जानिए गुप्त रोग के कारण ( ज्योतिष एवं वास्तुदोषों के अनुसार)–
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं। इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है।
प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व ..वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
जीव योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है।निःसंदेह पहला सुखनिरोगी काया ही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो तो मानव जीवन पिंजरे में बंद पक्षी की तरह ही कहा जाएगा।गुप्त रोग अर्थात् ऐसे रोग जो दिखते नहीं हो लेकिन वर्तमान में इसका तात्पर्य यौन रोगों से लिया जाता है। यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है।
ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप
ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न- भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वृश्चिक राशि व शुक्र को यौन अंगों का, पंचम भाव को गर्भाशय, आंत व शुक्राणु का षष्ठ भाव को गर्भ मूत्र की बीमारियो, गुर्दे, आंत रोग, गठिया और मूत्रकृच्छ का सप्तम भाव को शुक्राशय, अंडाशय, गर्भाशय, वस्ति, मूत्र व मूत्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्रद्वार, शुक्र एवं अष्टम भाव को गुदा, लिंग, योनि और मासिक चक्र का तथा नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी को गुप्तांग एवं कब्जियत, उत्तरा फाल्गुनी को गुदा लिंग व गर्भाशय और हस्त को प्रमेह कारक माना गया है।
वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल का प्राणियों के शरीर में प्रभाव खून में रहता है… मंगल अशुभ प्रभावी होने पर रक्तविकार, लो या हाईब्लड प्रेशर, ब्लडकैंसर आदि रोग जन्म लेते हैं यही नहीं न्यूरोलोजिकल समस्याएं, एवं विषाणु जनित गुप्त रोगों की समस्याएं देने में भी मंगल पीछे नहीं रहते !
—-राशियों में कन्या राशि संक्रामक गुप्त रोगों वसामेह व शोथ विकार और तुला राशि दाम्पत्य कालीन रोगों की कारक कही गई है। ग्रहों में मंगल को गर्भपात, ऋतुस्राव व मूत्रकृच्छ, बृहस्पति को वसा की अधिकता से उत्पन्न रोग व पेट रोग और शुक्र को प्रमेह, वीर्य की कमी, प्रजनन तंत्र के रोग, मूत्र रोग गुप्तांग शोथ, शीघ्र पतन व धातु रोग का कारक माना गया है। इन कारकों पर अशुभ प्रभाव का आना या कारक ग्रहों का रोग स्थान या षष्ठेश से संबंधित होना या नीच नवांश अथवा नीच राशि में उपस्थित होना यौन रोगों का कारण
बनता है।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ज्योतिषीय ग्रह योगों के कारण भी यौन रोग हो सकते हैं—-
—जब शनि, मंगल व चंद्र यदि अष्टम, षष्ठ द्वितीय या द्वादश में हों तो काम संबंधी रोग होता है। इनका किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करना भी यौन रोगों को जन्म देता है। कर्क या वृश्चिक नवांश में यदि चंद्र किसी पाप ग्रह से युत हो तो गुप्त रोग होता है। यदि अष्टम भाव में कई पाप ग्रह हो या बृहस्पति द्वादश स्थान में हो या षष्ठेश व बुध यदि मंगल के साथ हो तो जननेंद्रिय रोग होता है।
—–जब शनि, सूर्य व शुक्र यदि पंचम स्थान में हो, या दशम स्थान में स्थित मंगल से शनि का युति, दृष्टि संबंध हो या लगन में सूर्य व सप्तम में मंगल हो तो प्रमेह, मधुमेह या वसामेह होता है। चतुर्थ में चंद्र व शनि हों या विषम राशि लग्न में शुक्र हो या शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृष्ट हो या शुक्र की राशि में चंद्र स्थित हो तो जातक
अल्प वीर्य वाला होता है।
—-शनि व शुक्र दशम या अष्टम में शुभ दृष्टि से रहित हों, षष्ठ या द्वादश भाव में जल राशिगत शनि पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो या विषम राशिगत लग्न को समराशिगत मंगल देखे या शुक्र, चंद्र व लग्न पुरुष राशि नवांश में हों या शनि व शुक्र दशम स्थान में हों या शनि शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में हो तो जातक नपुंसक होता है। चंद्र सम राशि या बुध विषम राशि में मंगल से दृष्ट हो या षष्ठ या द्वादश भाव में नीचगत शनि हो या शनि व शुक्र पर
किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक नपुंसक होता है।
—-जब राहु, शुक्र व शनि में से कोई एक या सब उच्च राशि में हों, कर्क में सूर्य तथा मेष में चंद्र हो तो वीर्यस्राव या धातु रोग होता है। लग्न में चंद्र व पंचम स्थान में बृहस्पति व शनि हों तो धातु रोग होता है। कन्या लग्न में शुक्र मकर या कुंभ राशि में स्थित हो व लग्न को बुध और शनि देखते हांे तो धातु रोग होता है।
—-यदि अष्टम स्थान में मंगल व शुक्र हो तो वायु प्रकोप व शुक्र मंगल की राशि में मंगल से युत हो तो भूमि संसर्ग से अंडवृद्धि होती है।
