दहेज प्रथा – एक सामाजिक अभिशाप
भारतीय समाज में अनेक प्रथाएं प्रचलित हें । पहले इस प्रथा के प्रचलन में भेंट स्वरूप बेटी को उसके विवाह पर उपहारस्वरूप कुछ दिया जाता था परन्तु आज दहेज प्रथा एक बुराई का रूप धारण करती जा रही है । दहेज के अभाव में योग्य कन्याएं अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं । लोग धन देकर लड़कियों को खरीद लेते हैं । ऐसी स्थिति में पारिवारिक जीवन सुखद नहीं बन पाता । गरीब परिवार के माता-पिता अपनी बेटियों का विवाह नहीं कर पाते क्योंकि समाज के दहेज-लोभी व्यक्ति उसी लड़की से विवाह करना पसंद करते हैं जो अधिक दहेज लेकर आती हैं ।
हमारे देश में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, चाहे वे मानसिक हों या फिर शारीरिक, को बढावा देता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. अमीर और संपन्न परिवार जिस प्रथा का अनुसरण अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए करते हैं वहीं निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी के विवाह में दहेज देना उनके लिए विवशता बन जाता है. क्योंकि वे जानते हैं कि अगर दहेज ना दिया गया तो यह उनके मान-सम्मान को तो समाप्त करेगा ही साथ ही बेटी को बिना दहेज के विदा किया तो ससुराल में उसका जीना तक दूभर बन जाएगा. संपन्न परिवार बेटी के विवाह में किए गए व्यय को अपने लिए एक निवेश मानते हैं. उन्हें लगता है कि बहूमूल्य उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह सीधा उनकी अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा. इसके अलावा उनकी बेटी को भी ससुराल में सम्मान और प्रेम मिलेगा |
मूल रूप से दहेज की कुप्रथा है। गौरतलब है कि भारत में ८.९ प्रतिशत लड़कियाँ १३ वर्ष की उम्र से पहले ब्याह दी जाती हैं जबकि अन्य २३.५ प्रतिशत लड़कियों की शादी १५ वर्ष की आयु तक हो जाती है। जाहिर है लड़की जितनी पढ़ेगी-बढ़ेगी उतना ही उपयुक्त वर तलाशना होगा और उसके रेट के मुताबिक दहेज जुटा पाना सबके बूते की बात नहीं है इसलिए कम उम्र की कम पढ़ी-लिखी लड़की ब्याह कर कन्यादान का पुण्य प्राप्त करना अधिकांश लोग बढ़िया मान लेते हैं। दहेज के दानव के भय से ही पूरे देश में गैरकानूनी अल्ट्रासाउंंड क्लीनिकों में हर रोज लाखों लड़कियाँ माँ की कोख में ही मार दी जा रही है। लड़कियों के पोषण से संबंधित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रत्येक पैदा हुई १००० लड़कियों में से ७६६ लड़कियाँ ही समाज में जीवित रहती हैं। लड़कियों की उपेक्षा का आलम ये है कि संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों ने भी यह समझना नहीं चाहा है कि परिवार में बेटियों का जन्म नहीं होगा तो इसी परिवार में बहुएँ कहाँ से आएँगी।
हमारा सामाजिक परिवेश कुछ इस प्रकार बन चुका है कि यहां व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके आर्थिक हालातों पर ही निर्भर करती है. जिसके पास जितना धन होता है उसे समाज में उतना ही महत्व और सम्मान दिया जाता है. ऐसे परिदृश्य में लोगों का लालची होना और दहेज की आशा रखना एक स्वाभाविक परिणाम है. आए दिन हमें दहेज हत्याओं या फिर घरेलू हिंसा से जुड़े समाचारों से दो-चार होना पड़ता है. यह मनुष्य के लालच और उसकी आर्थिक आकांक्षाओं से ही जुड़ी है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिसे जितना ज्यादा दहेज मिलता है उसे समाज में उतने ही सम्माननीय नजरों से देखा जाता है.
दहेज कम लाने पर शादी के पश्चात् बहुओं को मारा- पीटा जाता है । यहां तक कि उन्हें जला दिया जाता है । उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है । प्राचीन काल में स्त्री-पुरुष का प्रणय-बंधन कभी एक पुनीत रीति था । माता-पिता इसे अपना कर्त्तव्य समझते थे । कन्यादान को महादान समझा जाता था । बेटी के विवाह पर कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष के लोगों को प्रेम से जो भी उपहार देते थे वर पक्ष उसे स्वीकार करता था ।
कालांतर में उसने दहेज का रूप धारण कर लिया है । आज उस दहेज के नाम पर बड़ी-बड़ी चीजों की मांग की जाती है । दहेज न दे पाने के कारण बारात वापिस ले जाते हैं । लोग आज दहेज मांगने में जरा भी लज्जा महसूस नहीं करते । पैसे वाले लोग अपनी बेटियों के विवाह पर अपार धन खर्च करते हैं । बड़ी-बड़ी चीजें जैसे ए .सी., गाड़ियां, कीमती वस्त्र १ गहने आदि चीजें देते हैं । उसी की देखा – देखी वर पक्ष के लोग गरीब या -मध्यम वर्ग के परिवारों से भी बड़ी- – बड़ी चीजों की मांग करते है । ओज इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है ।
यह समस्या प्रत्येक लड़की के माता-पिता की समस्या बन गई है । इस समस्या ने असंख्य कन्याओं के माता–पिता का चैन लूट लिया है । दहेज के कारण पढ़ी-लिखी, सुंदर, सुशील, कमाऊ लड़कियों की भी शादी नहीं हो पा रही है । लड़का कुरूप तथा मोटी लड़की से भी शादी कर लेता है क्योंकि वह खूब सारा दहेज लेकर आती है परन्तु उसे मध्यम वर्ग की सुंदर सुशील लड़की से विवाह करना ग्वारा नहीं जो दहेज कम लाएगी । प्रतिदिन अखबारों में दहेज उत्पीड़न के मामले पढ़ने को मिलते हैं । आज शादी का बंधन पवित्रता का बंधन नहीं बल्कि सौदेबाजी का व्यापार बन गया है ।
