–*धर्मशास्त्रों का सारभूत सन्देश**–**दान**–पवन तलहन
जो विशिष्ट सत्पात्रों को दान देता है और जो कुछ अपने भोजन-आच्छादान में प्रतिदिन व्यवहत करता है, उसी को मैं उस व्यक्ति का वास्तविक धन या सम्पत्ति मानता हूँ, अन्यथा शेष सम्पत्ति तो किसी अन्य की है, जिसकी वह केवल रखवालीमात्र करता है!
दान में जो कुछ देता है और जितने मात्र का वह स्वयं उपभोग करता है, उतना ही उस धनी व्यक्ति का अपना धन है! अन्यथा मर जाने पर उस व्यक्ति के स्त्री, धन आदि वस्तुओं से दूसरे लोग आनंद मनाते हैं अर्थात मौज उड़ाते हैं! तात्पर्य यह है कि सावधामीपूर्वक अपनी धन-सम्पत्ति को दान आदि सत्कर्मों में व्यय करना चाहिये! जब आयु एक दिन अंत निश्चत है तो फिर धन को बढ़ा कर उसे रखने की इच्छा करना मूर्खता ही है, नश्वर है, इसलिये धर्म की वृद्धि करनी चाहिये, धन की नहीं! धन के द्वारा दान आदि कर धर्म की वृद्धि का उपक्रम करना चाहिये, निरंतर धन बढाने से कोई लाभ नहीं! धर्म बढेगा तो धन अपने-आप आने लगेगा! [ धर्मादर्थो भावेद्ध्रुवं] ‘शरीर के सभी शरीर नश्वर हैं और धन भी सदा साथ रहने वाला नहीं है, साथ ही मृत्यु भी निकट ही सिरपर बैठी है’–ऐसा समझ कर प्रतिक्षण धर्म का संग्रह –धर्माचरण ही करना चाहिये; क्योंकि कालका क्या ठीक कब आ जाये, अत: अपने धन एवं समय का सदा सदुपयोग ही करना चाहिये! जो धन धर्म, सुखभोग या यश–किसी काम में नहीं आता और जिसे छोड़कर एक दिन यहाँ से अवश्य ही चले जाना है, उस धन का दान आदि धर्मों में उपयोग क्यों नहीं किया जाता? जिस व्यक्ति के जीने से ब्राह्मण, साधू, संत, मित्र, बन्धु-बांधव आदि सभी जीते हैं–जीवन धारण करते है हैं, उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक है–सफल है, क्योंकि अपने लिये कौन नहीं जीता? पशु-पक्षी आदी क्षुद्र प्राणी भी जीवित रहते हैं, अत: स्वार्थी न बन कर परोपकारी बनाना चाहिये!कीड़े-मकोड़े भी एक-दूसरे का भक्षण करते हुए क्या जीवन नहीं धारण करते? पर यह जीवन प्रशंसनीय नहीं है! परलोक ले लिये दान-धर्मपूर्वक जिया गया जो जीवन है, वही सच्चा जीवन है! कावल अपने पेटको भरकर पशु भी किसी प्रकार अपना जीवन धारण करते ही हैं! पुष्ट होकर तथा बाली होकर भी लम्बे समय तक जीता है, धर्म नहीं करता ऐसे निरर्थक जीवन से क्या लेना-देना! वह तो पशु के समान ही जीना है! अपने भोजन के ग्रास में से भी आधा या चतुर्थ भाग आवश्यकता वालों या माँगने वालों को कुओं नहोएँ दे दिया जाता, कुओंकी इच्छानुसार धन तो कब किसको प्राप्त होनेवाला है, अर्थात अबतक तो किसी को प्राप्त नहीं हुआ है और न आगे किसी के पास होगा! यह नहीं सोचना चाहिये कि इतना धन और आ जायगा तो फिर मैं दान-पुन्य करूंगा! अत: जितना भी प्राप्त हो, उसी में संतोष कर उसीमें से दान इत्यादि सब धर्मों का अभ्यास करना चाहिये! शूरवीर व्यक्ति तो सौ में से खोजने पर एक प्राप्त हो जाता है, हजार में ढूँढ़ने पर एक विद्वान् व्यक्ति भी मिल जाता है जो वास्तव में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है, युद्ध में विजय प्राप्त करने वाला असली शूरवीर नहीं है! मात्र शास्त्रों का अध्यन करने वाला ज्ञाणी नहीं है, बल्कि तदनुकूल धर्माचरण करनेवाला ही सच्चा ज्ञाणी है! [व्.स.]