आइये जाने रोगों में ज्योतिष/हस्तरेखा और वास्तु की भूमिका —
रोग का कारण,ज्योतिष के नजरिये से—
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं। इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व ..वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं, आइए अब इसके बारे में जानते हैं-
1. मेष राशि :- इस राशि का स्वामी मंगल है। यह सिर या मस्तिष्क की कारक है और इसके कारक ग्रह मंगल और गुरू हैं। मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्चा के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अग्नि तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध प्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।
2. वृषभ राशि :- इस राशि का स्वामी शुक्र है। यह मुख की कारक राशि है व लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध और शनि होते हैं। शुक्र 27 अंश पर मीन में उच्चा के तथा कन्या राशि में नीच के होते हैं(परम उच्चांश व परम नीचांश)। शुक्र ग्रह कलात्मक गुणों से भरपूर, रसिक व आशिक मिजाज, रंग सफेद तथा भूमि व वायु से युक्त है। वृषभ राशि लग्न में स्थित हो, शुक्र या कारक ग्रह नीच के हो तो जातक हमेशा नियमों के खिलाफ चलने वाला होता है। ऎसे जातक को मुख संबंधी बीमारी छाले, तुतलाकर बोलना आदि की शिकायत रहती है तथा जातक की संतान को आजीवन बुरे स्वास्थ्य का सामना करना प़डता है।
.. मिथुन राशि :- मिथुन राशि का स्वामी बुध है। यह वक्ष, छाती, भुजाएं व श्वास नली की कारक है। लग्न मेे स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध व चन्द्रमा होते हैं। बुध के परम उच्चांश व परम नीचांश 15 होते हैं जो कन्या राशि में उच्चा के तथा मीन राशि में नीच के होते हैं। बुध ग्रह को नपुंसक, स्त्री तत्व युक्त, राजकुमार आदि की संज्ञा दी गई है। रंग हरा व इसमें पृथ्वी व वायु तत्व मौजूद है। इसकी वणिक वृत्ति रहती है। यदि बुध कुण्डली में नीच का हो या अन्य क्रूर ग्रहों से पीç़डत हो तो जातक फेफ़डों से संबंधित रोग जैसे टी.बी., श्वास नली में खराबी, वायु प्रकोप (गैस व अपच), जी घबराना, हाथ व माँस पेशियों पर विपरीत प्रभाव प़्ाडता है।
4. कर्क राशि :-कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा है। यह राशि ह्वदय की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह चन्द्रमा और मंगल होते हैं। 3 अंश पर वृषभ राशि में चन्द्रमा उच्च् के तथा वृश्चिक राशि में परम नीच के माने जाते हैं। चन्द्रमा सौम्य ग्रह है। जल तत्व, सफेद रंग, स्त्री प्रधान तथा ब्राrाण व वैश्य के गुण इनमें मौजूद हैं। यदि कुण्डली के लग्न में र्क राशि हो व चन्द्रमा नीच के या पीड़ित हो तो जातक की त्वचा व पाचन संस्थान पर विपरीत प्रभाव रहता है एवं जातक में आत्म विश्वास की कमी रहती है। मानसिक अवसाद, कुण्ठा व जातक कमजोर दिल का होता है। ऎसे जातक की संतान भी नीच विचारों की होती है।
5. सिंह राशि :-सिंह राशि का स्वामी सूर्य है जो नक्षत्र-मण्डल का स्वामी है। यह राशि गर्भ व पेट की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य और मंगल होते हैं। 1. अंश पर मेष राशि में ये परम उच्च के तथा तुला राशि में परम नीच के होते हैं। सूर्य उग्र स्वभाव के, अगिA तत्व तथा इनका रंग हल्का लाल व पीला है। यदि कुण्डली के लग्न में सिंह राशि है तथा यह या सूर्य नीच के हो या अन्यथा किसी प्रकार पीड़ित हो तो शरीर में रक्त संचार एवं जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। जातक को ह्वदयाघात, हडि्डयों की बीमारी व नेत्र रोगों से ग्रसित हो सकता है। ऎसा जातक अपने लक्ष्यों से भटक जाता है तथा नीच कर्मरत रहता है।
6. कन्या राशि :- न्या राशि के स्वामी बुध है तथा यह पेट व कमर के कारक हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह बुध तथा शुक्र होते हैं। नीच का या अन्यथा बुध पीड़ित होने पर पेट, पाचन क्रियाएं, यकृत संबंधित रोग व शुक्र के प्रभाव या संयोग के कारण गुप्त रोगों का व किडनी, गुदा से संबंधित रोग जातक को प्रदान करता है।
