थेलेसीमिया और सावधानियां —
थैलेसीमिया एक आनुवांशिक रक्त विकार है। इस रोग में रोगी के शरीर में हीमोग्लोबिन सामान्य स्तर से कम हो जाता है। गौरतलब है कि शरीर में ऑक्सीजन का सुचारु रूप से सचार करने के लिए हीमोग्लोबिन की जरूरत होती है। हँसने-खेलने और मस्ती करने की उम्र में बच्चों को लगातार अस्पतालों के, ब्लड बैंक के चक्कर काटने पड़ें तो सोचिए उनका और उनके परिजनों का क्या हाल होगा! सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं। माता-पिता से अनुवांशिकता के तौर पर मिलने वाली इस बीमारी की विडंबना है कि इसके कारणों का पता लगाकर इससे बचा नहीं जा सकता।
लाल रक्त कोशिकाओं की विकृति रक्त की लाल कोशिकाओं में विकृति आने के कारण थैलेसीमिया होता है। यह रोग प्रायः आनुवांशिक होता है और अधिकतर बच्चों को ग्रसित करता है, उचित समय पर उपचार न होने पर बच्चे की मृत्यु तक हो सकती है। रक्त के लाल कणों की आयु लगभग … दिनों की होती है। लेकिन जब थैलेसीमिया होता है, तब इन कणों की आयु कम हो कर सिर्फ 20 दिन और इस से भी कम हो जाती है। इससे शरीर में स्थित हीमोग्लोबिन पर सीधा असर पड़ता है। यदि हीमोग्लोबिन की मात्रा शरीर में कम होती है, तो शरीर कमजोर हो जाता है, जिससे शरीर को कई रोग ग्रस्त कर लेते हैं। यह एक ऐसा रोग है जो बच्चों में जन्म से ही मौजूद रहता है। तीन माह की उम्र के बाद ही इसकी पहचान होती है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसमें बच्चे के शरीर में खून की भारी कमी होने लगती है, जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून की जरूरत होती है। खून की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार खून चढ़ाने के कारण मरीज के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय में पहुँचकर प्राणघातक साबित होता है।
एक स्वस्थ जातक के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं की संखया 45 से 50 लाख प्रति घन मिलीमीटर होती है। लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है। हीमोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण ही इन रक्त कोशिकाओं का रंग लाल दिखाई देता है। लाल रक्त कोशिकाएं शरीर में, ऑक्सीजन और कार्बनडाईऑक्साइड को परिवर्तित करती हैं। हीमोग्लोबिन में ऑक्सीजन से शीघ्रता से संयोजन कर अस्थायी यौगिक ऑक्सी हीमोग्लोबिन बनाने की क्षमता होती है। यह लगातार ऑक्सीजन को श्वसन संस्थान तक पहुंचा कर जातक को जीवन दान देता रहता है। गर्भ में बच्चा ठहर जाने पर अगर बच्चे के अंदर उचित मात्रा में हीमोग्लोबिन का अंश नहीं पहुंचता, तो बच्चा थैलेसीमिया का शिकार हो जाता है। बच्चे के जन्म से लगभग 6 माह में ही थैलेसीमिया के लक्षण नजर आ जाते हैं। बच्चे की त्वचा, नाखून, आंखें और जीभ पीली पड़ने लगती हैं। मुंह में जबड़े में भी दोष आ जाता है, जिससे दांत उगने में परेशानियां आने लगती हैं तथा दांतों में विषमता आने लगती है। यकृत और प्लीहा की लंबाई बढ़ने लगती है। बच्चे का विकास रुक जाता है। उपर्युक्त लक्षण पीलिया के भी होते हैं। यदि डॉक्टर इन्हें पीलिया समझ कर उपचार करते रहें, तो रोग बिगड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए रोग के लक्षणों की ठीक जांच कर के सही उपचार से लाभ प्राप्त हो सकता है।
थैलेसीमिया दो प्रकार का होता है- ‘माइनर’ और ‘मेजर’।