आज दहेज का दावानल पूरे के पूरे युवा पीढ़ी को निगल रही है। आज बेरोजगार और बेकार युवा की कीमत दो लाख तक लग जाती है और नौकरी बालों की बोली तो जब लगती है तो जो सर्वाधिक दे उसी के हाथ बिकेगा। दहेज का डायन होने के कई प्रमाण है और सबसे बड़ा प्रमाण यह कि जब बहू जब घर में आती है तो अपने साथ दहेज के अभिमान को भी लेकर आती है नतीजा सुख-चैन की समाप्ति हो जाती है और बहूओं के आत्महत्या इसका चरम है.. आज दहेज के औचित्य पर भी कई तरह के सवाल उठ रहे है। सबसे पहला यह कि हम दहेज लेकर अपनी शानो-शौकत का जो दिखावा करते है क्या वह उचित है? दूसरे के पैसा पर यह दिखावा झूठी शान ही तो है? यदि दिखावा ही करना है तो अपने पैसे से करें। दहेज का रेट आज सातवें आसमान पे है। इसके लिए केवल दहेज लेने वाला ही दोषी नहीं बल्कि देने वाला भी उतना ही दोषी है। आज चपरासी भी नौकरी लगी नहीं कि उसे खरीदनो वालों की लाइन लग जाती है और न तो उसके संस्कार देखे जाते है और न ही उसका चरित्र। इसमें सबसे बड़ा दोषी हमारा युवा वर्ग है जिसके कंधे पर समाज को बदलने की जिम्मेवारी है वही पैसे के पीछे इतनी दिवानगी दिखाता है कि शर्म आ जाए और अभिभावक जब बहू के द्वारा सम्मान नहीं मिलने की बात कहते है तो हंसी आती है।
दहेज के दानव के भय से ही पूरे देश में गैरकानूनी अल्ट्रासाउंंड क्लीनिकों में हर रोज लाखों लड़कियाँ माँ की कोख में ही मार दी जा रही है। लड़कियों के पोषण से संबंधित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रत्येक पैदा हुई १००० लड़कियों में से ७६६ लड़कियाँ ही समाज में जीवित रहती हैं। लड़कियों की उपेक्षा का आलम ये है कि संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों ने भी यह समझना नहीं चाहा है कि परिवार में बेटियों का जन्म नहीं होगा तो इसी परिवार में बहुएँ कहाँ से आएँगी।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में भी कहा गया है कि बालिग पुरूषों और महिलाओं को जाति, राष्ट्रीयता अथवा धर्म के किसी बंधन के बिना विवाह करने और घर बसाने का अधिकार है। उन्हें विवाह करने, विवाह के दौरान और विवाह विच्छेद के मामले में समान अधिकार है। इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि विवाह के इच्छुक पति-पत्नी की स्वतंत्र और पूर्ण सहमति से ही विवाह होंगें। इस तरह से दहेज के कारण हुए बेमेल विवाहों, दहेज के नाम पर नित हो रहे शोषण, दहेज उत्पीड़न एवं लड़कियों के जन्म, शिक्षा एवं पोषण में हो रहे सामाजिक पारिवारिक भेदभाव को भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के दायरे में रखा जा सकता है।
मेरी जानकारी के अनुसार कुछ ताजा रेट चार्ट (आप की रेट में संशोधन कर सकते है)
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बेरोजगार- . लाख
चपरासी- 6 से 8
सिपाही- .. से 12
सेना- 7 से 9
प्राइवेट इंजिनियर- 5 से 10
सरकारी इंजिनियर- 10 से 20
कर्ल्क- 12 से 15
ऑफिसर- 20 से .0
(इससे हाई लेवल की जानकारी मुझे नहीं है…आप जोड़ सकते है.. धन्यवाद)
इस घृणित रोग से समाज का रोम-रोम पीड़ित है । सरकार को चाहिए वे समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ नाटकों तथा साहित्य के माध्यम से यह संदेश जन-जन तक पहुंचाए कि दहेज लेना एवं देना पाप है । दहेज लोभियों का पता लगने पर उन्हें दण्डित किया जाएगा तथा सजा दी जाएगी । आधुनिक युग में कन्या की श्रेष्ठता उसके गुणों से नहीं बल्कि उसके पिता द्वारा दी जाने वाली दहेज की रकम एवं वस्तुओं से की जाती है । आज इसी कारण बेटियों को बोझ समझा जाता है । उसके जन्म लेने पर खुशियां नहीं मनाई जातीं ।
कन्या को गर्भ में ही मार दिया जाता है । भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, तलाक, वेश्यावृत्ति, बेमेल विवाह जैसी अनेक बुराईयां दहेज प्रथा के कारण हा पनपती हैं । इस कुप्रथा के कारण ही अनेक लड़कियां अविवाहित रह जाती हैं या अयोग्य लोगों के पल्ले बांध दी जाती हैं । कितनी ही लड्कियां दहेज के कारण अपने प्राण न्यौछावर कर चुकी हैं और कितनी ही लड्कियां अपने माता-पिता पर बोझ बनकर बैठी हैं ।
दहेज प्रथा के खिलाफ सरकार द्वारा बनाई गई कमजोर नीतियों के कारण बनाए गए कानून कारागार सिद्ध नहीं हुए । इस कुरीति को मिटाने के लिए युवा वर्ग को जागृत होना होगा, बुराई के विरोध में खड़े होना होगा । दहेज देने तथा लेने वालों का बहिष्कार करना होगा । तभी इस कुरीति को जड़ से समाप्त किया जा सकता है ।
इस प्रथा के कारण ही समाज में बाल विवाह, अनमेल विवाह तथा विवाह विच्छेद जैसी प्रथायें अस्तित्व में आ गयी हैं। इसके कारण कितनी समस्यायें बढ़ रही हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन है। सबसे पहले तो यह कि जन्म से पूर्व ही माँ के गर्भ में जांच के बाद लड़कियों को मारने के कारण लड़के लड़कियों की संख्या का अनुपात बिगड़ गया है। दूसरा, दहेज देने की होड़ में लड़की के माता पिता कर्जदार होकर अपनी परेशानियां बढ़ा रहे हैं। वहीं लड़के वाले लालच में आकर अधिक दहेज के लिये नवविवाहता को तंग करते हैं अथवा जलाकर मारने जैसा घृणित कार्य भी करते हैं। कई बार लड़की यह सब ताने और अत्याचार नहीं सह पाती तो आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती है या तलाक के लिये मजबूर हो जाती हैं
