अगर आप भी इसी महीने (जून,…2 में)अपने घर में शुभ काम करवाने जा रहे हैं, तो हो सकता है आपको पंडित जी न मिले। या फिर वह आपसे दोगुनी फीस की डिमांड करें। दरअसल, हिंदू धर्म के अनुसार, .0 जून को तारा डूब रहा है। इसके बाद कोई भी शुभ काम नहीं होता है। ऐसे में लोग इन दिनों जल्दी से जल्दी अपने काम निपटाने में लगे हुए हैं। चाहे घर का मुहूर्त हो, नई गाड़ी खरीदनी हो या फिर लड़की देखने जाना हो। तारा करीब एक महीने के लिए हर साल डूबता है।एक महीने तक नहीं होंगे शुभ कार्य —-
पंडितों का मानना है कि तारा डूबते के साथ ही देवता एक महीने के लिए गहरी नींद में सो जाते हैं। जो नवंबर में देव उठनी एकादशी के बाद ही जागते हैं। इस दौरान एक माह तक कोई भी शुभ कार्य नहीं होता। ऐसे में इन दिनों पंडितों की शहर में जबर्दस्त डिमांड चल रही है। पंडितों के अनुसार, सबसे अधिक घर के मुहूर्त ओर नई गाडि़यों के पूजन के लिए लोग बुला रहे हैं। घरों के अलावा नई दुकानों व नए कारोबार के लिए भी डिमांड हो रही है। कई पंडित तो पूजा के लिए दिल्ली तक जा रहे हैं। मान्यता है कि जब तारा डूबता हैं तो उस दौरान शादी, सोना खरीदना, रिश्ता तय करना, नया कारोबार करना और घर बनवाने जैसे शुभ काम नहीं होते हैं। घंटेश्वर मंदिर के मैनेजर सुभाष शर्मा का कहना है कि 30 जून से तारा डूब रहा है। ऐसे में अधिकांश लोग अभी अपने जरूरी काम करवा रहे हैं। उन्होंने बताया कि हमारे पंडित जी भी दिन में चार से पांच जगहों पर शुभ कार्य के लिए जा रहे हैं।
एक ही दिन में कई घरों से बुलावा —-
इसी तरह महालक्ष्मी गार्डन के पंडित जी विशंभर शर्मा का कहना है कि इन दिनों लोग नए घर , नए कारोबारऔर नई दुकान के मुहूर्त के लिए अधिक बुला रहे हैं। कई लोग तो मन मांगी दक्षिणा देकर बुलाते हैं लेकिन एकदिन में सबके यहां पूजा के लिए नहीं जाया जा सकता। पूजा में समय लगता है , इसलिए कई लोगों को मायूसहोना पड़ रहा है।
शुभ मुहूर्त: जानिए घर में कब करवाएं वास्तु शांति के लिए पूजा—-
कहते हैं किसी भी वस्तु या कार्य को प्रारंभ करने में मुहूर्त देखा जाता है, जिससे मन को बड़ा सुकून मिलता है. हम कोई भी बंगला या भवन निर्मित करें या कोई व्यवसाय करने हेतु कोई सुंदर और भव्य इमारत बनाएं तो सर्वप्रथम हमें Þमुहूर्तÞ को प्राथमिकता देनी होगी.
शुभ तिथि, वार, माह व नक्षत्रों में कोई इमारत बनाना प्रारंभ करने से न केवल किसी भी परिवार को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक व शारीरिक फायदे मिलते हैं..वरन उस परिवार के सदस्यों में सुख-शांति व स्वास्थ्य की प्राप्ति भी होती है.यहां शुभ वार, शुभ महीना, शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र भवन निर्मित करते समय इस प्रकार से देखे जाने चाहिए ताकि निर्विघ्न, कोई भी कार्य संपादित हो सके. नए घर में प्रवेश से पूर्व वास्तु शांति अर्थात यज्ञादि धार्मिक कार्य अवश्य करवाने चाहिए। वास्तु शांति कराने से भवन की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है और घर शुभ प्रभाव देने लगता है। इससे जीवन में खुशी व सुख-समृद्धि आती है। वास्तु शास्त्र के अनुसार मंगलाचरण सहित वाद्य ध्वनि करते हुए कुलदेव की पूजा व अग्रजों का सम्मान करके व ब्राह्मणों को प्रसन्न करके गृह प्रवेश करना चाहिए। जब आप घर का निर्माण पूर्ण कर ले तो प्रवेश के समय वास्तु शांति की वैदिक प्रक्रिया अवश्य करनी चहिये और फिर उसके बाद 5 ब्रह्मण,9 कन्या और तीन वृद्ध को आमंत्रित कर उनका स्वागत सत्कार करे | नवीन भवन में तुलसी का पौधा स्थापित करना शुभ होता है। बिना द्वार व छत रहित, वास्तु शांति के बिना व ब्राह्मण भोजन कराए बिना गृह प्रवेश पूर्णत: वर्जित माना गया है। शुभ मुहूर्त में सपरिवार व परिजनों के साथ मंगलगान करते हुए और मंगल वाध्य यंत्रो शंख आदि की मंगल ध्वनि तथा वेड मंत्रो के उच्चारण के साथ प्रवेश करना चहिये | आप को सभी कष्टों से मुक्ति मिलेगी | नया घर बनाने के पश्चात जब उसमें रहने हेतु प्रवेश किया जाता है तो उसे नूतन गृह प्रवेश कहते हैं। नूतन गृह प्रवेश करते समय शुभ नक्षत्र, वार, तिथि और लग्न का विशेष ध्यान रखना चाहिए और ऐसे समय में जातक सकुटुम्ब वास्तु शांति की प्रक्रिया योग्य ब्राह्मणों द्वारा संपन्न करवाए तो उसे सम्पूर्ण लाभ मिलता है |
गृह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र वार एवं तिथि इस प्रकार हैं—-शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा।अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए।
शुभ वार : सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार (गुरुवार), शुक्रवार तथा शनिचर (शनिवार) सर्वाधिक शुभ दिन माने गए हैं। मंगलवार एवं रविवार को कभी भी भूमिपूजन, गृह निर्माण की शुरुआत, शिलान्यास या गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए। शुभ माह : देशी या भारतीय पद्धति के अनुसार फाल्गुन, वैशाख एवं श्रावण महीना गृह निर्माण हेतु भूमिपूजन तथा शिलान्यास के लिए सर्वश्रेष्ठ महीने हैं, जबकि माघ, ज्येष्ठ, भाद्रपद एवं मार्गशीर्ष महीने मध्यम श्रेणी के हैं। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि चैत्र, आषाढ़, आश्विन तथा कार्तिक मास में उपरोक्त शुभ कार्य की शुरुआत कदापि न करें। इन महीनों में गृह निर्माण प्रारंभ करने से धन, पशु एवं परिवार के सदस्यों की आयु पर असर गिरता है। शुभ तिथि :— गृह निर्माण हेतु सर्वाधिक शुभ तिथिया ये हैं : शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी तिथियां, ये तिथियां सबसे ज्यादा प्रशस्त तथा प्रचलित बताई गई हैं, जबकि अष्टमी तिथि मध्यम मानी गई है।
