केसा हो वास्तु सम्मत आदर्श भवन-??? जो बने सुखी जीवन का आधार
वर्तमान में वास्तु का प्रभाव जिस प्रकार से बढ़ा हैं , उसने जीवन के प्रत्येक क्षैत्र को प्रभावित किया हैं। वास्तु की ऊर्जा जीवन के प्रत्येक क्षैत्र में आपकी सहायता कर सकती हैं। हमारी ऊर्जा दो प्रकार की होती हैं-शारीरिक ऊर्जा व मानसिक ऊर्जा। शारीरिक ऊर्जा की कमी से जीवन के सभी क्षेत्रों में शिथिल एवं सुस्त अनुभव करेंगे , ठीक उसी प्रकार मानसिक ऊर्जा की कमी हमें नकारात्मक सोच वाला बना सकती है फिर चाहे वह व्यवसाय का क्षेत्र हो या स्वास्थ्य अथवा प्रेम यह उर्जा प्रत्येक क्षेत्र को प्रभवित करती है। इसलिये वास्तुदोष होने पर हमें किसी वास्तुविद् से वास्तुदोष निवारण करा लेना चाहिये जिससे हमारे आवास में उर्जा का सन्तुलन हो सके जो हमारे जीवन का उर्जावान कर समे व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरीत्तर वृद्वि कर सके।
वास्तु विद्या भरतीय भवन निर्माण की कला है जो प्राचीनकाल से चनी आ रही है। भवन निर्माण कार्यस्थल मंदिर और अन्य प्रकार के भवनांे के निर्माण की मार्गदर्शक है। उससे हमें प्रकृति के नियमों के साथ सामेजस्य बनाते हुए अच्छी तरह रहने और अनुकूल वातावण तैयार करने की जानकारी मिलती है। वास्तु के निर्माण से जुडे़ जुए सभी पहलुओं जैसे भूमि चयन भवन निर्माण सामग्री, निर्माण की तकनीक कक्ष द्वार, खिडकियों की स्थिति सहित अनकी बातों की विस्तृत जानकारी होती है।
भारतीय भवन निर्माण कला आधुनिक भवन निर्माण कला से कई कदम आगे है। इसमें केवल निर्माण सामग्री एवं उसके भौतिक गुणों का वर्णन की नहीं वरन् यह हमें मनुष्य और पदार्थ (निर्माण सामग्री) की आन्तरिक और बाहा् प्रक्रिया को समझाता है। इस तरह वास्तु ही वह विषय है जो हमारी शारीरिक मानसिक भावनात्मक आध्यात्मिक और भौतिक सामग्रियों तथा वातावरणीय समरसता जैसी सभी आवश्यकताओं से प्रत्यक्षत जुडा है यह विषय बहुत ही रूचिकर विस्तृत और हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाला है।
कहा गया है:-
स्त्री पुत्रादि भोग सौख्यं जननं धमार्थ कामप्रदम,।
जन्तु न मयनं सुखास्पद मिदं शीताम्बुधर्मापहम्।।
बापी देव गुहादि पुण्यमरिवलं मेहात्समुपद्यते।
गेहं पुर्वमुशातिन्त तेन विबुधाः श्री विश्रृकर्मादयः।।
अर्थात् स्त्री पुत्र आदि के भोग सुख अर्थ काम धर्म आदि देन वाला प्राणियों का सुख स्थल सर्दी गर्मी मे वायु से रक्षा करने वाला गृह ही है। नियमानुसार गृह निर्माणकर्ताओं को बावडी और देवस्थान निर्माण का आदेश दिया।
वास्तु की शुरूआत भूमि चयन प्रक्रिया से आरम्भ होती है कि वह जातक के लिये कैसी रहेगी । इस प्रक्रियाके बाद भूमि शोधन दिशा शोधन वास्ुि अनुरूप् कक्षों की प्लानिंग किचन पूजाघर टेंकर बोरिंग या कुआं स्टोर व सीढियो आकद का निर्माण उचित स्थान पर करना चाहिये। इससे पूर्व कार्य प्रारम्भ किस दिशा से करवाना चाहिये, नींव खुदवान आदि के शुभ मुहूर्त विथी वार आदि का विशेष ध्यान रखें।