7. तुला राशि :-तुला राशि के स्वामी शुक्र हैं तथा यह राशि मृत्राशय की कारक है। लग्न में यह राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, शनि व बुध होते हैं एवं स्वामी के किसी भी प्रकार से पीड़ित होने पर या नीच का होने पर यह जातक को जननांग व मूत्राशय संबंधित रोगों से पीç़डत रखता है। महिलाओं के मासिक धर्म व गर्भ धारण संबंधी क्रिया भी इसी के कारण प्रभावित होती है।
8. वृश्चिक राशि :-वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल हैं। यह राशि गुप्तांगों (लिंग व गुदा) की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह मंगल, गुरू व चंद्रमा होते हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर व राशि स्वामी के पीड़ित होने पर या नीच में स्थित होने पर या मंगल बद होने पर गुदा, लिंग, जननांग, यकृत, मस्तिष्क संबंधी व आंतों की बीमारियों से जातक को ग्रसित करती हैं।
9. धनु राशि :-धनु राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। यह राशि जांघों व नितम्ब की कारक है। गुरू पुरूष प्रधान, शांत व मौन प्रकृति के, रंग पीला तथा इनमें जल व अग्नि दोनों तत्व मौजूद है। लग्न में स्थित होने पर इस राशि के कारक ग्रह गुरू व चन्द्रमा होते हैं। 5 अंश पर कर्क में परमोच्चा व मकर राशि में परम नीच के होते हैं। नीचस्थ व पीç़डत गुरू जातक को लीवर, ह्वदय, आंत, जंघा, कूल्हे व बवासीर रोगों से ग्रसित रखते हैं।
10. मकर राशि :-मकर राशि के स्वामी शनि है। यह राशि घुटनों की कारक है। शनि क्रूर ग्रह है। इसका रंग काला तथा इसमें वायु व पृथ्वी तत्व मौजूद है। शनि 20 अंश पर तुला राशि में परमोच्चा व मेष राशि में परम नीच के होते हैं। लग्न में मकर राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शनि, शुक्र व बुध होते हैं। शनि नीचस्थ या पीड़ित होने पर जातक को घुटनों, जांघ, कफ व पाचन तंत्र संबंधी बीमारियों से ग्रसित रखता है। इसके अलावा पुरानी बीमारी यदि कोई है तो उस पर भी इसी राशि का प्रभाव रहता है।
11. कुम्भ राशि :-कुम्भ राशि के स्वामी भी शनि है। यह राशि पिण्डलियों की कारक है। कुम्भ राशि लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह गुरू, शुक्र व शनि होते हैं। शनि के पीड़ित या नीचस्थ होने पर व इस राशि के पीड़ित होने पर जातक पिण्डलियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया व कई प्रकार की अन्य बीमारियों से ग्रसित रहता है क्योंकि ऎसा जातक खराब आदतों वाला व किसी भी प्रकार के नशे का आदि होता है जिसके परिणामस्वरूप वह कई प्रकार की व्याधियां पाल लेता है।
12. मीन :- मीन राशि का स्वामी देवगुरू बृहस्पति होते हैं। यह राशि पैर के पंजों की कारक है। लग्न में मीन राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य, मंगल व गुरू होते हैं। राशि स्वामी के पीç़डत या नीचस्थ होने पर जातक लीवर, पंजों, तंत्रिका से संबंधी बीमारी व घुटनों संबंधी परेशानी जातक को रहती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कुण्डली में रोगों का अध्ययन करते समय उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व ग्रहों की युति, प्रकृति, दृष्टि, उनका परमोच्चा या परम नीच की स्थिति का गहन अध्ययन कर ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए।
हस्त रेखाओं द्वारा रोग की पहचान और उपाय—–
समस्त रोगों का मूल पेट है। जब तक पेट नियंत्रण में रहता है, स्वास्थ्य ठीक रहता है। ज्योतिषीय दृष्टि से हस्तरेखाओं के माध्यम से भी पेटजनित रोग और पेट की शिकायतों के बारे में जाना जा सकता है। हथेली पर हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा और नाखूनों के अध्ययन के साथ ही मंगल और राहू किस स्थिति में हैं, यह देखना बहुत जरूरी है।
