आइये जाने भारतीय वास्तु शास्त्र तथा इसके विज्ञान आधारित मूल नियम—
भारत भूमी के प्राचीन ऋषि तत्वज्ञानी थे और उनके द्वारा इस कला को तत्व ज्ञान से ही प्रतिपादित किया गया था. आज के युग में विज्ञान नें भी स्वीकार किया है कि सूर्य की महता का विशेष प्रतिपादन सत्य है, क्योंकि ये सिद्ध हो चुका है कि सूर्य महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरूषार्थ और विभिन्न महानता मानव में परिणत होने लगती है.
क्या वास्तु सम्मत निमार्ण से भाग्य बदल जाता है? यह प्रश्न वास्तु के प्रचलन को देखकर सभी के मन में आता होगा।
आजकल सभी यह सोचकर वास्तु सम्मत निर्माण करने लगे हैं कि शायद ऐसा करने से भाग्य बदल जाए। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहता है। कार्य कोई भी करें यदि वो सही ढंग लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है तो अपना फल पूर्ण और शुभ देता है और कार्य यदि अनुचित ढंग से शीघ्रता सहित बिना-सोचे समझें लक्ष्य को ध्यान में रखे बिना किया है तो फल अपूर्ण और अशुभता लिए हुए होता है। वास्तु शास्त्र रहने या कार्य करने के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है, जिसमें पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्, वायु और आकाश का सही अनुपात हो अर्थात् एक सन्तुलन हो, इसके अतिरिक्त गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का समुचित प्रबन्ध हो। जब ऐसा होगा तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक क्षमता उन्नत कर सकेगा। यह जान लें कि वास्तु का सम्बन्ध वस्तु या ऐसे निर्माण से है जिसमें पंचमहाभूत का सही अनुपात हो, जबकि भाग्य का सम्बन्ध कर्म से है।
कर्म संचित होते हैं जोकि भाग्य में परिवर्तित हो जाते हैं। वर्तमान हमारे भूतकाल के कर्मों पर आधारित होता है। हमारा भविष्य उन कर्मों पर आधारित होगा जो हम वर्तमान में कर रहे हैं। कर्म गति टारे नहीं टरे, जैसा बोए वैसा ही पाए। कर्मों का फल शुभाशुभ जैसा भी हो हमें भोगना अवश्य पड़ेगा। इतना है कि सुकर्म कष्ट को कम कर देते हैं। प्रकृति में जब भी पंच तत्त्चों का असन्तुलन होता है तो प्रकृति में विकृति आ जाती है जिस कारण भूकम्प, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, बाढ़, दैवीय आपदा आदि आती है।
वास्तु निर्माण कार्य वर्तमान समय में अत्यावश्यक हो गया है क्योंकि निर्माण के पश्चात् यदि वास्तु दोष निकले और तक मकान में तोड़-फोड करनी पड़े तो वह अत्यंत कष्टकारक होता है। आर्थिक बोझ भी बढ जाता है। अतः उसका ध्यान रखकर वास्तु निर्माण के पूर्व वास्तुकार से सलाह लेकर यदि भवन या मकान निर्माण करें तो वास्तु दोष से बच सकते हैं।
आधुनिक युग में, आज वास्तु शास्त्र वैज्ञानिकता के आधार पर एक नया मोड ले चुका है, क्यों कि पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध नें मानव जाति को कुछ अधिक ही प्रभावित किया है, जिससे कि अपनी मूलभूत धरोहर प्राचीन ज्ञान को आज हम विज्ञान(साईंस) के नाम से संबोधित करने लगे हैं. किन्तु जब प्राचीन वास्तु ज्ञान का आज के विज्ञान नें अनुसंधान किया तो पाया कि कभी प्राचीन वास्तु कला के जो नियम निहित किए गए थे, वें निश्चित ही मानव जीवन की दृ्ष्टि से बेहद उपयोगी थे.
