोल के संपात के मध्य भाग में लगे, जहाँ ऊपर के भाग में स्पर्श करे यह उत्तर दिशा और जहाँ नीचे भाग में स्पर्श करे यह दक्षिण दिशा समझना।।६।। जैसे—‘इ उ ए’ गोल का मध्य बिन्दु ‘अ’ है, इस पर बारह अंगुल का शंकु स्थापन करके सूर्योदय के समय देखा तो शंकु की छाया गोल में ‘श’ बिन्दु के पास प्रवेश करती हुई मालूम पड़ती है, तो यह ‘क’ बिन्दु पश्चिम दिशा समझता और यही छाया मध्याह्न के बाद ‘च’ बिन्दु के पास गोल से बाहर निकलती मालूम होती हे, तो यह ‘च’ बिन्दु पूर्व दिशा समझना। पीछे ‘क’ बिन्दु से ‘च’ बिन्दु तक एक सरल रेखा खींचना, यही पूर्वापर रेखा होती है। यही पूर्वापर रेखा से बराबर व्यासाद्र्ध मान कर एक ‘क’ बिन्दु से ‘च छ ज’ और दूसरा ‘च’ बिन्दु से ‘क ख ग’ गोल किया जाय तो मध्य में मछली के आकार का गोल बन जाता है। अब मध्य बिन्दु ‘अ’ से ऐसी एक लम्बी सरल रेखा खींची जाय, जो मछली के आकार वाले गोल के मध्य में होकर दोनों गोल के स्पर्श बिन्दु से बाहर निकले, यही उत्तर दक्षिण रेखा समझना। मानलो शंकु की छाया तिरछी ‘इ’ बिन्दु के पास गोल में प्रवेश करती है, तो ‘इ’ पश्चिम बिन्दु और ‘उ’ बिन्दु के पास बाहर निकलती है, तो ‘उ’ पूर्व बिन्दु समझना। पीछे ‘इ’ बिन्दु से ‘उ’ बिन्दु तक सरल रेखा खींची जाय तो यह पूर्वापर रेखा होती है। पीछे पूर्ववत् ‘अ’ मध्य बिन्दु से उत्तर दक्षिण रेखा खींचना।
 
चौरस भूमि साधन—
समभूमीति ट्ठीए वट्टंति अट्ठकोण कक्कडए।
वूण दुदिसि त्तरंगुल मज्झि तिरिय हत्थुचउर्रसे।।७।।
 
एक हाथ प्रमाण समतल भूमि पर आठ कोनों वाला त्रिज्या युक्त ऐसा एक गोल बनाओ कि कोने के दोनों तरफ सत्रह २ अंगुल के भुजा वाला एक तिरछा समचोरस हो जाय।।७।। यदि एक हाथ के विस्तार वाले गोल में अष्टमांश बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप नव अंगुल होगा और चतुर्भुज बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप सत्रह अंगुल होगा।
 
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अष्टमांश भूमि स्थापना—
चउरंसि क्कि क्कि दिसे बारस भागाउ भाग पण मज्झे।
कुणेिह सड्ढ तिय तिय इय जायइ सुद्ध अट्ठंसं।।८।।
 
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सम चौरस भूमि की प्रत्येक दिशा में बारह २ भाग करना, इनमें से पाँच भाग मध्य में और साढ़े तीन २ भाग कोने में रखने से शुद्ध अष्टमांश होता है।।८।। इस प्रकार का अष्टमांश मंदिरों के और राजमहलों के मंडपों में विशेष करके किया जाता है।
 
भूमि लक्षण फल—
दिणतिग बीयप्पसवा चउरंसाऽवम्मिणी अपुट्टा य।
अक्कल्लर भू सुहया पुव्वेसाणुत्तरंबुवहा।।९।।
 
वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी।
अइपुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला।।१०।।
 
जो भूमि बोये हुए बीजों को तीन दिन में उगाने वाली, सम चौरस, दीमक रहित, बिना फटी हुई, शल्य रहित और जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व ईशान अथवा उत्तर तरफ जाता हो अर्थात् पूर्व ईशान या उत्तर तरफ नीची हो ऐसी भूमि सुख देने वाली है।।९।। दीपक वाली व्याधि कारक हैं, खारी भूमि निर्धन कारक है, बहुत फटी हुई भूमि मृत्यु करने वाली और शल्य वाली भूमि दु:ख करने वाली है।।१०।।
 
समरांगणसूत्रधार में प्रशस्त भूमि का लक्षण इस प्रकार कहा है कि—
‘‘धर्मागमे हिमस्पर्शा या स्यादुष्णा हिमागमे।
प्रावृष्युष्णा हिमस्पर्शा सा प्रशस्ता वसुन्धरा।।’’
 
ग्रीष्म ऋतु ठंढी, ठंढी ऋतु में गरम और चौमासे में गरम और ठंढी जो भूमि रहती हो वह प्रशसंनीय है।
 