दहेज एक सामाजिक कोढ़ है। इससे छुटकारा पाने के लिये हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। लड़कियों को लड़कों के बराबर दर्जा देना होगा। उनको शिक्षित करना होगा। सरकार ने दहेज लोभियों को दंडित करने के लिए अनेक नियम बनाए हैं परन्तु फिर भी यह प्रथा समाज में पनप रही है । वर को चाहिए कि वह जहां भी विवाह करेगा वह दहेज के बिना होगा तथा वधू को चाहिए कि वे दहेज लोभी वर तथा उसके परिवार से संबंध रखने एवं विवाह करने से ही मना कर दे । वर की योग्यता एवं पद के अनुसार दहेज की मांग की जाती है । कभी-कभी तो वर पक्ष के लोग दहेज की मांग विवाह-मंडप में रखते हैं ताकि कन्या पक्ष के लोग मान-मर्यादा की खातिर उनकी हर मांग पूरी करने पर विवश हो जाएं ।
दहेज प्रथा हमारे समाज की सबसे बुरी कुरीतियों मे से एक है जिसका निराकरण भी समाज के हित में जरूरी है। इसके लिए भारतीय दंड विधान संहिता के प्रावधानों के अलावे विशेष रूप से दहेज निषेध अधिनियम, १९६१ लागू है जिसके अन्तर्गत प्रबंध निदेशक, राज्य महिला विकास निगम को राज्य दहेज निषेध पदाधिकारी एवं जिला कल्याण पदाधिकारी को जिला दहेज निषेध पदाधिकारी घोषित किया गया है। हर माह में हरेक जिले के डी एम एवं एस पी को एक दिन दहेज विरोधी दरबार लगाने के साथ-साथ क्षेत्रान्तर्गत आयोजित विवाह समारोहों की सूचना संधारित की जानी है एवं दहेज निषेध अधिनियम के उल्लंघन की स्थिति में निकटतम थाने में प्राथमिकी दर्ज किया जाना है। ग्रामीण क्षेत्रों मे पंचायत स्तर पर एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड स्तर पर आयोजित विवाह समारोहों के रिकार्ड रखने के लिए बाजाब्ता प्रपत्र परिचालित हैं जिनमें वर-वधू को प्राप्त उपहारों की सूची बनाकर वर-वधू एवं गवाहों का हस्ताक्षर लिया जाना है। सरकार ने दहेज-निषेध पदाधिकारी को यह भी निर्देश दे रखा है कि दहेज-निषेध के कतिपए प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति की बाद में सूचना मिलने पर भी थाने में एक आई आर दर्ज करें। भारतीय दंड संहिता की धारा- ३०४ बी, ४९८ ए एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा- ३,४ एवं ६ (२) के अन्तर्गत थाने में दायर इन मुकदमों की पैरवी भी सरकारी स्तर से थाने से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक समाज कल्याण विभाग को ही करना है।
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दहेज प्रथा – एक सामाजिक अभिशाप
भूमिका- भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियां इस गौरवशाली समाज के माथे पर कलंक हैं । जाति-पाति, छुआछूत और दहेज जैसी प्रथाओं के कारण विश्व के उन्नत समाज में हमारा सिर लाज से झुक जाता है । समय-समय पर अनेक समाज सुधारक तथा नेता इन कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करते हैं, किन्तु इनका समूल नाश सम्भव नहीं हो सका । दहेज प्रथा तो दिन-प्रतिदिन अधिक भयानक रूप लेती जा रही है ।
अनेक समाचार- समाचार-पत्रों कें पृष्ठ उलटिये, आपको अनेक समाचार इस प्रकार के दिखाई देंगे-सास ने बहू पर तेल छिड़क कर आग लगा दी, दहेज के लोभियों ने बारात लौटाई, स्टोव फट जाने से नवविवाहिता की मृत्यु……….. इत्यादि । इन समाचारों का विस्तृत विवरण पढ़कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हम सोचते हैं, क्या मनुष्य सचमुच इतना निर्मम तथा जालिम हो सकता है?
दहेज का अर्थ व इसका आरम्भ- दहेज का अर्थ है, विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुएँ । हमारे समाज में विवाह के साथ लड़की को माता-पिता का घर छोड्कर पति के घर जाना होता है । इस अवसर पर अपना स्नेह प्रदर्शित करने के लिए कन्या-पक्ष के लोग लड़की, लड़के तथा लड़के सम्बन्धियों को यथाशक्ति भेंट दिया करते हैं । यह प्रथा कब शुरू हुई, कहा नहीं जा सकता । लगता है कि यह प्रथा अत्यन्त प्राचीन है । हमारी लोक कथाओं और प्राचीन काव्यों में दहेज प्रथा का काफी वर्णन हुआ है ।
सात्विक रूप- दहेज एरक सात्विक प्रथा थी । पिता के सम्पन्न घर से पतिगृह में प्रवेश करते ही पुत्री के लिए पिता का घर पराया हो जाता था । उसका पितृगृह से अधिकार समाप्त हो जाता था अत: पिता अपनी सम्पन्नता का कुछ भाग दहेज के रूप में विदाई के समय कन्या को देता था ‘ दहेज मैं एक सात्विक भावना और भी है । कन्या अपने घर में श्री समृद्धि की सूचक बने । अत: उसका खाली हाथ पतिगृह में प्रवेश अपशकुन माना जाता है । फलत: वह अपने साथ वस्त्राभूषण, बर्तन तथा अन्य पदार्थ लै जाती है ।
कन्या धरोहर- कालिदास ने ‘ अभिज्ञान शाकुन्तलम् ‘ में कन्या को पराई वस्तु कहा है । वस्तुत: वह धरोहर है, जिसे पिता- पाणिग्रहण करके सौंप देता है । जिस प्रकार बैंक अपने पास जमा की गई धरोहर राशि को ब्याज सहित चुकाता है, उसी प्रकार पिता भी धरोहर ‘दू कन्या) को सूद दहेज) सहित लौटाता है । इस प्रकार दहेज में कुछ आर्थिक कर्त्तव्य की भावना भी निहित है.