वास्तु विधा अनुरूप मकान बनावाने से कुवास्तुजनित कष्ट तो दूर हो जाते है परन्तु प्रारब्धजलित कष्ट तो भोगने ही पडते हैं जैसे औषधि लेने से कुपथ्यजन्य रोग तो मिट जाता है किन्तु प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटता वैसे ही कुवास्तुजनित दोष को दूर करना भी हमारा कर्तव्य ळें
नव निर्माण में निम्न बातों का ध्यान जरुर/अवश्य रखना चाहिए—-
नव निर्माण करते समय भवन को यथासम्भव चारों ओर खुला स्थान छोड़कर बनाना चाहिए।
भवन के पूर्व एवं उत्तर में अधिक तथा दक्षिण व पश्चिम में कम जगह छोड़ना चाहिए।
भवन की ऊँचाई दक्षिण एवं पश्चिम में अधिक होना चाहिए।
बहुमंजिला भवनों में छज्जा∕बालकनी, छत उत्तर एवं पूर्व की ओर छोड़ना चाहिए।
पूर्व एवं उत्तर की ओर अधिक खिड़कियाँ तथा दक्षिण एवं पश्चिम में कम खिड़कियाँ होना चाहिए।
नैऋत्य कोण का कमरा गृहस्वामी का होना चाहिए।
आग्नेय कोण में पाकशाला होना चाहिए।
ईशान कोण में पूजा का कमरा होना चाहिए।
स्नानगृह पूर्व की दिशा में होना चाहिए, यदि यहाँ संभव न हो तो आग्नेय या वायव्य कोण में होना चाहिए। परंतु पूर्व के स्नानघर में शौचालय नहीं होना चाहिए। शौचालय दक्षिण अथवा पश्चिम में हो सकता है।
बरामदा पूर्व और∕या उत्तर में होना चाहिए।
बरामदे की छत अन्य सामान्य छत से नीची होना चाहिए।
दक्षिण या पश्चिम में बरामदा नहीं होना चाहिए। अगर दक्षिण, पश्चिम में बरामदा आवश्यक हो तो उत्तर व पूर्व में उससे बड़ा, खुला व नीचा बरामदा होना चाहिए।
पोर्टिको की छत की ऊँचाई बरामदे की छत के बराबर या नीची होना चाहिए।
भवन के ऊपर की (ओवरहेड) पानी की टंकी मध्य पश्चिम या मध्यम पश्चिम से नैऋत्य के बीच कहीं भी होना चाहिए। मकान का नैऋत्य सबसे ऊँचा होना ही चाहिए।
घर का बाहर का छोटा मकान (आउट हाउस) आग्नेय या वायव्य कोण में बनाया जा सकता है परंतु वह उत्तरी या पूर्वी दीवाल को न छूये तथा उसकी ऊँचाई मुख्य भवन से नीची होना चाहिए।
कार की गैरेज भी आउट हाउस के समान हो परन्तु पोर्टिको ईशान में ही हो।
शौचकूप (सेप्टिक टैंक) केवल उत्तर मध्य या पूर्व मध्य में ही बनाना चाहिए।
पानी की भूतल से नीचे की टंकी ईशान कोण में होना चाहिए, परंतु ईशान से नैऋत्य को मिलाने वाले विकर्ण पर नहीं होना चाहिए। भूतल से ऊपर की टंकी ईशान में शुभ नहीं होती।
किसी भी भवन में रसोईघर का स्थान महत्वपूर्ण होता है..वास्तुसम्मत रसोईघर कैसा हो.??? ज्योतिषीय विश्लेषण से जानें—–
प्राचीनकाल में रसोईघर प्राय: घर के बाहर सुविधानुसार और वास्तु सम्मत स्थान पर होता थी। तब रसोईघर में इतने सुविधाजनक संसाधन भी नहीं होते थे, जो आधुनिक युग में रसोईघर में प्रयोग होते हैं। डाइनिंग हाल यानी भोजन कक्ष भी तब रसोईघर से जुडा हुआ नहीं होता था। ऎसा होने का प्रमुख कारण यह भी था कि भूखंड का आकार प्राचीनकाल में बहुत ही बडा होता था। लेकिन आधुनिक परिवेश में भूखंडों का आकार सीमित होने, फ्लैट सिस्टम और आधुनिक संसाधनों का प्रयोग बढने से रसोईघर के आकार में वृद्धि हो गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार रसोईघर और इसमें काम आने वाली वस्तुएं किस स्थान पर होना शुभ फलदायी हैं, इस जानें।
