आइये  जाने परशुराम जयंती क्यों तथा केसे मांएं…??? …कोन थे भगवान परशुराम..???
 
(भगवान परशुराम जयंती के अवसर पर विशेष आलेख )—-Parshuram Jayanti
 
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक थे। भगवान परशुराम का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था। प्रतिवर्ष भगवान परशुराम की जयंती हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है।
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-. )के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन भगवान परशुराम के अवतार से संबंध होने से यह पर्व राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के लिए भी एक विशेष स्मरणीय पर्व है। दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (मां बगलामुखी) के अनन्य साधक परशुराम जी ने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। निर्बल और असहाय समाज की रक्षा के लिए उनका कुठार अत्याचारी कुशासकों के लिए काल बन चुका था।
 
लगभग .8 वर्षो बाद अद्भुत संयोग के साथ आ रही अक्षय तृतीया इस बार ज्योतिष की तिथियों के फेर में फंस गई है। कई ज्योतिषी .2 तो कुछ 1. मई को अक्षय तृतीया होने की बात कह रहे हैं। कुछ ज्योतिषियों का कहना है कि दोनों दिन अक्षय तृतीया मनाई जाएगी। 
 
तिथियों के फेर में फंसी अक्षय तृतीया इस बार दो दिन यानी 12 व 13 मई,2.13 को मनाई जाएगी। अक्षय तृतीया पर्व पर इस बार शनि 28 साल बाद अपनी उच्च राशि में गोचर करेंगे।
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार 12 मई को 10.18 बजे से अक्षय तृतीया की तिथि लगेगी तथा वह दूसरे दिन 13 मई को 12.47 बजे तक जारी रहेगी। इसलिए अक्षय तृतीया स्वयं सिद्ध मुहूर्त दोनों दिन पूरे समय रहेगा। इस दौरान किए गए शुभ कार्य का पूरा लाभ मिलेगा। भक्तों के लिए यह संयोग विशेष फलदायी होगा।अक्षय तृतीया इस बार विशेष संयोगों के साथ आ रही है। पर्व पर जहां एक ओर सूर्य देव अपनी उच्च राशि ‘मेष’ और चंद्र देव अपनी उच्च राशि ‘वृषभ’ में गोचर करेंगे, वहीं न्याय के देवता भगवान शनि भी अपनी उच्च राशि ‘तुला’ में गोचर करेंगे। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 28 साल बाद अक्षय तृतीया पर शनि देव का गोचर हो रहा है। इस संयोग से भक्तों को हर क्षेत्र में सकारात्मक फल की प्राप्ति होगी। इस अवसर पर शनि साढ़े साती से पीड़ित जातक भगवान शनि की विधिवत आराधना, हवन-अनुष्ठान कर इस दोष से छुटकारा पा सकेंगे।
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  धर्म विमुख एवं अधर्मी कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) जिसने परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि को मारा था। उसका वध कर उसकी राज सत्ता को परशुराम जी ने छिन्न-भिन्न कर दिया। आज लोग किसी भी जीत को प्रकट करने के लिए जिन दो उंगलियों को उठाकर विजय मुद्रा का प्रदर्शन करते हैं, वह परशुराम जी की विजय मुद्रा की नकल मात्र है। भारतीय जन मानस में अक्षय तृतीया का बड़ा महत्व है। इस दिन स्नान, होम, जप, दान आदि का अनंत फल मिलता है, ऐसा शास्त्रों का मत है। अक्षय तृतीया को ही पीतांबरा, नर-नारायण, हृयग्रीव और परशुराम के अवतार हुए। इसीलिए इस दिन इनकी जयंती मनाई जाती है। भारतीय कालगणना के सिद्धांत से इसी दिन त्रयेता युग का आरंभ हुआ था। इसीलिए इस तिथि को सर्वसिद्ध (अबूझ) तिथि के रूप में मान्यता मिली हुई है।
 
अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।
 
अर्थ :—–
 चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष्य-बाण है अर्थात् शौर्य है । अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है ।
 
मूर्ति :—–
 भीमकाय देह, मस्तकपर जटाभार, कंधेपर धनुष्य एवं हाथमें परशु, ऐसी होती है परशुरामकी मूर्ति ।
 