प्रत्येक महीने में तीनों रिक्ता अशुभ होती हैं। ये रिक्ता तिथियां निम्न हैं- चतुर्थी, नवमी एवं चौदस या चतुर्दशी। रिक्ता से आशय रिक्त से है, जिसे बोलचाल की भाषा में खालीपन या सूनापन लिए हुए रिक्त (खाली) तिथियां कहते हैं। अतः इन उक्त तीनों तिथियों में गृह निर्माणनिषेध है।
शुभ लग्न- वृष, सिंह, वृश्चिक व कुंभ राशि का लग्न उत्तम है। मिथुन, कन्या, धनु व मीन राशि का लग्न मध्यम है। लग्नेश बली, केंद्र-त्रिकोण में शुभ ग्रह और 3, 6, 10 व 11वें भाव में पाप ग्रह होने चाहिए।
शुभ नक्षत्र : —-किसी भी शुभ महीने के रोहिणी, पुष्य, अश्लेषा, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपदा, स्वाति, हस्तचित्रा, रेवती, शतभिषा, धनिष्ठा सर्वाधिक उत्तम एवं पवित्र नक्षत्र हैं। गृह निर्माण या कोई भी शुभ कार्य इन नक्षत्रों में करना हितकर है। बाकी सभी नक्षत्र सामान्य नक्षत्रों की श्रेणी में आ जाते हैं।
सात ‘स’ और शुभता —–
शास्त्रानुसार (स) अथवा (श) वर्ण से शुरू होने वाले सात शुभ लक्षणों में गृहारंभ निर्मित करने से धन-धान्य व अपूर्व सुख-वैभव की निरंतर वृद्धि होती है व पारिवारिक सदस्यों का बौद्धिक, मानसिक व सामाजिक विकास होता है। सप्त साकार का यह योग है, स्वाति नक्षत्र, शनिवार का दिन, शुक्ल पक्ष, सप्तमी तिथि, शुभ योग, सिंह लग्न एवं श्रावण माह। अतः गृह निर्माण या कोई भी कार्य के शुभारंभ में मुहूर्त पर विचार कर उसे क्रियान्वित करना अत्यावश्यक हें..नया घर बनवाते समय सभी की इच्छा होती है कि नया घर उसके लिए सुख-समृद्धि व खुशियां लेकर आए। इसके लिए जरूरी है कि गृह प्रवेश सदैव मुहूर्त जान कर करें। शुभ मुहूर्त में गृह प्रवेश शुभ फल देता है। विशेष- गृह प्रवेश करते समय वास्तु पुरुष का पूजन नहीं किया हो तो सविधि गृह प्रवेश करते समय वास्तु शांति के लिए यज्ञादि करके एवं ब्राह्मणों, मित्रों व परिजनों को भोज देना चाहिए। नवीन भवन में तुलसी का पौधा स्थापित करना शुभ होता है। बिना द्वार व छत रहित, वास्तु शांति के बिना व ब्राह्मण भोजन कराए बिना गृह प्रवेश पूर्णत: वर्जित माना गया है। शुभ मुहूर्त में सपरिवार व परिजनों के साथ मंगलगान करते हुए शंख, बैंड व मंगल ध्वनि करते हुए गृह प्रवेश करना चाहिए।
समय के इस शुभाशुभ प्रभाव को हम सभी मानते हैं। प्रत्येक आवश्यक, मांगलिक और महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शुभाशुभ समय का विचार करके अनुकूल समय का चुनाव करने की पद्धति को ही मुहूर्त- विचार के लिए प्रयोग में लाया जाता है। हमारे भारतवर्ष में जन्म से लेकर मरणोपरांत तक किए जाने वाले सोलह संस्कारों में प्रत्येक कार्य करने हेतु मुहूर्तों का सहारा लिया जाता है तथा मुहूर्तों का जन-व्यवहार से नजदीक का संबंध है। अधिकांशतः सभी व्यक्ति अनेक व्यवहारिक कार्यों को मुहूर्त के अनुसार ही संपन्न करते हैं। मुहूर्त विचार की इस परंपरा को केवल हिंदु ही नहीं अपितु प्रत्येक समुदाय के व्यक्ति जैसे मुसलमान, पारसी, जैन, सिक्ख इत्यादि सभी समय के शुभाशुभ प्रभाव को पहचानने के लिए इस बेजोड़ पद्धति द्वारा मुहूर्त का विचार करते हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों के द्वारा समय को वर्ष, मास, दिन, लग्न एवं मुहूर्त रूपी पांच भागों में वितरित किया गया है। उपरोक्त श्लोकानुसार सिद्धांत को मानकर विशेष कार्य को सुचारू रूप से करने हेतु शुभ समय के निर्णय की परंपरा का श्रीगणेश हुआ। इसी कारण, तिथि, वार, ,नक्षत्र, योग, करण, चंदमास, सूर्यमास, अयन, ग्रहों का उदयास्त विचार, सूर्य-चंद्र ग्रहण एवं दैनिक लग्न के आधार पर कार्य-विशेष हेतु शुभ मुहूर्त का चयन किया जाता है। समय और ग्रहों का शुभाशुभ प्रभाव जड़ और चेतन सभी प्रकार के पदार्थों पर पड़ता है। भूमण्डल (पृथ्वी) का प्रबंधकीय कार्य समय के अनुरूप होता रहता है। यहां काल (समय) का प्रभाव छः ऋतुओं के रूप में दिखाई देता है।
वायु मडल पर प्रकृति और समय- चक्रानुसार पड़ने वाले अलग-अलग प्रभावों के कारण ओले गिरते हैं, बिजली चमकती है, भूकंप आते हैं, वज्रपात होता है, हवा के प्रकोप से चक्रवात आते हैं, आकाश में उल्कापात और अति-वृष्टि से जन-धन की हानि होती है। इन सब प्राकृतिक उत्पातों का ग्रह नक्षत्रों से बहुत गहरा संबंध है। मुखयतः सूर्यादि ग्रहों एवं नक्षत्रों का शुभाशुभ प्रभाव भूमंडल व भूवासियों पर पड़ता है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के उजाले और अंधेरे का प्रभाव वस्तु-विशेष, जड़-चेतन सभी पर पड़ता है। समय के इसी शुभ-अशुभ प्रभाव से बचने के लिए शुभ मुहूर्तों के आधार पर कार्य करने का प्रचलन प्रारंभ हुआ। हम सभी अपनी जीवन-यात्रा में अनेकानेक उत्तरादायित्वों को समय के क्रमानुसार निर्वह्न करते हैं। इन समस्त उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए शुभ समय का निर्धारण करने की आवश्यकता पड़ती है। एक पौराणिक आखयान के अनुसार यह माना गया है, कि पाण्डवों में सहदेव मुहूर्त-शास्त्र के मर्मज्ञ थे। महाभारत युद्ध के पूर्व महाराज धृतराष्ट्र के कहने पर स्वयं दुर्योधन