बृहत्संहिता में कहा है कि—
‘‘शस्तौषधिद्रु मलता मधुरा सुगंधा, स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम्।
अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां, धत्ते श्रियं किमुत शास्वतमन्दिरेषु।।’’
 
जो भूमि अनेक प्रकार के प्रशंसनीय औषधि वृक्ष और लताओं से सुशोभित हो तथा मधुर स्वाद वाली, अच्छी सुगन्ध वाली, चिकनी, बिना खड्डे वाली हो ऐसी भूमि मार्ग में परिश्रम को शांत करने वाले मनुष्यों को आनन्द देती है ऐसी भूमि पर अच्छा मकान बनवाकर क्यों न रहे।
 
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वास्तुशास्त्र में कहा है कि—
‘‘मनसश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भूवि।
तस्यां कार्यं गृहं सर्वै—रति गर्गादिसम्मतम्।।’’
 
जिस भूमि के पर मन और आंख का सन्तोष हो अर्थात् जिस भूमि को देखने से उत्साह बड़े उस भूमि पर घर करना ऐसा गर्ग आदि ऋषियों का मत है।
 
शल्य शोधन विधि—
बकचतएहसपज्जा इअ नव वण्णा कमेण लिहियव्वा।।
पुव्वाइदिसासु तहा भूमिं काऊण नव भाए।।१।।
अहिमंतिऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दाओ।
आणाविज्जइ पण्हं पण्हा इस अक्खरे सल्लं।।१२।।
 
जिस भूमि पर मकान आदि बनवाना हो, उसी भूमि में समान नव भाग करें। नव भागों में पूर्वादि आठ दिशा और एक मध्य में ‘ब क च त ए ह स प और ज (य) ऐसे नव अक्षर क्रम में लिखें।।११।।
 
पीछे ऊँ ह्रीं श्रीं ऐं नमो वाग्वादिनिी मम प्रश्ने अवतर २, इसी मंत्र से खड़ी (सपेद मट्टी) मंत्र करके कन्या के हाथ में देकर कोई प्रश्नाक्षर लिखवाना या बोलवाना। जो ऊपर कहे हुए नव अक्षरों में कोई एक अक्षर लिखे या बोले तो उसी अक्षर वाले भाग में शल्य है ऐसा समझना। यदि उपरोक्त नव अक्षरों में से कोई अक्षर प्रश्न में न आवे तो शल्य रहित भूमि जानना।।१२।।
 
बप्पण्हे नरसल्लं सड्ढकरे मिच्चुकारगं पुव्वे।
कप्पण्हे खरसल्लं अग्गीए दुकरि निवदंडं।।१३।।
 
यदि प्रश्नाक्षर ‘ब’ आवे तो पूर्व दिशा में घर की भूमि में डेढ़ हाथ नीचे नर शल्य अर्थात् मनुष्य के हाड़ आदि है, यह घर धणी को करण कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘क’ आवे तो अग्नि कोण में भूमि के भीतर दो हाथ नीचे गधे की हड्डी आदि हैं, यह घर की भूमि में रह जाय तो राज दंड होता है अर्थात् राजा के भय रहे।।१३।।
 
जामे चप्पण्हेणं नरसल्लं कडितलम्मि मिच्चुकरं।
तप्पण्हे निरईए सड्ढकरे साणुसल्लु सिसुहाणी।।१४।।
 
जो प्रश्नाक्षर में ‘च’ आवे तो दक्षिण दिशा में गृह भूमि में कटी बराबर नीचे मनुष्य का शल्य है, यह गृहस्वामी को मृत्तु कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘त’ आवे तो नैर्ऋत्य कोण में भूमि में डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते का शल्य है यह बालक को हानि कारक है अर्थात् गृहस्वामी को सन्तान का सुख न रहे।।१४।।
 
पच्छिमदिसि एपण्हे सिसुसल्लं करदुगम्मि परएसं।
वायवि हपण्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा।।१५।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ए’ आवे तो पश्चिम दिशा में भूमि में दो हाथ के नीचे बालक का शल्य जानना, इसी से गृहस्वामी परदेश रहे अर्थात् इसी घर में निवास नहीं कर सकता। प्रश्नाक्षर में ‘ह’ आवे तो वायव्य कोण में भूमि में चार हाथ नीचे अङ्गारे (कोयले) हैं, यह मित्र (सम्बन्धी) मनुष्य को नाश कारक है।।१६।।
 
उत्तरदिसि सप्पण्हे दियवरसल्लं कडिम्मि रोरकरं।
पप्पण्हे गोसल्लं सड्ढकरे धणविणासमीसाणे।।१६।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘स’ आवे तो उत्तर दिशा में भूमि के भीतर कमर बराकर नीचे ब्रह्मण का शल्य जानना, यह रह जाय तो गृहस्वामी को दरिद्र करता है। यदि प्रश्नाक्षर में ‘प’ आवे तो ईशान कोण में डेढ़ हाथ नीचे गौ का शल्य जानना, यह गृहपति के धन का नाश कारक है।।१६।।
 
जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार—कवाल—केस बहुसल्ला।
वच्छच्छलप्पमाणा पाएएा य हुंति मिच्चुकरा।।१७।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ज’ आवे तो भूमि के मध्य भाग में छाती बराकर नीचे अतिक्षार, कपाल, केश आदि बहुत शल्य जानना ये घर के मालिक को मृत्युकारक है।।१७।।
 
इअ एवमाइ अन्निवि जे पुव्वगयाइं हुंति सल्लाइं।
ते सव्ववेविय य सोहिवि वच्छबले कीरए गेहं।।१८।।
 
इस प्रकार जो पहले शल्य कहे हैं वे और दूसरे जो कोई शल्य देखने में आवे उन सबको निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे वत्स बल देखकर मकान बनावावे।।१८।।
 
विश्वकर्म प्रकाश में कहा है कि—
‘‘जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा।
क्षेत्रं संशोध्य चोद्धृत्य शल्यं सदनमारभेत्।।’’
 
जल तक या पत्थर तक या एक पुरुष प्रमाण खोदकर, शल्य को निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे उस भूमि पर घर बनाना आरम्भ करें।
भूमि लक्षण फल—
दिणतिग बीयप्पसवा चउरंसाऽवम्मिणी अपुट्टा य।
अक्कल्लर भू सुहया पुव्वेसाणुत्तरंबुवहा।।९।।
 
वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी।
अइपुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला।।१०।।
 
जो भूमि बोये हुए बीजों को तीन दिन में उगाने वाली, सम चौरस, दीमक रहित, बिना फटी हुई, शल्य रहित और जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व ईशान अथवा उत्तर तरफ जाता हो अर्थात् पूर्व ईशान या उत्तर तरफ नीची हो ऐसी भूमि सुख देने वाली है।।९।। दीपक वाली व्याधि कारक हैं, खारी भूमि निर्धन कारक है, बहुत फटी हुई भूमि मृत्यु करने वाली और शल्य वाली भूमि दु:ख करने वाली है।।१०।।
 
समरांगणसूत्रधार में प्रशस्त भूमि का लक्षण इस प्रकार कहा है कि—
‘‘धर्मागमे हिमस्पर्शा या स्यादुष्णा हिमागमे।
प्रावृष्युष्णा हिमस्पर्शा सा प्रशस्ता वसुन्धरा।।’’
 
ग्रीष्म ऋतु ठंढी, ठंढी ऋतु में गरम और चौमासे में गरम और ठंढी जो भूमि रहती हो वह प्रशसंनीय है।
 
बृहत्संहिता में कहा है कि—
‘‘शस्तौषधिद्रु मलता मधुरा सुगंधा, स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम्।
अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां, धत्ते श्रियं किमुत शास्वतमन्दिरेषु।।’’
 
जो भूमि अनेक प्रकार के प्रशंसनीय औषधि वृक्ष और लताओं से सुशोभित हो तथा मधुर स्वाद वाली, अच्छी सुगन्ध वाली, चिकनी, बिना खड्डे वाली हो ऐसी भूमि मार्ग में परिश्रम को शांत करने वाले मनुष्यों को आनन्द देती है ऐसी भूमि पर अच्छा मकान बनवाकर क्यों न रहे।
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वास्तुशास्त्र में कहा है कि—
‘‘मनसश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भूवि।
तस्यां कार्यं गृहं सर्वै—रति गर्गादिसम्मतम्।।’’
 
जिस भूमि के पर मन और आंख का सन्तोष हो अर्थात् जिस भूमि को देखने से उत्साह बड़े उस भूमि पर घर करना ऐसा गर्ग आदि ऋषियों का मत है।
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शल्य शोधन विधि—
बकचतएहसपज्जा इअ नव वण्णा कमेण लिहियव्वा।।
पुव्वाइदिसासु तहा भूमिं काऊण नव भाए।।१।।
अहिमंतिऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दाओ।
आणाविज्जइ पण्हं पण्हा इस अक्खरे सल्लं।।१२।।
 
जिस भूमि पर मकान आदि बनवाना हो, उसी भूमि में समान नव भाग करें। नव भागों में पूर्वादि आठ दिशा और एक मध्य में ‘ब क च त ए ह स प और ज (य) ऐसे नव अक्षर क्रम में लिखें।।११।।
 
पीछे ऊँ ह्रीं श्रीं ऐं नमो वाग्वादिनिी मम प्रश्ने अवतर २, इसी मंत्र से खड़ी (सपेद मट्टी) मंत्र करके कन्या के हाथ में देकर कोई प्रश्नाक्षर लिखवाना या बोलवाना। जो ऊपर कहे हुए नव अक्षरों में कोई एक अक्षर लिखे या बोले तो उसी अक्षर वाले भाग में शल्य है ऐसा समझना। यदि उपरोक्त नव अक्षरों में से कोई अक्षर प्रश्न में न आवे तो शल्य रहित भूमि जानना।।१२।।
 
बप्पण्हे नरसल्लं सड्ढकरे मिच्चुकारगं पुव्वे।
कप्पण्हे खरसल्लं अग्गीए दुकरि निवदंडं।।१३।।
 
