क्यों होता हैं ग्रहण दोष ??
कैसे करें निवारण ???
प्रिय पाठकों/मित्रों, ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की आपने जन्मकुंडली में योग और दोष दोनों के बारे में जरूर सुना होगा। ज्योतिष्य योग और ज्योतिष्य दोष ये दोनों अलग अलग प्रकार की ग्रहों की स्थितिया है जो आपस में उनके कुंडली में मिलने से उनके संयोग बनती है, जिसे हम ज्योतिष्य भाषा में ग्रहों की युति कह कर सम्बोधित करते है। जो कई प्रकार के शुभ और अशुभ योगो का निर्माण करती है। उन शुभ योगो में कुछ राजयोग होते है। हर व्यक्ति अपनी कुंडली में राजयोग को खोजना चाहता है जोकि ग्रहो के संयोग से बनने वाली एक सुखद अवस्था है। ईश्वर की कृपया से जिनकी कुंडली में यह सुन्दर राजयोग होते है वह अपनी ज़िंदगी अच्छी प्रकार से व्यतीत कर पाने में समर्थ होते है। लेकिन इसके विपरीत कुछ जातक ऐसे भी होते है जिनकी कुंडली में ग्रह कुछ दुषयोगो का निर्माण करते है। जिनका जातक को यथा सम्भव उपाय करवा लेना चाहिये। आज हम यहाँ ग्रहों के माध्यमो से बनने वाले कुछ दुषयोगो के बारे में बात करेंगे।
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की ग्रहदोष शांति पूजा का महत्व यह पूजा किसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जीवन की सभी समस्याओं से व्यक्ति को बाहर लाता है। सुख और समृद्धि के सभी प्रकार के किसी भी बाधाओं और रास्ते में बाधाओं के बिना हासिल किया जा रहा है। ग्रहदोष शांति पूजा के लाभ इस पूजा के विभिन्न लाभ कर रहे हैं, क्योंकि यह व्यक्ति मानसिक गड़बड़ी, स्वास्थ्य समस्याओं, साथी के साथ इस समस्या से छुटकारा पाने में मदद करता है, बच्चे की अवधारणा। पेशेवर जीवन में सफलता बहुत हद तक और धन के लिए सुधार हो जाता है और भौतिकवादी खुशी जीवन भर रखा है।
चंद्र ग्रहण दोष क्या होता है –
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया कीजब राहु या केतू की युति चंद्र के साथ हो जाती है तो चंद्र ग्रहण दोष हो जाता है। दूसरे शब्दों में, चंद्र के साथ राहु और केतू का नकारात्मक गठन, चंद्र ग्रहण दोष कहलाता है। ग्रहण दोष का प्रभाव, विभिन्न राशियों पर विभिन्न प्रकार से पड़ता है जिसके लिए जन्मकुंडली, ग्रहों की स्थिति भी मायने रखती है|
चंद्र ग्रहण दोष के विभिन्न कारण –
चंद्र ग्रहण दोष के कई कारण होते हैं और हर व्यक्ति के जीवन पर उसका प्रभाव भी अलग तरीके से पड़ता है। चंद्र ग्रहण दोष का सबसे अधिक प्रभाव, उत्तरा भादपत्र नक्षत्र में पड़ता है। जो जातक, मीन राशि का होता है और उसकी कुंडली में चंद्र की युति राहु या केतू के साथ स्थित हो जाएं, ग्रहण दोष के कारण स्वत: बन जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर इसके प्रभाव अधिक गंभीर होते हैं।
चंद्र ग्रहण दोष के अन्य कारण –
राहु, राशि के किसी भी हिस्से में चंद्र के साथ पाया जाता है- जबकि केतू समान राशि में चंद्र के साथ पाया जाता है
– राहु, चंद्र महादशा के दौरान ग्रहण लगाते हैं
– चंद्र ग्रहण के दिन बच्चे को स्नान अवश्य कराएं।
चंद्र ग्रहण दोष का पता किस प्रकार लगाया जा सकता है –
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चंद्र ग्रहण दोष का पता लगाने के सबसे पहले जन्मकुंडली का होना आवश्यक होता है, इस जन्मकुंडली में राहु और केतू की दशा को पंडित के द्वारा पता लगाया जा सकता है। या फिर, नवमासा या द्वादसमास चार्ट को देखकर भी दोष को जाना जा सकता है। बेहतर होगा कि किसी ज्ञानी पंडित से सलाह लें। ऐसा माना जाता है कि पिछले जन्म के कर्मों के कारण वर्तमान जन्म में चंद्र ग्रहण दोष लगता है।
चंद्र ग्रहण दोष के परिणाम(प्रभाव) –
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की व्यक्ति परेशान रहता है, दूसरों पर दोष लगाता रहता है, उसके मां के सुख में भारी कमी आ जाती है। उसमें सम्मान में कमी अाती है। हर प्रकार से उस व्यक्ति पर भारी समस्याएं आ जाती है जिनके पीछे सिर्फ वही दोषी होता है। साथ ही स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें भी आती हैं। सूर्य और चंद्र ग्रहदोष एक व्यक्ति के जीवन में अपने स्वयं के बुरे प्रभावों की है। सूर्य के कारण दोष व्यक्तिगत सफलता, शोहरत और नाम है जो समग्र विकास में पड़ाव परिणाम प्राप्त करने में बाधाओं का सामना। एक औरत बार-बार गर्भपात, बच्चे और दोषपूर्ण पुत्रयोग की अवधारणा में समस्या की तरह बच्चे से संबंधित समस्या का सामना करना पड़ता। स्वास्थ्य समस्याओं को भी सूर्य दोष के कारण प्रमुख हैं। चंद्र दोष अपने स्वयं के बुरे प्रभावों के रूप में यह व्यक्ति अनावश्यक तनाव का एक बहुत कुछ देता है।
इस दोष के कारण वहाँ विश्वास, भावनात्मक अपरिपक्वता, लापरवाही, याददाश्त में कमी, असंवेदनशीलता में एक नुकसान है। स्वास्थ्य छाती, फेफड़े, सांस लेने और मानसिक अवसाद से संबंधित समस्याओं को बहुत हद तक अनुकूल हैं। आत्म विनाशकारी प्रकृति भी हो जाता है एक व्यक्ति के मन में उठता है और आत्महत्या करने की कोशिश करता है।यदि आप हमेशा कश्मकश में रहते हैं, इधर-उधर की सोचते रहते हैं, निर्णय लेने में कमजोर हैं, भावुक एवं संवेदनशील हैं, अन्तर्मुखी हैं, शेखी बघारने वाले व्यक्ति हैं, नींद पूरी नही आती है, सीधे आप सो नहीं सकते हैं अर्थात हमेशा करवट बदलकर सोएंगे अथवा उल्टे सोते हैं, भयभीत रहते हैं तो निश्चित रुप से आपकी कुंडती में चन्द्रमा कमजोर होगा |समय पर इस कमजोर चंद्रमा अर्थात प्रतिकूल प्रभाव को कम करने का उपाय करना चाहिए अन्यथा जीवन भर आप आत्म विश्वास की कमी से ग्रस्त रहेंगे.