रणभूमि में कौरवों की विजय हेतु शुभ मुहूर्त निकलवाने के लिए सहदेव के पास गये थे और सहदेव ने उन्हें युद्ध विजय का शुभ-मुहूर्त बताया था। जब इस बात का पता भगवान श्रीकृष्ण को चला तो उन्होंने इस मुहूर्त को टालने के लिए व पांडवों की विजय का शुभ- मुहूर्त लाने हेतु अर्जुन को मोह मुक्त करने के लिए उपदेश दिया था। मुहूर्त के संबंध में श्रीरामचरित मानस में भी उल्लेख प्राप्त होता है, कि युद्ध के पश्चात जब रावण मरणासन्न हालत में था तब भगवान श्रीरामचंद्र ने लक्ष्मण को उससे तिथि, मुहूर्तों व काल का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसके पास भेजा था। इस आखयान से भी मुहूर्त अर्थात शुभ क्षणों के महत्व का पता चलता है। अथर्ववेद में शुभ काल में कार्य प्रारंभ करने के निर्देश प्राप्त होते हैं, ताकि मानव जीवन के समस्त पक्षों पर शुभता का अधिक से अधिक प्रभाव पड़ सके। हमारे पुराणों, शास्त्रों में अनेकों ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जिनसे इन तथ्यों का ज्ञान होता है। कंस के वध हेतु भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उचित समय की प्रतीक्षा करना इन तथ्यों की पुष्टि करता है।
आज के इस विज्ञान के समय में वैज्ञानिक गण भी किसी प्रयोग को संपन्न करने हेतु उचित समय की प्रतीक्षा करते हैं। राजनेता, मंत्रीगण भी निर्वाचन के समय नामांकन हेतु, शपथ ग्रहण हेतु शुभ मुहूर्त का आश्रय लेते हैं। आचार्य वराहमिहिर भी इस मुहूर्त विचार की अनुशंसा करते हुए कहते हैं, कि इस एक क्षण की अपने आप में कितनी महत्ता है और यदि इसका सही उपयोग किया जाये तो कितना अधिक अनुकूल परिणाम प्राप्त हो सकता है। अब प्रश्न उठता है, कि क्या शुभ मुहूर्त में कार्य प्रारंभ करके भाग्य बदला जा सकता है? यहां यह बता देना आवश्यक है, कि ऐसा संभव नहीं है। हम जानते ही हैं, कि भगवान श्रीराम के राजतिलक हेतु प्रकाण्ड विद्वान गुरु देव वशिष्ठ जी ने शुभ मुहूर्त का चयन किया था परंतु उनका राजतिलक नहीं हो पाया था। अर्थात मानव द्वारा सिर्फ कर्म ही किया जा सकता है। ठीक समय पर कार्य का होना या न होना भी भाग्य की बात होती है। किसी कार्य को प्रारंभ करने हेतु मुहूर्त विश्लेषण आवश्यक जरूर है। इस पर निर्भर रहना गलत है। परंतु शुभ मुहूर्त के अनुसार कार्य करने से हानि की संभावना को कम किया जा सकता है। जीवन को सुखमय बनाने के लिए अधिकांशतः हर सनातन धर्मालम्बी धार्मिक अनुष्ठान, त्यौहार, समस्त संस्कार, गृहारंभ, गृह प्रवेश, यात्रा, व्यापारिक कार्य इत्यादि के साथ-साथ अपना शुभ कार्य मुहूर्त के अनुसार करता है। इस प्रकार जीवन को सुखमय बनाना मुहूर्त का अभिप्राय है…
मुहूर्त बोध में भद्रा विचार—
मुहूर्त निकालने में वार, आदि के अतिरिक्त करण का अपना महत्व है। विष्टि नामक करण का ही दूसरा नाम भद्रा है जो सब प्रकार के शुभ कार्यों में त्याज्य मानी गयी है। लेकिन कुछ स्थितियों में भद्रा शुभ भी होती है लेकिन कब और कैसे, जानिए इस लेख से। पंचांग के पांच अंगों में- तिथि, बार, नक्षत्र, योग एवं करण के द्वारा अनेकानेक शुभाशुभ मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन-जिन तिथियों में जिस स्थिति में ‘विष्टि करण’ रहता है, उसे भद्राकाल कहा जाता है। मुहूर्त विचार में भद्रा को अशुभ योग माना गया है, जिसमें सभी शुभ कार्यों को संपादित करना पूर्णतया वर्जित है। भद्रा पंचांग के पांच अंगों में से एक अंग-‘करण’ पर आधारित है यह एक अशुभ योग है। भद्रा (विष्टि करण) में अग्नि लगाना, किसी को दण्ड देना इत्यादि समस्त दुष्ट कर्म तो किये जा सकते हैं किंतु किसी भी मांगलिक कार्य के लिए भद्रा सर्वथा त्याज्य है। भद्रा के समय यदि चंद्र 4, 5, 11, 12 राशियों में रहता है तो भद्रा मृत्यु लोक में मानी जाती है। यदि चंद्र 1, 2, 3, 8 राशियों में हो तो भद्रा स्वर्ग लोक में और 6, 7, 9, 10 राशि में हो तो भद्रा पाताल लोक में मानी जाती है। यदि भद्रा मृत्यु लोक में हो अर्थात् भद्रा के समय चंद्र यदि कर्क, सिंह, कुंभ तथा मीन राशियों में गोचर करे तो यह काल विशेष अशुभ माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार ‘भद्रा’ भगवान सूर्य नारायण की कन्या है। यह भगवान सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न है तथा शनि देव की सगी बहन है। वह काले वर्ण, लंबे केश तथा बड़े-बड़े दांतों वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न, बाधा पहुंचाने लगी और उत्सवों तथा मंगल-यात्रा आदि में उपद्रव करने लगी तथा संपूर्ण जगत् को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके उच्छं्रखल स्वभाव को देख सूर्य देव को उसके विवाह के बारे में चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस स्वेच्छा चारिणी, दुष्टा, कुरुपा कन्या का विवाह किसके साथ किया जाय। सूर्य देव ने जिस-जिस देवता, असुर, किन्नर आदि से भद्रा के विवाह का प्रस्ताव रखा, सभी ने उनके प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। यहां तक कि भद्रा ने सूर्य देव द्वारा बनवाये गये अपने विवाह मण्डप, तोरण आदि सब को उखाड़कर फेंक दिया तथा सभी लोगों को और भी अधिक कष्ट देने लगी। उसी समय प्रजा के दुःख को देखकर ब्रह्मा जी सूर्य देव के पास आये। सूर्य नारायण से अपनी कन्या को सन्मार्ग पर लाने के लिए ब्रह्मा जी से उचित परामर्श देने को कहा। तब ब्रह्मा जी ने विष्टि को बुलाकर कहा- ‘भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य तुम्हारे समय में करे, उन्हीं में तुम विघ्न करो, जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना।’ इस प्रकार विष्टि को उपदेश देकर ब्रह्मा जी अपने धाम को चले गये। इधर विष्टि भी देवता, दैत्य तथा मनुष्य सब प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई। वह अति दुष्ट प्रकृति की है इसलिए मांगलिक कार्यों में उसका अवश्य ही त्याग करना चाहिए। भद्रा मुख और पूंछ- भद्रा पांच घड़ी मुख में, दो घड़ी (भद्रावास) कण्ठ में, ग्यारह घड़ी हृदय में, चार घड़ी पुच्छ में स्थित रहती है। जब भद्रा मुख में रहती है तो कार्य का नाश होता है, कण्ठ में धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कलह, कटि में अर्थनाश किंतु पुच्छ में निश्चित रूप से विजय एवं कार्य सिद्धि होती है। विष्टि करण को चार भागों में विभाजित करके भद्रा मुख और पूंछ इस प्रकार ज्ञात किया जा सकता है- शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी, एकादशी एवं पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की- चतुर्दशी, दशमी, एकादशी एवं सप्तमी तिथियों को क्रमशः विष्टि करण के प्रथम भाग की पांच घटियां (2 घंटे तक), द्वितीय भाग की 5 घटी, तृतीय भाग की प्रथम पांच घटी तथा विष्टि करण के चतुर्थ भाग की प्रथम पांच घटियों तक भद्रा का वास मुख में रहता है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी एकादशी एवं पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी, दशमी, सप्तमी एवं एकादशी को क्रमशः विष्टि करण के चतुर्थ भाग की अंतिम तीन घड़ियों में, विष्टि करण के प्रथम भाग की अंतिम तीन घड़ियों में, विष्टि करण के द्वितीय भाग की अंतिम तीन घड़ियों में तथा विष्टि करण के तृतीय भाग की अंतिम तीन घटियों में अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट तक भद्रा का वास पुच्छ में रहता है। भद्रा के बारह नाम हैं जो इस प्रकार हैं- धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना कालरात्रि महारुद्रा विष्टि कुलपुत्रिका भैरवी महाकाली असुर क्षय करी। जो व्यक्ति इन बारह नामों का प्रातः स्मरण करता है उसे किसी भी व्याधि का भय नहीं होता और उसके सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। उसके कार्यों में कोई विघ्न नहीं होता। युद्ध तथा राजकुल में वह विजय प्राप्त करता है, जो विधि पूर्वक विष्टि का पूजन करता है, निःसंदेह उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। भद्रा के व्रत की विधि : जिस दिन भद्रा हो, उस दिन उपवास करना चाहिए। यदि रात्रि के समय भद्रा हो तो दो दिन तक उपवास करना चाहिए। (एक भुक्त) व्रत करें तो अधिक उपयुक्त होगा। स्त्री अथवा पुरुष व्रत करें तो अधिक उपयुक्त होगा। स्त्री अथवा पुरुष व्रत के दिन सर्वोषधि युक्त जल से स्नान करें अथवा नदी पर जाकर विधि पूर्वक स्नान करें। देवता तथा पितरों का तर्पण एवं पूजन कर कुशा की भद्रा की मूर्ति बनायें और गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उसकी पूजा करें। भद्रा के बारह नामों से 108 बार हवन करने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भी तिल मिश्रित भोजन ग्रहण करें। फिर पूजन के अंत में इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। ”छाया सूर्यसुते देवि विष्टिरिष्टार्थ दायिनी। पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रप्रदा भव॥ (उत्तर प. 117/39) इस प्रकार सत्रह भद्रा-व्रत कर अंत में उद्यापन करें। लोहे की पीठ पर भद्रा की मूर्ति स्थापित कर, काला वस्त्र अर्पित कर गन्ध, पुष्प आदि से पूजन कर प्रार्थना करें। लोहा, बैल, तिल, बछड़ा सहित काली गाय, काला कंबल और यथाशक्ति दक्षिणा के साथ वह मूर्ति ब्राह्मण को दान कर दें अथवा विसर्जन कर दें। इस प्रकार जो भी व्यक्ति भद्रा व्रत एवं तदंतर विधि पूर्वक व्रतोद्यापन करता है उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं पड़ता तथा उसे प्रेत, ग्रह, भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, यक्ष, गंधर्व, राक्षस आदि किसी प्रकार का कष्ट नहीं देते। उसका अपने प्रिय से वियोग नहीं होता और अंत में उसे सूर्य लोक की प्राप्ति होती है।
मुहूर्त का महत्व—-
आस्थावान भारतीय समाज तथा ज्योतिष शास्त्र में मुहूर्त का अत्यधिक महत्व है। यहां तक कि लोक संस्कृति में भी परंपरा से सदा मुहूर्त के अनुसार ही किसी काम को करना शुभ माना गया है। हमारे सभी शास्त्रों में उसका उल्लेख मिलता है। भारतीय लोक संस्कृति में मुहूर्त तथा शुभ शकुनों का प्रतिपालन किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार मुहूर्तों में पंचांग के सभी अंगों का आकलन करके, तिथि-वार-नक्षत्र-योग तथा शुभ लग्नों का सम्बल तथा साक्षी के अनुसार उनके सामंजस्य से बनने वाले मुहूर्तों का निर्णय किया जाता है। किस वार, तिथि में कौन सा नक्षत्र किस काम के लिए अनुकूल या प्रतिकूल माना गया है, इस विषय में भारतीय ऋषियों ने अनेकों महाग्रंथों का निर्माण किया है जिनमें मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त गणपति मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त पारिजात, धर्म सिंधु, निर्णय सिंधु आदि अनेक ग्रंथ प्रचलित तथा सार्थक हैं। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत तथा भारत का धर्म समाज मुहूर्तों का प्रतिपालन करता है। भारतीय संस्कृति व समाज में जीवन का दूसरा नाम ही ‘मुहूर्त’ है। भारतीय जीवन की नैसर्गिक व्यवस्था में भी मुहूर्त की शुभता तथा अशुभता का आकलन करके उसकी अशुभता को शुभता में परिवर्तन करने के प्रयोग भी किये जाते हैं। महिलाओं के जीवन में रजो दर्शन परमात्मा प्रदत्त तन-धर्म के रूप में कभी भी हो सकता है किंतु उसकी शुभता के लिए रजोदर्शन स्नान की व्यवस्था, मुहूर्त प्रकरण में इस प्रकार दी गयी है- सोम, बुध, गुरु तथा शुक्रवार, अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती नक्षत्र शुभ माने गये हैं। मासों में वैशाख, ज्येष्ठ, श्रवण, अश्विनी, मार्गशीर्ष, माघ, फाल्गुन श्रेष्ठ माने गये हैं। शुक्ल पक्ष को श्रेष्ठ माना गया है, दिन का समय श्रेष्ठ है। इसी प्रकार- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त, सूतिका स्नान, जातकर्म-नामकरण, मूल नक्षत्र, नामकरण शांति, जल पूजा, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, कर्णवेधन, चूड़ाकरण, मुंडन, विद्यारंभ यज्ञोपवीत, विवाह तथा द्विरागंमनादि मुहूर्त अति अनिवार्य रूप में भारतीय हिंदू समाज मानता है। इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में, भी नींव, द्वार गृह प्रवेश, चूल्हा भट्टी के मुहूर्त, नक्षत्र, वार, तिथि तथा शुभ योगों की साक्षी से संपन्न किये जाते हैं विपरीत दिन, तिथि नक्षत्रों अथवा योगों में किये कार्यों का शुभारंभ श्रेष्ठ नहीं होता उनके अशुभ परिणामों के कारण सर्वथा बर्बादी देखी गयी है। भरणी नक्षत्र के कुयोगों के लिए तो लोक भाषा में ही कहा गया है- ”जन्मे सो जीवै नहीं, बसै सो ऊजड़ होय। नारी पहरे चूड़ला, निश्चय विधवा होय॥” सर्व साधारण में प्रचलित इस दोहे से मुहूर्त की महत्ता स्वयं प्रकट हो रही है कि मुहूर्त की जानकारी और उसका पालन जीवन के लिए अवश्यम्यावी है। पंचक रूपी पांच नक्षत्रों का नाम सुनते ही हर व्यक्ति कंपायमान हो जाता है। पंचकों के पांच-श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रप्रद तथा रेवती नक्षत्रों में, होने वाले शुभ- अशुभ कार्य को पांच गुणा करने की शक्ति है अतः पंचकों में नहीं करने वाले मुहूर्त अथवा कार्य इस प्रकार माने गये हैं- दक्षिण की यात्रा, भवन निर्माण, तृण तथा काष्ट का संग्रह, चारपाई का बनाना या उसकी दावण-रस्सी का कसना, पलंग खरीदना व बनवाना तथा मकान पर छत डालना। पंचकों में अन्य शुभ कार्य किये जाते हैं तो उनमें पांच गुणा वृद्धि की क्षमता होती है लोक प्रसिद्ध विवाह या शुभ मुहूर्त बसंत पंचमी तथा फुलेरादूज पंचकों में ही पड़ते हैं जो शुभ माने गये हैं किसी का पंचकों में मरण होने से पंचकों की विधिपूर्वक शांति अवश्य करवानी चाहिए। इसी प्रकार सोलह संस्कारों के अतिरिक्त नव उद्योग, व्यापार, विवाह, कोई भी नवीन कार्य, यात्रा आदि के लिए शुभ नक्षत्रों का चयन किया जाता है अतः उनकी साक्षी से किये गये कार्य सर्वथा सफल होते हैं। बहुत से लोग, जनपद के ज्योतिषी, सकलजन तथा पत्रकार भी, पुष्य नक्षत्र को सर्वश्रेष्ठ तथा शुभ मानते हैं। वे बिना सोचे समझे पुष्य नक्षत्र में कार्य संपन्नता को महत्व दे देते हैं। किंतु पुष्य नक्षत्र भी अशुभ योगों से ग्रसित तथा अभिशापित है। पुष्य नक्षत्र शुक्रवार का दिन उत्पात देने वाला होता है। शुक्रवार को इस नक्षत्र में किया गया मुहूर्त सर्वथा असफल ही नहीं, उत्पातकारी भी होता है। यह अनेक बार का अनुभव है। एक बार हमारे विशेष संपर्की व्यापारी ने जोधपुर से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र में दिये गये शुक्र-पुष्य के योग में, मना करते हुए भी अपनी ज्वेलरी शॉप का मुहूर्त करवा लिया जिसमें अनेक उपाय करने तथा अनेक बार पुनः पुनः पूजा मुहूर्त करने पर भी भीषण घाटा हुआ वह प्रतिष्ठान सफल नहीं हुआ। अंत में उसको सर्वथा बंद करना पड़ा। इसी प्रकार किसी विद्वान ने एक मकान का गृह प्रवेश मुहूर्त शुक्रवार के दिन पुष्य नक्षत्र में निकाल दिया। कार्यारंभ करते ही भवन बनाने वाला ठेकेदार ऊपर की मंजिल से चौक में गिर गया। तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया। अतः पुष्य नक्षत्र में शुक्रवार के दिन का तो सर्वथा त्याग करना ही उचित है। बुधवार को भी पुष्य नक्षत्र नपुंसक होता है। अतः इस योग को भी टालना चाहिए, इसमें किया गया मुहूर्त भी विवशता में असफलता देता है। पुष्य नक्षत्र शुक्र तथा बुध के अतिरिक्त सामान्यतया श्रेष्ठ होता है। रवि तथा गुरु पुष्य योग सर्वार्थ सिद्धिकारक माना गया है। इसके अतिरिक्त विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि विवाह में पुष्य नक्षत्र सर्वथा अमान्य तथा अभिशापित है। अतः पुष्य नक्षत्र में विवाह कभी नहीं करना चाहिए। मुहूर्त प्रकरण में ऋण का लेना देना भी निषेध माना गया है, रविवार, मंगलवार, संक्राति का दिन, वृद्धि योग, द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग, हस्त नक्षत्र में लिया गया ऋण कभी नहीं चुकाया जाता। ऐसी स्थिति में श्रीगणेश ऋण हरण-स्तोत्र का पाठ तथा- ”ऊँ गौं गणेशं ऋण छिन्दीवरेण्यं हँु नमः फट्।” का नित्य नियम से जप करना चाहिए। मानव के जीवन में जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त मुहूर्तों का विशेष महत्व है अतः यात्रा के लिए पग उठाने से लेकर मरण पर्यन्त तक- धर्म-अर्थ- काम-मोक्ष की कामना में मुहूर्त प्रकरण चलता रहता है और मुहूर्त की साक्षी से किया गया शुभारंभ सर्वथा शुभता तथा सफलता प्रदान करता है।
