जानिए केसे हो जन्मकुंडली से रोग निदान ..???
आयुर्वेद एवम ज्योतिश्शाश्त्र के अनुसार हमारे पूर्वार्जित पाप कर्मों के फल ही समय समय पर विभिन्न रोगों के रूप में हमारे शरीर में प्रगट होतें हैं । हरित सहिंता का यह श्लोक देखिये –
जन्मान्तर कृतं पापं व्याधिरुपेण बाधते |
तच्छान्तिरौषधैर्दानर्जपहोमसुरार्चनै : ||
अर्थात पूर्व जन्म में किया गया पाप कर्म ही व्याधि के रूप में हमारे शरीर में उत्पन्न हो कर कष्टकारक होता है तथा औषध, दान ,जप ,होम व देवपूजा से रोग की शान्ति होती है |आयुर्वेद में कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया है |
कर्म के तीन भेद कहे गए हैं ;
१ सन्चित
२ प्रारब्ध
३ क्रियमाण
आयुर्वेद के अनुसार संचित कर्म ही कर्म जन्य रोगों के कारण हैं जिनके एक भाग को प्रारब्ध के रूप में हम भोग रहे हैं । वर्तमान समय मेंकिए जाने वाला कर्मही क्रियमाण है ।वर्तमान काल में मिथ्या आहार -विहार के कारण भी शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है । आचार्य सुश्रुत ,आचार्य चरक व त्रिष्ठाचार्य के मतानुसार कुष्ठ , उदररोग ,,गुदरोग, उन्माद , अपस्मार ,पंगुता ,भगन्दर , प्रमेह ,अन्धता ,अर्श, पक्षाघात ,देह्क्म्प ,अश्मरी ,संग्रहणी ,रक्तार्बुद ,कान व वाणी दोष इत्यादि रोग ,परस्त्रीगमन ,ब्रहम हत्या ,पर धन अपहरण ,बालक-स्त्री-निर्दोष व्यक्ति की हत्या आदि दुष्कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं । अतः मानव द्वारा इस जन्म या पूर्व जन्म में किया गया पापकर्म ही रोगों का कारण होता है । तभी तो ऐसे मनुष्य भी कभी-कभी कलिष्ट रोगों का शिकार हो कर कष्ट भोगतें हैं जो खान-पान में सयंमी तथा आचार-विचार में पुरी तरह शुद्ध हैं ।
जन्मकुंडली से रोग व उसके समय का ज्ञान —-
जन्मकुंडली के माध्यम से यह जानना सम्भव है कि किसी मनुष्य को कब तथा क्या बीमारी हो सकती है । जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति ,ग्रह गोचर तथा दशा-अन्तर्दशा से उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है क्योंकि जन्म पत्रिका मनुष्यों के पूर्वजन्मों के समस्त शुभाशुभ कर्मों को दीपक के समानप्रगट करती हैं जिनका शुभाशुभ फल इस जन्ममें प्राप्त होना है ।
यदुपचित मन्य जन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मण: प्राप्तिम ।
व्यंज्ज्यती शास्त्र मेंत तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥
( फलित मार्तण्ड )
दक्षिण भारत केप्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ प्रश्न मार्ग में रोगों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया है ।
१ सहज रोग
२ आगंतुक रोग
१ सहज रोग —-