विकृत रूप- हजार वर्ष -की पराधीनता और स्वतन्त्रता के गत 55 वर्षों की स्वच्छन्दता ने दहेज प्रथा को विकृत कर दिया है । कन्या की श्रेष्ठता, शील, सौन्दर्य से नहीं बल्कि दहेज से और्को जाने लगी । कन्या की कुरूपता और कुसंस्कार दहेज के आवरण में आच्छादित हो गए । खुले आम वर की बोली बोली जाने लगी । दहेज में प्राय: राशि से परिवारों का मूल्यांकन होने लगा । समस्त समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष नहीं, गुण बन जाता है । फलत: दहेज सामाजिक विशेषता बन गई । दहेज प्रथा जो आरम्भ में स्वेच्छा और स्नेह से भेंट होने तक सीमित रही होगी धीरे- धीरे विकट रूप धारण करने लगी ? है । वर पक्ष के लोग विवाह से पहले ही दहेज में ली जाने वाली धन-राशि तथा अन्य वस्तुओं का निश्चय करने लगे हैं ।
लोभी वृत्ति- एक और वर पक्ष की लोभी वृत्ति ने इस .रीति को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर ऐसे लोग जिन्होंने काफी काला धन इकट्ठा कर लिया था, बढ़-चढ़ कर दहेज देने लगे । उनकी देखा-देखी अथवा अपनी कन्याओं के लिए अच्छे वर तलाश करने के इच्छुक निर्धन लोगों को भी दहेज का प्रबन्ध करना पड़ा । इसके लिए बड़े-बड़े कर्ज लेने पड़े, सम्पत्ति बेचनी पड़ी, अपार परिश्रम करना पड़ा लेकिन वर पक्ष की मांगें सुरसा के मुख की भान्ति बढ़ती गईं ।
मुख्य कारण- दहेज कुप्रथा का एक मुख्य कारण यह भी है कि आज तक हम नारी को नर के बराबर नहीं समझते हैं । लड़के वाले समझते हैं कि वे लड़की वालों पर बड़ा एहसान कर रहे हैं । यही नहीं विवाह के बाद भी वे लड़की को मन से अपने परिवार का अंग नहीं बना पाते । यही कारण है कि वे हृदयहीन बनकर भोली- भाली, भावुक, नवविवाहित युवती को इतनी कठोर यातनाएं देते हैं ।
समस्या का समाधान- दहेज प्रथा बन्द कैसे हो, इस प्रश्न का एक सीधा-सा उत्तर है-कानून से । लेकिन हम देख चुके हैं कि कानून से कुछ नहीं हो सकता । कानून लाग करने के लिए एक ईमानदार व्यवस्था की जरूरत है । इसके अतिरिक्त जब तक सशक्त गवाह और पैरवी करने वाले दूसरे लोग दिलचस्पी न लेंगे, पुलिस तथा अदालतें कुछ न कर सकेंगी । दहेज को समाप्त करने के लिए एक सामाजिक चेतना आवश्यक है । कुछ गांवों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि जिस घर में बड़ी बारात आए या जो लोग बड़ी बारात ले जाएं उनके घर गांव का कोई निवासी बधाई देने नहीं जाता । दहेज के लोभी लड़के वालों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता है ।
दहेज प्रथा हमारे समाज की सबसे बुरी कुरीतियों मे से एक है जिसका निराकरण भी समाज के हित में जरूरी है। इसके लिए भारतीय दंड विधान संहिता के प्रावधानों के अलावे विशेष रूप से दहेज निषेध अधिनियम, १९६१ लागू है जिसके अन्तर्गत प्रबंध निदेशक, राज्य महिला विकास निगम को राज्य दहेज निषेध पदाधिकारी एवं जिला कल्याण पदाधिकारी को जिला दहेज निषेध पदाधिकारी घोषित किया गया है। हर माह में हरेक जिले के डी एम एवं एस पी को एक दिन दहेज विरोधी दरबार लगाने के साथ-साथ क्षेत्रान्तर्गत आयोजित विवाह समारोहों की सूचना संधारित की जानी है एवं दहेज निषेध अधिनियम के उल्लंघन की स्थिति में निकटतम थाने में प्राथमिकी दर्ज किया जाना है। ग्रामीण क्षेत्रों मे पंचायत स्तर पर एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड स्तर पर आयोजित विवाह समारोहों के रिकार्ड रखने के लिए बाजाब्ता प्रपत्र परिचालित हैं जिनमें वर-वधू को प्राप्त उपहारों की सूची बनाकर वर-वधू एवं गवाहों का हस्ताक्षर लिया जाना है। सरकार ने दहेज-निषेध पदाधिकारी को यह भी निर्देश दे रखा है कि दहेज-निषेध के कतिपए प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति की बाद में सूचना मिलने पर भी थाने में एक आई आर दर्ज करें। भारतीय दंड संहिता की धारा- ३०४ बी, ४९८ ए एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा- ३,४ एवं ६ (२) के अन्तर्गत थाने में दायर इन मुकदमों की पैरवी भी सरकारी स्तर से थाने से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक समाज कल्याण विभाग को ही करना है।
युवक आगे आएं- दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए स्वयं युवकों को आगे आना चाहिए । उन्हें चाहिए कि वे अपने माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों को स्पष्ट शब्दों में कह दें-शादी होगी तो बिना दहेज के होगी । इन युवकों को चाहिए कि वे उस सम्बन्धी का डटकर विरोध करें जो नवविवाहिता को शारीरिक या मानसिक कष्ट देते है ।
नारी की आर्थिक स्वतन्त्रता- दहेज-प्रथा की विकटता को कम करने में नारी का आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होना भी बहुत हद तक सहायक होता है । अपने पैरों पर खड़ी युवती को दूसरे लोग अनाप-शनाप नहीं कह सकते । इसके अतिरिक्त चूंकि वह चौबीस घण्टे घर पर बन्द नहीं रहेगी, सास और ननदों की छींटा-कशी से काफी बची रहेगी । बहू के नाराज हो जाने से एक अच्छी-खासी आय हाथ से निकल जाने का भय भी उनका मुख बन्द किए रखेगा ।
उपसंहार- दहेज प्रथा हमारे समाज का कोढ है । यह प्रथा साबित करती है कि हमें अपने को सभ्य मनुष्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं है । जिस समाज में दुल्हनों को प्यार की जगह यातना दी जाती है, वह समाज निश्चित रूप से सभ्यों का नहीं, नितान्त असभ्यों का समाज है । अब समय आ गया है कि हम इस कुरीति को समूल उखाड़ फेंके ।