सफलता की गारंटी ”शुभ मुहूर्त” पाना मुश्किल नहीं है—–
ग्रहों की गति के अनुसार विभिन्न ग्रहों व नक्षत्रों के नये नये योग बनते बिगडते रहते हैं। अच्छे योगों की गणना कर उनका उचित समय पर जीवन में इस्तेमाल करना ही शुभ मुहूर्त पर कार्य संपन्न करना कहलाता है। अशुभ योगों में किया गया कार्य पूर्णतः सिद्ध नहीं होता। मुहूर्त शास्त्र के कुछ सरल नियमों का उल्लेख यहां किया गया है जो विभिन्न कार्यों में सफलता में सहायक हो सकता है। वैदिक ज्योतिष शास्त्र का प्रमुख स्तंभ है – मुहूर्त विचार। दैनिक जीवन के विभिन्न कार्यों के शुरू करने के शुभ व अशुभ समय को मुहूर्त का नाम दिया गया है। यह ज्योतिष में लग्न कुंडली की तरह ही महत्वपूर्ण है जो भाग्य का क्षणिक पल भी कहलाता है। अच्छा मुहूर्त कार्य की सफलता देकर हमारे भाग्य को भी प्रभावित करता है और यदि अच्छा मुहूर्त हमारा भाग्य नहीं बदल सकता तो कार्य की सफलता के पथ को सुगम तो बना सकता है। भविष्य बदले या न बदले परंतु जीवन के प्रमुख कार्य यदि शुभ मुहूर्त में किये जायें तो व्यक्ति का जीवन आनंददायक और खुशहाल बन जाता है। मुहूर्त की गणना उन लोगों के लिये भी लाभदायक हैं जो अपना जन्म-विवरण नहीं जानते। ऐसे लोग शुभ मुहूर्त की मदद से अपने प्रत्येक कार्य में सफल होते देखे गये हैं। दिन में 15 व रात के 15 मुहूर्त मिलाकर कुल 30 मुहूर्त होते हैं। शुभ मुहूर्त निकालने के लिये निम्न बातो का ध्यान रखा जाता है – नवग्रह स्थिति, नक्षत्र, वार, तिथि, मल मास, अधिक मास, शकु ्र व गरूु अस्त, अशभ्ु ा योग, भद्रा, शुभ लग्न, शुभ योग, राहू काल। शुभ मुहूर्तों में सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है – गुरु-पुष्य। यदि गुरूवार को चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में हो तो इससे पूर्ण सिद्धिदायक योग बन जाता है। जब चतुर्दशी, सोमवार को और पूर्णिमा या अमावस्या मंगलवार को हो तो सिद्धि दायक मुहूर्त होता है। दैनिक जीवन के निम्न कार्यों के लिये सरल शुभ मुहूर्त का विचार निम्न प्रकार से किया जाना चाहिये :- 1 बच्चे का नामकरण करना :- इस कार्य के लिये 2, 3, 7, 10, 11 व 13वीं तिथियां शुभ रहती हैं। सोमवार, बुध् ावार, गुरूवार व शुक्रवार के दिन बच्चे का नामकरण किया जाना चाहिये। शुभ नक्षत्र अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा व रेवती हैं। 2. विद्याध्ययन :- बच्चे का किसी विद्यालय में प्रवेश देवशयन तिथियों में नहीं करना चाहिये। शुभ तिथियां 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13 व पूर्णिमा हैं। शुभ वार सोमवार, बुधवार, गुरूवार व शुक्रवार हैं। शुभ नक्षत्र अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुर्नवसु, पुष्य, उतरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा हैं। 3. सरकारी नौकरी शुरू करना :- शुभ मुहूर्त में सरकारी नौकरी शुरू करने से बाधायें कम आती हैं व आत्मसंतुष्टि अधिक रहती है। इसके लिये नौकरी के पहले दिन का नक्षत्र हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजीत, मृगशिरा, रेवती, चित्रा या अनुराधा होना चाहिये। तिथियों में चतुर्थी, नवमी व चर्तुदशी को छोडकर कोई भी तिथि हो सकती है। सोमवार, बुधवार, गुरूवार या शुक्रवार को सरकारी नौकरी शुरू करनी चाहिये। मुहूर्त कुंडली में गुरू सातवें भाव में हो, शनि छटे भाव में, सूर्य या मंगल तीसरे, दसवें या एकादश भाव में हो तो शुभ रहता है। जन्म राशि से 4, 8 या 12वें भाव के चंद्रमा से बचना चाहिये। 4. नया व्यापार आरम्भ करना :- रिक्ता तिथि में नहीं करना चाहिये। एग्रीमेंट कभी भी रविवार, मंगलवार या शनिवार को नहीं करना चाहिये। तिथि का क्षय भी नहीं होना चाहिये। 5. नयी दुकान खोलना :- सफलतापूर्वक दुकान चलाने के लिये दुकान को शुभ मुहूर्त में खोलना अनिवार्य है। शुभ मुहूर्त हेतु तीनो उतरा नक्षत्र, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती में ही दुकान का उद्घाटन करना चाहिये। चंद्रमा व शुक्र के लग्न में दुकान खोलना शुभ रहता है। 2, 10 व 11वें भाव में शुभ ग्रह होने चाहियें। रिक्ता तिथियों के अतिरिक्त सभी तिथियां दुकान खोलने के लिये श्ुाभ रहती हैं। मंगलवार के अतिरिक्त किसी भी वार को दुकान खोली जा सकती है। जातक की जन्म राशि से 4, 8 या 12वें भाव में चंद्रमा भ्रमण नहीं कर रहा होना चाहिये। 6. बच्चा गोद लेना :- विवाह के बाद हर पति-पत्नि को संतान प्राप्त करने की इच्छा होती है। यदि किन्हीं कारण् ाों से दंपति को यह सुख नहीं मिल पाता तो वे किसी बच्चे को गोद लेने जैसे पुण्य कार्य की सोचते हैं। ऐसे बच्चे भी दंपति के लिये सुख दायक सिद्ध हो तो इसके लिये बच्चे को शुभ मुहूर्त में ही गोद लेना चाहिये। इसके लिये उस समय का नक्षत्र, वार, तिथि और लग्न देखना चाहिये। पुष्य, अनुराधा व पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में बच्चा गोद लिया जाना चाहिये। तिथियों में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी व त्रयोदशी तिथि होनी चाहिये। रविवार, मंगलवार, गुरूवार व शुक्रवार के दिन बच्चा गोद लेना शुभ माना गया है। मुहूर्त कुंडली के पांचवे, नवें व दसवें भाव में शुभ ग्रह हों तथा ये भाव बलवान हों तो बच्चा गोद लेने का समय शुभ होता है। 