वास्तु विचार—-
घर बनाना हो तो पहले गन्ध वर्ण रस तथा आकृति के द्वारा क्षेत्र यानी भूमि की परीक्षा कर लेनी चाहिये। यदि उस स्थान में मिट्टी मधु शहद के समान गन्ध हो तो ब्राहमणों के लिये फ़ूल जैसी गन्ध हो तो क्षत्रियों के लिये खटाई जैसी गन्ध हो तो वैश्यों के लिये और मांस जैसी गन्ध हो तो वह स्थान शूद्र जाति के लिये मान्य होता है। वहां की मिट्टी का रंग सफ़ेद हो तो ब्राहमणों के लिये,लाल हो तो क्षत्रियों के लिये और पीली हो तो वैश्य के लिये और काली हो तो शूद्र के निवास के लिये उपयुक्त मानी जाती है,यदि वहां की मिट्टी का स्वाद मीठा हो तो ब्राहमणो के लिये और कडुआ यानी मिर्च की भांति चरपरी लगे तो क्षत्रियों के लिये,खटीली हो तो वैश्यों के लिये और कसैला स्वाद हो तो शूद्रों के लिये ठीक मानी गयी है। ईशान पूर्व और उत्तर दिशा सबके लिये अत्यन्त वृद्धि देने वाली मानी गयी है। अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिये हानिकारक होती है।
गृहभूमि परीक्षा—
जहां घर बनाना हो,वहां अरन्त्रि यानी कोहनी से कनिष्ठा उंगली तक के बराबर लम्बाई चौडाई और गहराई के करके कुन्ड बना लें,फ़िर उस कुन्ड में खोदी हुई मिट्टी को भरना चाहिये,मिट्टी को भरने के बाद अगर मिट्टी बचती है,तो उस स्थान में बास करने से सम्पत्ति बढती है,यदि मिट्टी कम पड जाती है तो वहां रहने से हानि होती है ,और अगर कुन्ड भर जाये तो जमीन को मध्यम माननी चाहिये,इसके बाद उस कुन्ड से मिट्टी वापस निकाल कर उसे पानी से भर देना चाहिये,और शाम को भरने के बाद सुबह को देखने पर अगर पानी उसमे शेष बचता है,तो वह स्थान आगे कीमत बढाने वाला है,और नही बचता है तो मध्यम है और अगर उस के अन्दर दरार पड जाती है,तो वह भूखी मिट्टी है,वहां रहने पर केवल पेट भरने का काम ही हो पायेगा।
इस प्रकार से निवास करने योग्य स्थान की भलीभांति परीक्षा करके उक्त लक्षण युक्त भूमि में दिक्साधन यानी दिशाओं का ज्ञान करना चाहिये,उसके लिये समतल भूमि में एक वृत यानी गोल घेरा बनावे और उसके बीच में द्वादसांगुल शंकु यानी बारह विभाग या पर्व से युक्त बारह अंगुल की लकडी को नाप कर सीधी खडी हुई उस घेरे के बीच में स्थापित करे,और दिक्साधन विधि से दिशाओं का ज्ञान करे,फ़िर कर्ता के नाम यानी जिसके नाम प्लाट या भूमि हो,वह खुद षडवर्ग शुद्ध क्षेत्रफ़ल (वास्तु भूमि की लम्बाई-चौडाई का गुणनफ़ल करे),अभीष्ट लम्बाई चौडाई के बराबर दिशा साधित रेखा के अनुसार चतुर्भुज बनावे,उस चतुर्भुज रेखामार्ग पर सुन्दर प्राकार यानी चारदीवारी बनावे,लम्बाई चौडाई में पूर्व आदि चारों दिशाओं में आठ आठ द्वार के भाग होते है,प्रदक्षिण क्रम से उसे इस प्रकार से लिखे,जैसे पूर्व वाली दीवाल के उत्तर से दक्षिण तक-पहला-हानि,दूसरा-निर्धनता,तीसरा-धन लाभ,चौथा- राजसम्मान,पांचवां बहुत धन,छठा अति चोरी,सातवां अति क्रोध,और आठवां-भय इस प्रकार से लिखे,इसके बाद दक्षिण वाली दीवाल के पूर्व से पश्चिम तक के आठ भाग भी लिखे।