जन्मजात रोगों को सहज रोगों के वर्ग में रखा गया है । अंग हीनता ,जन्म से अंधापन ,गूंगा व बहरापन ,पागलपन ,वक्र ता एवम नपुंसकता आदि रोग सहज रोग हैं जो जन्म से ही होते हैं । सहज रोगों का विचार अस्टमेश तथा
आठवें भावः में स्थित ,निर्बल ग्रहों से किया जाता है । ये रोग प्राय: दीर्घ कालिक तथा असाध्य होते हैं ।
२ आगंतुक रोग
चोट ,अभिचार ,महामारी ,दुर्घटना ,शत्रु द्वारा घात आदि प्रत्यक्ष कारणों से तथा ज्वर ,रक्त विकार ,धातु रोग ,उदर विकार ,वात – पित – कफ की विकृति से होने वाले रोग जो अप्रत्यक्ष कारणों से होते हैं आगंतुक रोग कहे गये हैं । इनका विचार षष्टेश ,छ्टे भावः में स्थित निर्बल ग्रहों तथा जनमकुंडली में पीड़ित राशिः ,पीड़ित भावः एवम पीड़ित ग्रहों से किया जाता है ।
भावः एवम राशिः से सम्बंधित शरीर के अंग व रोग —-
जन्म कुंडली में जो भावः या राशिः पाप ग्रह से पीड़ित हो या जिसका स्वामी त्रिक भावः मे हो उस राशिः तथा भावः का अंग रोग से पीड़ित हो जाता है । बारह भावों एवम राशिओं से सम्बंधित अंग इस प्रकार हैं —-
भावः
राशिः
शरीर का अंग
रोग
पहला
मेष
सिर , मस्तिष्क , सिर के केश
मस्तिष्क रोग , सिर पीडा , चक्कर आना , मिर्गी , उन्माद , गंजापन , ज्वर ,गर्मी , मस्तिष्क ज्वर इत्यादि ।
दूसरा
वृष
मुख , नेत्र , चेहरा, नाक,दांत ,जीभ ,होंठ ,ग्रास नली
मुख , नेत्र , दांत, नाक आदि के रोग आदि ।
तीसरा
मिथुन
कंठ ,कर्ण,हाथ,भुजा,कन्धा,श्वास नली
खांसी ,दमा,गले मे पीड़ा ,बाजु मे पीड़ा ,कर्ण पीड़ा आदि ।
चौथा
कर्क
छाती , फेफड़े ,स्तन,ह्रदय ,मन ,पसलियाँ
ह्रदय रोग ,श्वास रोग , मनोविकार ,पसलियों का रोग ,अरुचि आदि ।
पांचवा
सिंह
उदर , जिगर ,तिल्ली ,कोख , मेरु दण्ड, बुद्धि
उदर पीडा ,अपच , जिगर का रोग, पीलिया , बुद्धिहीनता,गर्भाशय मे विकार,पीलिया आदि ।
छठा
कन्या
कमर, आन्त , नाभि
दस्त ,आन्त्रदोष , हर्निया , पथरी ,अपेंडिक्स ,कमर मे दर्द ,दुर्घटनाआदि ।
सातवाँ
तुला
मूत्राशय , गुर्दे , वस्तिस्थान
गुर्दे मे रोग , मूत्राशय के रोग , मधुमेह , प्रदर , पथरी , मूत्रक्रिच्छ आदि ।
आठवां
वृश्चिक
गुदा ,अंडकोष , जननैन्द्रिय , लिंग , योनि
अर्श , भगंदर , गुप्त रोग ,मासिक धर्मं के रोग ,दुर्घटनाइत्यादि ।
नवां
धनु
जांघ , नितंब
वात विकार , कुल्हे का दर्द , गठिया , साईंटिका ,मज्जा रोग ,यकृत दोष इत्यादि ।
दसवां
मकर
घुटने ,टाँगे
वात विकार ,गठिया , साईंटिका इत्यादि ।
ग्यारहवां
कुम्भ
टखने ,पिंड लियां ,
काफ पेन ,नसों की कमजोरी ,एंठन इत्यादि ।
बारहवां
मीन
पोलियो ,,आमवात ,रोगविकार ,पैर में पीडा इत्यादि ।
ग्रहों से सम्बंधित अंग व रोग —–
सूर्य इत्यादि नवग्रह शत्रु -नीचादि राशिः -नवांश में ,षड्बलहींन,पापयुक्त ,पापदृष्ट ,त्रिकस्थ हों तो अपने कारकत्व से सम्बंधित रोग उत्पन्न करते हैं । ग्रहों से सम्बंधित अंग ,धातु व रोग इस प्रकार हैं ——–
ग्रह
अंग
धातु
रोग