रसोईघर का महत्व :– रसोईघर सम्पन्नता का प्रतीक है। इसका मुख्य कारण यह है कि इसमें खाना पकाया जाता है। खाने से शक्ति और स्फूर्ति मिलती है। भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। कहावत भी है- “जैसा अन्न वैसा मन” इसीलिए रसोईघर भवन का एक महत्वपूर्ण अंग है।
किस दिशा में हो रसोईघर : रसोईघर भवन या फ्लैट के दक्षिण-पूर्व कोने में बनाएं। उतर-पूर्व में रसोईघर मानसिक परेशानियां बढाता है। इसके दक्षिण-पश्चिम में होने से जीवन कठिन हो सकता है। रसोईघर शयनकक्ष, पूजाघर या शौचालय के पास नहीं हो, इसका ध्यान रखें।
द्वार : रसोई का दरवाजा यदि उतर या उतर-पश्चिम में हो तो उतम रहता है। दरवाजा चूल्हे के सामने नहीं हो। इससे ची (ऊर्जा) स्वतंत्र रूप से अंदर प्रवेश नहीं कर पाती है। चूल्हा रखने का स्लैब पूर्व दिशा की ओर हो, ताकि खाना पकाने वाले का मुंह पूर्व दिशा की ओर रहे।
गैस चूल्हा : चूल्हा ऎसी जगह रखें जिससे बाहर से आने-जाने वाले पर नजर रखी जा सके। चूल्हा पूर्व की दीवार के पास रखें, ताकि हवा व रोशनी पर्याप्त मात्रा में मिल सके।
माइक्रोवेव ओवन : माइक्रोवेव ओवन में लगातार बिजली का प्रवाह होता रहता है। इसलिए इसे दक्षिण पूर्व में रखें। इसको दक्षिण-पश्चिम में भी रख सकते हैं। यह क्षेत्र शक्ति और संबंधों का भी प्रतीक है। संबंधों में सुधार की दृष्टि से यह हितकर है।
फ्रिज: फ्रिज पश्चिमी क्षेत्र में रखें। यहां पर यह सम्पन्नता व संबंध मजबूत बनाने में सहायक रहता है। शांति व व्यावहारिकता में भी वृद्धि होगी।
सिंक : रसोईघर में पानी तथा चूल्हा आवश्यक तत्व हैं। जहां आग का स्थान दक्षिण-पूर्व है, वहीं पानी का स्थान उतर-पूर्व है। पानी का उतम स्थान उतर दिशा ही है, जो जल तत्व को दर्शाती है। आग व पानी को अलग-अलग रखना आवश्यक है। इसे एक लाइन में नहीं रखें। यदि ऎसा संभव न हो, तो बीच में दो फीट की दीवार लगा दें।
एग्जॉस्ट फेन : रसोईघर की प्रदूषित वायु और धुएं को बाहर निकालने के लिए एग्जॉस्ट पंखा लगाते हैं। इसे पूर्व, उतर या पश्चिम दिशा में लगवाएं।
अन्य सामान : डाइनिंग टेबल उतर-पश्चिम या पश्चिम दिशा में रखें। रसोईघर में भारी सामान भी इसी दिशा में रखा जा सकता है। उतर या पूर्व दिशा को हल्का व साफ-सुथरा रखें।
यदि आप वास्तुविद के पास नहीं जाना चाहते हैं तो वास्तु नियमों का पालन अवश्य करें। वास्तु के मूल नियम इस प्रकार है।
१. भूखण्ड के आकार में आयताकार या वर्गाकार को ही महत्त्व देना चाहिए।
२. भूखण्ड क्रय करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आमने-सामने की भुजाएं बराबर हों।
३. भूखण्ड की चौड़ाई के दूगने से अधिक उसकी गहराई नहीं होनी चाहिए।
