ज्योतिष और रोग–by पं.डी.के.शर्मा”वत्स”—
मनुष्य का जन्म ग्रहों की शक्ति के मिश्रण से होता है. यदि यह मिश्रण उचित मात्रा में न हो अर्थात किसी तत्व की न्यूनाधिकता हो तो ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है. शरीर के समस्त अव्यवों,क्रियाकलापों का संचालन करने वाले सूर्यादि यही नवग्रह हैं तो जब भी शरीर में किसी ग्रह प्रदत तत्व की कमी या अधिकता हो, तो व्यक्ति को किसी रोग-व्याधि का सामना करना पडता है. यूँ तो स्वस्थता,अस्वस्थता एक स्वाभाविक विषय है. परन्तु यदि किसी प्रकार का कोई भयानक रोग उत्पन हो जाए तो वह उस रोगग्रस्त प्राणी के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त कुटुम्बीजनों के लिए दु:खदायी हो जाता है.
ज्योतिष सिद्धान्तानुसार प्रत्येक ग्रह प्राणी की संरचना के लिए निम्नलिखित तत्व प्रदान करता है:—
सूर्य:-आत्मा,प्रकाश,शक्ति,उत्साह,तीक्ष्णता,ह्रदय,जीवनीशक्ति,मस्तिष्क,पित्त एवं पीठ
चन्द्र:- जल,नाडियाँ,प्रभाव-विचार,चित्त,गति,स्तन,रूप,छाती,तिल्ली
मंगल:- रक्त,उत्तेजना,बाजू,क्रूरता,साहस,कान
बुध:- वाणी,स्मरण-शक्ति,घ्राण-शक्ति,गर्दन,निर्णायक-मति,भौहें
गुरू:-ज्ञान,गुण,श्रुति,श्रवण-शक्ति,सदगति,जिगर,दया,जाँघ,चर्बी तथा गुर्दे
शुक्र:- वीर्य,सुगन्ध,रति,त्वचा,गुप्ताँग,गाल
शनि:- वायु,पिंडली,टांगें,केश,दाँत
राहू:- परिश्रम,विरूद्धता,आन्दोलन/विद्रोही भावनाएं,शारीरिक मलिनता,गन्दा वातावरण
केतु:- गुप्त विद्या-ज्ञान,मूर्छा,भ्रम,भयानक रोग,सहनशक्ति,आलस्य
यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते. यह स्थिति तब भी उत्पन हो सकती है,जब अपनी निश्चित मात्रा के अनुसार कोई ग्रह प्राणी पर प्रभाव न डाल पाए. उदाहरण के लिए—-सूर्य के साथ( विशेष अंशो में) कोई ग्रह स्थित हो तो वो ग्रह अपना प्रभाव नियमानुसार नहीं दे पाएगा. अब ग्रह जिस शक्ति का स्वामी है,वह शक्ति जब निश्चित मात्रा में जब प्राणी को नहीं मिल पाती तो ऎसे में विभिन्न जटिल स्थिति पैदा होना तय है. शुक्र सौन्दर्यानुभूति प्रदायक ग्रह है. यदि शुक्र सूर्य के प्रकाश में अस्त हो जाए तो वह व्यक्ति की सौन्दर्यशीलता में कमी करेगा ही. ऎसे ही,यदि मंगल सूर्य के प्रभाव क्षेत्र में हो तो व्यक्ति को रक्ताल्पता जैसी शारीरिक व्याधि का सामना करना पड जाता है. कहने का तात्पर्य ये है कि जो भी ग्रह सूर्य के प्रभाव में आकर निस्तेज होगा,शरीर में उस ग्रह से सम्बंधित तत्वों में न्यूनता रहेगी.