आज भी वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य की अल्ट्रावायलेट रश्मियों में विटामिन डी प्रचूर मात्रा में पाया जाता है, जिनके प्रभाव से मानव जीवों तथा पेड-पौधों में उर्जा का विकास होता है. इस प्रभाव का मानव के शारीरिक एवं मानसिक दृ्ष्टि से अनेक लाभ हैं. मध्यांह एवं सूर्यास्त के समय उसकी किरणों में रेडियोधर्मिता अधिक होती है, जो मानव शरीर, उसके स्वास्थय पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. अत: आज भी वास्तु विज्ञान में भवन निर्माण के तहत, पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जिससे सूर्य की प्रात:कालीन किरणें भवन के अन्दर अधिक से अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें और उसमें रहने वाला मानव स्वास्थय तथा मानसिक दृष्टिकोण से उन्नत रहे.
वास्तु नियम के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक से अधिक दरवाजें, खिडकियाँ रखी जानी चाहिए. ये भाग अधिक खुले होने से हवा और रोशनी अधिक मात्रा में प्रवेश करती है. प्रवेश करने वाली हवा दक्षिण-पश्चिम के कम दरवाजों-खिडकियों से धीरे धीरे बाहर निकलती है, जिससे कि भवन का वातावरण स्वच्छ, साफ एवं प्रदूषण मुक्त होता है.
प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन आनन्दमय, सुखी व समृद्ध बनाने में हमेशा लगा रहता हैं। कभी-कभी बहुत अधिक प्रयास करने पर भी वह सफल नहीं हो पाता हैं। ऐसे में वह ग्रह शांति, अपने ईष्ट देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करता हैं। परन्तु उससे भी उसे आशाअनुरूप फल प्राप्त नहीं होने पर वह अपने भाग्य को कोसता है। जैसा की सर्वविदित है कि भाग्य और वास्तु का गहरा सम्बन्ध हैं यदि आपका भाग्य (कुण्डली) उत्तम हैं और यदि वास्तु (निवास) में कुछ त्रुटियां हैं तो मनुष्य उतनी प्रगति नहीं कर पाता जितनी करनी चाहिए अर्थात मनुष्य की समृद्धि में भाग्य एवं वास्तु का बराबर-बराबर सम्बन्ध होता हैं।
ग्रह शांति देवी-देवताओं की पूजा अर्चना और प्रयत्नों के अतिरिक्त भी मनुष्य को एक विषय पर और ध्यान देना चाहिए और वह है उसके घर एवं दूकान की वास्तु। वास्तु दोष निवारण करने से मुनष्य के जीवन की पूर्ण काया पलट हो सकती है वह सभी सुख व साधनों को प्राप्त कर सकता है। मकान का निर्माण इस प्रकार करें जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हो तो वह मनुष्य प्राकृतिक ऊर्जा स्त्रोतों को भवन के माध्यम से अपने कल्याण हेतु उपयोग कर सकता है।
वास्तु नियम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि दक्षिण-पश्चिम भाग हमेशा ऊँचा होना चाहिए एवं दीवारें मोटी बनानी चाहिए. साथ ही इस दिशा में सीढी इत्यादि का भार दिया जाना चाहिए. इसका उदेश्य है कि पृ्थ्वी जब सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा में करती है, तो सूर्य एक विशेष कोणीय स्थिति में होता है. अत: इस क्षेत्र में अधिक भार से संतुलन बना रहता है तथा ऊँची तथा मोटी दीवारें अधिक उष्मा से रक्षा करती हैं. इससे भवन में गर्मी में शीतलता एवं सर्दियों में उष्णता का अनुभव मिलता है.
इसी प्रकार वास्तु नियम में दक्षिण-पूर्वीय (आग्नेय) कोण में ‘अग्नेय उर्जा’—रसोई बनाने का प्रावधान किया गया, क्यों कि इस क्षेत्र में पूर्व से प्रात:कालीन ताजगी से भरी हवा एवं सूर्य रश्मियों का प्रवेश होता है, जिससे कि रसोई में रखे पदार्थ अधिक समय तक शुद्ध एवं ताजे बने रहें.
उत्तर क्षेत्र में विज्ञान अनुसार, पृ्थ्वी में चुंबकीय उर्जा सघन मात्रा में रहती है. इससे इस क्षेत्र को सबसे पवित्र माना है और इसी कारण पूजा स्थल, साधनास्थली का निर्माण इस स्थान में उचित कहा गया है.