४. दिशाएं दस हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, पूर्व-उत्तर, उत्तर-पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम, दक्षिण-पूर्व। आकाश व पाताल। अब ध्यान रखने की बात यह है कि पूर्व, उत्तर, पूर्व-उत्तर दिशा नीची, खुली व हल्की होनी चाहिएं। इसकी अतिरिक्त अन्य दिशाओं की अपेक्षा ये दिशाएं आकाश मार्ग से भी खुली होनी चाहिएं। इसके विपरीत दक्षिण, पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम दिशाएं उंची, भारी व आकाश मार्ग से बन्द होनी चाहिएं।
५. दक्षिण, दक्षिण-पूर्व अग्नि का स्थान है। इसमें अग्नि की स्थापना होनी चाहिए।
६. पूर्व, उत्तर दिशा जल का स्थान होने के कारण इस दिशा में जल की स्थापना होनी चाहिए।
७. देवता के लिए पूर्व-उत्तर दिशा सर्वोत्तम है, उत्तर एवं पूर्व भी शुभ होती है। ईशान में भवन का देवता वास करता है, इसलिए इस स्थान पर पूजा या देवस्थल अवश्य बनाना चाहिए। इसे खुला और हल्का बनाना चाहिए। इसमें स्टोर या वजन रखने का स्थान कदापि नहीं बनाना चाहिए। इस स्थान को साफ रखना चाहिए। इस स्थान को प्रतिदिन साफ रखने से जीवन उन्नतिशील एवं सुख-समृद्धि से परिपूर्ण होता है।
८. पीने योग्य जल का भंडारण भी ईशान कोण में होना चाहिए। यह ध्यान रखें कि कभी भी आग्नेय कोण में जल का भंडारण न करें। गैस के स्लैब पर पानी का भंडारण तो कदापि न करें, वरना गृहक्लेश अधिक होगा। पारिवारिक सदस्यों में वैचारिक मतभेद होने लगेंगे। गृहक्लेश अधिक होता है तो किचन में चैक करें अवश्य जल और अग्नि एक साथ होंगे। अथवा ईशान कोण में वजन अधिक होगा या वह अधिक गंदा रहता होगा।
९. किचन दक्षिण या दक्षिण पूर्व में बनानी चाहिए। किचन में सिंक या हाथ धोने का स्थान ईशान कोण में होना चाहिए। रात्रि में किचन में झूठे बर्तन नहीं होने चाहिएं। यदि शेष रहते हैं तो एक टोकरे में भरकर किचन से बाहर आग्नेय कोण में रखने चाहिएं।
१०. गीजर या माइक्रोवेव ओवन आग्नेय कोण के निकट ही होने चाहिएं। इसी प्रकार मिक्सी, आटा चक्की, जूसर आदि भी आग्नेय कोण में दक्षिण दिशा की ओर रखने चाहिएं। यदि किचन में रेफ्रीजिरेटर भी रख रहे हैं तो उसे सदैव आग्नेय, दक्षिण या पश्चिम की ओर रखें। ईशान या नैर्ऋत्य कोण में कदापि नहीं रखना चाहिए। यदि रखेंगे तो परिवार में वैचारिक मतभेद अधिक रहेंगे और कोई किसी की सुनेगा नहीं।
११. जीना एवं टॉयलेट तो कदापि पूर्व या उत्तर या पूर्व-उत्तर में न बनाएं। जब आप उक्त दस मूल सूत्रों या नियमों को अपनाएंगे और इनके अनुरूप अपना भवन बनाएंगे तो आप निश्चित रूप से सुख संग जीवन जिएंगे और जीवन में भाग्य वृद्धि होने से समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी और जीवन बाधा रहित होगा। वास्तु सम्मत भवन सदैव धनहानि, रोग एवं कर्ज से ग्रस्त रखता है। इनसे मुक्त होना चाहते हैं तो वास्तु सम्मत भवन अवश्य बनाएं।
पं. दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार,
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) ..6023
मो0 नं0 — .