सूर्य
नेत्र ,सिर हृदय
अस्थि
ज्वर ,हृदय रोग ,अस्थि रोग पित्त ,जलन ,मिर्गी ,नेत्र रोग ,शस्त्र से आघात ,ब्रेन फीवर
चन्द्र
नेत्र ,मन ,कंठ ,फेफडे
रक्त
जलोदर ,नेत्रदोष ,निम्न रक्त चाप ,अरुचि ,मनोरोग ,रक्त की कमी ,कफ मन्दाग्नि ,अनिद्रा ,पीलिया ,खांसी -जुकाम ,व्याकुलता
मंगल
मांसपेशियां, उदर ,पीठ
मांस ,मज्जा
जलन ,दुर्घटना ,बवासीर ,उच्च रक्तचाप ,खुजली ,मज्जा रोग ,विष भय ,निर्बलता ,गुल्म ,अभिचार कर्म ,बिजली से भय
बुध
हाथ ;वाणी ,कंठ
त्वचा
त्रिदोष ,पाण्डु रोग ,बहम ,कंठ रोग ,कुष्ठ ,त्वचा रोग ,वाणी विकार ,नासिका रोग ,
गुरु
जघन प्रदेश ,आंतें
वसा
आंत्र ज्वर ,गुल्म ,हर्निया ,सुजन ,कफ दोष ,स्मृति भंग ,कर्ण पीडा ,मूर्छा इत्यादि
शुक्र
गुप्तांग
वीर्य
प्रमेह,मधुमेह ,नेत्र विकार ,मूत्र रोग ,सुजाक ,प्रोंसटैँट ग्लांड्स की वृद्धि ,शीघ्र पतन , स्वप्न दोष ,ऐड्स एवम प्रजनन अंगों से सम्बंधित रोग इत्यादि
शनि
जानू प्रदेश ,पैर
स्नायु
थकन ,वात रोग ,संधि रोग ,पक्षाघात ,पोलियो ,कैंसर ,कमजोरी ,पैर में चोट ,
राहू
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कुष्ठ ,ह्रदय रोग ,विष भय ,मसूरिका ,कृमि विकार ,अपस्मार इत्यादि
केतु
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चर्म विकार ,दुर्घटना ,गर्भ श्राव ,विषभय
रोग के प्रभाव का समय —
पीड़ा कारक ग्रह अपनी ऋतू में ,अपने वार में ,मासेश होने पर अपने मास में ,वर्षेश होने पर अपने वर्ष में ,अपनी महादशा ,अन्तर्दशा ,प्रत्यंतर दशा व् सूक्षम दशा में रोगकारक होते हैं । गोचर में पीड़ित भावः या राशिः में जाने पर भी निर्बल व् पाप ग्रह रोग उत्पन्न करते हैं । सूर्य २२ वें ,चन्द्र २४ वें ,मंगल २८ वें ,बुध ३५ वें ,गुरु १६ वें ,शुक्र २५ वें ,शनि ३६ वें, राहु ४४ वें तथा केतु ४८ वें वर्ष मेंभी अपना शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं ।
ये होते हें रोग शान्ति के उपाय —–
ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग का पूर्वानुमान लगा कर पीडाकारक ग्रह या ग्रहों का दान ,जप ,होम व रत्न धारण करने से रोग टल सकता है या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है । ग्रह उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती है । प्रश्न मार्ग के अनुसार औषधि का दान तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को रोग पीड़ा प्रदान नहीं करते । दीर्घ कालिक एवम असाध्य रोगों की शान्ति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ ,श्री महा मृत्युंजय का जप तुला दान ,छाया दान ,रुद्राभिषेक , पुरूष सूक्त का जप तथा विष्णु सहस्र नाम का जप लाभकारी सिद्ध होता है । कर्म विपाक सहिंता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों कीशान्ति होती है ।