यदि प्रश्नाक्षर ‘ब’ आवे तो पूर्व दिशा में घर की भूमि में डेढ़ हाथ नीचे नर शल्य अर्थात् मनुष्य के हाड़ आदि है, यह घर धणी को करण कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘क’ आवे तो अग्नि कोण में भूमि के भीतर दो हाथ नीचे गधे की हड्डी आदि हैं, यह घर की भूमि में रह जाय तो राज दंड होता है अर्थात् राजा के भय रहे।।१३।।
 
जामे चप्पण्हेणं नरसल्लं कडितलम्मि मिच्चुकरं।
तप्पण्हे निरईए सड्ढकरे साणुसल्लु सिसुहाणी।।१४।।
 
जो प्रश्नाक्षर में ‘च’ आवे तो दक्षिण दिशा में गृह भूमि में कटी बराबर नीचे मनुष्य का शल्य है, यह गृहस्वामी को मृत्तु कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘त’ आवे तो नैर्ऋत्य कोण में भूमि में डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते का शल्य है यह बालक को हानि कारक है अर्थात् गृहस्वामी को सन्तान का सुख न रहे।।१४।।
 
पच्छिमदिसि एपण्हे सिसुसल्लं करदुगम्मि परएसं।
वायवि हपण्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा।।१५।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ए’ आवे तो पश्चिम दिशा में भूमि में दो हाथ के नीचे बालक का शल्य जानना, इसी से गृहस्वामी परदेश रहे अर्थात् इसी घर में निवास नहीं कर सकता। प्रश्नाक्षर में ‘ह’ आवे तो वायव्य कोण में भूमि में चार हाथ नीचे अङ्गारे (कोयले) हैं, यह मित्र (सम्बन्धी) मनुष्य को नाश कारक है।।१६।।
 
उत्तरदिसि सप्पण्हे दियवरसल्लं कडिम्मि रोरकरं।
पप्पण्हे गोसल्लं सड्ढकरे धणविणासमीसाणे।।१६।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘स’ आवे तो उत्तर दिशा में भूमि के भीतर कमर बराकर नीचे ब्रह्मण का शल्य जानना, यह रह जाय तो गृहस्वामी को दरिद्र करता है। यदि प्रश्नाक्षर में ‘प’ आवे तो ईशान कोण में डेढ़ हाथ नीचे गौ का शल्य जानना, यह गृहपति के धन का नाश कारक है।।१६।।
 
जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार—कवाल—केस बहुसल्ला।
वच्छच्छलप्पमाणा पाएएा य हुंति मिच्चुकरा।।१७।।
 
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ज’ आवे तो भूमि के मध्य भाग में छाती बराकर नीचे अतिक्षार, कपाल, केश आदि बहुत शल्य जानना ये घर के मालिक को मृत्युकारक है।।१७।।
 
इअ एवमाइ अन्निवि जे पुव्वगयाइं हुंति सल्लाइं।
ते सव्ववेविय य सोहिवि वच्छबले कीरए गेहं।।१८।।
 
इस प्रकार जो पहले शल्य कहे हैं वे और दूसरे जो कोई शल्य देखने में आवे उन सबको निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे वत्स बल देखकर मकान बनावावे।।१८।।
 
विश्वकर्म प्रकाश में कहा है कि—
‘‘जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा।
क्षेत्रं संशोध्य चोद्धृत्य शल्यं सदनमारभेत्।।’’
 
जल तक या पत्थर तक या एक पुरुष प्रमाण खोदकर, शल्य को निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे उस भूमि पर घर बनाना आरम्भ करें।
 
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जाने और समझें भूमि चयन विधि -भूमि शोधन-निर्माण,और व्यवस्था को —
 
१.      वास्तुकार्य हेतु सर्वप्रथम कर्तव्य है- भूमिचयन,तत्पश्चात् उसका परीक्षण-शोघनसंस्कार।
 
२.    चातुर्वर्ण्यं मया सृष्ट चार मानवी वर्णों की तरह, भूमि के भी चार वर्ण कहे गये हैं-ब्राह्मणी,क्षत्रिया,वैश्या और शूद्रा भूमि।
 
३.    कुश,तुलसी,उत्तम वृक्ष लतादि जहाँ उत्पन्न हों ऐसी भूमी ब्राह्मणी कही गयी है,जिसका गन्ध उत्तम,स्वाद मधुर,रंग श्वेत होता है.
 