जिन व्यक्तियों का चन्द्रमा क्षीण होकर अष्टम भाव में और चतुर्थ तथा चंद्र पर राहु का प्रभाव हो, अन्य शुभ प्रभाव न हो तो वे मिरगी रोग का शिकार होते हैं.
जिन लोगों का चन्द्रमा छठे आठवें आदि भावों में राहु दृष्ट न हो, वैसे पाप दृष्ट हो तो उनको रक्त चाप आदि होता है.
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ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चंद्रमा को सोम भी कहा जाता है. सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है और इस दिन भगवान शिव के पूजन से मनुष्य को विशेष लाभ प्राप्त होता है. चन्द्रमा के अधिदेवता भी शिव हैं और इसके प्रत्याधिदेवता जल है. महादेव के पूजन से चंद्रमा के दोष का निवारण होता है. महादेव ने चंद्र को अपनी जटाओं पर धारण किया हुआ है. इस प्रकार भगवान शिव की पूजा से चंद्रमा के उलटे प्रभाव से तत्काल मुक्ति मिलती है. भगवान शिव के कई प्रचलित नामों में एक नाम सोमसुंदर भी है. सोम का अर्थ चंद्र होता है | चन्द्रमा ज्योतिष शास्त्र में बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके संबंध में ज्योतिष शास्त्र कहता है कि चन्द्रमा का आकर्षण पृथ्वी पर भूकंप, समुद्री आंधियां, ज्वार भाटा, तूफानी हवाएं, अति वर्षा, भूस्खलन आदि लाता हैं। रात को चमकता पूरा चांद मानव सहित जीव-जंतुओं पर भी गहरा असर डालता है। चन्द्रमा से ही मनुष्य का मन और समुद्र से उठने वाली लहरे दोनों का निर्धारण होता है। माता और चंद्र का संबंध भी गहरा होता है। कुंडली में माता की स्थिति को भी चन्द्रमा देवता से देखा जाता है और चन्द्रमा को माता भी कहा जाता है।हमारी कुंडली में जिस भी राशि में चन्द्रमा हो वही हमारी जन्म राशि कहलाती है और जब भी शुभ कार्य करने के लिए महूर्त देखा जाता है वह हमारी जन्मराशि के अनुसार देखा जाता है जैसे की हमारी जन्म राशि के अनुसार चन्द्रमा कहाँ और किस नक्षत्र में गोचर कर रहा है।
चन्द्रमा ही हमारे जीवन की जीवन शक्ति है। किसी कुंडली में अगर चन्द्रमा की स्थिति अगर क्षीण होती है अथवा चन्द्रमा पाप प्रभाव लिए हो तो उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति को कोई भी अच्छा ज्योतिषी देख कर बता सकता है कि जातक के मन में क्या विचार चलते है तथा जातक की मनोस्थिति किस प्रकार है । निश्चित ही ऐसे जातक का मन उतावला होगा, अत्यंत चंचल होगा। मन को एकाग्र करने में कठनाईयाँ होंगी और जब मन ही एकाग्र नही होगा तो जातक पढ़ने तो बैठेगा लेकिन कुछ ही मिनट बाद उठ जायेगा, जातक सोचेगा की पहले फलां कार्य कर लूँ , पढ़ तो कुछ देर बाद भी लूँगा।चन्द्रमा देवता हमारे मन और मस्तिक्ष के करक है। किसी भी जन्मकुंडली में चन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका को देखे बिना कुंडली का विश्लेषण केवल कुंडली के शव के परिक्षण जैसा होता है।
ज्योतिषी इन ग्रहो युतियों को भिभिन् प्रकारों से सम्बोधित करते है। कई ज्योतिष इन्हे दोष कह कर सम्बोधित करते है तो कई योग कह कर बुलाते है . मेरे विचार से जबतक किन्ही ग्रहों कि युतियां अच्छा फल देने में समर्थ न हो तब तक उसे योग नही कहा जा सकता है। वह दुषयोग ही कहलाएगी।
आज के इस लेख में हम चन्द्र पूजा की विधि के बारे में चर्चा करेंगे तथा इस पूजा में प्रयोग होने वाली महत्वपूर्ण क्रियाओं के बारे में भी विचार करेंगे। वैदिक ज्योतिष चन्द्र पूजा का सुझाव मुख्य रूप से किसी कुंडली में अशुभ रूप से कार्य कर रहे चन्द्र की अशुभता को कम करने के लिए, अशुभ चन्द्र द्वारा कुंडली में बनाए जाने वाले किसी दोष के निवारण के लिए अथवा किसी कुंडली में शुभ रूप से कार्य कर रहे चन्द्र की शक्ति तथा शुभ फल बढ़ाने के लिए देता है। चन्द्र पूजा का आरंभ सामान्यतया सोमवार वाले दिन किया जाता है तथा उससे अगले सोमवार को इस पूजा का समापन कर दिया जाता है जिसके चलते इस पूजा को पूरा करने के लिए सामान्यता 7 दिन लगते हैं किन्तु कुछ स्थितियों में यह पूजा 7 से .. दिन तक भी ले सकती है जिसके चलते सामान्यतया इस पूजा के आरंभ के दिन को बदल दिया जाता है तथा इसके समापन का दिन सामान्यतया सोमवार ही रखा जाता है।
किसी भी प्रकार की पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है उस पूजा के लिए निश्चित किये गए मंत्र का एक निश्चित संख्या में जाप करना तथा यह संख्या अधिकतर पूजाओं के लिए 1.5,000 मंत्र होती है तथा चन्द्र पूजा में भी चन्द्र वेद मंत्र का 125,000 बार जाप करना अनिवार्य होता है। पूजा के आरंभ वाले दिन पांच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान शिव के शिवलिंग के समक्ष बैठते हैं तथा शिव परिवार की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित यजमान के लिए चन्द्र वेद मंत्र का 125,000 बार जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे। जाप के लिए निश्चित की गई अवधि सामान्यतया 7 से 10 दिन होती है। संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले यजमान का नाम, उसके पिता का नाम तथा उसका गोत्र भी बोला जाता है तथा इसके अतिरिक्त जातक द्वारा करवाये जाने वाले चन्द्र वेद मंत्र के इस जाप के फलस्वरूप मांगा जाने वाला फल भी बोला जाता है जो साधारणतया जातक की कुंडली में अशुभ चन्द्र द्वारा बनाये जाने वाले किसी दोष का निवारण होता है अथवा चन्द्र ग्रह से शुभ फलों की प्राप्ति करना होता है।