7. वाहन खरीदना :- स्कूटर, कारादि क्रय करने के लिये शुभ तिथियां 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 व पूर्ण्ि ामा है। शुभ वार सोमवार, बुधवार, गुरूवार व शुक्रवार हैं। शुभ नक्षत्र अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, तीनो उतरा, तीनो पूर्वा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती हैं। 8. ऋण लेना :- बुधवार को किसी तरह का ऋण नहीं देना चाहिये। मंगलवार को किसी से ऋण नहीं लेना चाहिये। 9. मुकदमा दायर करना :- न्यायालय से अपने हक में न्याय पाने के लिये मुहूर्त के कुछ नियमों को ध्यान में रखना चाहिये। इसके लिये शुभ नक्षत्र इस प्रकार से हैं – स्वाती, भरणी, आश्लेषा, धनिष्ठा, रेवती, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, तीनो उत्तरा। इन नक्षत्रों के दिनों में मुकदमा दायर करना चाहिये। तिथियों में प्रतिपदा, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी, त्रयोदशी या पूर्णिमा होनी चाहिये। वार में सोमवार, गुरूवार या शनिवार शुभ रहते हैं। 10. नींव खोदना :- शिलान्यास करने के लिये शुभ तिथियां 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 व पूर्णिमा है। शुभ वार सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार व शनिवार हैं। शुभ नक्षत्र रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, तीनो उतरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती हैं। 11. नये गृह प्रवेश :- नवनिर्मित घर में प्रवेश के लिये शुभ तिथियां 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 व पूर्णिमा है। शुभ वार सोमवार, बुधवार, शुक्रवार व शनिवार हैं। शुभ नक्षत्र अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, तीनो उतरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती हैं। कुछ विशेष मुहूर्त :- उपरोक्त लिखे कार्य-विशेष मुहूर्तों के अतिरिक्त निम्न दो प्रकार के मुहूर्त कुछ अधिक ही विशेष कहलाते हैं जिनमें शुभ नक्षत्र, तिथि या वार नहीं देखा जाता। इन विशेष मुहूर्तों में किये गये कार्य अक्सर सफल ही रहते हैं – 1. अभिजित मुहूर्त – ज्योतिष में अभिजित को 28वां नक्षत्र माना गया है। इसके स्वामी ब्रम्हा व राशि मकर हैं। दिन के अष्टम मुहूर्त को अभिजित मुहूर्त कहते हैं। इसका समय मध्याह्न से 24 मिनट पूर्व तथा मध्याह्न के 24 मिनट बाद तक माना गया है। अतः प्रत्येक दिन स्थानीय समय के लगभग 11:36 से 12:24 तक के समय को विजय या अभिजित मुहूर्त कहते हैं। इसमें किये गये सभी कार्य सफल सिद्ध होते हैं। ऐसे में लग्न शुद्धि भी देखने की आवश्यकता नहीं होती। यह विशेष काल सभी दोषों को नष्ट कर देता है। अभिजित नक्षत्र में जिस बालक का जन्म होता है, उसका राजा योग होता है, व्यापार में उसे हमेशा लाभ रहता है। 2. अबूझ मुहूर्त – कुछ तिथियां ऐसी होती हैं जो शुभ मुहूर्त की तरह से काम करती हैं। इस दिन कोई भी शुभ कार्य बिना मुहूर्त निकलवाये किया जा सकता है। ऐसी कुछ तिथियां हैं – अक्षय तृतीया, नवीन संवत, फुलेरा दूज, दशहरा, राम नवमी, भड्डली नवमी, शीतला अष्टमी, बैशाखी। मुहूर्त शास्त्र के कुछ सरल नियम जो शुभ मुहूर्त को निकलवाने जैसे चक्करों से बचना चाहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिये ही नीचे कुछ सरल से नियम दिये जा रहे हैं जो विभिन्न कार्यो में सफलता दायक सिद्ध हो सकते हैं :- यात्रा के लिये रिक्ता तिथि को यात्रा नहीं करनी चाहिये। 4, 9, 14 रिक्ता तिथियां होती हैं। यदि गोचर में वार स्वामी वक्री हो तो भी यात्रा निषेध है। यदि वक्री ग्रह यात्रा लग्न से केंद्र में हो तो भी यात्रा अशुभ रहती है। विद्याध्ययन मुहूर्त में द्विस्वभाव लग्न होने पर उसकी प्राप्ति, स्थिर लग्न में मूर्खता व चर लग्न में भ्रांति होती है। विवाह के लिये 1,2,3,8,10,11 राशियों में सूर्य का गोचर शुभ रहता है। विवाह समय की कुंडली में सप्तम स्थान में कोई ग्रह न हो तो शुभ रहता है। विवाह मुहूर्त की कुंडली में चंद्रमा का 8वां व 12वां होना अशुभ रहता है। वक्री गुरू का 28 दिन का समय विवाह हेतु अशुभ होता है। अमावस्या का दिन विवाह के लिये ठीक नहीं है। ज्येष्ठ संतान का ज्येष्ठ मास में विवाह अशुभ होता है। कन्या विवाह के लिये गुरू का गोचर 4,8,12 भाव से अशुभ माना गया है। जन्म राशि, जन्म नक्षत्र का मुहूर्त कन्या के विवाह हेतु शुभ माना गया है। कृष्ण पक्ष की 5वीं व 10वीं तिथियां तथा शुक्लपक्ष की 7वीं व 13वीं तिथियां विवाह हेतु शुभ हैं। सोम, बुध व शुक्रवार विवाह हेतु शुभ रहते हैं। गर्भाधान के लिये बुधवार व शनिवार शुभ नहीं माने जाते क्योंकि ये दोनो दिन नपुंसक माने गये हैं। अपने जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि, जन्म माह, ग्रहण दिन, श्राद्ध दिनों में गर्भाधान का फल अशुभ होता है। गृहारंभ के समय सूर्य, चंद्र, गुरू व शुक्र ग्रह नीच के नहीं होने चाहियें। गृह प्रवेश मिथुन, धनु व मीन का सूर्य होने पर नहीं करना चाहिये। शुक्ल पक्ष में गृहारंभ मंगलकारी व कृष्ण पक्ष में अशुभ रहता है। शनिवार को नींव या गृहारंभ अति उतम रहता है। मंगल व रविवार को निर्माण