पूर्व दिशा की दीवाल (उत्तर से दक्षिण)
ईशान हानि निर्धनता धनलाभ राजसम्मान बहुतधनलाभ अतिचोरी अतिक्रोध भय अग्नि
दक्षिण दिशा की दीवाल (पूर्व से पश्चिम)
अग्नि मरण बन्धन भय धनलाभ धनवृद्धि निर्भयता व्याधिभय निर्बलता नैऋत्य
पश्चिम दिशा की दीवाल (दक्षिण से उत्तर)
नैऋत्य पुत्रहानि शत्रुवृद्धि लक्ष्मीप्राप्ति धनलाभ सौभाग्य अतिदुर्भाग्य दुख शोक वायव्य
उत्तर दिशा की दीवाल (पश्चिम से पूर्व )
वायव्य स्त्रीहानि निर्बलता हानि धान्यलाभ धनागम सम्पत्तिवृद्धि भय रोग ईशान
इसी प्रकार से पूर्व आदि दिशाओं के गृहादि में भी द्वार और उसके फ़ल समझने चाहिये,द्वार का जितना विस्तार यानी चौडाई हो,उससी दुगुनी ऊंचाई की किवाडॆं बनाकर घर के दरवाजे पर उपरोक्त फ़लानुसार लगानी चाहिये,दिवाल बनाने के बाद चाहरदीवारी के भीतरी भाग में जितनी भूमि बचती है,उसके इक्यासी खन्ड बनाकर बनावे। उनके बीच के नौ खन्डों में ब्रहमा का स्थान समझे,चाहरदीवारी के साथ सटे हुये जो बत्तीस भाग है,वे पिशाचांश कहलाते है,उनके साथ मिलाकर घर बनाने से दुख शोक और भय देने वाला होता है,शेष बचे अंशों के अन्दर घर बनाया जाये तो पुत्र और पौत्र और धन की वृद्धि देने वाला होता है। (नारद-पुराण श्लोक ५४० से ५५५.१/२,त्रिस्कंध ज्योतिष संहिताप्रकरण)
वास्तु भूमि की दिशा और विदिशा रेखा वास्तु की शिरा कहलाती है,एवं ब्रह्मभाग,पिशाचभाग,और शिरा का जहां जहां योग हो वह वास्तु की मार्म सन्धि कहलाती है,वह मार्म सन्धि गृहारम्भ तथा गृहप्रवेश में अनिष्ट कारक समझी जाती है। (ना.पु.त्रि.ज्यो.सं.प्र.५५८.१/२)
गृहारम्भ में प्रशस्त मास—
मार्गशीर्ष,फ़ाल्गुन,बैशाख,माघ,श्रावण और कार्तिक यह मास गृहारम्भ में पुत्र आरोग्य और धन देने वाले होते है।
दिशाओं में वर्ग और वर्गेश—
पूर्व आदि आठों दिशाओं में क्रमश: अकारादि आठ वर्ग होते है,इन दिशावर्गों के क्रमश: गरुण मार्जार सिंह श्वान सर्प मूषक गज और शशक ये योनियां होती है,अपने से पांचवे वर्ग वाले परस्पर शत्रु होते है,जिस ग्राम में या जिस दिशा में घर बनाना हो,वह साध्य ततहा घर बनानेवाला साधक,कर्ता और भर्ता आदि कहलाता है,इसको ध्यान में रखना चाहिये,साध्य ग्राम की वर्ग संख्या को लिखकर उसके पीछे बायें भाग में साधक की वर्ग संख्या रखकर आठ का भाग देकर जो शेष बचे वह साधक का धन होता है,इसके विपरीत विधि से अर्थात साधक की वर्ग संख्या के बायें भाग में साध्य की वर्ग संख्या रखकर जो संख्या बने उसमें आठ से भाग देकर शेष साधक का ऋण होता है,इस प्रकार से ऋण की संख्या अल्प और धन की संख्या अधिक हो,तो अधिक शुभ माने,अर्थात उस दिशा और ग्राम में घर बनाकर रहना शुभ होता है। उदाहरण इस प्रकार से है:—-