भारतीय समाज में अनेक प्रथाएं प्रचलित हें । पहले इस प्रथा के प्रचलन में भेंट स्वरूप बेटी को उसके विवाह पर उपहारस्वरूप कुछ दिया जाता था परन्तु आज दहेज प्रथा एक बुराई का रूप धारण करती जा रही है । दहेज के अभाव में योग्य कन्याएं अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं । लोग धन देकर लड़कियों को खरीद लेते हैं । ऐसी स्थिति में पारिवारिक जीवन सुखद नहीं बन पाता । गरीब परिवार के माता-पिता अपनी बेटियों का विवाह नहीं कर पाते क्योंकि समाज के दहेज-लोभी व्यक्ति उसी लड़की से विवाह करना पसंद करते हैं जो अधिक दहेज लेकर आती हैं ।
हमारे देश में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, चाहे वे मानसिक हों या फिर शारीरिक, को बढावा देता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. अमीर और संपन्न परिवार जिस प्रथा का अनुसरण अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए करते हैं वहीं निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी के विवाह में दहेज देना उनके लिए विवशता बन जाता है. क्योंकि वे जानते हैं कि अगर दहेज ना दिया गया तो यह उनके मान-सम्मान को तो समाप्त करेगा ही साथ ही बेटी को बिना दहेज के विदा किया तो ससुराल में उसका जीना तक दूभर बन जाएगा. संपन्न परिवार बेटी के विवाह में किए गए व्यय को अपने लिए एक निवेश मानते हैं. उन्हें लगता है कि बहूमूल्य उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह सीधा उनकी अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा. इसके अलावा उनकी बेटी को भी ससुराल में सम्मान और प्रेम मिलेगा |
मूल रूप से दहेज की कुप्रथा है। गौरतलब है कि भारत में ८.९ प्रतिशत लड़कियाँ १३ वर्ष की उम्र से पहले ब्याह दी जाती हैं जबकि अन्य २३.५ प्रतिशत लड़कियों की शादी १५ वर्ष की आयु तक हो जाती है। जाहिर है लड़की जितनी पढ़ेगी-बढ़ेगी उतना ही उपयुक्त वर तलाशना होगा और उसके रेट के मुताबिक दहेज जुटा पाना सबके बूते की बात नहीं है इसलिए कम उम्र की कम पढ़ी-लिखी लड़की ब्याह कर कन्यादान का पुण्य प्राप्त करना अधिकांश लोग बढ़िया मान लेते हैं। दहेज के दानव के भय से ही पूरे देश में गैरकानूनी अल्ट्रासाउंंड क्लीनिकों में हर रोज लाखों लड़कियाँ माँ की कोख में ही मार दी जा रही है। लड़कियों के पोषण से संबंधित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रत्येक पैदा हुई १००० लड़कियों में से ७६६ लड़कियाँ ही समाज में जीवित रहती हैं। लड़कियों की उपेक्षा का आलम ये है कि संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों ने भी यह समझना नहीं चाहा है कि परिवार में बेटियों का जन्म नहीं होगा तो इसी परिवार में बहुएँ कहाँ से आएँगी।
हमारा सामाजिक परिवेश कुछ इस प्रकार बन चुका है कि यहां व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके आर्थिक हालातों पर ही निर्भर करती है. जिसके पास जितना धन होता है उसे समाज में उतना ही महत्व और सम्मान दिया जाता है. ऐसे परिदृश्य में लोगों का लालची होना और दहेज की आशा रखना एक स्वाभाविक परिणाम है. आए दिन हमें दहेज हत्याओं या फिर घरेलू हिंसा से जुड़े समाचारों से दो-चार होना पड़ता है. यह मनुष्य के लालच और उसकी आर्थिक आकांक्षाओं से ही जुड़ी है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिसे जितना ज्यादा दहेज मिलता है उसे समाज में उतने ही सम्माननीय नजरों से देखा जाता है.
दहेज कम लाने पर शादी के पश्चात् बहुओं को मारा- पीटा जाता है । यहां तक कि उन्हें जला दिया जाता है । उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है । प्राचीन काल में स्त्री-पुरुष का प्रणय-बंधन कभी एक पुनीत रीति था । माता-पिता इसे अपना कर्त्तव्य समझते थे । कन्यादान को महादान समझा जाता था । बेटी के विवाह पर कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष के लोगों को प्रेम से जो भी उपहार देते थे वर पक्ष उसे स्वीकार करता था ।
कालांतर में उसने दहेज का रूप धारण कर लिया है । आज उस दहेज के नाम पर बड़ी-बड़ी चीजों की मांग की जाती है । दहेज न दे पाने के कारण बारात वापिस ले जाते हैं । लोग आज दहेज मांगने में जरा भी लज्जा महसूस नहीं करते । पैसे वाले लोग अपनी बेटियों के विवाह पर अपार धन खर्च करते हैं । बड़ी-बड़ी चीजें जैसे ए .सी., गाड़ियां, कीमती वस्त्र १ गहने आदि चीजें देते हैं । उसी की देखा – देखी वर पक्ष के लोग गरीब या -मध्यम वर्ग के परिवारों से भी बड़ी- – बड़ी चीजों की मांग करते है । ओज इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है ।
यह समस्या प्रत्येक लड़की के माता-पिता की समस्या बन गई है । इस समस्या ने असंख्य कन्याओं के माता–पिता का चैन लूट लिया है । दहेज के कारण पढ़ी-लिखी, सुंदर, सुशील, कमाऊ लड़कियों की भी शादी नहीं हो पा रही है । लड़का कुरूप तथा मोटी लड़की से भी शादी कर लेता है क्योंकि वह खूब सारा दहेज लेकर आती है परन्तु उसे मध्यम वर्ग की सुंदर सुशील लड़की से विवाह करना ग्वारा नहीं जो दहेज कम लाएगी । प्रतिदिन अखबारों में दहेज उत्पीड़न के मामले पढ़ने को मिलते हैं । आज शादी का बंधन पवित्रता का बंधन नहीं बल्कि सौदेबाजी का व्यापार बन गया है ।