इस संकल्प के पश्चात सभी पंडित अपने यजमान अर्थात जातक के लिए चन्द्र वेद मंत्र का जाप करना शुरू कर देते हैं तथा प्रत्येक पंडित इस मंत्र के जाप को प्रतिदिन लगभग 8 से 10 घंटे तक करता है जिससे वे इस मंत्र की 125,000 संख्या के जाप को संकल्प के दिन निश्चित की गई अवधि में पूर्ण कर सकें। निश्चित किए गए दिन पर जाप पूरा हो जाने पर इस जाप तथा पूजा के समापन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जो लगभग 2 से . घंटे तक चलता है। सबसे पूर्व भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है तथा इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा चन्द्र वेद मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है जिसमे यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र की 125,000 संख्या का जाप निर्धारित विधि तथा निर्धारित समय सीमा में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है तथा यह सब उन्होंने अपने यजमान अर्थात जातक के लिए किया है जिसने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमान को प्राप्त होना चाहिए।
“ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्रमसे नम:” अथवा “ॐ सों सोमाय नम:” का जाप करना अच्छे परिणाम देता है। ये वैदिक मंत्र हैं, इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से किया जाएगा यह उतना ही फलदायक होगा।
इस समापन पूजा के चलते नवग्रहों से संबंधित अथवा नवग्रहों में से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित कुछ विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकता है तथा इन वस्तुओं में सामान्यतया चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, खाद्य तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल इत्यादि का दान किया जाता है। इस पूजा के समापन के पश्चात उपस्थित सभी देवी देवताओं का आशिर्वाद लिया जाता है तथा तत्पश्चात हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातक तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली संबंध स्थापित करती है। औपचारिक विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात चन्द्र वेद मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है तथा प्रत्येक बार इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है तथा यह हवन सामग्री विभिन्न पूजाओं तथा विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकती है। चन्द्र वेद मंत्र की हवन के लिए निश्चित की गई जाप संख्या के पूरे होने पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तथा प्रत्येक बार मंत्र का उच्चारण पूरा होने पर स्वाहा की ध्वनि के साथ पुन: हवन कुंड की अग्नि में हवन सामग्री डाली जाती है।
अंत में एक सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा इस नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं। तत्पश्चात यजमान अर्थात जातक को हवन कुंड की 3, 5 या 7 परिक्रमाएं करने के लिए कहा जाता है तथा यजमान के इन परिक्रमाओं को पूरा करने के पश्चात तथा पूजा करने वाले पंडितों का आशिर्वाद प्राप्त करने के पश्चात यह पूजा संपूर्ण मानी जाती है। हालांकि किसी भी अन्य पूजा की भांति चन्द्र पूजा में भी उपरोक्त विधियों तथा औपचारिकताओं के अतिरिक्त अन्य बहुत सी विधियां तथा औपचारिकताएं पूरी की जातीं हैं किन्तु उपर बताईं गईं विधियां तथा औपचारिकताएं इस पूजा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं तथा इसीलिए इन विधियों का पालन उचित प्रकार से तथा अपने कार्य में निपुण पंडितों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। इन विधियों तथा औपचारिकताओं में से किसी विधि अथवा औपचारिकता को पूरा न करने पर अथवा इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातक को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।
चन्द्र पूजा के आरंभ होने से लेकर समाप्त होने तक पूजा करवाने वाले जातक को भी कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इस अवधि के भीतर जातक के लिए प्रत्येक प्रकार के मांस, अंडे, मदिरा, धूम्रपान तथा अन्य किसी भी प्रकार के नशे का सेवन निषेध होता है अर्थात जातक को इन सभी वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में अपनी पत्नि अथवा किसी भी अन्य स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं तथा अविवाहित जातकों को किसी भी कन्या अथवा स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में किसी भी प्रकार का अनैतिक, अवैध, हिंसात्मक तथा घृणात्मक कार्य आदि भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को प्रतिदिन मानसिक संकल्प के माध्यम से चन्द्र पूजा के साथ अपने आप को जोड़ना चाहिए तथा प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात जातक को इस पूजा का समरण करके यह संकल्प करना चाहिए कि चन्द्र पूजा उसके लिए अमुक स्थान पर अमुक संख्या के पंडितों द्वारा चन्द्र वेद मंत्र के 125,000 संख्या के जाप से की जा रही है तथा इस पूजा का विधिवत और अधिकाधिक शुभ फल उसे प्राप्त होना चाहिए। ऐसा करने से जातक मानसिक रूप से चन्द्र पूजा के साथ जुड़ जाता है तथा जिससे इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल और भी अधिक शुभ हो जाते हैं।
यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि चन्द्र पूजा जातक की अनुपस्थिति में भी की जा सकती है तथा जातक के व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की स्थिति में इस पूजा में जातक की तस्वीर अर्थात फोटो का प्रयोग किया जाता है जिसके साथ साथ जातक के नाम, उसके पिता के नाम तथा उसके गोत्र आदि का प्रयोग करके जातक के लिए इस पूजा का संकल्प किया जाता है। इस संकल्प में यह कहा जाता है कि जातक किसी कारणवश इस पूजा के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने में सक्षम नहीं है जिसके चलते पूजा करने वाले पंडितों में से ही एक पंड़ित जातक के लिए जातक के द्वारा की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं पूरा करने का संकल्प लेता है तथा उसके पश्चात पूजा के समाप्त होने तक वह पंडित ही जातक की ओर से की जाने वाली सारी क्रियाएं करता है जिसका पूरा फल संकल्प के माध्यम से जातक को प्रदान किया जाता है। प्रत्येक प्रकार की क्रिया को करते समय जातक की तस्वीर अर्थात फोटो को उपस्थित रखा जाता है तथा उसे सांकेतिक रूप से जातक ही मान कर क्रियाएं की जातीं हैं। उदाहरण के लिए यदि जातक के स्थान पर पूजा करने वाले पंडित को भगवान शिव को पुष्प अर्थात फूल अर्पित करने हैं तो वह पंडित पहले पुष्प धारण करने वाले अपने हाथ को जातक के चित्र से स्पर्श करता है तथा तत्पश्चात उस हाथ से पुष्पों को भगवान शिव को अर्पित करता है तथा इसी प्रकार सभी क्रियाएं पूरी की जातीं हैं। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यक्तिगत रूप से अनुपस्थित रहने की स्थिति में भी जातक को चन्द्र पूजा के आरंभ से लेकर समाप्त होने की अवधि तक पूजा के लिए निश्चित किये गए नियमों का पालन करना होता है भले ही जातक संसार के किसी भी भाग में उपस्थित हो। इसके अतिरिक्त जातक को उपर बताई गई विधि के अनुसार अपने आप को इस पूजा के साथ मानसिक रूप से संकल्प के माध्यम से जोड़ना भी होता है जिससे इस चन्द्र पूजा के अधिक से अधिक शुभ फल जातक को प्राप्त हो सकें।
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चंद्र दोष निवारण —-
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चंद्र दोष के उपाय जो शास्त्रों में उल्लेखित हैं उनमें सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चांदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा देना तथा दूसरे को अपने पास रखना है. कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है. यदि चंद्र बारहवां हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएं और ना ही दूध पिलाएं. सोमवार को सफेद वास्तु जैसे दही, चीनी, चावल, सफेद वस्त्र, 1 जोड़ा जनेऊ, दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है.
जाप मंत्र —
ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:.
चंद्र नमस्कार के लिए मंत्र —
दधि शंख तुषारामं क्षीरोदार्णव सम्भवम्. नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मकुट भूषणम्..
शिव का महामृत्युंजय मंत्र—
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्उ र्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्ष्रिय मामृतात्.
इसे मृत संजीवनी मंत्र भी कहा गया है. यह मंत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य द्वारा दधीचि ऋषि को प्रदान किया गया था. चन्द्र दोष निवारण के लिये शिवरात्रि पर रुद्राभिषेक करवाएं. यदि आपके आसपास कोई शिव मंदिर हो तो वहां जाकर विशेष पूजा -अर्चना करनी चाहिए. उस रात्रि को संभव हो तो शिव मंदिर में जाकर जागरण करें.
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चंद्र दोष निवारण के तांत्रिक टोटका —-
महापंडित रावण जैसे ज्ञानी चार वेदों के ज्ञान के आधार पर और अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर चंद्र दोष निवारण के कुछ उपाय बताएं हैं. रावण के महान विद्या के आधार पर ‘लाल किताब’ की रचना की गयी है. यहां वैदिक ज्योतिष में चंद्र दोष निवारण के लिए बड़े बड़े हवन आदि करने पड़ते है वहीं रावण के तांत्रिक टोटके उस समस्या को कुछ ही दिनों में नष्ट कर देते है. हमारे ज्योतिष शास्त्रों ने चंद्रमा को चौथे घर का कारक माना है. यह कर्क राशी का स्वामी है. चन्द्र ग्रह से वाहन का सुख सम्पति का सुख विशेष रूप से माता और दादी का सुख और घर का रूपया पैसा और मकान आदि सुख देखा जाता है.
उपाय –
1 किलो जौ दूध में धोकर और एक सुखा नारियल चलते पानी में बहायें और 1 किलो चावल मंदिर में चढ़ा दे, अगर चन्द्र राहू के साथ है और यदि चन्द्र केतु के साथ है तो चूना पत्थर ले उसे एक भूरे कपडे में बांध कर पानी में बहा दे और एक लाल तिकोना झंडा किसी मंदिर में चढ़ा दे.