उदाहरण:—- विचार करना है कि जयनारायण नामक व्यक्ति को गोरखपुर में बसने या व्यापार करने में किस प्रकार का लाभ होगा,तो साध्य गोरखपुर की वर्ग संख्या २ के बायें भाग में साधक जयनारायण की वर्ग संख्या ३ रखने से ३२ हुआ,इसमें ८ का भाग देने से शून्य अर्थात आठ ही बचा,वह जयनाराण का धन हुआ,तथा इसके विपरीत वर्ग संख्या २३ रखकर इसमें आठ का भाग दिया,तो शेष ७ बचा,यह साधक जयनारायण का हुआ,यहां ७ से ८ धन अधिक है,अत; जयनारायण के लिये गोरखपुर रहने के योग्य है,यह सिद्ध हुआ,तात्पर्य है कि जयनारायण का गोरखपुर में ८ लाभ और ७ खर्च मिलता है।
वास्तु भूमि तथा घर के धन ऋण आय नक्षत्र वार और अंश के ज्ञान का साधन—-
वास्तु भूमि या घर की लम्बाई से चौडाई का गुणा करने पर गुणनफ़ल पद कहलाता है,उस पद को ६ स्थानों में रखकर क्रमश: ८,३,९,८,६ से गुणा करें और गुणनफ़ल में क्रमश: १२,८,८,२७,७,९ से भाग देम,फ़िर जो शेष बचे,वे क्रमश: धन,ऋण आय नक्षत्र वार तथा अंश होते है,धन अधिक हो तो घर शुभ होता है,ऋण अधिक हो तो घर अशुभ होता है,तथा विषम १,३,५,७,९ आय हो तो शुभ होता है,और सम २,४,६,८,आय अशुभ होता है,घर का जो नक्षत्र हो वहां से अपने नक्षत्र (नाम के नक्षत्र) तक गिन कर जो संख्या हो,उसमें ९ का भाग दें,फ़िर यदि शेष यानी तारा ३ बचे तो धन का नाश होता है,५ बचे यश की हानि होती है,और ७ बचे तो गृह मालिक की मौत होती है,घर की राशि और अपनी राशि गिनने पर परस्पर २ या १२ हो तो धन की हानि होती है,और ९ या ५ हो तो पुत्र की हानि होती है,और ६ या ८ हो तो अनिष्ट होता है,अन्य संख्या में शुभ होता है,सूर्य और मंगल के वार तथा अंश हो तो उस घर को अग्नि का भय होता है,अन्य वार या अंश हों तो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं की सिद्धि होती है। (नारद पुराण ज्यो.५६३-५६७)
वास्तु पुरुष की स्थिति—
भादों आदि तीन तीन मासों में क्रमश: पूर्व आदि दिशाओं की ओर मस्तक करके बायीं करवट सोये हुये महासर्पस्वरूप चर नामक वास्तुपुरुष प्रदक्षिणक्रम से विचरण करते है,जिस समय जिस दिशा में वास्तु पुरुष का मस्तक हो,उस समय उसी दिशा का में घर का दरवाजा बनाना चाहिये,मुख से विपरीत दिशा में घर का दरवाजा बनाने से रोग शोक और भय होते है,किन्तु अगर घर की चारों दिशाओं में द्वार हो,तो यह दोष नही होता है।
घर की नींव में रखा जाने वाला सामान—
घर की नींव लगाने के लिये नैऋत्य दिशा का मान है,उस दिशा में नैऋत्य कोण में अपने दाहिने हाथ की लम्बाई चौडाई और गहराई का खड्डा बनाकर स्वर्ण,पवित्र स्थान की मिट्टी,धान्य,और सेवार सहित ईंट घर के भीतरी भाग में रखें,घर की जितनी लम्बाई हो,उसके मध्य भाग में वास्तुपुरुष की नाभि रहती है,उसके तीन अंगुल नीचे वास्तु पुरुष की कुच्छि रहती है,और उसके अन्दर शंकु का न्यास करने से पुत्र आदि की वृद्धि होती है।