आज दहेज का दावानल पूरे के पूरे युवा पीढ़ी को निगल रही है। आज बेरोजगार और बेकार युवा की कीमत दो लाख तक लग जाती है और नौकरी बालों की बोली तो जब लगती है तो जो सर्वाधिक दे उसी के हाथ बिकेगा। दहेज का डायन होने के कई प्रमाण है और सबसे बड़ा प्रमाण यह कि जब बहू जब घर में आती है तो अपने साथ दहेज के अभिमान को भी लेकर आती है नतीजा सुख-चैन की समाप्ति हो जाती है और बहूओं के आत्महत्या इसका चरम है.. आज दहेज के औचित्य पर भी कई तरह के सवाल उठ रहे है। सबसे पहला यह कि हम दहेज लेकर अपनी शानो-शौकत का जो दिखावा करते है क्या वह उचित है? दूसरे के पैसा पर यह दिखावा झूठी शान ही तो है? यदि दिखावा ही करना है तो अपने पैसे से करें। दहेज का रेट आज सातवें आसमान पे है। इसके लिए केवल दहेज लेने वाला ही दोषी नहीं बल्कि देने वाला भी उतना ही दोषी है। आज चपरासी भी नौकरी लगी नहीं कि उसे खरीदनो वालों की लाइन लग जाती है और न तो उसके संस्कार देखे जाते है और न ही उसका चरित्र। इसमें सबसे बड़ा दोषी हमारा युवा वर्ग है जिसके कंधे पर समाज को बदलने की जिम्मेवारी है वही पैसे के पीछे इतनी दिवानगी दिखाता है कि शर्म आ जाए और अभिभावक जब बहू के द्वारा सम्मान नहीं मिलने की बात कहते है तो हंसी आती है।
दहेज के दानव के भय से ही पूरे देश में गैरकानूनी अल्ट्रासाउंंड क्लीनिकों में हर रोज लाखों लड़कियाँ माँ की कोख में ही मार दी जा रही है। लड़कियों के पोषण से संबंधित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रत्येक पैदा हुई १००० लड़कियों में से ७६६ लड़कियाँ ही समाज में जीवित रहती हैं। लड़कियों की उपेक्षा का आलम ये है कि संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों ने भी यह समझना नहीं चाहा है कि परिवार में बेटियों का जन्म नहीं होगा तो इसी परिवार में बहुएँ कहाँ से आएँगी।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में भी कहा गया है कि बालिग पुरूषों और महिलाओं को जाति, राष्ट्रीयता अथवा धर्म के किसी बंधन के बिना विवाह करने और घर बसाने का अधिकार है। उन्हें विवाह करने, विवाह के दौरान और विवाह विच्छेद के मामले में समान अधिकार है। इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि विवाह के इच्छुक पति-पत्नी की स्वतंत्र और पूर्ण सहमति से ही विवाह होंगें। इस तरह से दहेज के कारण हुए बेमेल विवाहों, दहेज के नाम पर नित हो रहे शोषण, दहेज उत्पीड़न एवं लड़कियों के जन्म, शिक्षा एवं पोषण में हो रहे सामाजिक पारिवारिक भेदभाव को भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के दायरे में रखा जा सकता है।
मेरी जानकारी के अनुसार कुछ ताजा रेट चार्ट (आप की रेट में संशोधन कर सकते है)
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बेरोजगार- . लाख
चपरासी- 6 से 8
सिपाही- .. से 12
सेना- 7 से 9
प्राइवेट इंजिनियर- 5 से 10
सरकारी इंजिनियर- 10 से 20
कर्ल्क- 12 से 15
ऑफिसर- 20 से .0
(इससे हाई लेवल की जानकारी मुझे नहीं है…आप जोड़ सकते है.. धन्यवाद)
इस घृणित रोग से समाज का रोम-रोम पीड़ित है । सरकार को चाहिए वे समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ नाटकों तथा साहित्य के माध्यम से यह संदेश जन-जन तक पहुंचाए कि दहेज लेना एवं देना पाप है । दहेज लोभियों का पता लगने पर उन्हें दण्डित किया जाएगा तथा सजा दी जाएगी । आधुनिक युग में कन्या की श्रेष्ठता उसके गुणों से नहीं बल्कि उसके पिता द्वारा दी जाने वाली दहेज की रकम एवं वस्तुओं से की जाती है । आज इसी कारण बेटियों को बोझ समझा जाता है । उसके जन्म लेने पर खुशियां नहीं मनाई जातीं ।
कन्या को गर्भ में ही मार दिया जाता है । भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, तलाक, वेश्यावृत्ति, बेमेल विवाह जैसी अनेक बुराईयां दहेज प्रथा के कारण हा पनपती हैं । इस कुप्रथा के कारण ही अनेक लड़कियां अविवाहित रह जाती हैं या अयोग्य लोगों के पल्ले बांध दी जाती हैं । कितनी ही लड्कियां दहेज के कारण अपने प्राण न्यौछावर कर चुकी हैं और कितनी ही लड्कियां अपने माता-पिता पर बोझ बनकर बैठी हैं ।
दहेज प्रथा के खिलाफ सरकार द्वारा बनाई गई कमजोर नीतियों के कारण बनाए गए कानून कारागार सिद्ध नहीं हुए । इस कुरीति को मिटाने के लिए युवा वर्ग को जागृत होना होगा, बुराई के विरोध में खड़े होना होगा । दहेज देने तथा लेने वालों का बहिष्कार करना होगा । तभी इस कुरीति को जड़ से समाप्त किया जा सकता है ।
इस प्रथा के कारण ही समाज में बाल विवाह, अनमेल विवाह तथा विवाह विच्छेद जैसी प्रथायें अस्तित्व में आ गयी हैं। इसके कारण कितनी समस्यायें बढ़ रही हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन है। सबसे पहले तो यह कि जन्म से पूर्व ही माँ के गर्भ में जांच के बाद लड़कियों को मारने के कारण लड़के लड़कियों की संख्या का अनुपात बिगड़ गया है। दूसरा, दहेज देने की होड़ में लड़की के माता पिता कर्जदार होकर अपनी परेशानियां बढ़ा रहे हैं। वहीं लड़के वाले लालच में आकर अधिक दहेज के लिये नवविवाहता को तंग करते हैं अथवा जलाकर मारने जैसा घृणित कार्य भी करते हैं। कई बार लड़की यह सब ताने और अत्याचार नहीं सह पाती तो आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती है या तलाक के लिये मजबूर हो जाती हैं