माइनर थैलेसीमिया का रोगी सामान्य जीवन जीता है, जओतिश की नजर से)बकि मेजर थैलेसीमिया का रोगी असामान्य जीवन जीता है। मेजर थैलेसीमिया के रोगी को लगभग हर तीन सप्ताह में एक बोतल खून देना अनिवार्य हो जाता है। यदि समय पर रोगी को खून न मिले, तो जीवन का अंत हो जाता है। समय पर खून मिलता रहे, तो रोगी लंबा जीवन जी सकता है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है यह रोग आनुवंशिक होता है। यदि माता-पिता दोनों माइनर थैलेसीमिया के शिकार हैं, तब बच्चे को इस रोग की संभावना अधिक होती है। यदि माता-पिता दोनों में से कोई एक माइनर थैलेसीमिया का रोगी है, तो बच्चे को मेजर थैलेसीमिया की कोई संभावना नहीं होती। माइनर थैलेसीमिया के शिकार व्यक्ति को कभी भी इस बात का आभास नहीं होता कि उसके खून में दोष है। शादी से पहले पति-पत्नी के खून की जांच हो जाए, तो होने वाले बच्चे शायद इस आनुवंशिक रोग से बच जाएं। लाल रक्त कोशिकाओं की विकृति के उपचार में अभी वैज्ञानिकों को सफलता प्राप्त नहीं हुई है। लेकिन अनुसंधान लगातार जारी है।
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जानिए की ज्योतिष में क्या हैं मंगल का प्रभाव—
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं। इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व 12वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं, आइए इसके बारे में समझने का प्रयास करते हैं…
वैसे मेने अपने अनुभव में पाया हैं की जिन बच्चों को थेलेसीमिया की समस्या होती हैं उनके माता की शादी के समय गुण मिलान ठीक से नहीं किया गया था..या तो गण मिलान उत्तम नहीं था या फिर उनके चन्द्रमा (राशि) के नक्षत्रों में विरोधाभास था..
वैदिक वाक्य है कि पिछले जन्म में किया हुआ पाप इस जन्म में रोग के रूप में सामने आता है। शास्त्रों में बताया है-पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण जायते अत: पाप जितना कम करेंगे, रोग उतने ही कम होंगे। अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश और वायु इन्हीं पांच तत्वों से यह नश्वर शरीर निर्मित हुआ है। यही पांच तत्व .60 की राशियों का समूह है।
कोई भी ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उनको नुकसान पहुंचाता है। नकारात्मक ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में रखकर आप अपने भविष्य को सुखद बना सकते हैं।मेष, सिंह और धनु अग्नि तत्व, वृष, कन्या और मकर पृथ्वी तत्व, मिथुन, तुला और कुंभ वायु तत्व तथा कर्क, वृश्चिक और मीन जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालपुरुष की कुंडली में मेष का स्थान मस्तक, वृष का मुख, मिथुन का कंधे और छाती तथा कर्क का हृदय पर निवास है जबकि सिंह का उदर (पेट), कन्या का कमर, तुला का पेडू और वृश्चिक राशि का निवास लिंग प्रदेश है। धनु राशि तथा मीन का पगतल और अंगुलियों पर वास है।
इन्हीं बारह राशियों को बारह भाव के नाम से जाना जाता है। इन भावों के द्वारा क्रमश: शरीर, धन, भाई, माता, पुत्र, ऋण-रोग, पत्नी, आयु, धर्म, कर्म, आय और व्यय का चक्र मानव के जीवन में चलता रहता है। इसमें जो राशि शरीर के जिस अंग का प्रतिनिधित्व करती है, उसी राशि में बैठे ग्रहों के प्रभाव के अनुसार रोग की उत्पत्ति होती है। कुंडली में बैठे ग्रहों के अनुसार किसी भी जातक के रोग के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं।
कोई भी ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उन अंगों को नुकसान पहुंचाता है। जैसे आज कल सिंह राशि में शनि और मंगल चल रहे हैं तो मीन लग्न मकर और कन्या लग्न में पैदा लोगों के लिए यह समय स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता।
अब सिंह राशि कालपुरुष की कुंडली में हृदय, पेट (उदर) के क्षेत्र पर वास करती है तो इन लग्नों में पैदा लोगों को हृदयघात और पेट से संबंधित बीमारियों का खतरा बना रहेगा।