 ‘भृगुवंशके परशुराम वेदर्षि जमदग्नि एवं इक्ष्वाकू वंशकी राजकन्या रेणुकाके पुत्र थे । अतः ब्रह्मवर्चस एवं क्षात्रतेजसे उद्दीप्त वंशमें परशुरामका जन्म हुआ । परशुराम शंकरको प्रसन्न करनेके लिए तपश्चर्या करने गए । उन्होंने अपनी असीम भक्तिसे शिवजीको प्रसन्न कर लिया । इसीलिए शिवजीने उन्हें दिव्य अस्त्रोंके साथ-साथ अपना अजेय एवं अभेद्य परशु त्र्यंबकदंड देते हुए आदेश दिया, `जाओ आततायी, अनन्य अनाचारी, अत्याचारी, आतंकवादी, आसुरी एवं मदांधोंसे पृथ्वीको मुक्त करो ।’ अतः वाल्मीकिने इसे ‘क्षत्रविमर्दन’ न कहकर ‘राजविमर्दन’ कहा है ।भगवान परशुराम को उनके हठी स्वभाव, क्रोध और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए याद किया जाता है. भगवान परशुराम हमारे सामने इस बात के साक्षात उदाहरण हैं कि क्रोध इंसान को बर्बाद कर सकती है, लेकिन अगर हम अपने क्रोध और अन्य इंद्रियों पर काबू पा लें तो हम भी महानतम लोगों की श्रेणी में आ सकते हैं.भगवान विष्णु के पांचवें अवतार भगवान परशुराम ने अपने जीवन के लिए अपने ही नियम बना रखे थे.अक्षय तृतीया के पुण्य दिवस पर ही भगवान परशुराम अवतरित हुए. इस दिन उनके चरित्र का स्मरण और अनुसरण कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में सफलता की ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है.
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  विष्‍णु के दशावतारों में से एक माने जाने वाले भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्‍वी को इक्‍कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमस्‍यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रुप में एक प्रेरक आख्‍यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहां यह सवाल खड़ा होता है कि क्‍या व्‍यक्‍ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्‍थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्‍या हैह्‌य वंश के प्रतापी महिष्‍मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्‍वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्‍वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्‍य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्‍वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्‍तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्‍ट को पाण्‍डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्‌मशास्‍त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आततायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।
 
कथा भगवान परशुराम की—-
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  भगवान परशुराम क्रोधी होने के साथ साथ अत्यंत समझदार, कल्याणकारी और धर्मरक्षक थे. इस विषय में एक घटना बेहद लोकप्रिय है जो कुछ इस प्रकार से है: भगवान परशुराम के पिता भृगुवंशी ऋषि जमदग्नि और माता राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका थीं. ऋषि जमदग्नि बहुत तपस्वी और ओजस्वी थे. ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस और परशुराम हुए. एक बार रेणुका स्नान के लिए नदी किनारे गईं. संयोग से वहीं पर राजा चित्ररथ भी स्नान करने आया था, राजा चित्ररथ सुंदर और आकर्षक था. राजा को देखकर रेणुका भी आसक्त हो गईं. किंतु ऋषि जमदग्नि ने अपने योगबल से अपनी पत्नी के इस आचरण को जान लिया. उन्होंने आवेशित होकर अपने पुत्रों को अपनी मां का सिर काटने का आदेश दिया. किंतु परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों ने मां के स्नेह के बंधकर वध करने से इंकार कर दिया, लेकिन परशुराम ने पिता के आदेश पर अपनी मां का सिर काटकर अलग कर दिया.
 
क्रोधित ऋषि जमदग्नि ने आज्ञा का पालन न करने पर परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों को चेतनाशून्य हो जाने का शाप दे दिया. वहीं परशुराम को खुश होकर वर मांगने को कहा. तब परशुराम ने पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ वर मांगा. जिसमें उन्होंने तीन वरदान मांगे – पहला, अपनी माता को फिर से जीवन देने और माता को मृत्यु की पूरी घटना याद न रहने का वर मांगा. दूसरा, अपने चारों चेतनाशून्य भाइयों की चेतना फिर से लौटाने का वरदान मांगा. तीसरा वरदान स्वयं के लिए मांगा जिसके अनुसार उनकी किसी भी शत्रु से या युद्ध में पराजय न हो और उनको लंबी आयु प्राप्त हो.
 
इस तरह अपनी बुद्धिमता से परशुराम ने अपनी माता को भी जीवित कर लिया, पिता की आज्ञा का पालन भी किया और अपने भाइयों का भी साथ दिया.
 
इस घटना के कुछ समय बाद ही एक दिन जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्त्तवीर्य अर्जुन आए. जमदग्नि मुनि ने कामधेनु गौ की सहायता से कार्त्तवीर्य अर्जुन का बहुत आदर सत्कार किया. कामधेनु गौ की विशेषताएं देखकर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से कामधेनु गौ की मांग की किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया. इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया और कामधेनु गौ को अपने साथ ले जाने लगा. किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा. जब यह घटना हुई उस समय परशुराम वहां मौजूद नहीं थे. जब परशुराम वहां आए तो उनकी माता छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थीं. अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर परशुराम जी ने इस पृथ्वी पर से क्षत्रियों के संहार करने की शपथ ले ली. पिता का अन्तिम संस्कार करने के पश्‍चात परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके उसका वध कर दिया. इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और उनके रक्‍त से समन्तपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए. अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया.
 