वास्तु नियम में उत्तर-पूर्वी भाग में दैनिक उपभोग में आने वाले जल के स्त्रोत को बनाने का विधान निहित है. विज्ञान की भी इसके पीछे ये मान्यता है कि उससे वह प्रदूषण मुक्त हो जाता है और शुद्ध रहता है. वैज्ञानिक युग में इस सिद्धान्त को इलैक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम सिद्धान्त से प्रतिपादित किया गया.
दक्षिण दिशा में सिरहाना करने का महत्व प्रतिपादित है, जिसका मूल कारण पृ्थ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में पडने वाला प्रभाव है, क्यों कि सर्वविदित है कि चुम्बकीय प्रभाव उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है. मानवीय जैव चुम्बकत्व भी सिर से पैर की ओर होता है. अत: सिर को उतरायण एवं पैरों को दक्षिणायण कहा गया है. यदि सिर उत्तर दिशा में रखा जाए तो पृ्थ्वी का उत्तरी ध्रुव मानव सिर के ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव को अस्वीकार करेगा. इससे शरीर के रक्त संचार के लिए अनुकूल चुम्बकीय लाभ नहीं होगा.
इसको आधुनिक मस्तिष्क वैज्ञानिकों नें भी माना है कि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता का मूलभूत स्त्रोत अल्फा तरंगों का पृ्थ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन का संबंध आकाशीय पिंडों से है और यही वजह है कि वास्तु कला शास्त्र हो या ज्योतिष शास्त्र, सभी अपने अपने ढंग से सूर्य से मानवीय सूत्र सम्बंधों की व्याख्या प्रतिपादित करते हैं. अत: वास्तु के नियमों को, भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर, भूपंचात्मक तत्वों के ज्ञान से प्रतिपादित किया गया है. इसके नियमों में विज्ञान के समस्त पहलुओं का ध्यान रखा गया है, जिनसे सूर्य उर्जा, वायु, चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का पृ्थ्वी पर प्रभाव प्रमुख है तथा उर्जा का सदुपयोग, वायु मंडल में व्याप्त सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों का आंकलन कर, उन्हे इस वास्तु शास्त्र के नियमों में निहित किया गया है.
मानवीय जरूरतों के लिए सूर्य, वायु, आकाश, जल और पृथ्वी – इन पाँच सुलभ स्रोतों को प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्रबन्ध करने की कला को हम वास्तुशास्त्र कह सकते हैं। अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों के समुच्चय को प्राकृतिक नियमों के अनुसार उपयोग में लाने की कला को वास्तुकला और संबंधित शास्त्र को वास्तुशास्त्र का नाम दिया गया है। वर्तमान युग में वास्तुशास्त्र हमें उपरोक्त 5 स्रोतों के साथ कुछ अन्य मानव-निर्मित वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाले कारणों पर भी ध्यान दिलाता है। उदाहरण के तौर पर विज्ञान के विकास के साथ विद्युत लाइनों, माइक्रोवेव टावर्स, टीवी, मोबाइल आदि द्वारा निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगें आदि। ये मानव शरीर पर अवसाद, मानसिक तनाव, हड्डियों के रोग, बहरापन, कैंसर, चिड़चिड़ापन आदि उत्पन्न करने का एक प्रमुख कारण पायी गयी हैं। कैंसर जैसे महारोग के प्रमुख कारणों में विद्युत भी एक है।