मंगल शरीर में रक्त का स्वामी है। यदि ये नीच राशिगत, शनि और अन्य पाप ग्रहों से ग्रसित हैं तो व्यक्ति को रक्तविकार और कैंसर जैसी बीमारियां होती हैं। यदि इनके साथ चंद्रमा भी हो जाए तो महिलाओं को माहवारी की समस्या रहती है जबकि बुध का कुंडली में अशुभ प्रभाव चर्मरोग देता है। मंगल के कारन रक्त और पेट संबंधी बीमारी, नासूर, जिगर, पित्त आमाशय, भगंदर और फोड़े होना संभावित हैं ।
सामान्यतया मंगल सिर, अस्थि मज्जा, पित्त, हिमोग्लोबिन, कोशिकाएं, गर्भाशय की अंत: दीवार, दुर्घटना, चोट, शल्य क्रियाएँ, जल जाना, रक्त विकार, तन्तुओं की फटन, उच्च रक्त चाप, ज्वर. अत्यधिक प्यास, नेत्र विकार, मिरगी, अस्थि टूटना, गर्भाशय के रोग, प्रसव तथा गर्भपात, सिर में चोट, लड़ाई में चोट आदि का करक बनता हैं..
मेष राशि का स्वामी मंगल है। यह सिर या मस्तिष्क की कारक है और इसके कारक ग्रह मंगल और गुरू हैं। मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्चा के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अग्नि तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध प्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।
जो जातक मंगल ग्रह से पीडित होते हैं उन्हें अनंतमूल की जड़ लाल वस्त्र में बांध कर किसी भी दिन लाभ के चौघडिए में गले में धारण करनी चाहिए।
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जानिए हस्तरेखा द्वारा मंगल दोष––
हस्तरेखाओं के माध्यम से भी पेटजनित रोग और पेट की शिकायतों के बारे में जाना जा सकता है। हथेली पर हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा और नाखूनों के अध्ययन के साथ ही मंगल और राहू किस स्थिति में हैं, यह देखना बहुत जरूरी है।
यदि किसी जातक की हस्तरेखा में मंगल अच्छा न हो तो मंगल अच्छा नहीं होता है, उनमें क्रोध और आवेश की अधिकता रहती है। ऐसे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर भी उबल पड़ते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा समझाने का प्रयास भी ऐसे व्यक्तियों के क्रोध के आगे बेकार हो जाता है। क्रोध और आवेश के कारण ऐसे लोगों का खून एकदम गर्म हो जाता है। लहू की गति (रक्तचाप) के अनुसार क्रोध का प्रभाव भी घटता-बढ़ता रहता है। राहू के कारण जातक अपने आर्थिक वादे पूर्ण नहीं कर पाता है। इस कारण भी वह तनाव और मानसिक संत्रास का शिकार हो जाता है।हथेली पर हृदय रेखा टूट रही हो या फिर चेननुमा हो, नाखूनों पर खड़ी रेखाएँ बन गई हों तो ऐसे व्यक्ति को हृदय संबंधी शिकायतें, रक्त शोधन में अथवा रक्त संचार में व्यवधान पैदा होता है।
सावधानियां-–मंगल अच्छा न हो तो मिर्च-मसाले वाली खुराक नहीं लेनी चाहिए। तली हुई चीजें जैसे सेंव, चिवड़ा, पापड़, भजिए, पराठे इत्यादि से भी परहेज रखना चाहिए। ऐसे जातक को चाहिए कि वह सुबह-शाम दूध पीएँ, देर रात्रि तक जागरण न करें और सुबह-शाम के भोजन का समय निर्धारित कर ले। सुबह-शाम केले का सेवन भी लाभप्रद होता है।
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जानिए वास्तु में मंगल का प्रभाव—
वास्तु सिद्धांतों के अनुसार दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष के बायें सीने, फेफडे और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है.
–यदि किसी घर की दक्षिण दिशा में कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को ह्रदय रोग, जोडों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राल बढ जाना अथवा हाजमे की खराबीजन्य विभिन्न प्रकार के रोगों का सामना करना पडता है.