४.    मन्दिर,विद्यालय,उद्यान,जलाशय,बुद्धिजीवियों के कार्यस्थल ऐसी ही भूमि पर होने चाहिए।
 
५.   शरादि(सरकंडा,पतेल,काश) उत्पन्न होने वाली,रक्तगन्धा,कसैले स्वाद वाली,रक्त वर्णा भूमि को क्षत्रिया कहा गया है।आयुधादि निर्माण,रक्षाकार्य,राजगृहादि हेतु यह प्रसस्त भूमि है।
 
६.     कुशकाश से व्याप्त मधुगन्दवाली वैश्याभूमि किंचित पीत वर्णा होती है।ऐसी भूमि व्यापारियों एवं व्यावसायिक कार्य- बैंक,वित्तीय संस्थानादि के लिए अच्छी मानी गयी है।
 
७.   कंटीले तृणों वाली,मदिरागन्धयुक्ता श्याम वर्णा भूमि को शूद्रा कहा गया है।वास हेतु यह निंदित है।नीचकर्मियों के लिए उत्तम है-मांस का व्यवसाय,बूचरखाना आदि यहाँ बनाये जा सकते हैं।
 
८.    आजकल जैसेतैसे कूड़ाकरकट भर वासयोग्य भूमि बनाई जा रही है।ये सर्वदा त्याज्य कहे गये हैं।ऐसी भूमि में वास करके धन भले ही कमाले,किन्तु सुख-शान्ति की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती।
 
९.     वास्तु कार्य हेतु भूमि का प्लवत्व विचारणीय है।दक्षिण-पश्चिम-नैर्ऋत्य की ढलान वाली भूमि अच्छी नहीं होती।
 
१०. पूरब,उत्तर,ईशान की ढलान अच्छी कही गयी है।
 
११.  विपरीत ढलान को सुधार कर वासयोग्य बनाया जा सकता है।
 
१२.वास्तुभूमि से पश्चिम-दक्षिण-नैर्ऋत्य में पहाड़,टीले,ऊँचे बुर्ज आदि अच्छे माने गये हैं।
 
१३.पूरब,उत्तर,ईशान आदि दिशाओं में नदी,सरोवर,खुले मैदान आदि उत्तम माने गये हैं।
 
१४.   श्मशान,कब्रगाह,अस्पताल आदि के पास वास नहीं करना चाहिए।
 
१५.  मन्दिर,मस्जिद आदि धार्मिक स्थल भी वास हेतु अच्छे नहीं हैं। इनके समीप गृहस्थों के नहीं बसना चाहिए,जबकि समाज में विपरीत धारणा है कि मन्दिर के पास वास करना अच्छा है।
 
१६.  भूमि का आकार भी बहुत महत्व रखता है।वर्गाकार,आयताकार भूमि वास के योग्य श्रेष्ट है।विषमवाहु,त्रिकोण,शकट,दण्ड,व्यजन आदि आकार वाली भूमि पर वास न किया जाय।
 
१७.  सिंहमुखी-व्याघ्रमुखी भूमि को प्रायः अशुभ और गोमुखी को शुभ मान लिया जाता है,किन्तु सच पूछा जाय तो ये दोनों ही दोषपूर्ण हैं।न्यूनाधिक दोष का अन्तर है सिर्फ।
 
१८.सम्भव हो तो विषम आकार को काट-छांट कर सुधारने के बाद वास योग्य बनाया जा सकता है।
 
१९. भूखंड का आकार पूरब-पश्चिम अधिक होतो सूर्यवेध कहलाता है,और उत्तर-दक्षिण अधिक होने पर चन्द्रवेध।भवन सूर्यवेध और जलाशय चन्द्रवेध नहीं होना चाहिए। इससे विकाश बाधित होता है,साथ ही अन्य तरह की परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है।
 
२०.  भूमि के आकार में प्रलम्ब वा संकोच दोनों ही हानिकारक हैं।ये कहाँ किस कोण वा दिशा में हैं— इस पर दोष की मात्रा निर्भर है।
 
२१.दलदली क्षेत्र,भूकम्प प्रभावित क्षेत्र,विद्युतीयक्षेत्र,चुम्बकीय प्रभाव वाले क्षेत्र भी वास योग्य नहीं होते।
 
२२.  मोबाईल टावरों के समीप में वास करना कई घातक बीमारियों को आहूत करना है।
 
२३.  मनोनुकूल भूमि का चुनाव करने के बाद,शल्योद्धार विधि से परीक्षण भी अवश्य कर लेना चाहिए।
 
२४. भूगर्भीय परीक्षण भी यथासम्भव विशेषज्ञों से अवश्य करानी चाहिए।
 
२५. भूगर्भीय ज्ञान हेतु शल्योद्धार सहित धराचक्र एवं अहिबल चक्र का सहारा लेना चाहिए।
 
२६.  पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण ये चार दिशायें हैं,एवं ईशान,अग्नि,नैर्ऋत्य और वायु ये चार विदिशायें वा कोण कहे गये हैं। वास्तुशास्त्र में इनका विशेष महत्त्व है।
 
२७. दिशा-विदिशा मिलाकर आठ की संख्या बनती है,जिनमें सूर्यादि नवग्रहों का वास है।राहु-केतु को एकत्र ही नैर्ऋत्य कोण पर स्थान मिला है।
 