कार्य शुरू नहीं करना चाहिये तथा नवीन गृह प्रवेश भी नहीं करना चाहिये। निर्माण कार्य का लग्न स्थिर या द्विस्वभाव होना चाहिये। मुकदमा मंगलवार को दायर नहीं करना चाहिये। शनिवार को दायर किया गया मुकदमा लंबा खिांचता है। देव प्रतिष्ठा के लिये चैत्र, फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ व माघ मास शुभ होते हैं। श्रावण मास में शिव की, आश्विन में देवी की, मार्गशीर्ष में विष्णु की प्रतिष्ठा करना शुभ है। प्रतिष्ठा में सोम, बुध, गुरू व शुक्रवार शुभ माने गये हैं। जिस देव की जो तिथि हो, उस दिन उस देव की स्थापना शुभ रहती है। युग तिथियां – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलियुग जिन तिथियों का े पा्र रभ्ं ा हयु ,े उन तिथिया ें का े शभ्ु ा कार्य नहीं करने चाहियें। ये इस प्रकार से हैं :- सतयुग – कार्तिक शुक्लपक्ष की नवमी त्रेतायुग – बैशाख शुक्लपक्ष की तृतीया द्वापरयुग – माघ कृष्णपक्ष की अमावस्या कलियुग – श्रावण कृष्णपक्ष की त्रयोदशी उपाय – यदि उचित मुहूर्त या शुभ योग नहीं मिल रहा हो तो निम्न उपाय कर के कार्य किया जा सकता है :- यदि तारीख तय है तो केवल उस दिन की लग्न शुद्धि करके सब अशुभ योगों का नाश किया जा सकता है। शुभ मुहूर्त न होने पर शुभ होरा/ चौघडिया का चयन कर शुभ फल प्राप्त किया जा सकता है। विवाह का उचित मुहूर्त न मिलने पर अभिजित मुहूर्त में विवाह किया जा सकता है। कार्य का प्रारंभ उसी नक्षत्र में किया जाये जिसका स्वामी ग्रह उच्च, स्व या मित्र राशिगत हो। ऐसा समय चुनना चाहिये जब जातक की अंतर्दशा का स्वामी ग्रह महादशा स्वामी से षडाष्टक या द्वादश न हो। गोचरीय चंद्रमा यदि वक्री ग्रह के नक्षत्र से गोचर कर रहे हों तो वक्री ग्रह का दानादि कर लेना चाहिये। शनि-चंद्र की युति होने पर शनि शांति करवा लेनी चाहिये। यदि कोई कार्य चल रहा हो और मध्य में राहू काल आ जाये तो कार्य रोकने की आवश्यकता नहीं है।
नूतन गृह प्रवेश के लिये वास्तु पूजा का विधान—-
घर के मध्यभाग में तन्दुल यानी चावल पर पूर्व से पश्चिम की तरफ़ एक एक हाथ लम्बी दस रेखायें खींचे,फ़िर उत्तर से दक्षिण की भी उतनी ही लम्बी चौडी रेखायें खींचे,इस प्रकार उसमे बराबर के ८१ पद बन जायेंगे,उनके अन्दर आगे बताये जाने वाले ४५ देवताओं का यथोक्त स्थान में नामोल्लेख करें,बत्तीस देवता बाहर वाली प्राचीर और तेरह देवता भीतर पूजनीय होते हैं। उनके लिये सारणी को इस प्रकार से बना लेवें:
शिखी |
पर्जन्य |
जयन्त |
इन्द्र |
सूर्य |
सत्य |
भृश |
आकाश |
वायु |
दिति |
आप |
जयन्त |
इन्द्र |
सूर्य |
सत्य |
भृश |
सावित्र |
पूषा |
अदिति |
अदिति |
आपवत्स |
अर्यमा |
अर्यमा |
अर्यमा |
सविता |
वितथ |
वितथ |
सर्प |
सर्प |
पृथ्वीधर |
|
|
|
विवस्वान |
गृहक्षत |
गृहक्षत |
सोम |
सोम |
पृथ्वीधर |
|
ब्रह्मा |
|
विवस्वान |
यम |
यम |
भल्लाटक |
भल्लाटक |
पृथ्वीधर |
|
|
|
विवस्वान |
गन्धर्व |
गन्धर्व |
मुख्य |
मुख्य |
राज्यक्षमा |
मित्र |
मित्र |
मित्र |
विवुधिप |
भृंग |
भृंग |
अहि |
रुद्र |
शेष |
असुर |
वरुण |
पुष्पदन्त |
सुग्रीव |
जय |
मृग |
रोग |
राज्यक्षमा |
शेष |
असुर |
वरुण |
पुष्पदन्त |
सुग्रीव |
दौवारिक |
पितर |
इस प्रकार से ४५ देवताओं को स्थापित कर लेना चाहिये,और यही ४५ देवता पूजनीय होते है,आप,आपवर्स पर्जन्य अग्नि और दिति यह पांच देवता एक पद होते है,और यह ईशान में पूजनीय होते है,उसी प्रकार से अन्य कोणों में भी पांच पांच देवता भी एक पद के भागी है,अन्य झो बाह्य पंक्ति के बीस देवता है,वे सब द्विपद के भागी है,तथा ब्रह्मा सी पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशामें जो अर्यमा विवस्वान मित्र और पृथ्वीधर ये चार देवता है,वे त्रिपद के भागी है,अत: वास्तु की जानकारी रखने वाले लोग ब्रह्माजी सहित इन एक पद,द्विपद और त्रिपद देवताओं का वास्तु मन्त्रों से दूर्वा,दही,अक्षत,फ़ूल,चन्दन धूप दीप और नैवैद्य आदि से विधिवत पूजन करें,अथवा ब्राह्ममंत्र से आवहनादि षोडस या पन्च उपचारों द्वारा उन्हे दो सफ़ेद वस्त्र समर्पित करें,नैवैद्य में तीन प्रकार के भक्ष्य,भोज्य,और लेह्य अन्न मांगलिक गीत और वाद्य के साथ अर्पण करे,अन्त में ताम्बूल अर्पण करके वास्तु पुरुष की इस प्रकार से प्रार्थना करे- “वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्या निरत प्रभो,मदगृहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा”, भूमि शय्या पर शयन करने वाले वास्तुपुरुष ! आपको मेरा नमस्कार है। प्रभो ! आप मेरे घरको धन धान्य आदि से सम्पन्न कीजिये।
इस प्रकार प्रार्थना करके देवताओं के समक्ष पूजा कराने वाले पुरोहित को यथाशक्ति दक्षिणा दे तथा अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हे भी दक्षिणा दे,जो मनुष्य सावधान होकर गृहारम्भ में या गृहप्रवेश के समय इस विधि से वास्तुपूजा करता है,वह आरोग्य पुत्र धन और धान्य प्राप्त करके सुखी होता है,जो मनुष्य वास्तु पूजा न करके नये घर में प्रवेश करता है,वह नाना प्रकार के रोगों,क्लेश,और संकटों से जूझता रहता है।
जिन मकानों में किवाड नही लगाये गये हो,जिनके ऊपर छाया नही की गयी हो,जिस मकान के अन्दर अपनी परम्परा के अनुसार पूजा और वास्तुकर्म नही किये गये हो,उस घर में प्रवेश करने का अर्थ नरक मे प्रवेश करना होता है॥ नारद पुराण ज्योति.स्कन्ध श्लोक -५९६ से ६१९॥