शंकु प्रमाण—
खादिर (खैर) अर्जुन शाल युगपत्र (कचनार) रक्त चन्दन पलाश रक्तशाल विशाल आदि वृक्ष से किसी की लकडी से शंकु बनता है,ब्राहमण आदि वर्णों के लिये २४,२३,२० और १६ अंगुल के शंकु बनते है,उस शंकु के बराबर बराबर तीन भाग करके ऊपर वाले भाग में चतुष्कोण मध्यवाले भाग में अष्टकोण और नीचे वाले भाग में गोल वृत स्वरूप बनाया जाता है,इस प्रकार से उत्तम लक्षणो से युक्त कोमल और छेद रहित शंकु शुभ दिन में बनाया जाता है,उसको षडवर्ग द्वारा शुद्ध सूत्र से सूत्रित (घर की लम्बाई और चौडाई के बराबर सूत्र) भूमि गृह क्षेत्र में मृदु ,ध्रुव,क्षिप्रसंज्ञक,नक्षत्रों में अमावस्या और रिक्ता तिथि को छोड कर अन्य तिथियों में रविवार मंगलवार तथा चर लगनों को छोड कर अन्य वारों और अन्य स्थिर या द्विस्वभाव लग्नों में अष्टम स्थान शुद्ध ग्रह रहित हो,शुभ राशि लगन हो,और उसमें शुभ नवमांश हो,उस लग्न में शुभ ग्रह का संयोग हो,ऐसे समय में ब्राह्मणों द्वारा पुण्याहवाचन कराते हुये मांगलिक वाद्य और सौभाग्यवती स्त्रियों के मंगलगीत आदि के साथ मुहूर्त बताने वाले दैवज्ञ (ज्योतिष के विद्वान ब्राह्मण) के पूजन (सत्कार) पूर्वक कुक्षिस्थान में शंकु की स्थापना करे,लग्न से केन्द्र और त्रिकोण में शुभ ग्रह तथा ३,६,११, में पापग्रह और चन्द्रमा हो,तो वह शंकु स्थापना श्रेष्ठ कहलाती है।
घर के भेद—-
घर के छ: भेद होते है,इनमें एक शाला,द्विशाला,त्रिशाला,चतुष्शाला,सप्तशाला,और दसशाला,इन दसों शालाओं में प्रत्येक के १६ भेद होते है,ध्रुव,धान्य,जय,नन्द,खर,कान्त,मनोरम,सुमुख,दिर्मुख,क्रूर,शत्रुद,स्वर्णद,क्षय,आक्रन्द,विपुल और विजय, नाम के गृहो होते है,चार अक्षरों के प्रस्तार भेद से क्रमश: इन गृहों की गणना करनी चाहिये।
प्रस्तार भेद—
प्रथम में चार गुरु ऽ लिखकर उनमें प्रथम गुरु के नीचे लघु । चिन्ह लिखते है,फ़िर आगे जैसा ऊपर हो उसी प्रकार के गुरु या लघु चिन्ह लिखना चाहिये,फ़िर उसके नीचे तीसरी लाइन पंक्ति में प्रथम गुरु चिन्ह के नीचे लघु चिन्ह लिखकर आगे दाहिने भाग में जैसे ऊपर गुरु या लघु हो वैसा ही चिन्ह लिखें,तथा पीछे बायें भाग में गुरु चिन्ह से पूरा करे,इसी प्रकार पुन: पुन: तब तक लिखता जाये,जब तक कि पंक्ति (प्रस्तार) में सब लघु चिन्ह हो जायें। इस प्रकार चार दिशा होने के कारण ४ अक्षरों से १६ भेद होते है,प्रत्येक भेद में चारों चिन्हों को प्रदक्षिणाक्रम से पूर्व आदि दिशा समझ कर जहां जहां लघु चिन्ह पडे,वहां वहां घर का द्वार और आलिन्द (द्वार के आगे का भाग,चबूतरा) बनाना चाहिये,इस प्रकार से पूर्वादि दिशाओं में आलिन्द के भेदों से १६ प्रकार के घर होते हैं।