शिव कवच से चंद्र दोष का निवारण होता है
शिव कवच—-
।।श्रीगणेशाय नम:।।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीशिवकवचस्तोत्रमंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: अनुष्टप् छन्द:। श्रीसदाशिवरुद्रो देवता। ह्रीं शक्ति:। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे शिवकवचस्तोत्रजपे विनियोग:।
कर-न्यास: –
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्लांसर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ मं रुं अनादिशक्तिधाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ वांरौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐयंर: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्यां नम:।
॥ अथ ध्यानम् ॥
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम् ।
सहस्रकरमत्युग्रं वंदे शंभुमुपतिम् ॥ १ ॥
।।ऋषभ उवाच।।
अथापरं सर्वपुराणगुह्यं निशे:षपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥ २ ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्वव्यापिनमीश्वरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ ३ ॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासन: ।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिंतयेच्छिवमव्ययम् ॥ ४ ॥
ह्रत्पुंडरीक तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोवकाशम् ।
अतींद्रियं सूक्ष्ममनंतताद्यंध्यायेत्परानंदमयं महेशम् ॥ ५ ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्धश्चरं चितानन्दनिमग्नचेता: ।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥ ६ ॥
मां पातु देवोऽखिलदेवत्मा संसारकूपे पतितं गंभीरे
तन्नाम दिव्यं वरमंत्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ ७ ॥
सर्वत्रमां रक्षतु विश्वमूर्तिर्ज्योतिर्मयानंदघनश्चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरुशक्तिरेक: स ईश्वर: पातु भयादशेषात् ॥ ८ ॥
यो भूस्वरूपेण बिर्भीत विश्वं पायात्स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्ति: ॥
योऽपांस्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्य: ॥ ९ ॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलील: ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ॥ १० ॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणि: ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्र: प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्त्रम् ॥ ११ ॥
कुठारवेदांकुशपाशशूलकपालढक्काक्षगुणान् दधान: ।
चतुर्मुखोनीलरुचिस्त्रिनेत्र: पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ १२ ॥
कुंदेंदुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमाला वरदाभयांक: ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्र उरुप्रभाव: सद्योधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ १३ ॥
वराक्षमालाभयटंकहस्त: सरोज किंजल्कसमानवर्ण: ।
त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्या दिशि वामदेव: ॥ १४ ॥
वेदाभ्येष्टांकुशपाश टंककपालढक्काक्षकशूलपाणि: ॥
सितद्युति: पंचमुखोऽवतान्मामीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश: ॥ १५ ॥
मूर्धानमव्यान्मम चंद्रमौलिर्भालं ममाव्यादथ भालनेत्र: ।
नेत्रे ममा व्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथ: ॥ १६ ॥
पायाच्छ्र ती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्रं सदा रक्षतु पंचवक्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व: ॥ १७ ॥
कंठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणि: द्वयं पातु: पिनाकपाणि: ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्मवाहुर्वक्ष:स्थलं दक्षमखातकोऽव्यात् ॥ १८ ॥
मनोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनांतकारी ।
हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरो मे ॥ १९ ॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात् ।
जंघायुगंपुंगवकेतुख्यातपादौ ममाव्यत्सुरवंद्यपाद: ॥ २० ॥
महेश्वर: पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेव: ॥
त्रिलोचन: पातु तृतीययामे वृषध्वज: पातु दिनांत्ययामे ॥ २१ ॥
पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी पति: पातु निशावसाने मृत्युंजयो रक्षतु सर्वकालम् ॥ २२ ॥
अन्त:स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदापातु बहि: स्थित माम् ।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवोरक्षतु मां समंतात् ॥ २३ ॥
तिष्ठतमव्याद्भुवनैकनाथ: पायाद्व्रजंतं प्रथमाधिनाथ: ।
वेदांतवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम् ॥ २४ ॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकंठ: शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारि: ।
अरण्यवासादिमहाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति: ॥ २५ ॥
कल्पांतकोटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलितांडकोश: ।
घोरारिसेनर्णवदुर्निवारमहाभयाद्रक्षतु वीरभद्र: ॥ २६ ॥
पत्त्यश्वमातंगघटावरूथसहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिंद्यान्मृडोघोर कुठार धारया २७ ॥
निहंतु दस्यून्प्रलयानलार्चिर्ज्वलत्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल सिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान्संत्रासयत्वीशधनु: पिनाक: ॥ २८ ॥ दु:स्वप्नदु:शकुनदुर्गतिदौर्मनस्यर्दुर्भिक्षदुर्व्यसनदु:सहदुर्यशांसि ।
उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीश: ॥ २९ ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सर्वमंत्रस्वरूपाय सर्वयंत्राधिष्ठिताय सर्वतंत्रस्वरूपाय सर्वत्त्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे नीलकंठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्धूलितविग्रहाय महामणिमुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय षडाश्रयाय वेदांतसाराय त्रिवर्गसाधनायानंतकोटिब्रह्माण्डनायकायानंतवासुकितक्षककर्कोटकङ्खकुलिक पद्ममहापद्मेत्यष्टमहानागकुलभूषणायप्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाशदिक्स्वरूपायग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलंकरहिताय सकललोकैकर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकल वेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय सकलकोलोकैकशंकराय शशांकशेखराय शाश्वतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्चिंताय निरहंकाराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरंतराय निष्कारणाय निरंतकाय निष्प्रपंचाय नि:संगाय निर्द्वंद्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियय निस्तुलाय नि:संशयाय निरंजनाय निरुपमविभवायनित्यशुद्धबुद्ध परिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय परमशांतस्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय जय जय रुद्रमहारौद्रभद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पांतभैरव कपालमालाधर खट्वांगखड्गचर्मपाशांकुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्तिभिंदिपालतोमरमुसलमुद्गरपाशपरिघ भुशुण्डीशतघ्नीचक्राद्यायुधभीषणकरसहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदनविकटाट्टहासविस्फारितब्रह्मांडमंडल नागेंद्रकुंडल नागेंद्रहार नागेन्द्रवलय नागेंद्रचर्मधरमृयुंजय त्र्यंबकपुरांतक विश्वरूप विरूपाक्ष विश्वेश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्युमपमृत्युभयं नाशयनाशयचोरभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरान्मारय मारय ममशमनुच्चाट्योच्चाटयत्रिशूलेनविदारय कुठारेणभिंधिभिंभधि खड्गेन छिंधि छिंधि खट्वांगेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय वाणै: संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषयशेषभूतानि निद्रावय कूष्मांडवेतालमारीच ब्रह्मराक्षसगणान्संत्रासय संत्रासय ममाभय कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय नरकमहाभयान्मामुद्धरसंजीवय संजीवयक्षुत्तृड्भ्यां मामाप्याय-आप्याय दु:खातुरं मामानन्दयानन्दयशिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादयमृत्युंजय त्र्यंबक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
।। ऋषभ उवाच ।।
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याह्रतं मया ॥
सर्वबाधाप्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥ ३० ॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
क्षीणायुअ:प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा ॥
सद्य: सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्चविंदति ॥ ३२ ॥
सर्वदारिद्र्य शमनं सौमंगल्यविवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते ॥ ३३ ॥
महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकै: ।
देहांते मुक्तिमाप्नोति शिववर्मानुभावत: ॥ ३४ ॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम्
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ३५ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्युक्त्वाऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारिनिषूदनम् ॥ ३६ ॥
पुनश्च भस्म संमत्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ । ३७ ॥
भस्मप्रभावात्संप्राप्तबलैश्वर्यधृतिस्मृति: ।
स राजपुत्र: शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥ ३८ ॥
तमाह प्रांजलिं भूय: स योगी नृपनंदनम् ।
एष खड्गो मया दत्तस्तपोमंत्रानुभावित: ॥ ३९ ॥
शितधारमिमंखड्गं यस्मै दर्शयसे स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियतेशत्रु: साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥ ४० ॥
अस्य शंखस्य निर्ह्लादं ये श्रृण्वंति तवाहिता: ।
ते मूर्च्छिता: पतिष्यंति न्यस्तशस्त्रा विचेतना: ॥ ४१ ॥
खड्गशंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य निवाशिनौ ।
आत्मसैन्यस्यपक्षाणां शौर्यतेजोविवर्धनो ॥ ४२ ॥
एतयोश्च प्रभावेण शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्सहस्त्रनागानां बलेन महतापि च ॥ ४३ ॥
भस्मधारणसामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गोप्तासि पृथिवीमिमाम् ॥ ४४ ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां पूजित: सोऽथ योगी स्वैरगतिर्ययौ ॥ ४५ ॥
।।इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्त्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरखण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।
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अमावस्या योग या दोष –
प्रिय पाठकों/मित्रों, ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों कुण्डली के एक ही घर में विराजित हो जावे तब इस दोष का निर्माण होता है। जैसे की आप सब जानते है की अमावस्या को चन्द्रमा किसी को दिखाई नही देता उसका प्रभाव क्षीण हो जाता है। ठीक उसी प्रकार किसी जातक की कुंडली में यह दोष बन रहा हो तो उसका चन्द्रमा प्रभावशाली नही रहता। और चन्द्रमा को ज्योतिष में कुण्डली का प्राण माना जाता है और जब चन्द्रमा ही प्रभाव हीन हो जाए तो यह किसी भी जातक के लिए कष्टकारी हो जाता है क्योंकि यही हमारे मन और मस्तिक्ष का करक ग्रह है। इसलिए अमावस्या दोष को महर्षि पराशर जी ने बहुत बुरे योगो में से एक माना है, जिसकी व्याख्या उन्होंने अपने ग्रन्थ बृहत पराशर होराशास्त्र में बड़े विस्तार से की है तथा उसके उपाय बताये है। जोकि में आगे अपने ब्लॉग पर कुछ समय बाद प्रकाशित करूँगा। ज्योतिष में ऐसा माना जाता है कि सूर्य और चन्द्र दो भिन्न तत्व के ग्रह है सूर्य अग्नि तत्व और चन्द्र जल तत्त्व, इस प्रकार जब दोनों मिल जाते है तो वाष्प बन जाती है कुछ भी शेष नही रह जाता।
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ग्रहण योग या दोष –