शारीरिक असुविधाएं तथा रोग—–by पं.डी.के.शर्मा”वत्स”—-
आज हम लोगों नें स्वास्थय की समस्या को बिल्कुल टेढी खीर बना डाला है, स्वाभाविकता और सादगी तो जैसे बिल्कुल ही दूर भाग चुकी है. हम प्रकृ्ति के नियमों को न तो समझते हैं और न ही समझ कर उन्हे मानते हैं. बस हम अपनी जिम्मेदारी कभी मौसम पर, कभी जलवायु पर, कभी चिकित्सकों पर तो कभी दवाओं पर—और सब से अधिक जीवाणुओं/विषाणुओं पर डाल देते हैं.
प्रकृ्ति के नियमों के अनुरूप जीवन व्यतीत कर स्वस्थ रहना आसान है. स्वास्थय मानव शरीर की स्वाभाविक अवस्था है. मनुश्य, जैसा कि वह देखने में मालूम होता है, वैसा नहीं है. उससे कहीं ऊँचा है. वह पृ्थ्वी पर रोगी बने रहने के लिए नहीं आया है. वह स्वर्गीय है, ईश्वरीय है,दिव्य है. यदि वह अपने वास्तविक बडप्पन को समझे और उसी के अनुरूप जीवन व्यतीत करे तो वह कभी भी रोग ग्रस्त न हो. ऎसे ही जीने को जीना कहा जाता है और वैसा जीना, जिसमें हर रोज कोई न कोई रोग पीछे लगा है,मरने से भी बुरा है.
आज बनावटी सभ्यता के इस युग में प्रकृ्ति के ये नियम कहीं खो से गए हैं और किसी को समझाओ तो भी जल्दी से किसी को समझ में भी नहीं आते, या कहें कि कोई समझना ही नहीं चाहता. अगर कोई समझाने का प्रयास भी करता है तो सुनने वाले ताज्जुब करने और हँसने लगते हैं.
रोगों का कारण:-
सृ्ष्टि के प्रत्येक क्रियाकलाप की भान्ती ही रोगों के बारे में भी कार्य-कारण का सिद्धान्त काम करता है. जब रोग के सही कारण का पता चले तो ही हम उन कारणों को दूरकर रोग को जड-मूल से भगा सकते हैं. और यदि सच्चे कारण को न जाना, केवल इधर-उधर की या ऊपरी बातों को ही जानकर संतुष्ट हो गए, तो, एक के बाद एक दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा रोग बना रहेगा. और जैसा कि अब है, मैडीकल साईंस की इतनी उन्नति और गली गली में डाक्टरों की मौजूदगी के बावजूद दुनिया बीमारियों की खान बनी हुई है,और रहेगी भी.
सच पूछिए, तो सारे रोगों का एक ही कारण है—-शरीर में विकार का आ जाना. मनुष्य शरीर प्रकृ्ति के नियमों के अनुसार अपने को बराबर ही साफ सुथरा और स्वस्थ रखना चाहता है. हर रोज हम देखते हैं कि शरीर के अन्दर यह क्रिया बराबर ही जारी रहती है, जिससे भीतर की गन्दगी शरीर से बाहर निकाल दी जाती है. गन्दगी दूर होने के चार ढंग या रास्ते हैं—–फेफडे से सारे शरीर की एक खास तरह की गन्दगी लेकर सांस का बाहर आना, त्वचा से पसीने के रूप में गन्दगी का बाहर निकलना, शौच और मूत्र के रूप में गन्दगी का निष्काषन. यदि इन साधारण विधियों से शरीर के अन्दर का विकार नहीं निकल पाता तो शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग काम में लाए जाते हैं. इस हालत में शरीर की शक्तियाँ तेजी के साथ दूसरे ढंगों से सफाई का काम शुरू कर देती हैं. या तो शरीर के अन्दर की गर्मी ज्वर के रूप में बढकर भीतर की गन्दगी को जला देती है या कुछ दस्त ज्यादा आते हैं या ऎसी ही कोई असाधारण बात होती है, जिससे शरीर के अन्दर की सफाई हो जाती हैं. याद रहे, शरीर की रक्षा के लिए विकारों का बाहर निकल जाना आवश्यक है. इसी से जब जब भी शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग से सफाई अभियान चलाया जाता है—–तभी कहा जाता है कि रोग हुआ. वैसे तो रोग का नाम ही बुरा है, लेकिन इस तरह गहराई में जाकर देखने से पता चलता है कि शरीर की गन्दगी को बाहर निकाल फैंकनें के लिए, विकारों को जला देने के लिए, प्रकृ्ति की ओर से अपनाया गया ये साधारण ढंग अपने आप में एक जबरदस्त साधन हैं.