आधुनिक विज्ञान ने इन दुष्परिणामों को मापने के लिए मापक यंत्रों का भी आविष्कार दिया है, जिससे वातावरण में व्याप्त इनके घातक दुष्प्रभावों का मापन कर उन्हें संतुलित भी किया जा सके। पंचतत्त्वों से निर्मित मानव-शरीर के निवास, कार्यकलापों व शरीर से संबंधित सभी कार्यों के परिवेश अर्थात् वास्तु पर पाँचों तत्त्वों का समुचित साम्य एवं सम्मिलन आवश्यक है अन्यथा उस जगह पर रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में विषमता पैदा हो सकती है।
हमारे पुराने मनीषियों ने वास्तुविद्या का गहन अध्ययन कर इसके नियम निर्धारित किये हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी इस पर काफी खोज की है। विकसित यंत्रों के प्रयोग से इसको और अधिक प्रत्यक्ष व पारदर्शी बनाया है। शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालने वाली उच्च दाब की विद्युत, चुम्बकीय, अल्फा, बीटा, गामा व रेडियो तरंगों के प्रभाव का मापन कर वास्तु का विश्लेषण किया जा सकता है। वर्तमान में हम किसी भी मकान, भूखंड, दुकान, मंदिर कारखाना या अन्य परिसर में वास्तु की निम्न तीन तरह से जाँचकर मानव-शरीर पर इसके प्रभावों की गणना कर सकते हैं।
परम्परागत वास्तुः विभिन्न दिशाओं में आकृति, ऊँचाई, ढाल तथा अग्नि, जल, भूमि, वायु, आकाश के परस्पर समायोजन के आधार पर।
कुछ आवश्यक नियम/जानकारी—
—प्‍लॉट खरीदते समय उस पर खड़े अनुभव करें। यदि‍ आपको सकारात्‍मक अनुभूति‍ हो तो ही वह प्‍लॉट खरीदें अन्‍यथा न खरीदें।
—–अगर आप बना हुआ मकान खरीद रहें हैं तो पता लगा लें कि‍ वहाँ पहले रह चुका परि‍वार खुशहाल परि‍वार है या नहीं।
—दरि‍द्रता या कि‍सी मजबूरी के चलते बेचे जाने वाले मकान या प्‍लॉट को ना ही खरीदें तो बेहतर है। और अगर लेना ही है तो उसमें सावधानी बरतें।
—–जीर्ण-शीर्ण अवस्‍था वाले भवन न खरीदें।
—-मकान या प्‍लॉट को खरीदने से पहले जान लें कि‍ वहाँ की भूमि‍ उपजाऊ है या नहीं। अनुपजाऊ भूमि‍ पर भवन बनाना वास्‍तु शास्‍त्र में उचि‍त नहीं माना जाता है।
—-.भवन के लिए चयन किए जाने वाले प्लॉट की चारों भुजा राइट एगिंल (9. डिग्री अंश कोण) में हों। कम ज्यादा भुजा वाले प्लॉट अच्छे नहीं होते।
—- प्लाट जहाँ तक संभव हो उत्तरमुखी या पूर्वमुखी ही लें। ये दिशाएँ शुभ होती हैं और यदि किसी प्लॉट पर ये दोनों दिशा (उत्तर और पूर्व) खुली हुई हों तो वह प्लॉट दिशा के हिसाब से सर्वोत्तम होता है।
—प्लाट के एकदम लगे हुए, नजदीक मंदिर, मस्जिद, चौराह, पीपल, वटवृक्ष, सचिव और धूर्त का निवास कष्टप्रद होता है।
—पूर्व से पश्चिम की ओर लंबा प्लॉट सूर्यवेधी होता है जो कि शुभ होता है। उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा प्लॉट चंद्र भेदी होता है जो ज्यादा शुभ होता है ओर धन वृद्धि करने वाला होता है।
—-प्लॉट के दक्षिण दिशा की ओर जल स्रोत हो तो अशुभ माना गया है। इसी के विपरीत जिस प्लॉट के उत्तर दिशा की ओर जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआँ, जलकुंड) हो तो शुभ होता है।
— प्लॉट के पूर्व व उत्तर की ओर नीचा और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर ऊँचा होना शुभ होता है।
— भवन का ब्रह्म स्थान रिक्त होना चाहिए अर्थात भवन के मध्य कोई निर्माण कार्य नहीं करें।
— बीम के नीचे न तो बैठें और न ही शयन करें। शयन कक्ष, रसोई एवं भोजन कक्ष बीम रहित होने चाहिए।
— वाहनों हेतु पार्किंग स्थल आग्नेय दिशा में उत्तम रहता हैं क्योंकि ये सभी उष्मीय ऊर्जा (ईधन) द्वारा चलते हैं।