२८.  आठ दिशाओं के अलावा आकाश और पाताल की भी वास्तुसम्मत गणना है,यानी आठ+दो=दस की संख्या होगयी। इन दशों के स्वामी को दिक्पाल कहा जाता है।प्रादक्षिण क्रम से इन्द्र,अग्नि,यम,निर्ऋति, वरुण,वायु,कुबेर और ईशान तथा आकाश-पाताल के स्वामी क्रमशः ब्रह्मा और अनन्त कहे गये हैं। प्रत्येक वास्तु कार्य में इन दस दिक्पालों का पूजन सर्वाधिक आवश्यक है।
 
२९.  चार दिशायें,चार कोण,आकाश-पाताल,इन सबके स्वामी दिक्पाल और तत् तत् प्रतिष्ठित नवग्रहों की स्थिति सुदृढ़ हो तो वास्तु (भवन) को बहुत बल मिलता है।
 
३०.  चयनित वास्तुभूमि को समान आकार के नौ खण्डों में विभाजित कर दिशा-विदिशा,और मध्य का ज्ञान करना चाहिए।
 
३१.विशेष विचार हेतु इसे ही नौ गुणे नौ,वा आठ गुणे आठ यानी एक्यासी वा चौंसठ समान आकारों में विभाजित किया जाता है,जिसे वास्तुपद कहते हैं।
 
३२.  वास्तुमंडल (निर्माणाधीन भवन) में कहाँ क्या बनाना चाहिए इसका आधार यह वास्तुपद ही है।प्रत्येक पद के एक-एक स्वामी हैं।उनके नाम,रुप,गुण,स्वभाव आदि के अनुसार ही निर्माण करना होता है।
 
३३.  भवन में पांचों तत्व(आकाश,वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी)को संतुलित करना सर्वाधिक आवश्यक है।
 
३४. आकाश तत्व को संतुलित रखने हेतु भवन के मध्य(केन्द्रीय भाग) को यथासम्भव रिक्त,स्वच्छ,खुला रखना चाहिए। इसे ही ब्रह्म स्थान कहा गया है।
 
३५. ब्रह्मस्थान वास्तुपुरुष का हृदय माना गया है। यह वास्तुमंडल का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है,अतः इसकी मर्यादा-रक्षा परम आवश्यक है।
 
३६.  भवन में जल(कुआँ,बोरिंग)का स्थान ईशान क्षेत्र(पूरब-उत्तरकोण) में होना चाहिए।मध्यपूर्व,मध्यउत्तर भी द्वितीय श्रेणी में है।मध्य पश्चिम भी ग्राह्य है,किन्तु अग्नि से नैर्ऋत्य पर्यन्त पूरा दक्षिण इसके योग्य नहीं है।
 
३७. छत के ऊपर का पानी टंकी जलस्रोत नहीं है,यह जलभंडारण है। अतः इसका स्थान ईशान के वजाय वायु कोण होना चाहिए। किन्तु ठीक कोण पर नहीं,बल्कि उससे पश्चिम हट कर,यानी वायु और वरुण का बल लेकर।जमीन के भीतर पानीटंकी बनानी हो तो ईशान कोण पर बनायी जा सकती है।ऊँचाई के ख्याल से लोग नैर्ऋत्य कोण पर पानीटंक रख देते हैं,यह बिलकुल गलत है। जल ही जीवन है,इसे राक्षसों के कब्जे में नहीं रखना चाहिए।
 
३८.  भवन में अग्नि(रसोईघर)अग्निकोण(पूरब-दक्षिणकोण)में स्थापित होना चाहिए।
 
३९.  नैर्ऋत्यकोण(दक्षिण-पश्चिम कोण) राक्षस वा रक्षक का स्थान है। गृहस्वामी का स्थान यहीं हो तो अच्छा है।
 
४०.  वायुकोण(उत्तर-पश्चिमकोण)आवागमन,और हल्कापन का प्रतीक है।तदनुसार यहाँ की संरचना होनी चाहिए।
 
४१.   सेप्टीटैंक आज की सभ्यता का अनिवार्य अंग है,जिसे भवन में ही स्थान देना पड़ता है। इसे बहुत सोचसमझ कर बनाना चाहिए।
 
४२. किसी भी दिशा वा किसी कोण पर सेप्टीटैंक न बनाया जाय। ईशान और वायु दोनों कोणों के बाद, दोनों ओर एक-एक कोष्ठक इसके लिए सही स्थान है।यानी कुल चार स्थान उपयुक्त हैं।
 
४३. शौचालय सुविधानुसार कहीं रख सकते हैं- दिशा और कोण छोड़ कर।
 
४४. सीढ़ियाँ नैर्ऋत्य कोण पर बनायी जा सकती है,अन्य कोणों पर नहीं। पश्चिमदिशा सर्वाधिक उपयुक्त है।
 
४५.भवन का प्रवेशद्वार दक्षिणदिशा छोड़कर सभी ग्राह्य हैं,किन्तु किसी कोण पर न हो।
 
४६.  दक्षिण में ही प्रवेशद्वार अनिवार्य हो तो मध्य दक्षिण से अवश्य बचें। उससे दायें-बायें एक-एक स्थान उचित है।
 