प्रिय पाठकों/मित्रों, ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की जब सूर्य या चन्द्रमा की युति राहू या केतु से हो जाती है तो इस दोष का निर्माण होता है। चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोष की अवस्था में जातक डर व घबराहट महसूस करता है। चिडचिडापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। माँ के सुख में कमी आती है। किसी भी कार्य को शुरू करने के बाद उसे सदा अधूरा छोड़ देना व नए काम के बारे में सोचना इस योग के लक्षण हैं। मैंने अपने ३ साल के छोटे से अनुभव में ऐसी कई कुण्डलियाँ देखी है जिनमे यह योग बन रहा था और जातक किसी न किसी फोबिया या किसी न किस प्रकार का डर से ग्रसित थे। जिन लोगो में दिमाग में हमेशा यह डर लगा रहता है, उदाहरण के लिए समझे कि “मैं पहड़ो पर जैसे मनाली या शिमला घूमने जाऊँगा तो बस पलट जाएगी। रेल से वहां जाऊंगा तो रेल में बम बिस्फोट हो जायेगा।” इस प्रकार के सारे नकारात्मक विचार इसी दोष के कारण मन में आते है। अमूमन किसी भी प्रकार के फोबिया अथवा किसी भी मानसिक बीमारी जैसे डिप्रेसन ,सिज्रेफेनिया आदि इसी दोष के प्रभाव के कारण माने गए हैं यदि यहाँ चंद्रमा अधिक दूषित हो जाता है या कहें अन्य पाप प्रभाव में भी होता है, तो मिर्गी ,चक्कर व पूर्णत: मानसिक संतुलन खोने का डर भी होता है। सूर्य द्वारा बनने वाला ग्रहण योग पिता सुख में कमी करता है। जातक का शारीरिक ढांचा कमजोर रह जाता है। आँखों व ह्रदय सम्बन्धी रोगों का कारक बनता है। सरकारी नौकरी या तो मिलती नहीं या उसको निभाना कठिन होता है डिपार्टमेंटल इन्क्वाइरी, सजा, जेल, परमोशन में रुकावट सब इसी दोष का परिणाम है।
उपाय – जरूरी नही की हम हज़ारो रुपए लगा कर, भारी भरकम उपाय कर के ही ग्रहों का या भगवन का पूजन कर उपाय करे जैसे की आजकल ज्योतिष बताते है। बरन हम छोटे छोटे उपाय करके भी भगवन तथा ग्रहों को प्रसन्न कर सकते है। बस उस किये गए उपाय में सच्ची श्रधा भाव तथा उस परम पिता परमेश्वर में विश्वास होना अनिवार्य है। सूर्य देवता के लिए और चन्द्र देवता के लिए भी हम यह उपाय कर उन अपनी कुण्डली में उन्हें बलवान बना सकते है।
सूर्य से बने ग्रहण दोष में या कुण्डली में सूर्य देव के कमजोर होने पर हमे सूर्य देवता को प्रीतिदिन अर्घ्य देना चाहिए उसमे थोड़ा गुड, कुमकुम तथा कनेर के पुष्प या कोई भी लाल रंग पुष्प डाले तथा सूर्य भगवान को यह मंत्र “ॐ घृणि सूर्याय नमः ” या “ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः” जप ते हुए अर्घ्य दे। इसके अलावा अति प्राचीन और सर्वमान्य आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ सूर्य देवता की पूजा करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथा सर्वोपरि माना गया है तथा यह अपने प्रभाव जातक को शीघ्र ही अनुभव में करवा देता है।
चन्द्रमा और राहु या केतु से बनने वाले चन्द्र ग्रहण दोष के लिए सबसे अच्छा उपाय शिव जी भगवन की पूजा उनका प्रीतिदिन जल से कच्चे दूध से अभिषेक करना अति लाभदायक सिध्द होता है क्योंकि चन्द्रमा शिव जी भगवान की जटाओं में विराजमान है तथा शिव जी भगवन की पूजा से अति प्रस्सन होता है। इसके अलावा चन्द्रमा देवता के यन्त्र को घर में पूजा की जगह विराजित करे और अपनी पूजा के समय (सुबह और शाम) यन्त्र का भी धूप दीप से पूजन करे चन्द्रमा के मंत्र “ॐ श्राम श्रीम् श्रोम सः चन्द्रमसे नमः ” का जाप करे ।
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केमद्रुम योग या दोष –
प्रिय पाठकों/मित्रों, ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चन्द्रमा से बनने वाला ये दोष अपने आप में महासत्यानाशी दोष है यदि चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश दोनों स्थानों में कोई ग्रह नही हो तो केमद्रुम नामक या दोष बनता है या फिर आप इसे इस प्रकार समझे चन्द्रमा कुंडली के जिस भी घर में हो, उसके आगे और पीछे के घर में कोई ग्रह न हो। इसके अलावा चन्द्रमा की किसी ग्रह से युति न हो या चंद्र को कोई शुभ ग्रह न देखता हो तो कुण्डली में केमद्रुम दोष बनता है। केमद्रुम दोष के संदर्भ में छाया ग्रह राहु केतु की गणना नहीं की जाती है। जिस भी व्यक्ति की कुण्डली में यह दोष बनता हो उसे सजग हो जाना चाइये।
इस दोष में उत्पन्न हुआ व्यक्ति जीवन में कभी न कभी किसी न किस पड़ाव पर दरिद्रता एवं संघर्ष से ग्रस्त होता है। अपने ज्योतिष के अनुभव में मेने ऐसे ऐसे व्यक्ति देखे है जिन्होंने बड़ी मेहनत करके पैसा कमाया लेकिन कुछ एक सालो बाद सब बर्बाद हो गया, तो यह इसी दोष कार्य का है। जीवन में सब कुछ वापिस ले लेना और फिर शून्य स्थिति में लाना भी इसी दोष का कार्य है।
इसके साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति अशिक्षित या कम पढा लिखे , निर्धन एवं मूर्ख भी हो सकते है। यह भी कहा जाता है कि केमदुम योग वाला व्यक्ति वैवाहिक जीवन और संतान पक्ष का उचित सुख नहीं प्राप्त कर पाता है। वह सामान्यत: घर से दूर ही रहता है। व्यर्थ बात करने वाला होता है कभी कभी उसके स्वभाव में नीचता का भाव भी देखा जा सकता है।
उपाय – केमद्रुम योग के अशुभ प्रभावों को दूर करने हेतु कुछ उपायों को करके इस योग के अशुभ प्रभावों को कम करके शुभता को प्राप्त किया जा सकता। सोमवार के दिन भगवान शिव के मंदिर जाकर शिवलिंग का जल व गाय के कच्चे दूध से अभिषेक करे व पूजा करें। भगवान शिव ओर माता पार्वती का पूजन करें। रूद्राक्ष की माला से शिवपंचाक्षरी मंत्र ” ऊँ नम: शिवाय” का जप करें ऎसा करने से केमद्रुम योग के अशुभ फलों में कमी आएगी। घर में दक्षिणावर्ती शंख स्थापित करके नियमित रुप से श्रीसूक्त का पाठ करें। दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर उस जल से देवी लक्ष्मी की मूर्ति को स्नान कराएं तथा चांदी के श्रीयंत्र में मोती धारण करके उसे सदैव अपने पास रखें या धारण करें।
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कमजोर चन्द्रमा का अन्य ग्रहों पर प्रभाव——
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया कीयदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा कमजोर हो तो अन्य ग्रहों की सार्थकता कम हो जाती है.पूर्ण चन्द्रमा शुभ ग्रह की श्रेणी में आता है व अपूर्ण चन्द्रमा अशुभ ग्रह की श्रेणी में आता है.
उपाय और लाभ—-
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चन्द्रमा के अधिदेवता भी शिव हैं और इसके प्रत्याधिदेवता जल है. अत: महामृत्युंजय मंत्र जाप शिव पूजा एवं शिव कवच का पाठ चंद्रपीड़ा में श्रेयस्कर है ही,साथ ही प्रत्याधिदेवता जल होने के कारण गणेशोपासना (विशेष रुप से केतु के साथ चंद्र हो तो) भी शुभदायी है,क्योंकि गणेश जलतत्व के स्वामी हैं. गौरी,दुर्गा,काली,ललिता और भैरव की उपासना भी हितकर है.