—–यदि दक्षिण दिशा में उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रैशर, मूर्च्छाजन्य रोगों से पीडा का कष्ट भोगना पडता है.
—-यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, ओर उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगें. उन्हे उच्चरक्तचाप, पाचनक्रिया की गडबडी, खून की कमी, अचानक मृत्यु अथवा दुर्घटना का शिकार होना पडेगा. दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोडी जगह खाली छोडकर ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए.
—यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो ओर प्रवेश द्वार नैऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऎसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है.
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थैलेसीमिया के ज्योतिषीय कारण : —
थैलेसीमिया लाल रक्त कोशिकाओं की विकृति के कारण होता है। काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव यकृत का होता है। यकृत से रक्त की वृद्धि होती है। रक्त में लाल कोशिकाओं का निर्माण अस्थि मज्जा से होता है, जिसका कारक मंगल होता है। अस्थियों का कारक सूर्य होता है। रक्त की तरलता का कारक चंद्र है। यदि किसी कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, मंगल, सूर्य, लग्न और लग्नेश दुष्प्रभावों में हो जाएं, तो रक्त की लाल कोशिकाओं में विकृति पैदा होती है। इनमें विशेष कर मंगल प्रधान ग्रह है; अर्थात मंगल का दूषित होना रक्त से संबंधित व्याधियां देता है।
विभिन्न लग्नों में थैलेसीमिया :—
मेष लग्न : लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में हो, बुध द्वादश भाव में सूर्य से युक्त हो, लेकिन बुध अस्त न हो, चंद्र राहु से युक्त, या दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया हो सकता है।
वृष लग्न : पंचमेश बुध गुरु से युक्त हो, मंगल पर गुरु की दृष्टि हो, लग्नेश त्रिक भावों में सूर्य से अस्त हो, चंद्र से द्वितीय, द्वादश भावों में कोई ग्रह न हो तो थैलेसीमिया रोग होता है।
मिथुन लग्न : पंचमेश मंगल से युक्त या दृष्ट हो, लेकिन पंचमेश स्वगृही न हो, लग्नेश त्रिक भावों में गुरु से दृष्ट हो, चंद्र शनि से युक्त हो, तो थैलेसीमिया होता है।
कर्क लग्न : पंचमेश मंगल, शनि से युक्त हो और बुध से दृष्ट हो, लग्नेश चंद्र, शनि, या राहु, केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होने की संभावना बढ़ जाती है।
सिंह लग्न : लग्नेश पंचमेश से पंचम-नवम भाव में हो और शनि इन दोनों को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो, शनि पंचम भाव में हो और मंगल को देखता हो, मंगल चंद्र से युक्त और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है।
कन्या लग्न : पंचमेश मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, लग्नेश सूर्य से अस्त हो और त्रिक भावों में हो, गुरु पंचम भाव में हो और चंद्र से युक्त हो तथा केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है।
तुला लग्न : पंचमेश गुरु से युक्त हो, लग्नेश और मंगल पर गुरु की दृष्टि हो, सूर्य भी गुरु से दृष्ट हो, चंद्र राहु -केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया हो सकता है।
वृश्चिक लग्न : लग्नेश मंगल अष्टम भाव में हो और बुध से दृष्ट हो, बुध अस्त न हो और पंचमेश चंद्र से युक्त हो कर षष्ठ भाव में राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है।