वास्तु भूमि की पूर्व दिशा में स्नान गृह अग्नि कोण में पाक गृह दक्षिण में शयनघर नैऋत्य में शस्त्रागार,पश्चिम में भोजन गृह वायु कोण में धन धान्यादि रखने का घर उत्तर में देवताओं का घर और ईशान कोण में जल का स्थान रखना चाहिये,और आग्नेय कोण से शुरु करके पहले रसोई,फ़िर दूध घी निकालने का स्थान,फ़िर शौचालय, उसके बाद विद्याभ्यास,फ़िर स्त्री सहसवास अरु औषिधि और श्रंगार सामग्री का,बनाना शुभ कहा गया है।
आयों के नाम और दिशा—
पूर्वादि आठ दिशाओं में क्रमश: ध्वज,धूम्र सिंह स्वान वृष खर (गदहा) गज और ध्वांक्ष (कौआ) यह आठ प्रकार के आय होते है।
घर के समीप निन्दनीय वृक्ष (पेड)—-
पाकर गूलर वहेडा आम नीम और कांटे वाले पेड दूध वाले सभी तरह के पेड,पीपल,कपित्थ (कैथा), अगस्त्य,सिन्धुवार और इमली यह सब पेड निन्दनीय कहे गये है,अगर यह सब पेड घर के दक्षिण और पश्चिम में हों तो वे घर की वंश हानि करते है,पाकर के पेड पर छोटे बच्चों की आत्मायें,गूलर के पेड पर स्त्रियों की आत्मायें,आम के पेड पर ब्राह्मणों की आत्मायें,नीम के ऊपर पिशाच की आत्मायें और इमली के पेड पर सभी प्रकार की आत्मायें निवास करना चालू कर देती है,जब भी घर के अन्दर किसी प्रकार की उनकी प्रकृति के विपरीत काम होते है तो वे अपना विघ्न शुरु कर देते है।
गृह प्रमाण—-
घर के खम्भे घर के पैर होते है,इसलिये वे संख्या में सम होने उत्तम होते है जैस २,४,६,८, आदि,विषम संख्या में हानिकारक माने जाते है,घर को न तो बहुत ऊंचा ही करना चाहिये और न ही अधिक नीचा,इसीलिये अपनी इच्छा निर्वह के अनुसार भित्ति यानी दीवाल की ऊंचाई करनी चाहिये,घर के ऊपर जो घर दूसरा मंजिल बनाया जाता है,उसमें भी इसी प्रकार का विचार करना चाहिये। घरों की ऊंचाई के आठ प्रमाण कहे गये है,पान्चाल,वैदेह,कौरव,कान्यकुब्ज,मागध,शूरसेन,गान्धार,और आवन्तिक । जहां घर की ऊंचाई उसकी चौडाई से सवागुनी अधिक होती है,वह घर पान्चाल घर कहलाता है,फ़िर उसी ऊंचाई को लगातार सवागुनी बढाने से वैदेह आदि प्रकार के मकान होते है,इसके अन्दर पान्चाल सर्वसाधारण जनो के लिये शुभ है। ब्राह्मणों के लिये आवन्तिक मान,क्षत्रियों के लिये गान्धारमान,और वैश्यों के लिये कान्यकुब्जमान,इस प्रकार से ब्राह्मणादि वर्णों के लिये यथोत्तर गृहमान समझना चाहिये,तथा दूसरे मंजिल और तीसरे मंजिल के मकान में भी पानी का बहाव पहले बताये अनुसार ही बनाना चाहिये।
ध्वज और गज आय में सवारी के साधनों का घर बनाना चाहिये,शय्या आसन छाता और द्वजा इन सब के निर्माण के लिये वृष अथवा द्वज आय होने चाहिये।
नूतन गृह प्रवेश के लिये वास्तु पूजा का विधान—
घर के मध्यभाग में तन्दुल यानी चावल पर पूर्व से पश्चिम की तरफ़ एक एक हाथ लम्बी दस रेखायें खींचे,फ़िर उत्तर से दक्षिण की भी उतनी ही लम्बी चौडी रेखायें खींचे,इस प्रकार उसमे बराबर के ८१ पद बन जायेंगे,उनके अन्दर आगे बताये जाने वाले ४५ देवताओं का यथोक्त स्थान में नामोल्लेख करें,बत्तीस देवता बाहर वाली प्राचीर और तेरह देवता भीतर पूजनीय होते हैं। उनके लिये सारणी को इस प्रकार से बना लेवें:—-