—–लग्नेश छठे भाव में हो तो षष्ठेश जिस भाव में होगा उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। यदि यह संबंध शुक्र/पंचम/सप्तम/अष्टम से हो जाए तो निश्चित रूप से यौन रोग होगा।
——अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो मृत्यु अत्यंत कष्टकारी होती है। इसी भाव में शुभ ग्रह स्थित हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो गुप्त रोग या नेत्ररोग की पीड़ा से मृत्यु होती है। क्षीण चंद्र अष्टमस्थ हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो इस स्थिति में भी उक्त रोगों से मृत्यु होती है।
——-यदि अष्टम भाव में मंगल हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो मृत्यु सर्जरी या गुप्त रोग अथवा आंख की बीमारी के कारण होती है।
——जिस जातक के जन्मकाल में क्षीण चंद्र बलवान मंगल से दृष्ट हो और शनि लग्न से अष्टम भाव में स्थित हो तो उसकी मृत्यु गुप्त रोग या शरीर में कीड़े पड़ने से या शस्त्र से या अग्नि से होती है।
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यदि पश्चिम दिशा में हैं वास्तुदोष तो होता हैं गुप्तरोग–—
वास्तुशास्त्र,अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
आज के समय में वास्तु शास्त्र भी मानव जीवन मे महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चुका है। क्योंकि मानव जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नही है जो वास्तु शास्त्र से प्रभावित न हो। यह तो अब माना जाने लगा है कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हे रखने का तरीका जीवन को बना व बिगाड़ सकता है। कुछ समय पहले वास्तु शास्त्र का उपयोग सिर्फ धनाढ़्य व्यक्ति अपनी फैक्टरियों व कोठियां आदि बनवाने में करते थे, परन्तु आज एक साधारण व्यक्ति भी इस बारे में जानकारी रखता है और उसकी कोशिश रहती है कि वह अपना भवन वास्तु शास्त्र की दिशा निर्देश के अनुसार करवाए, ताकि भविष्य मे आने वाले दुःख तकलीफ का निवारण कर सके।
वास्तु शास्त्र के नियम बहुत ही सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव के आधार पर बने हैं.इसमे पंच मूलभूत तत्त्वो का भी समावेश किया गया हैं. ये पंच मूलभूत तत्त्व हैं – आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि, वास्तु मात्र भवन निर्माण नहीं, अपितु वो सम्पूर्ण देश, नगर, उपनगर,निर्माण योजना से लेकर छोटे छोटे भवन और उसमे रखी जाने वाली वस्तुओं तक से सम्बंधित हैं.जिन घरों में वास्तु दोष होता हैं, उन घरों के सदस्यों को अक्सर बीमारी रहती हैं.
मनुष्यों एवं बह्याण्ड की रचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई है। यह पंचभूत है-पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु। हर स्त्री पुरूष के जीवन मे इनका बहुत महत्व है प्रकृति के विरूद्ध काम करने से इनका सन्तुलन बिगड़ जाता है और हमारी ऊर्जाएं गलत दिशांए अपना लेती है, जिससे अस्वस्थता पैदा होकर हमारे दिमागी व शारीरिक संतुलन को बिगाड़ देती है, और बैचेनी, तनाव अशान्ति इत्यादि को पैदा कर देती है। इसी तरह जब मनुष्य प्रकृति से छेड़छाड करता है तो उसका संन्तुलन बिगड़ जाता है तब तूफान, बाढ़, अग्निकांड तथा भूकम्प आदि अपना तांडव दिखाते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि पंच तत्वों का सन्तुलन बनाए रखा जाए ताकि हम शान्तिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। जैसे कि ऊपर कहा गया है कि भवन निर्माण के बाद यह पंच तत्व गृह मे रहने लगते है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इन सबका सही सन्तुलन बना रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास करने वाला मानव सुख-शान्ति से नहीं रह पाएगा। उसे सदैव अशान्ति, कलेश, आर्थिक तंगी, रोग तथा मानसिक द्वंद आदि समस्याएं हमेशा घेरे रहेगी। इन पंच तत्वों को जानने के लिए हमें इनके बारे मे अलग-अलग समझना होगा कि यह क्या है और इनका मनुष्य व ब्रह्याण्ड पर किस प्रकार असर पड़ता है।
इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर में स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमें निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
वास्तुशास्त्र के नियमानुसा पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.वास्तु दोष पंच तत्वों के असंतुलन के कारण होता हैं.जिस तत्व के कारण असंतुलन होता हैं, उससे सम्बंधित रोग उत्पन्न होते हैं.आईए जाने पश्चिम दिशा में क्या दोष होने से किस प्रकार के रोगों का सामना करना पढ़ सकता हैं….
—-यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार में फेफडे, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पडता है.
—-यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.