अब जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वो ये कि शरीर द्वारा भीतरी अशुद्धियों के निष्काषण के परिणाम स्वरूप उत्पन हुई जिन स्थितियों को हम रोग कहकर पुकारते है, दरअसल ये रोग नहीं होते—ये होती हैं असुविधाएं. रोग तो वह है जो मनुष्य के किसी अंग का कार्य-संचालन रोक देता है. एक दुबला-पतला आदमी अपना कार्य करने में कुशल है. यदि उसके समस्त अंग ठीक हैं तो वह स्वस्थ है और अगर एक हष्ट-पुष्ट मनुष्य अपने अंगों का प्रयोग ठीक से नहीं कर पाता तो वह रोगी माना जाएगा.
ब्राह्मंड की भान्ती ही मानवी शरीर भी जल,पृ्थ्वी,अग्नि,वायु एवं आकाश नामक इन पंचतत्वों से ही निर्मित है और ये पँचोंतत्व मूलत: ग्रहों से ही नियन्त्रित रहते हैं. आकाशीय नक्षत्रों(तारों, ग्रहों) का विकिरणीय प्रभाव ही मानव शरीर के पंचतत्वों को उर्जस्वित करता है. इस उर्जाशक्ति का असंतुलन होने पर अर्थात जब भी कभी इन पंचतत्वों में वृ्द्धि या कमी होती है या किसी तरह का कोई “कार्मिक दोष” उत्पन होता है,तब उन तत्वों में आया परिवर्तन एक प्रतिक्रिया को जन्म देता है. यही प्रतिक्रिया रोग के रूप में मानव को पीडित करती है. एक रोग वह है,जिससे शरीर का कोई अंग सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाता. इसका समाधान करने के लिए भी कईं विज्ञान हैं,सैकडों प्रकार की औषधियाँ हैं,जिनके माध्यम से रोग मुक्त हुआ जा सकता है. परन्तु कईं ऎसे रोग भी हैं,जिनका सम्बंध आत्मा से होता है (यह विषय अत्यधिक विस्तार माँगता है, सो इसे कभी अलग से किसी पोस्ट के जरिए स्पष्ट करने का प्रयास रहेगा). उनका समाधान दवाओं तथा डाक्टरों,हस्पतालों के जरिए नहीं हो सकता. उसके लिए तो सिर्फ अपने कर्मों की शुद्धता तथा आध्यात्मिकता ही एकमात्र उपाय है.
हमारे इस शरीर की स्थिति के लिए जन्मकुंडली का लग्न(देह) भाव, पंचमेश और चतुर्थेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. लग्न भाव देह को दर्शाता है,चतुर्थेश मन की स्थिति और पंचमेश आत्मा को. जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह),चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है,वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है.
रोगों से बचाव और मुक्ति का रामबाण हल:–
वर्तमान युग को यदि “लोहयुग” कहा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी. अन्य सभी धातुओं को कहीं पीछे छोड आज लोहा हमारे समूचे जीवन में कितना अधिक समा चुका है. जीवन के हर क्षेत्र में बस इसी धातु की घुसपैठ दिखाई पडती है ——दरअसल बीमारीयों/रोगों का मूल कारण भी यही है. हम भोजन इत्यादि के लिए जिन पात्रों(बर्तनों) का प्रयोग करते हैं, उस धातु का कितना अधिक प्रभाव हमारे शरीर पर पडता है, ये शायद हम लोग नहीं जानते. ज्योतिष की बात की जाए तो इसमें लोहा/स्टील शनि ग्रह की धातु मानी जाती है. जिसका प्रभाव मुख्य रूप से मानव शरीर के वात-संस्थान पर पडता है. लोहे का अधिक मात्रा में किया गया उपयोग शरीरगत अग्नितत्व(सूर्य, मंगल प्रभाव) एवं आकाशतत्व( बृ्हस्पति प्रभाव) को दूषित कर मानवी शरीर को रोगों का विश्राम गृ्ह बना देता है.