शिखी पर्जन्य जयन्त इन्द्र सूर्य सत्य भृश आकाश वायु
दिति आप जयन्त इन्द्र सूर्य सत्य भृश सावित्र पूषा
अदिति अदिति आपवत्स अर्यमा अर्यमा अर्यमा सविता वितथ वितथ
सर्प सर्प पृथ्वीधर विवस्वान गृहक्षत गृहक्षत
सोम सोम पृथ्वीधर ब्रह्मा विवस्वान यम यम
भल्लाटक भल्लाटक पृथ्वीधर विवस्वान गन्धर्व गन्धर्व
मुख्य मुख्य राज्यक्षमा मित्र मित्र मित्र विवुधिप भृंग भृंग
अहि रुद्र शेष असुर वरुण पुष्पदन्त सुग्रीव जय मृग
रोग राज्यक्षमा शेष असुर वरुण पुष्पदन्त सुग्रीव दौवारिक पितर
इस प्रकार से ४५ देवताओं को स्थापित कर लेना चाहिये,और यही ४५ देवता पूजनीय होते है,आप,आपवर्स पर्जन्य अग्नि और दिति यह पांच देवता एक पद होते है,और यह ईशान में पूजनीय होते है,उसी प्रकार से अन्य कोणों में भी पांच पांच देवता भी एक पद के भागी है,अन्य झो बाह्य पंक्ति के बीस देवता है,वे सब द्विपद के भागी है,तथा ब्रह्मा सी पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशामें जो अर्यमा विवस्वान मित्र और पृथ्वीधर ये चार देवता है,वे त्रिपद के भागी है,अत: वास्तु की जानकारी रखने वाले लोग ब्रह्माजी सहित इन एक पद,द्विपद और त्रिपद देवताओं का वास्तु मन्त्रों से दूर्वा,दही,अक्षत,फ़ूल,चन्दन धूप दीप और नैवैद्य आदि से विधिवत पूजन करें,अथवा ब्राह्ममंत्र से आवहनादि षोडस या पन्च उपचारों द्वारा उन्हे दो सफ़ेद वस्त्र समर्पित करें,नैवैद्य में तीन प्रकार के भक्ष्य,भोज्य,और लेह्य अन्न मांगलिक गीत और वाद्य के साथ अर्पण करे,अन्त में ताम्बूल अर्पण करके वास्तु पुरुष की इस प्रकार से प्रार्थना करे- “वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्या निरत प्रभो,मदगृहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा”, भूमि शय्या पर शयन करने वाले वास्तुपुरुष ! आपको मेरा नमस्कार है। प्रभो ! आप मेरे घरको धन धान्य आदि से सम्पन्न कीजिये।
इस प्रकार प्रार्थना करके देवताओं के समक्ष पूजा कराने वाले पुरोहित को यथाशक्ति दक्षिणा दे तथा अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हे भी दक्षिणा दे,जो मनुष्य सावधान होकर गृहारम्भ में या गृहप्रवेश के समय इस विधि से वास्तुपूजा करता है,वह आरोग्य पुत्र धन और धान्य प्राप्त करके सुखी होता है,जो मनुष्य वास्तु पूजा न करके नये घर में प्रवेश करता है,वह नाना प्रकार के रोगों,क्लेश,और संकटों से जूझता रहता है।
जिन मकानों में किवाड नही लगाये गये हो,जिनके ऊपर छाया नही की गयी हो,जिस मकान के अन्दर अपनी परम्परा के अनुसार पूजा और वास्तुकर्म नही किये गये हो,उस घर में प्रवेश करने का अर्थ नरक मे प्रवेश करना होता है॥ नारद पुराण ज्योति.स्कन्ध श्लोक -५९६ से ६१९॥