जिन व्यक्तियों का मंगल अच्छा नहीं होता है, उनमें क्रोध और आवेश की अधिकता रहती है। ऐसे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर भी उबल पड़ते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा समझाने का प्रयास भी ऐसे व्यक्तियों के क्रोध के आगे बेकार हो जाता है। क्रोध और आवेश के कारण ऐसे लोगों का खून एकदम गर्म हो जाता है। लहू की गति (रक्तचाप) के अनुसार क्रोध का प्रभाव भी घटता-बढ़ता रहता है। राहू के कारण जातक अपने आर्थिक वादे पूर्ण नहीं कर पाता है। इस कारण भी वह तनाव और मानसिक संत्रास का शिकार हो जाता है।
हथेली पर हृदय रेखा टूट रही हो या फिर चेननुमा हो, नाखूनों पर खड़ी रेखाएँ बन गई हों तो ऐसे व्यक्ति को हृदय संबंधी शिकायतें, रक्त शोधन में अथवा रक्त संचार में व्यवधान पैदा होता है। यदि जातक का चंद्र कमजोर हो तो उसे शीतकारी पदार्थ जैसे दही, मट्ठा, छाछ, मिठाई और शीतल पेयों से दूर रहना चाहिए।
इसी तरह मंगल अच्छा न हो तो मिर्च-मसाले वाली खुराक नहीं लेनी चाहिए। तली हुई चीजें जैसे सेंव, चिवड़ा, पापड़, भजिए, पराठे इत्यादि से भी परहेज रखना चाहिए। ऐसे जातक को चाहिए कि वह सुबह-शाम दूध पीएँ, देर रात्रि तक जागरण न करें और सुबह-शाम के भोजन का समय निर्धारित कर ले। सुबह-शाम केले का सेवन भी लाभप्रद होता है।
पेट की खराबी से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है और फिर इसी वजह से रक्तविकार पैदा होते हैं, जो आगे चलकर कैंसर का रूप तक अख्तियार कर सकते हैं। यह मत विश्व प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री डॉ. आउंट लुईस का है। जिस व्यक्ति के हाथ का आकार व्यावहारिक हो और साथ ही व्यावहारिक चिह्नों वाला हो तो ऐसा जातक अपने जीवन में काफी नियमित रहता है।
ऐसा जातक वृद्धावस्था में भी स्वस्थ रहता है। इसी तरह विशिष्ट बनावट के हाथ या कोणीय आकार के हाथ, जिसमें चंद्र और मंगल पर शुक्र का अधिपत्य हो तो ऐसे लोग स्वादिष्ट भोजन के शौकीन होते हैं। शुक्र प्रधान होने के कारण भोजन का समय नियमित नहीं रहता है। ऐसे में उदर विकार स्वाभाविक ही है। इस पर यदि हृदय रेखा मस्तिष्क रेखा और मंगल-राहू अच्छे न हों तो रक्तजनित रोगों की आशंका बढ़ जाती है।
हस्तरेखा देखकर कैंसर की पूर्व चेतावनी दी जा सकती है और इस जानलेवा बीमारी के संकेत चिन्ह हथेली पर देखे जा सकते हैं। मस्तिष्क रेखा पर द्वीप समूह या पूरी मस्तिष्क रेखा पर बारीक-बारीक लाइनें हो तो ऐसे जातक को कैंसर की पूरी आशंका रहती है। ऐसी स्थिति में यदि मेडिकल टेस्ट करा लिया जाए और उसमें कोई लक्षण न मिलें, तब भी जातक की जीवनशैली में आवश्यक फेरबदल कर उसे भविष्य में कैंसर के आक्रमण से बचाया जा सकता है।
वास्तु दोष और रोग( कारण एवं उपाय/निवारण)—
वास्तुशास्त्र—अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर में स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमें निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
यहाँ हम अपने पाठकों को जानकारी दे रहे हैं कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन न करने से पारिवारिक सदस्यों को किस तरह से नाना प्रकार के रोगों का सामना करना पड सकता है.
पूर्व दिशा में दोष:-
* यदि भवन में पूर्व दिशा का स्थान ऊँचा हो, तो व्यक्ति का सारा जीवन आर्थिक अभावों, परेशानियों में ही व्यतीत होता रहेगा और उसकी सन्तान अस्वस्थ, कमजोर स्मरणशक्ति वाली, पढाई-लिखाई में जी चुराने तथा पेट और यकृत के रोगों से पीडित रहेगी.
* यदि पूर्व दिशा में रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढलान पश्चिम दिशा की ओर हो, तो परिवार के मुखिया को आँखों की बीमारी, स्नायु अथवा ह्रदय रोग की स्मस्या का सामना करना पडता है.
* घर के पूर्वी भाग में कूडा-कर्कट, गन्दगी एवं पत्थर, मिट्टी इत्यादि के ढेर हों, तो गृहस्वामिनी में गर्भहानि का सामना करना पडता है.
* भवन के पश्चिम में नीचा या रिक्त स्थान हो, तो गृहस्वामी यकृत, गले, गाल ब्लैडर इत्यादि किसी बीमारी से परिवार को मंझधार में ही छोडकर अल्पावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
* यदि पूर्व की दिवार पश्चिम दिशा की दिवार से अधिक ऊँची हो, तो संतान हानि का सामना करना पडता है.