दहेज एक सामाजिक कोढ़ है। इससे छुटकारा पाने के लिये हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। लड़कियों को लड़कों के बराबर दर्जा देना होगा। उनको शिक्षित करना होगा। सरकार ने दहेज लोभियों को दंडित करने के लिए अनेक नियम बनाए हैं परन्तु फिर भी यह प्रथा समाज में पनप रही है । वर को चाहिए कि वह जहां भी विवाह करेगा वह दहेज के बिना होगा तथा वधू को चाहिए कि वे दहेज लोभी वर तथा उसके परिवार से संबंध रखने एवं विवाह करने से ही मना कर दे । वर की योग्यता एवं पद के अनुसार दहेज की मांग की जाती है । कभी-कभी तो वर पक्ष के लोग दहेज की मांग विवाह-मंडप में रखते हैं ताकि कन्या पक्ष के लोग मान-मर्यादा की खातिर उनकी हर मांग पूरी करने पर विवश हो जाएं ।
दहेज प्रथा हमारे समाज की सबसे बुरी कुरीतियों मे से एक है जिसका निराकरण भी समाज के हित में जरूरी है। इसके लिए भारतीय दंड विधान संहिता के प्रावधानों के अलावे विशेष रूप से दहेज निषेध अधिनियम, १९६१ लागू है जिसके अन्तर्गत प्रबंध निदेशक, राज्य महिला विकास निगम को राज्य दहेज निषेध पदाधिकारी एवं जिला कल्याण पदाधिकारी को जिला दहेज निषेध पदाधिकारी घोषित किया गया है। हर माह में हरेक जिले के डी एम एवं एस पी को एक दिन दहेज विरोधी दरबार लगाने के साथ-साथ क्षेत्रान्तर्गत आयोजित विवाह समारोहों की सूचना संधारित की जानी है एवं दहेज निषेध अधिनियम के उल्लंघन की स्थिति में निकटतम थाने में प्राथमिकी दर्ज किया जाना है। ग्रामीण क्षेत्रों मे पंचायत स्तर पर एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड स्तर पर आयोजित विवाह समारोहों के रिकार्ड रखने के लिए बाजाब्ता प्रपत्र परिचालित हैं जिनमें वर-वधू को प्राप्त उपहारों की सूची बनाकर वर-वधू एवं गवाहों का हस्ताक्षर लिया जाना है। सरकार ने दहेज-निषेध पदाधिकारी को यह भी निर्देश दे रखा है कि दहेज-निषेध के कतिपए प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति की बाद में सूचना मिलने पर भी थाने में एक आई आर दर्ज करें। भारतीय दंड संहिता की धारा- ३०४ बी, ४९८ ए एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा- ३,४ एवं ६ (२) के अन्तर्गत थाने में दायर इन मुकदमों की पैरवी भी सरकारी स्तर से थाने से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक समाज कल्याण विभाग को ही करना है।
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दहेज प्रथा – एक सामाजिक अभिशाप
भूमिका- भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियां इस गौरवशाली समाज के माथे पर कलंक हैं । जाति-पाति, छुआछूत और दहेज जैसी प्रथाओं के कारण विश्व के उन्नत समाज में हमारा सिर लाज से झुक जाता है । समय-समय पर अनेक समाज सुधारक तथा नेता इन कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करते हैं, किन्तु इनका समूल नाश सम्भव नहीं हो सका । दहेज प्रथा तो दिन-प्रतिदिन अधिक भयानक रूप लेती जा रही है ।
अनेक समाचार- समाचार-पत्रों कें पृष्ठ उलटिये, आपको अनेक समाचार इस प्रकार के दिखाई देंगे-सास ने बहू पर तेल छिड़क कर आग लगा दी, दहेज के लोभियों ने बारात लौटाई, स्टोव फट जाने से नवविवाहिता की मृत्यु……….. इत्यादि । इन समाचारों का विस्तृत विवरण पढ़कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हम सोचते हैं, क्या मनुष्य सचमुच इतना निर्मम तथा जालिम हो सकता है?
दहेज का अर्थ व इसका आरम्भ- दहेज का अर्थ है, विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुएँ । हमारे समाज में विवाह के साथ लड़की को माता-पिता का घर छोड्कर पति के घर जाना होता है । इस अवसर पर अपना स्नेह प्रदर्शित करने के लिए कन्या-पक्ष के लोग लड़की, लड़के तथा लड़के सम्बन्धियों को यथाशक्ति भेंट दिया करते हैं । यह प्रथा कब शुरू हुई, कहा नहीं जा सकता । लगता है कि यह प्रथा अत्यन्त प्राचीन है । हमारी लोक कथाओं और प्राचीन काव्यों में दहेज प्रथा का काफी वर्णन हुआ है ।
सात्विक रूप- दहेज एरक सात्विक प्रथा थी । पिता के सम्पन्न घर से पतिगृह में प्रवेश करते ही पुत्री के लिए पिता का घर पराया हो जाता था । उसका पितृगृह से अधिकार समाप्त हो जाता था अत: पिता अपनी सम्पन्नता का कुछ भाग दहेज के रूप में विदाई के समय कन्या को देता था ‘ दहेज मैं एक सात्विक भावना और भी है । कन्या अपने घर में श्री समृद्धि की सूचक बने । अत: उसका खाली हाथ पतिगृह में प्रवेश अपशकुन माना जाता है । फलत: वह अपने साथ वस्त्राभूषण, बर्तन तथा अन्य पदार्थ लै जाती है ।
कन्या धरोहर- कालिदास ने ‘ अभिज्ञान शाकुन्तलम् ‘ में कन्या को पराई वस्तु कहा है । वस्तुत: वह धरोहर है, जिसे पिता- पाणिग्रहण करके सौंप देता है । जिस प्रकार बैंक अपने पास जमा की गई धरोहर राशि को ब्याज सहित चुकाता है, उसी प्रकार पिता भी धरोहर ‘दू कन्या) को सूद दहेज) सहित लौटाता है । इस प्रकार दहेज में कुछ आर्थिक कर्त्तव्य की भावना भी निहित है.