— भवन के दरवाजें व खिड़कियां न तो आवाज करें और न ही स्वतः खुले तथा बन्द हो।
—व्यर्थ की सामग्री (कबाड़) को एकत्र न होने दें। घर में समान को अस्त व्यस्त न रखें। अनुपयोगी वस्तुओं को घर से निकालते रहें।
—भवन के प्रत्येक कोने में प्रकाश व वायु का सुगमता से प्रवेश होना चाहिए। शुद्ध वायु आने व अशुद्ध वायु बाहर निकलने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा होने से छोटे मोटे वास्तु दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
—दूकान में वायव्य दिशा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अपना सेल काउंटर वायव्य दिशा में रखें, किन्तु तिजौरी एवं स्वयं के बैठने का स्थान नैऋत्य दिशा में रखें, मुख उत्तर या ईशान की ओर होना चाहिए।
—- भवन के वायव्य कोण में कुलर या ए.सी. को रखना चाहिए जबकि नैऋत्य कोण में भारी अलमारी को रखना चाहिए। वायव्य दिशा में स्थायी महत्व की वस्तुओं को कभी भी नहीं रखना चाहिए।
— घर एवं कमरे की छत सफेद होनी चाहिए, इससे वातावरण ऊर्जावान बना रहता है।
—- भवन में सीढियॉ पूर्व से पश्चिम या दक्षिण अथवा दक्षिण पश्चिम दिशा में उत्तर रहती है। सीढिया कभी भी घूमावदार नहीं होनी चाहिए। सीढियों के नीचे पूजा घर और शौचालय अशुभ होता है। सीढियों के नीचे का स्थान हमेशा खुला रखें तथा वहॉ बैठकर कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए।
—-पानी का टेंक पश्चिम में उपयुक्त रहता हैं । भूमिगत टंकी, हैण्डपम्प या बोरिंग ईशान (उत्तर पूर्व) दिशा में होने चाहिए। ओवर हेड टेंक के लिए उत्तर और वायण्य कोण (दिशा) के बीच का स्थान ठीक रहता है। टेंक का ऊपरी हिस्सा गोल होना चाहिए।
—शौचालय की दिशा उत्तर दक्षिण में होनी चाहिए अर्थात इसे प्रयुक्त करने वाले का मुँह दक्षिण में व पीठ उत्तर दिशा में होनी चाहिए। मुख्य द्वार के बिल्कुल समीप शौचालय न बनावें। सीढियों के नीचे शौचालय का निर्माण कभी नहीं करवायें यह लक्ष्मी का मार्ग अवरूद्ध करती है। शौचालय का द्वार हमेशा बंद रखे। उत्तर दिशा, ईशान, पूर्व दिशा एवं आग्नेय कोण में शौचालय या टेंक निर्माण कदापि न करें।
—भवन की दीवारों पर आई सीलन व दरारें आदि जल्दी ठीक करवा लेनी चाहिए क्योकि यह घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहती।
— घर के सभी उपकरण जैसे टीवी, फ्रिज, घड़ियां, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि चलते रहने चाहिए। खराब होने पर इन्हें तुरन्त ठीक करवां लें क्योकि बन्द (खराब) उपकरण घर में होना अशुभ होता है।
—-दक्षिण दिशा में रोशनदान खिड़की व शाट भी नहीं होना चाहिए। दक्षिण व पश्चिम में पड़ोस में भारी निर्माण से तरक्की अपने आप होगी व उत्तर पूर्व में सड़क पार्क होने पर भी तरक्की खुशहाली के योग अपने आप बनते रहेगें।
—मुख्य द्वार उत्तर पूर्व में हो तो सबसे बढ़िया हैं। दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम में हो तो अगर उसके सामने ऊँचे व भारी निर्माण होगा तो भी भारी तरक्की के आसार बनेगें, पर शर्त यह हैं कि उत्तर पूर्व में कम ऊँचे व हल्के निर्माण तरक्की देगें।
— यदि सम्भव हो तो घर के बीच में चौक (बरामदा ) अवश्य छोड़े एवं उसे बिल्कूल साफ-स्वच्छ रखें। इससे घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है।