धनु लग्न : पंचमेश मंगल शुक्र से दृष्ट, अथवा युक्त हो, लग्नेश गुरु सूर्य से अस्त हो और बुध के अंश गुरु के अंशों से कुछ कम हों, लेकिन गुरु के अंशों के निकट हों; अर्थात् 10 के अंदर हों, चंद्र पंचम भाव में शनि, या राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है।
मकर लग्न : गुरु पंचम भाव में, पंचमेश शुक्र एकादश भाव में सूर्य से अस्त हो, लग्नेश शनि त्रिक भावों में, मंगल-चंद्र नवम भाव में राहु-केतु से दृष्ट हों, तो थैलेसीमिया होता है।
कुंभ लग्न : पंचमेश गुरु से युक्त, या दृष्ट हो और त्रिक भावों में हो, लग्नेश अस्त हो, मंगल चंद्र से युक्त, या दृष्ट हो और केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है।
मीन लग्न : लग्नेश त्रिक भावो में अस्त हो, शुक्र पंचम भाव में शनि से युक्त हो, मंगल और पंचमेश राहु-केतु से युक्त हों और शुक्र से दृष्ट हों, तो थैलेसीमिया होता है।
उपर्युक्त योग चलित पर आधारित हैं। दशा और गोचर में संबंधित ग्रह जब दुष्प्रभावों में रहेंगे, तो रोग में तीव्रता होगी। थैलेसीमिया अनुवांशिक है। इसलिए रोग मुक्ति की संभावनाएं बहुत कम होती हैं। उदाहरण कुंडली : यह जन्मकुंडली एक तीन वर्षीय बालक की है, जो थैलेसीमिया रोग से ग्रस्त है। बालक के जन्म समय तुला लग्न उदित हो रहा था। लग्न में सूर्य-बुध, तृतीय भाव में मंगल, चतुर्थ भाव में चंद्र केतु, सप्तम भाव में, गुरु- शनि, दशम में राहु, एकादश में शुक्र स्थित थे। जातक का जन्म सूर्य की दशा में, बुध के अंतर में हुआ। तुला लग्न की कुंडली में गुरु अकारक ग्रह है। पंचम भाव का स्वामी शनि गुरु से युक्त है। मंगल रक्त के लाल कणों के कारक पर गुरु की दृष्टि है। सूर्य पर गुरु की अकारक दृष्टि है। चंद्र केतु युक्त हो कर पीड़ित है। लग्नेश शुक्र पर भी गुरु की दृष्टि है। इसी कारण यह बालक मेजर थैलेसीमिया रोग से ग्रस्त है, क्योंकि पंचम भाव, लग्नेश, मंगल, चंद्र और सूर्य, जो क्रमशः यकृत, तन, रक्त मज्जा, रक्त और ऊर्जा के कारक हैं, सभी अकारक गुरु से पीड़ित है। इसी लिए जातक को मेजर थैलेसीमिया रोग है।
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थैलेसीमिया से बचने के उपाय :—
शादी से पूर्व वर-वधू दोनों के रक्त की जांच अवश्य करवा लेनी चाहिए, ताकि होने वाली संतान को ऐसा रोग न हो। करीबी रिश्ते में शादी करने से परहेज करें। गर्भधारण के चार माह के अंदर बच्चे के भ्रूण का परीक्षण कराना चाहिए। भ्रूण में थैलेसीमिया के लक्षण पाते ही गर्भपात करवा लेना चाहिए। माइनर थैलेसीमिया से बचने के लिए नीम और पीपल के पत्तों का रस नियमित रूप से एक-एक चम्मच प्रातः काल पीएं। लाभ होगा। फल तथा हरी पत्ती वाली सब्जियों का नियमित इस्तेमाल करते रहना चाहिए। रक्त परीक्षण करवा कर इस रोग की उपस्थिति की पहचान कर लेनी चाहिए।
इस रोग का फिलहाल कोई ईलाज नहीं है। हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती है। रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, यकृत और फेफड़ों में पहुँचकर प्राणघातक होता है। मुख्यतः यह रोग दो वर्गों में बांटा गया है:
मेजर थैलेसेमिया:—
यह बीमारी उन बच्चों में होने की संभावना अधिक होती है, जिनके माता-पिता दोनों के जींस में थैलीसीमिया होता है। जिसे थैलीसीमिया मेजर कहा जाता है।
माइनर थैलेसेमिया:—-
थैलीसीमिया माइनर उन बच्चों को होता है, जिन्हें प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है।[जहां तक बीमारी की जांच की बात है तो सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है।
लक्षण—सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं।
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थैलेसीमिया से बचाव हेतु गर्भाधान (प्रसव पूर्व) कौन से परीक्षण जरुरी हें..????