विकृत रूप- हजार वर्ष -की पराधीनता और स्वतन्त्रता के गत 55 वर्षों की स्वच्छन्दता ने दहेज प्रथा को विकृत कर दिया है । कन्या की श्रेष्ठता, शील, सौन्दर्य से नहीं बल्कि दहेज से और्को जाने लगी । कन्या की कुरूपता और कुसंस्कार दहेज के आवरण में आच्छादित हो गए । खुले आम वर की बोली बोली जाने लगी । दहेज में प्राय: राशि से परिवारों का मूल्यांकन होने लगा । समस्त समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष नहीं, गुण बन जाता है । फलत: दहेज सामाजिक विशेषता बन गई । दहेज प्रथा जो आरम्भ में स्वेच्छा और स्नेह से भेंट होने तक सीमित रही होगी धीरे- धीरे विकट रूप धारण करने लगी ? है । वर पक्ष के लोग विवाह से पहले ही दहेज में ली जाने वाली धन-राशि तथा अन्य वस्तुओं का निश्चय करने लगे हैं ।
लोभी वृत्ति- एक और वर पक्ष की लोभी वृत्ति ने इस .रीति को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर ऐसे लोग जिन्होंने काफी काला धन इकट्ठा कर लिया था, बढ़-चढ़ कर दहेज देने लगे । उनकी देखा-देखी अथवा अपनी कन्याओं के लिए अच्छे वर तलाश करने के इच्छुक निर्धन लोगों को भी दहेज का प्रबन्ध करना पड़ा । इसके लिए बड़े-बड़े कर्ज लेने पड़े, सम्पत्ति बेचनी पड़ी, अपार परिश्रम करना पड़ा लेकिन वर पक्ष की मांगें सुरसा के मुख की भान्ति बढ़ती गईं ।
मुख्य कारण- दहेज कुप्रथा का एक मुख्य कारण यह भी है कि आज तक हम नारी को नर के बराबर नहीं समझते हैं । लड़के वाले समझते हैं कि वे लड़की वालों पर बड़ा एहसान कर रहे हैं । यही नहीं विवाह के बाद भी वे लड़की को मन से अपने परिवार का अंग नहीं बना पाते । यही कारण है कि वे हृदयहीन बनकर भोली- भाली, भावुक, नवविवाहित युवती को इतनी कठोर यातनाएं देते हैं ।
समस्या का समाधान- दहेज प्रथा बन्द कैसे हो, इस प्रश्न का एक सीधा-सा उत्तर है-कानून से । लेकिन हम देख चुके हैं कि कानून से कुछ नहीं हो सकता । कानून लाग करने के लिए एक ईमानदार व्यवस्था की जरूरत है । इसके अतिरिक्त जब तक सशक्त गवाह और पैरवी करने वाले दूसरे लोग दिलचस्पी न लेंगे, पुलिस तथा अदालतें कुछ न कर सकेंगी । दहेज को समाप्त करने के लिए एक सामाजिक चेतना आवश्यक है । कुछ गांवों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि जिस घर में बड़ी बारात आए या जो लोग बड़ी बारात ले जाएं उनके घर गांव का कोई निवासी बधाई देने नहीं जाता । दहेज के लोभी लड़के वालों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता है ।
दहेज प्रथा हमारे समाज की सबसे बुरी कुरीतियों मे से एक है जिसका निराकरण भी समाज के हित में जरूरी है। इसके लिए भारतीय दंड विधान संहिता के प्रावधानों के अलावे विशेष रूप से दहेज निषेध अधिनियम, १९६१ लागू है जिसके अन्तर्गत प्रबंध निदेशक, राज्य महिला विकास निगम को राज्य दहेज निषेध पदाधिकारी एवं जिला कल्याण पदाधिकारी को जिला दहेज निषेध पदाधिकारी घोषित किया गया है। हर माह में हरेक जिले के डी एम एवं एस पी को एक दिन दहेज विरोधी दरबार लगाने के साथ-साथ क्षेत्रान्तर्गत आयोजित विवाह समारोहों की सूचना संधारित की जानी है एवं दहेज निषेध अधिनियम के उल्लंघन की स्थिति में निकटतम थाने में प्राथमिकी दर्ज किया जाना है। ग्रामीण क्षेत्रों मे पंचायत स्तर पर एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड स्तर पर आयोजित विवाह समारोहों के रिकार्ड रखने के लिए बाजाब्ता प्रपत्र परिचालित हैं जिनमें वर-वधू को प्राप्त उपहारों की सूची बनाकर वर-वधू एवं गवाहों का हस्ताक्षर लिया जाना है। सरकार ने दहेज-निषेध पदाधिकारी को यह भी निर्देश दे रखा है कि दहेज-निषेध के कतिपए प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति की बाद में सूचना मिलने पर भी थाने में एक आई आर दर्ज करें। भारतीय दंड संहिता की धारा- ३०४ बी, ४९८ ए एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा- ३,४ एवं ६ (२) के अन्तर्गत थाने में दायर इन मुकदमों की पैरवी भी सरकारी स्तर से थाने से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक समाज कल्याण विभाग को ही करना है।
युवक आगे आएं- दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए स्वयं युवकों को आगे आना चाहिए । उन्हें चाहिए कि वे अपने माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों को स्पष्ट शब्दों में कह दें-शादी होगी तो बिना दहेज के होगी । इन युवकों को चाहिए कि वे उस सम्बन्धी का डटकर विरोध करें जो नवविवाहिता को शारीरिक या मानसिक कष्ट देते है ।
नारी की आर्थिक स्वतन्त्रता- दहेज-प्रथा की विकटता को कम करने में नारी का आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होना भी बहुत हद तक सहायक होता है । अपने पैरों पर खड़ी युवती को दूसरे लोग अनाप-शनाप नहीं कह सकते । इसके अतिरिक्त चूंकि वह चौबीस घण्टे घर पर बन्द नहीं रहेगी, सास और ननदों की छींटा-कशी से काफी बची रहेगी । बहू के नाराज हो जाने से एक अच्छी-खासी आय हाथ से निकल जाने का भय भी उनका मुख बन्द किए रखेगा ।
उपसंहार- दहेज प्रथा हमारे समाज का कोढ है । यह प्रथा साबित करती है कि हमें अपने को सभ्य मनुष्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं है । जिस समाज में दुल्हनों को प्यार की जगह यातना दी जाती है, वह समाज निश्चित रूप से सभ्यों का नहीं, नितान्त असभ्यों का समाज है । अब समय आ गया है कि हम इस कुरीति को समूल उखाड़ फेंके ।