४७.व्यापार केन्द्र दक्षिणमुख हो सकते हैं। बाजार में जहाँ चारों ओर दुकानें ही दुकानें हैं- उत्तर-दक्षिण का भेद नहीं माना जाता।ये नियम सिर्फ आवासीयवास्तु के लिए है।
 
४८. प्रवेशद्वार किसी भी दिशा का मध्य सर्वोत्तम कहा गया है।मध्य से एक भाग दायें-बायें भी ग्राह्य है।इन्हीं भागों में सहद्वार भी रखे जाने चाहिए,किन्तु दक्षिण में कदापि नहीं।
 
४९.  घर के भीतरी सभी दरवाजे और खिड़कियों का शीर्ष एक समान हो।तल भी समान ही होना चाहिए।
 
५०. भीतरी द्वारों में दक्षिणदिशा का दोष नहीं लगता,यानी उत्तर के कमरे का दरवाजा दक्षिणमुख होगा ही,इससे कोई हानि नहीं है।
 
५१.  भोजन का स्थान रसोई घर के यथासम्भव समीप ही हो,यानी बिलकुल विपरीत नहीं,और दूर भी नहीं।
 
५२. भोजन दक्षिणाभिमुख कदापि न किया जाये।
 
५३. शयन उत्तर सिर करके कदापि न किया जाय। वैज्ञानिक और धार्मिक दोनों पक्षों से निषेध है। शरीर का चुम्बकीय प्रभाव क्षतिग्रस्त होता है,तथा मानसिक व्याधियों का खतरा रहता है। भूतप्रेतादि अन्तरिक्षीय समस्यायें भी झेलनी पड़ सकती हैं,जिसका चिकित्सकीय निदान भी ठीक से नहीं हो पाता।
 
५४.पूजा का स्थान ईशान से लेकर अग्नि पर्यन्त कहीं भी हो सकता है,ऐसा नहीं कि सिर्फ ईशान ही हो।
 
५५.                                                                  भवन की ऊँचाई चारो दिशाओं में समान होनी चाहिए।अन्तर यदि रखना हो तो ध्यान रहे कि दक्षिण-पश्चिम की तुलना में उत्तर-पूर्व नीचा हो। यही नियम चहारदीवारी आदि के लिए भी लागू होता है।
 
५६. भवन का निर्माण कार्य अग्निकोण से प्रादक्षिणक्रम(clockwise)से ही करना चाहिए,इसके विपरीत कदापि नहीं,और न बेतरतीब ढंग से ही कि कभी कहीं,कभी कहीं पीलर बना दिये या दीवार उठा दिये। ऐसा करने से कार्यवाधा और धन की हानि होती है।
 
५७.                                                                  भवन का मध्य भाग नीचा नहीं होना चाहिए। इसके खालीपन का महत्व है,न कि नीचा होने का।
 
५८. घर के अन्दर किसी देवता की बड़ी मूर्ति नहीं रखनी चाहिए। आठ अंगुल तक की मूर्ति रखी जा सकती है।
 
५९. शयन कक्ष में अधिक से अधिक अपने प्रियदेवता (इष्टदेव)की मात्र एक तस्वीर पूर्वी दीवार पर रख सकते हैं।
 
६०.   पलंग में आइना रखने का फैशन है। यह अच्छा नहीं है।
 
६१. डेसिंग टेबल भी शयन कक्ष में ऐसे रखें ताकि उसका प्रतिविम्ब विस्तर पर न पड़े।सोते समय उस पर परदा डाल दें।
 
६२.  युद्ध,या अन्य रौद्र-वीभत्स दृश्यों को भवन में स्थान देना उचित नहीं है।
 
६३.  सिरकटा हुआ या सिर्फ सिर(मुण्डभाग) की तस्वीर या मूर्ति घर में शोभा के लिए भी न रखें।
 
६४.  घर के भीतरी रखरखाव के लिए भी पंचतत्वों के संतुलन का ही सिद्धान्त मान्य है।यानी आन्तरिक साजसज्जा के लिए भी तत्व का नियम पालन होना चाहिए।
 
६५. मांसाहारी परिवार में हनुमत्ध्वज की स्थापना नहीं होनी चाहिए। शाकाहारी परिवार भी हनुमत्ध्वज को ईशान,वायु या मध्यपूर्व में ही स्थापित करें।वायुकोण सर्वोत्तम स्थान है।ध्वज की ऊँचाई नौ फीट से कम न हो।
 
६६.   भवन को बाहरी वाधाओं से रक्षा हेतु ऊपरी मंजिल पर दशदिक्पालों के निमित्त दश वर्छियाँ(उस-उस दिशा में मुख वाली)स्थापित की जा सकती हैं।इसे पूरे वास्तुविधान से करना चाहिए।
 
६७. मुख्यद्वार पर विघ्नेश्वर गणेश की स्थापना करके लोग निश्चिन्त हो जाते हैं।इसका सही लाभ तभी मिलता है,जब नियमित इनकी पूजा-अर्चना हो,अन्यथा नुकसान ही होता है।
 