रक्त जांच—-आपकी डॉक्टर आपको रक्त के कुछ परीक्षण कराने की सलाह देगी। आप इन्हें किसी प्रतिश्ठित लैब से करा सकती हैं। इन जांचों से रूबेला अथवा जर्मन खसरे के संबंध में आपकी स्थिति (क्या आप प्रतिरक्षित हैं या नहीं), आपके शरीर में आयरन का स्तर (क्या आपमें रक्त की कमी है और आयरन की गोलियां लेने की जरूरत है), आपके रक्त का वर्ग और आपकी रिसस संबंधी स्थिति का पता चलेगा।आपकी डॉक्टर आपसे पूछ सकती है कि क्या आप आपके शिशु के डाउन्स सिंड्रोम तथा स्पाइना बिफिडा संबंधी जोखिम जानने के लिए नमूने की स्क्रीनिंग कराना चाहती हैं। आपके रक्त कीएच.आई.वी., सिफिलिस एवं हैपटाइटिस बी के लिए भी जांच की जाएगी, जब तक कि आप विशेष तौर पर यह परीक्षण करवाने से मना न कर दें।
लैब का टेक्नीशियन इन सभी परीक्षणों के लिए आपके रक्त का एक बड़ा नमूना लेगा। यदि आपको इस बारे में कुछ परेशानी हो तो आपके ध्यान को बंटाने तथा सहायता के लिए अपने साथ अपने पति या एक मित्र को ले जायें।
मूत्र की जांच—–यदि आपसे पहले ही अपने मूत्र का नमूना लाने के लिए नहीं कहा गया तो लैब टेक्नीशियन आपको एक संक्रमण रहित कंटेनर देगा जिसमें आप अपने मूत्र का नमूना ला देंगी। इसके बाद वह इसमें एक रासायनिक स्ट्रिप डालेगी जो इसका रंग बदल देती है। इससे पता चलेगा कि आपके मूत्र में प्रोटीन की कुछ मात्रा है या नहीं।
इस परीक्षण से टेक्नीशियन यह बता पायेगा कि क्या आपमें प्री-एक्लेम्पसिया, गर्भावस्था के दौरान उच्च रक्तचाप रोग के लक्षण हैं या नहीं। वह टेक्नीशियन आपके मूत्र में शुगर का परीक्षण भी ले सकता है जिससे आपमें गर्भवधीय मधुमेह के लक्षणों का पता चलता है। वह इसमें बैक्टीरिया की मौजूदगी का भी पता लगायेगा।
रक्तचाप परीक्षण —–
आपकी डॉक्टर अब आपका रक्तचाप रिकॉर्ड करेगी और इसका इस्तेमाल भावी जांचों के लिए एक ‘आधारभूत औसत’ के रूप में किया जाएगा। इसके बाद के भावी परामर्शो के दौरान आपके रक्तचाप और नाड़ी की जांच की जाएगी। बढ़ा हुआ रक्तचाप गर्भावस्था के अंतिम दौर में बताता है कि प्री-एक्लेम्पसिया का जोखिम हो सकता है।
अल्ट्रासाउंड स्कैन- —आपके पहले प्रसव-पूर्व परामर्ष के दौरान आपका डेटिंग-स्कैन भी किया जा सकता है। इस स्कैन से आपके शिशु के आकार का पता चलेगा जिससे यह पुश्टि होगी कि गर्भावस्था कितने हफ्तों की है और इससे आपकी डिलीवरी की तारीख का अंदाजा लगेगा। आपकी डॉक्टर आपको बाह्य गर्भावस्था की जांच अथवा एक से अधिक शिशुओं का पता लगाने के लिए भी एक स्कैन कराने की सलाह दे सकती है। गर्भावस्था के दौरान प्राय: सभी स्त्रियां अपने खानपान का ध्यान रखती हैं लेकिन उन्हें इस बात की जानकारी नहीं होती कि स्वस्थ शिशु के जन्म के लिए यह बहुत जरूरी है कि गर्भधारण के पहले से ही अपनी सेहत का पूरा ध्यान रखा जाए। अगर आप भी अपना परिवार बढाने की योजना बना रही हैं तो इन बातों का ध्यान जरूर रखें :
1. आप जिस माह में कंसीव करना चाहती हैं, कम से कम उसके तीन माह पहले से आपको अपने खानपान के प्रति सतर्क हो जाना चाहिए। अपने रोजाना के भोजन में कैल्शियम, आयरन और प्रोटीन की मात्रा बढाएं। इसके लिए हरी पत्तेदार सब्जियां, मिल्क प्रोडक्ट्स और फलों का पर्याप्त मात्रा में सेवन करें।