परशुराम के बचपन का नाम राम था, उनके नाम के साथ भी एक पौराणिक कहानी जुड़ी हुई है जो कुछ इस प्रकार से है. एक दिन गणेश भगवान पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे और किसी बात पर उनका राम से साथ झगड़ा हो गया. राम ने गणेश को धरती पर पटक दिया जिससे गणेश का एक दांत टूट गया और राम ने गणेश से उनका प्रिय अस्त्र “परशु” छीन लिया. जब यह बात भगवान शिव को पता चली तो उन्होंने राम को “परशुराम” का नाम दे दिया.
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  भगवान परशुराम जी शास्त्र एवम् शस्त्र विद्या के पूर्ण ज्ञाता हैं. प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य होता है. भगवान शिव, परशुराम जी के गुरू हैं. वह तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष हैं. न्याय के पक्षधर होने के कारण भगवान परशुराम जी बाल अवस्था से ही अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे. उन्होंने दीन-दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की निरंतर सहायता एवम् रक्षा की है.
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नमुमकिन है। जमदग्‍नि परशुराम का जन्‍म हरिशचन्‍द्र-कालीन विश्‍वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्‍कृत ग्रंथों में ‘अष्‍टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्‌य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्‍हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्‍मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस वंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्‍नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्‍नि में मतभेद उत्‍पन्‍न हो गए। परिणामस्‍वरुप जमदग्‍नि महिष्‍मति राज्‍य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्‍ठ होकर सहस्‍त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्‍नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्‍नि और उनकी पत्‍नी रेणुका ने अतिथि सत्‍कार किया। लेकिन स्‍वेच्‍छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्‍माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्‍वरुप जमदग्‍नि की हत्‍या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात्‌ छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्‍णों ने कान्‍यकुब्‍ज के राजा गाधि राज्‍य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्‍प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्‍यों की यात्राएं की जो हैह्‌य वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्‍व दक्षता के बूते परशुराम को ज्‍यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्‍ठभूमि तैयार हुई।
इसमें परशुराम को अवन्‍तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्‍यकुब्‍ज ;कन्‍नौज, के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्‍धता, अविस्‍थान ;अफगानिस्‍तान,, मुजावत ;हिन्‍दुकुश,, मेरु ;पामिर,, श्री ;सीरिया, परशुपुर; पारस, वर्तमानफारस, सुसर्तु ;पंजक्षीर, उत्‍तर कुरु ;चीनी सुतुर्किस्‍तान, वल्‍क, आर्याण ;ईरान, देवलोक; षप्‍तसिंधु, और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्‍व स्‍वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि ;चंदेरी, नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्‍ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्‍मत्‍त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्‍पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्‍ड बनवाए गए जिन्‍हें समंतपंचका रुधिर कुण्‍ड कहा गया है। ये कुण्‍ड आज भी अस्‍तित्‍व में हैं। इन्‍हीं कुण्‍डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्‍वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्‍नीसवां युग कहा गया है।
 
पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.नंबर .-09024390067 )के अनुसार  इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्‍प हाथ में लिए। केरल,कोंकण मलबार और कच्‍छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्‍य थी। इस समय कश्‍यप ऋषि और इन्‍द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्‍त्‍य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्‍द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्‍मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्‍होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्‍हीं शूद्रों को परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्‍ण बनाया। इन्‍हें जनेउ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त के शुभ मुहूर्त माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्‍यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्‍हें भगवान के रुप में पूजते हैं।
 
पूजाविधि: —–
परशुराम श्रीविष्णुके अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है । वैशाख शुक्ल तृतीयाकी परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके तौरपर मनाई जाती है ।
 
अ.    अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
        इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।
 
अर्थ :—–
 मेरे मुखमें चारों वेदोंका ज्ञान है तथा पीठपर बाणोंका तरकश एवं धनुष्य है । अर्थात क्षात्रतेज एवं  ब्राह्मतेज है, इसलिए समय आनेपर श्रापसे अथवा युद्ध कर संहार करूंगा ।
 
धनुर्विद्याके सर्वोत्तम शिक्षक :——
एक बार शस्त्र नीचे रखनेके पश्चात परशुरामने क्षत्रियोंसे बैरभाव छोड दिया । तदुपरांत उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय सभीको समभावसे अस्त्रविद्या सिखानी आरंभ की । महाभारतके भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य जैसे बडे-बडे योद्धा परशुरामके ही शिष्य थे ।
 
दानवीर :—-
परशुरामने क्षत्रियवधके लिए जो युद्ध किए, उससे उन्हें संपूर्ण पृथ्वीपर स्वामित्व प्राप्त हो गया था । अश्वमेध यज्ञ कर, अंतमें यज्ञके अध्वर्यु कश्यपऋषिको परशुरामने सर्व भूमि दान कर दी ।
 
भूमिकी नवनिर्मिति :——
महर्षि कश्यप यह जानते थे कि परशुरामजीके इस भूमिपर रहते, क्षत्रिय कुलका उत्कर्ष नहीं होगा; अत: उन्होंने परशुरामजीसे कहा, ‘अब इस भूमिपर मेरा अधिकार है । अत: तुम यहां नहीं रह सकते हो ।’ तब परशुरामजीने समुद्र हटाकर अपना क्षेत्र निर्माण किया । वैतरणासे कन्याकुमारीतकके भूखंडको परशुरामक्षेत्रकी संज्ञा दी गई है । 

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