* अगर पूर्व दिशा में शौचालय का निर्माण किया जाए, तो घर की बहू-बेटियाँ अवश्य अस्वस्थ रहेंगीं.
बचाव के उपाय:-
* पूर्व दिशा में पानी, पानी की टंकी, नल, हैंडापम्प इत्यादि लगवाना शुभ रहेगा.
* पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है, जो कि कालपुरूष के मुख का प्रतीक है. इसके लिए पूर्वी दिवार पर ‘सूर्य यन्त्र’ स्थापित करें और छत पर इस दिशा में लाल रंग का ध्वज(झंडा) लगायें.
* पूर्वी भाग को नीचा और साफ-सुथरा खाली रखने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगें. धन और वंश की वृद्धि होगी तथा समाज में मान-प्रतिष्ठा बढेगी.
पश्चिम दिशा में दोष:-
पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.
* यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार में फेफडे, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पडता है.
* यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.
* यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पडेगा.
* यदि भवन का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर हो, तो अकारण व्यर्थ में धन का अपव्यय होता रहेगा.
* यदि पश्चिम दिशा की दिवार में दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग में अवश्य कोई बीमारी होगी.
* यदि पश्चिम दिशा में रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोडे-फिन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.
बचाव के उपाय:-
* ऎसी स्थिति में पश्चिमी दिवार पर ‘वरूण यन्त्र’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों में काले चने वितरित करे.
* पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा में ढाल न रखें.
* पश्चिम दिशा में अशोक का एक वृक्ष लगायें.
उत्तर दिशा में दोष-
उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है और भारतीय वास्तुशास्त्र में इस दिशा को कालपुरूष का ह्रदय स्थल माना जाता है. जन्मकुंडली का चतुर्थ सुख भाव इसका कारक स्थान है.
* यदि उत्तर दिशा ऊँची हो और उसमें चबूतरे बने हों, तो घर में गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियाँ, थकावट, आलस, घुटने इत्यादि की बीमारियाँ बनी रहेंगीं.
* यदि उत्तर दिशा अधिक उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियों को रूग्णता का शिकार होना पडता है.
बचाव के उपाय :-
यदि उत्तर दिशा की ओर बरामदे की ढाल रखी जाये, तो पारिवारिक सदस्यों विशेषतय: स्त्रियों का स्वास्थय उत्तम रहेगा. रोग-बीमारी पर अनावश्यक व्यय से बचे रहेंगें और उस परिवार में किसी को भी अकाल मृत्यु का सामना नहीं करना पडेगा.
* इस दिशा में दोष होने पर घर के पूजास्थल में ‘बुध यन्त्र’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया 21 बुधवार लगातार उपवास रखे.
* भवन के प्रवेशद्वार पर संगीतमय घंटियाँ लगायें.
* उत्तर दिशा की दिवार पर हल्का हरा(Parrot Green) रंग करवायें.
दक्षिण दिशा में दोष:-
दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष के बायें सीने, फेफडे और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है.
* यदि घर की दक्षिण दिशा में कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को ह्रदय रोग, जोडों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राल बढ जाना अथवा हाजमे की खराबीजन्य विभिन्न प्रकार के रोगों का सामना करना पडता है.
* दक्षिण दिशा में उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रैशर, मूर्च्छाजन्य रोगों से पीडा का कष्ट भोगना पडता है.
* यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, ओर उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगें. उन्हे उच्चरक्तचाप, पाचनक्रिया की गडबडी, खून की कमी, अचानक मृत्यु अथवा दुर्घटना का शिकार होना पडेगा. दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोडी जगह खाली छोडकर ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए.
* यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो ओर प्रवेश द्वार नैऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऎसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है.
बचाव के उपाय:-
* यदि दक्षिणी भाग ऊँचा हो, तो घर-परिवार के सभी सदस्य पूर्णत: स्वस्थ एवं संपन्नता प्राप्त करेंगें. इस दिशा में किसी प्रकार का वास्तुजन्य दोष होने की स्थिति में छत पर लाल रक्तिम रंग का एक ध्वज अवश्य लगायें.
* घर के पूजनस्थल में ‘श्री हनुमंतयन्त्र’ स्थापित करें.
* दक्षिणमुखी द्वार पर एक ताम्र धातु का ‘मंगलयन्त्र’ लगायें.
* प्रवेशद्वार के अन्दर-बाहर दोनों तरफ दक्षिणावर्ती सूँड वाले गणपति जी की लघु प्रतिमा लगायें.