2. प्री प्रग्नेंसी काउंसलिंग के लिए पति-पत्नी दोनों को स्त्री रोग विशेषज्ञ से सलाह जरूर लेनी चाहिए। वहां डॉक्टर द्वारा इस बात की पूरी जानकारी हासिल की जाती है कि पति-पत्नी को बचपन में लगाए जाने वाले सारे टीके लग चुके हैं या नहीं? अगर किसी स्त्री को रूबेला का वैक्सीन नहीं लगा हो तो कंसीव करने से पहले उसे यह टीका लगवाना बहुत जरूरी होता है। लेकिन यह वैक्सीन लगवाने के बाद कम से कम तीन महीने तक कंसीव नहीं करना चाहिए।
3. गर्भधारण से पहले स्त्री के लिए डायबिटीज की जांच बहुत जरूरी है क्योंकि अगर मां को यह समस्या हो तो बच्चे को भी डायबिटीज होने की आशंका रहती है। यही नहीं बच्चे की आंखों पर भी इसका साइड इफेक्ट हो सकता है।
4. अगर कोई स्त्री गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन करती है तो उसे कंसीव करने से कम से कम तीन महीने पहले से इन गोलियों का सेवन बंद कर देना चाहिए।
5. कंसीव करने के कम से तीन महीने पहले से डॉक्टर की सलाह के अनुसार फॉलिक एसिड का सेवन शुरू कर देना चाहिए। क्योंकि सबसे पहले बच्चे का मस्तिष्क और उसकी रीढ की हड्डी का निर्माण शुरू हो होता है और इसे बनाने में फॉलिक एसिड की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह बच्चे के विकास के लिए ऐसा आवश्यक तत्व है कि इसकी कमी से बच्चे को नर्वस सिस्टम से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं।
6. ज्यादातर भारतीय स्त्रियों को एनीमिया की समस्या होती है और हीमोग्लोबिन की कमी के कारण मां और बच्चे दोनों की जान को खतरा हो सकता है। इसलिए गर्भधारण से पहले स्त्री के लिए फुल ब्लड काउंट टेस्ट बहुत जरूरी होता है।
7. गर्भधारण से पहले पति-पत्नी दोनों को थैलेसीमिया की जांच जरूर करवानी चाहिए। यह आनुवंशिक बीमारी है। अगर पति-पत्नी दोनों को थैलेसीमिया माइनर हो तो इससे बच्चे को मेजर थैलेसीमिया होने का खतरा होता है, जो कि एक गंभीर बीमारी है और रोगी को हर तीन महीने के अंतराल पर ब्लड टांसफ्यूजन की आवश्यकता होती है।
8. पति-पत्नी दोनों के लिए एचआईवी टेस्ट करवाना बहुत जरूरी होता है। क्योंकि अगर मां एचआईवी पॉजिटिव हो तो बच्चा भी इसका शिकार हो सकता है।
9. हेपेटाइटिस बी यौन संक्रमण से फैलने वाला रोग है। इसलिए पति-पत्नी दोनों को इसकी जांच करवानी चाहिए और इसके टीके भी जरूर लगवा लेने चाहिए।
10. कंसीव करने से पहले स्त्री के लिए सिफलिस की जांच भी जरूरी है। क्योंकि इससे डिलिवरी के समय कई तरह की समस्याएं आ सकती हैं।
11. बच्चे के लिए प्लानिंग करते समय पति-पत्नी दोनों ही एल्कोहॉल और सिगरेट से दूर रहें। स्त्री को इस मामले में विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि इससे शारीरिक और मानसिक रूप से विकृत शिशु के जन्म या मिसकैरेज की आशंका रहती है।
12. अगर आपके या पति के परिवार में किसी खास बीमारी की फेमिली हिस्ट्री रही है तो उसके बारे में डॉक्टर को जरूर बताएं।
13. अगर आप अपनी किसी भी स्वास्थ्य समस्या के लिए नियमित रूप से किसी दवा का सेवन करती हैं तो उसके बारे में भी अपनी डॉक्टर को जरूर बताएं।