—घर का प्रवेश द्वार यथासम्भव पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए। प्रवेश द्वार के समक्ष सीढियॉ व रसोई नहीं होनी चाहिए। प्रवेश द्वार भवन के ठीक बीच में नहीं होना चाहिए। भवन में तीन दरवाजे एक सीध में न हो।
—भवन में कांटेदार वृक्ष व पेड़ नहीं होने चाहिए ना ही दूध वाले पोधे -कनेर, ऑकड़ा केक्टस आदि। इनके स्थान पर सुगन्धित एवं खूबसूरत फूलों के पौधे लगाये।
—-घर में युद्ध के चित्र, बन्द घड़ी, टूटे हुए कॉच, तथा शयन कक्ष में पलंग के सामने दर्पण या ड्रेसिंग टेबल नहीं होनी चाहिए।
— भवन में खिड़कियों की संख्या सम तथा सीढ़ियों की संख्या विषम होनी चाहिए ।
— भवन के मुख्य द्वार में दोनों तरफ हरियाली वाले पौधे जैसे तुलसी और मनीप्लान्ट आदि रखने चाहिए। फूलों वाले पोधे घर के सामने वाले आंगन में ही लगाए। घर के पीछे लेगे होने से मानसिक कमजोरी को बढावा मिलता है।
—मुख्य द्वार पर मांगलिक चिन्ह जैसे स्वास्तिक, ऊँ आदि अंकित करने के साथ साथ गणपति लक्ष्मी या कुबेर की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए।
—मुख्य द्वार के सामने मन्दिर नहीं होना चाहिए। मुख्य द्वार की चौड़ाई हमेशा ऊँचाई की आधी होनी चाहिए।
—-मुख्य द्वार के समक्ष वृक्ष, स्तम्भ, कुआं तथा जल भण्डारण नहीं होना चाहिए। द्वार के सामने कूड़ा कर्कट और गंदगी एकत्र न होने दे यह अशुभ और दरिद्रता का प्रतिक है।
—रसोई घर आग्नेय कोण अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा में होना चाहिए। गैस सिलेण्डर व अन्य अग्नि के स्त्रोतों तथा भोजन बनाते समय गृहणी की पीठ रसोई के दरवाजे की तरफ नहीं होनी चाहिए। रसोईघर हवादार एवं रोशनीयुक्त होना चाहिए। रेफ्रिजरेटर के ऊपर टोस्टर या माइक्रोवेव ओवन ना रखे। रसोई में चाकू स्टैण्ड पर खड़ा नहीं होना चाहिए। झूठें बर्तन रसोई में न रखे।
—-ड्राइंग रूम के लिए उत्तर दिशा उत्तम होती है। टी.वी., टेलिफोन व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण दक्षिण दिशा में रखें। दीवारों पर कम से कम कीलें प्रयुक्त करें। भवन में प्रयुक्त फर्नीचर पीपल, बड़ अथवा बेहडे के वृक्ष की लकड़ी का नहीं होना चाहिए।
—किसी कौने में अधिक पेड़-पौधें ना लगाए इसका दुष्प्रभाव माता-पिता पर भी होता हैं वैसे भी वृक्ष मिट्टी को क्षति पहुंचाते हैं।
—घर का मुख्य द्वार छोटा हो तथा पीछे का दरवाजा बड़ा हो तो वहॉ के निवासी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर सकते हैं।
—घर का प्लास्टर उखड़ा हुआ नहीं होना चाहिए चाहे वह आंगन का हो, दीवारों का या रसोई अथवा शयनकक्ष का। दरवाजे एवं खिड़किया भी क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए। मुख्य द्वार का रंग काला नहीं होना चाहिए। अन्य दरवाजों एवं खिडकी पर भी काले रंग के इस्तेमाल से बचे।
—मुख्य द्वार पर कभी दर्पण न लगायें। सूर्य के प्रकाश की और कभी भी कॉच ना रखे। इस कॉच का परिवर्तित प्रकाश आपका वैभव एवं ऐश्वर्य नष्ट कर सकता है।
वास्तु के इन मुख्य नियमों का पालन कर हम सुख एवं समृद्धि में वृद्धि कर खुशहाल रह सकते हैं। यदि दिशाओं का ध्यान रखकर भवन का निर्माण एवं भूखण्ड की व्यवस्था की जाए तो समाज में मान सम्मान बढ़ता हैं। इस प्रकार भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों का पालन कर हम सुख एवं वैभव की प्राप्ति कर सकते हैं।

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