दुर्गा सप्तशती का पाठ तो नवग्रह पीड़ा में लाभप्रद रहता ही है, क्योंकि यह समस्त ग्रहों को अनुकूल करता है व सर्व सिद्धिदायक है. इसके अलावा चंद्र मंत्र व चंद्रस्तोत्र का पाठ भी अतिशुभ है.
चंद्रमा की पीड़ा शांति के निमित्त नियमित (अथवा कम से कम सोमवार को) चंद्रमा के मंत्र का 1100 बार जाप करना अभिष्ट होता है.
जाप मंत्र इस प्रकार है-
ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:.
चंद्र नमस्कार के लिए निम्लिखित मंत्र का प्रयोग करें-
दधि शंख तुषारामं क्षीरोदार्णव सम्भवम्.
नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मकुट भूषणम्..
चंद्रमा सोम के नाम से भी जाने जाते हैं तथा मन,औषधियों एवं वनस्पतियों के स्वामी कहे गए हैं.
शिव का महामृत्युंजय मंत्र तो चंद्र पीड़ा के साथ-साथ सभी ग्रह पीड़ाओं का निवारण कर मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य देता है. वह इस प्रकार है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्ष्रिय मामृतात्.
इसे मृत संजीवनी मंत्र भी कहा गया है.यह मंत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य़ द्वारा दधीचि ऋषि को प्रदान किया गया था.चन्द्र दोष निवारण के लिये शिवरात्रि पर रुद्राभिषेक करवाएं.यदि आपके आसपास कोई शिव मंदिर हो तो वहां जाकर विशेष पूजा -अर्चना करनी चाहिए.उस रात्रि को संभव हो तो शिव मंदिर में जाकर जागरण करें |
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जन्म कुंडली के सभी भाव में ग्रहण दोष और उनका निवारण—
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ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की लग्न कुंडली में किसी भी भाव में सूर्य के साथ केतु या चंद्रमा के साथ राहू की युति हो तो ग्रहण योग बनता है |इसके अलावा सप्तम या द्वादश भाव में नीच के शुक्र [कन्या राशी में ] के साथ राहू की युति को भी कुछ विद्वान ग्रहण दोष की संज्ञा देते है |
ग्रहण योग का दुष्प्रभाव कुंडली के विभिन्न भावों में अलग – अलग देखने को मिलता है |
प्रथम भाव- व्यक्ति गुस्सेल, स्वस्थ्य में कमी, रुखा स्वभाव व निज स्वार्थ सर्वोपरी मानने वाला होता है |
द्वितीय भाव- धन की चिंता करना, सरकारी छापे राजकार्य में धन की बर्बादी और मेहनत का परिणाम अल्प मिलता है |
तीसरा भाव- भाई-बंधुओ से कलह रहती है | यह योग जातक को शांतचित नही रहने देता |
चतुर्थ भाव- मानसिक परेशानी व अस्थिरता, निकटस्थ लोगो से वैचारिक मतभेद व हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति होता है |
पंचम भाव- बचपन कठोर व वृद्धावस्था संघर्षो से भरी हुई होती है | दरिद्रता, मित्रो का अभाव व गृह कलह रहता है |
छठा भाव- विविध रोग विशेष कर हृदय रोग, कदम कदम पर दुश्मनी पालने वाला, परस्त्रीगामी, संदेहास्पद व्यक्तित्व का जातक होता है |
सप्तम भाव- क्रोधी स्वभाव, कायाक्षीण, द्वि- भार्या योग,संकीर्ण मनोवृति व जीवनसाथी हमेशा स्वस्थ्य से संघर्षशील रहता है |
अष्टम भाव- अल्पायु योग का निर्माण, दुर्घटना का भय, बीमारी व दुष्ट मित्रो के माध्यम से धन का नाश होता है | यदि अन्य योग ठीक हो तो अल्पायु योग समाप्त हो सकता है
नवम भाव- शिक्षा व आजीविका के लिए निरंतर संघर्ष, व्यर्थ की यात्राएं, किसी का भी सहयोग नही, भाग्य वृद्धि 48 वर्ष के पश्चात होती है |
दशम भाव- माता-पिता के सुख में कमी, असंयमी, रोजगार के लिए संघर्षशील व्यक्ति रहता है |
ग्यारवाँ भाव- जिद्दी, गलत बात पर अड़ने वाला, आय के साधन अनिश्चित, ठगी, खुद भी धोखा खा सकता है |
बारहवां भाव- संघर्षशील व परेशानो का भरा जीवन, प्रेम विवाह [जाती से बहार] योग, व्यर्थ के व्ययों की भरमार, पिता के सुख में कमी व निरंतर उत्थान पतन का सामना करना पड़ता है |
ऐसे करें दोष निवारण उपाय —-
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जयंतीमंगला काली भद्रकाली कृपालिनी |
दुर्गा क्षमा शिव धात्री, स्वाहा सवधा नमोस्तुते ||
ग्रहण योगजनित दोषों का निवारण जयंती का अवतार जीण की आराधना से होता है |
इसका ज्वलंतउदाहरण यह है के हमारे यहाँ पर ग्रहण काल में किसी भी देवी-देवता की पूजा नही होती है | जबकि जीण की पूजा ग्रहण काल में भी मान्य है | गृह जनित योग यहाँ पर निष्प्रभावी हो जाते है | इस लिए जिन लोगो की कुंडली में ग्रहण-दोष है, वे निम्न प्रकार जीण की आराधना करे | जीण के नाम से संकल्प लेकर शुक्लपक्ष की अष्टमी के 42 उपवास करे | यदि ग्रहण दोष 1 , 3 , 6 , 8 , 11 , व
12 , भावों में है, तो शुक्लपक्ष की एकम से जीण की प्रतिमा के आगे तेल की अखंड जोत जलाकर अष्टमी तक नित्य पूजा अर्चना करे | शेष भावों 2 , 4 , 5 , 7 , 9 व 10 , भावों में ग्रहण दोष है, तो अखंड जोत घी की जलाई जाती है व शेष क्रिया यथावत रखे | इससे ग्रह दोष जनित बाधाओं का निवारण होता है |