एक नज़्म…
( पंडित “विशाल” दयानंद शास्त्री )
कितना चेनो सुकून है आज इस तन्हाई में!
बस मैं हूँ, तुम हो, औ’ फ़िज़ा-ए-ख़ामोश।
दिल में खिल रहा “विशाल” गुलशन चाहतों का,
के मिल गया है तुम्हारी बाँहों का आग़ोश।
वो दूर एक डली पे इक कली चटकी,
जो हया से इधर झुका ली नज़र तमने।
वो आसमाँ से बादलों की घटा बरसी,
जो ज़ुल्फ़ को फेरा, कांधों पर तुमने।
कितनी मीठी है वो आवाज़ की खनक,
जो तुम्हारे नम लबों को छूकर आई है!
मेरे सीने में “विशाल” तुमने जो ये रक्खा है सर,
आज ख़ुशी से मेरी आँख भर आई है।
मेरा हर लफ्ज़ तुमसे है, तुम्हीं तक है,
हो मेरी हर नज़्म का आगाज़ भी तुम।
तुम रूबरू रहो “विशाल” तो चलती रहे ज़िंदगी,
के दिल भी तुम हो, और जान भी तुम।

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