14. मां बनने से पहले हर स्त्री को अपने वजन पर ध्यान देना चाहिए। वजन बीएमएस (बॉडी मॉस इंडेक्स) के अनुसार पूरी तरह संतुलित होना चाहिए। ओवरवेट या अत्यधिक दुबलापन ये दोनों ही स्थितियां गर्भाधारण के लिए नुकसानदेह मानी जाती हैं। अगर स्त्री का वजन बहुत ज्यादा हो तो इससे प्रीमेच्योर डिलिवरी की आशंका बनी रहती है, वहीं कम वजन के कारण भी गर्भावस्था के दौरान उसे कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड सकता है।
15. अगर पति-पत्नी दोनों में से किसी को भी डिप्रेशन, हाइपरटेंशन या किसी भी तरह की कोई मनोवैज्ञानिक समस्या हो तो आप उसके बारे में भी डॉक्टर को जरूर बताएं। क्योंकि ऐसी समस्याओं के कारण बच्चे के जन्म के बाद उसकी सही परवरिश में दिक्कतें आ सकती हैं। इसलिए जब आप प्री प्रेग्नेंसी काउंसलिंग से पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं तभी अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत करें।
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कुछ जरूरी जानकारिया/सावधानिया—–
जो माता-पिता थैलेसीमिया माइनर से पीड़ित हैं, उनके बच्चे को लगभग 25 प्रतिशत तक थैलेसीमिया रोग होने की आशका रहती है। इसलिए विवाह से पहले अगर रक्त की आसान जाचें जैसे ‘सीबीसी’ और हीमोग्लोबिन ए 2 करा ली जाएं, तो यह पता चल जाता है कि भावी वैवाहिक युगल में से कोई भी थैलेसीमिया जीन का वाहक है या नहीं। इसके अलावा अगर शादी के बाद किसी महिला को थैलेसीमिया माइनर का पता चले, तो इस स्थिति में अमुक महिला के पति की भी जाच होनी चाहिए कि वह थैलेसीमिया माइनर से ग्रस्त है, या नहीं।यदि दोनों ही थैलेसीमिया माइनर से ग्रस्त पाये जाते हैं, तो गर्भावस्था के 10 से 12 हफ्तों के मध्य भ्रूण का परीक्षण कराया जाता है। यदि भ्रूण थैलेसीमिया मेजर से ग्रस्त होता है है, तो उस स्थिति में गर्भपात की सलाह दी जाती है। वहीं यदि भ्रूण थैलेसीमिया माइनर से ग्रस्त है या फिर सामान्य या नॉर्मल हो, तो फिर विशेषज्ञ डॉक्टर द्वारा गर्भवती महिला को गर्भावस्था को जारी रखने की सलाह दी जाती है।
यह सच है कि थैलेसीमिया एक गभीर रोग है, लेकिन समय रहते जाच कराने और फिर विशेषज्ञ डॉक्टर के परामर्श पर अमल करने से इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।
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मां कुष्माण्डा की आराधना द्वारा करें रक्त विकार को ठीक—-
नवदुर्गा के नौ रूप औषधियों के रूप में भी कार्य करते हैं। यह नवरात्रि इसीलिए सेहत नवरात्रि के रूप में भी जानी जाती है।
चतुर्थ रात्रि माँ कुष्माण्डा (पेठा) – दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। यह औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हडा भी कहते हैं। यह कुम्हड़ा पुष्टिकारक वीर्य को बल देने वाला (वीर्यवर्धक) व रक्त के विकार को ठीक करता है एवं पेट को साफ करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। यह दो प्रकार की होती है। इन बीमारी से पीड़ित व्यक्ति ने पेठे के उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करना चाहिए।