अग्नितत्व दूषित होने से रक्त और पितजन्य विकार, मसलन रक्त विकार, शिरोरोग, ह्रदयघात, पीडा, चक्कर, नेत्रकष्ट, स्मृ्तिनाश, मृ्गी, विक्षिप्तता, भ्रम, आन्त्रशोथ, मंदाग्नि, अतिसार और अजीर्ण तथा आकाशतत्व के दूषित होने से शोथ, गुल्म, ब्रण, चर्मदोष आदि इन प्रक्रियात्मक(Functional) रोगों में से किसी न किसी एक अथवा एक से अधिक व्याधि से आज के युग में अधिकतर व्यक्ति पीडित है.
आईये जानते हैं कि आप अपनी जन्मकुंडली के अनुसार कैसे निज शरीर का विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव और उनसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं:—
.. मेष, सिँह, वृ्श्चिक लग्न के व्यक्ति यदि भोजन के लिए ताँबे के बर्तनों का प्रयोग करें तो जहाँ एक ओर ये उनके पित्त को निर्दोष रख, गुर्दे का रोग, ह्रदय दौर्बल्य, मेद रोग, रक्त व्याधि, यक्ष्मा, अर्श-भगंदर इत्यादि किसी प्रकार के पुराने चले आ रहे रोग के लिए रामबाण औषधी का काम करेगा, वहीं इसके नियमित प्रयोग से नया रोग भी उनके नजदीक फटकने से पहले सौ बार सोचेगा.
.. मिथुन,कन्या, धनु और मीन लग्न के व्यक्तियों द्वारा लोह(स्टील) पात्रों का अधिक मात्रा में प्रयोग विस्मृ्ति(यादद्दाश्त में कमी), अनिन्द्रा, गठिया, जोडों का दर्द, मानसिक तनाव, अमलता, आन्त्रदोष इत्यादि किसी रोग का कारण बनता है. इनके लिए भोजन में काँसे के बर्तनों को प्रयुक्त करना शारीरिक रूप से सदैव हितकारी रहेगा.
.. वृ्ष, कर्क, तुला लग्न के व्यक्तियों को सदैव भोजन के लिए चाँदी और पीतल(मिश्र धातु) दोनों प्रकार के बर्तनों का संयुक्त रूप से प्रयोग करना चाहिए. लोह पात्रों का अधिकाधिक उपयोग इनके लिए नेत्र पीडा, स्वाद ग्रन्थियाँ, कफजन्य रोग, असन्तुलित रक्त प्रवाह, कर्णनाद, शिरोव्यथा, श्वासरोग इत्यादि किसी रोग-व्याधी का कारण बनता है.
4. मकर लग्न के व्यक्ति के लिए अन्य किसी भी धातु के सहित प्रतिदिन लकडी के पात्र का प्रयोग करना भी इन्हे वायु दोष, चर्म रोग, विचार शक्ति की उर्वरता में कमी, एवं तिल्ली के विकारों से मुक्ति में सहायक और भविष्य में उनसे बचाव हेतु रामबाण इलाज है.
5. कुम्भ लग्न के व्यक्ति के लिए तो लोहा(स्टील) ही सर्वोतम धातु है. इसके साथ ही इस लग्न के व्यक्तियों को यदाकदा मिट्टी के पात्र में “केवडा मिश्रित जल” का भी सेवन करते रहना चाहिए.