६८.  प्राणप्रतिष्ठित पीतल या तांबें का स्वस्तिक घर में लगाने से विविध वास्तुदोषों का निवारण होता है।
 
६९.   भवन के किसी भाग में वास्तुदोष स्पष्ट होतो उसका निवारण करना चाहिए।
 
७०. दोष को समाप्त करना सम्भव न हो तो उसका परिहार जनित उपाय करके काम चलाया जा सकता है।
 
७१.  द्वारवेध एक बहुत बड़ा वास्तुदोष है।प्रवेश द्वार के सामने विजली का खम्भा,कुआँ,कोई और गड्ढा,पेड़,अरुचिकर वस्तु आदि वेध पैदा करते हैं।किन्तु इनकी दूरी ग्यारह फीट से अधिक हो या बीच में सार्वजनिक रास्ता हो तो दोष में कमी आ जाती है।
 
७२. नित्य प्रातःसायं घर में देवदारधूप,गूगुल,धूना आदि जलाना चाहिए। इससे सभी प्रकार के दोषों का शमन होता है।
 
७३. बांस की तिल्लियों से बनी अगरबत्तियों का प्रयोग कदापि न करें,इससे सन्तान पक्ष की हानि होती है।
 
७४.शंख,घंटा-घंटी,वांसुरी आदि की ध्वनियां,तथा भजन-कीर्तन-संगीत भी वास्तुदोषों को दूर करता है। ठीक इसके विपरीत आधुनिक कर्कश स्वर,बेढंगे संगीत वास्तुदोष पैदा करते हैं। यह ध्वनि-विज्ञान सम्मत बात है।
 
७५.                                                                     चारो कोनों और मध्य भाग में उच्च शक्ति का प्राणप्रतिष्ठित वास्तु दोष निवारण यन्त्र स्थापित करना चाहिए।
 
७६. किराये के मकान में भी नियम वही होगा जो अपने मकान में होता है।
 
७७.                                                                    वास्तुदोष-पीडित मकान को किराये पर लगाकर,निश्चिन्त नहीं होना चाहिए। मात्रा भले ही कम हो, दोष हावी रहेगा ही।
 
७८. आवासीयवास्तु के सभी मूल सिद्धान्त धार्मिक और व्यावसायिक वास्तु के लिए भी समान रुप से लागू होते हैं।
 
७९. भवन परिसर में बड़े आकार के पेड-पौधे न लगाये। फूल-पत्तियां सुविधानुसार लगायी जा सकती हैं।
 
८०.  आजकल शमी के पौधे का जोरदार चलन है। इसे सही स्थान पर लगाने से ही लाभ होगा,अन्यथा हानि होगी। शमी का पौधा मध्य पश्चिम यानी शनि के क्षेत्र में ही लगाना चाहिए।
 
८१.थूहर-(कैकटस प्रजाति) इसे घर में न लगायें। लगाना ही हो तो नैर्ऋत्यकोण में लगायें।
 
८२.  भवन निर्माण के प्रारम्भ में भूमिपूजन(संक्षिप्तवास्तुपूजन)अवश्य करें।
 
८३.  भवन तैयार हो जाने के बाद विशेषविधान से वास्तुपूजन करके ही गृहवास(प्रवेश)करें।
 
८४. साल में एक बार वास्तुहोम अवश्य करना चाहिए। इससे भवन की वास्तुऊर्जा हमेशा जागृत रहती है।
 
८५. भवन में किसी प्रकार से तोड़फोड़ बदलाव करने के बाद भी संक्षिप्त वास्तुशान्ति आवश्यक है।
 
८६.  गृहवासी के कर्म और संस्कार पर भी वास्तु का गुण-दोष निर्भर करता है-इसे सर्वदा याद रखें।
 
उक्त सूत्रावली में वास्तु परिचय,प्रयोजन,प्रकार,चयन,शोधन,निर्माण, व्यवस्था आदि उपखण्डों में (११+९+८६ सूत्रों) कुछ अत्यावश्यक वास्तुनियमों की चर्चा की गयी। ये यथासम्भव पालनीय हैं।अस्तु।
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संदर्भ सूची—
 1. राजवल्लभवास्तुशास्त्र – 1/19 
2. राजवल्लभवास्तुशास्त्र – 1/20 
3. राजवल्लभवास्तुशास्त्र – 1/21 
4. विश्वकर्मप्रकाश 12/2 
5. विश्वकर्मप्रकाश 12/3-7
 6. बृहत्संहिता – 53/59 
7. बृहत्संहिता – 53/105-106
 8. बृहत्संहिता – 53/107 
9. बृहत्संहिता – 53/108 
10. वास्तुसौख्यम – 3/48-53 
11. विश्वकर्म प्रकाश 12/9 
12. विश्वकर्म प्रकाश 12/15-32 
13. वास्तुसारसंग्रह – 5/8-23 
14. बृहद्वास्तुमाला 1/166 
15. वास्तुरत्नाकर – 3/3 
16. विश्वकर्म प्रकाश 12/12

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