—–यदि पश्चिम दिशा की दिवार में दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग में अवश्य कोई बीमारी होगी.
—-यदि पश्चिम दिशा में रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोडे-फिन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.
—–यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पडेगा.
—-दक्षिण-पश्चिम टी प्वाइंट भवन में निवास करने वाले सदस्यों को पैरों से संबंधित बीमारियों से ग्रसित देखा जा सकता है। अगर ऐसे भवन में निर्माण संबंधी कोई अन्य वास्तु दोष भी है तो परिवार के किसी सदस्य को बवासिर से ग्रसित भी पाया जाता है। यही नहीं, इस स्थिति में अन्य गुप्त रोगों की भी आशंका बनी रहती है।
—–पश्चिम दिशा का स्वामी ‘वरूण’ है और इसका प्रतिनिधि ग्रह ‘शनि’ है। यदि ऐसे गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी उसे गुप्तांग की बीमारी होगी।
—–यदि वायव्य द्घर मे सबसे बड़ा या ज्यादा गोलाकार है तो गृहस्वामी को गुप्त रोग सताएंगें। इस कोण का स्वामी ‘बटुक’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘चन्द्रमा’ माना गया है।
—-उत्तर पश्चिम दिशा (वायव्य कोण में दोष होने पर जातक को निम्नलिखित कष्टों का सामना करना पड़ता है-
.1–माता तथा रिश्तेदारों से संबंध ठीक न होना।
02–मानसिक परेशानी, अनिद्रा, तनाव रहना।
0.–काक संबंधी रोग अस्थमा, मासिक चक्र अथवा प्रजनन संबंधी रोगों का बढ़ना।
===बचाव के कुछ कारगर उपाय:—-
—-शनि यंत्र की उपासना करें।
—–मांस मदिरा का सेवन न करें।
—–भैरो की उपासना करें।
——ऎसी स्थिति में पश्चिमी दिवार पर ‘वरूण यन्त्र’ स्थापित करें.
—–परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों में काले चने वितरित करे.
—–पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा में ढाल न रखें.
—–पश्चिम दिशा में अशोक का एक वृक्ष लगायें.
—–घर की पश्चिम दिशा में भूल कर भी कभी ढाल ना रखे, यदि है तो तुरंत हटाएँ.
—–वायव्य कोण को ईशान की अपेक्षा नीचा न रक्खें। चंद्र की रोशनी में बैठकर ‘‘ऊँं श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः’’ मंत्र का जाप करें। माता का आदर करें। शिव की उपासना करें।
वास्तु दोषों का उपाय संभव है। इन उपायों को किसी कुशल वास्तु विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में ही अपनाना चाहिए।
आशा हैं की इन उपायों को करने से काफी हद तक उपरोक्त समस्याओं से रहत मिलेगी.ज्योतिष वास्तु के साथ-साथ चलता है और इनका आपस मे गूढ़ संबंध है। यह दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं। इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है।
प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व ..वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
जीव योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है।निःसंदेह पहला सुखनिरोगी काया ही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो तो मानव जीवन पिंजरे में बंद पक्षी की तरह ही कहा जाएगा।गुप्त रोग अर्थात् ऐसे रोग जो दिखते नहीं हो लेकिन वर्तमान में इसका तात्पर्य यौन रोगों से लिया जाता है। यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है।
ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप
ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न- भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वृश्चिक राशि व शुक्र को यौन अंगों का, पंचम भाव को गर्भाशय, आंत व शुक्राणु का षष्ठ भाव को गर्भ मूत्र की बीमारियो, गुर्दे, आंत रोग, गठिया और मूत्रकृच्छ का सप्तम भाव को शुक्राशय, अंडाशय, गर्भाशय, वस्ति, मूत्र व मूत्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्रद्वार, शुक्र एवं अष्टम भाव को गुदा, लिंग, योनि और मासिक चक्र का तथा नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी को गुप्तांग एवं कब्जियत, उत्तरा फाल्गुनी को गुदा लिंग व गर्भाशय और हस्त को प्रमेह कारक माना गया है।
वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल का प्राणियों के शरीर में प्रभाव खून में रहता है… मंगल अशुभ प्रभावी होने पर रक्तविकार, लो या हाईब्लड प्रेशर, ब्लडकैंसर आदि रोग जन्म लेते हैं यही नहीं न्यूरोलोजिकल समस्याएं, एवं विषाणु जनित गुप्त रोगों की समस्याएं देने में भी मंगल पीछे नहीं रहते !
—-राशियों में कन्या राशि संक्रामक गुप्त रोगों वसामेह व शोथ विकार और तुला राशि दाम्पत्य कालीन रोगों की कारक कही गई है। ग्रहों में मंगल को गर्भपात, ऋतुस्राव व मूत्रकृच्छ, बृहस्पति को वसा की अधिकता से उत्पन्न रोग व पेट रोग और शुक्र को प्रमेह, वीर्य की कमी, प्रजनन तंत्र के रोग, मूत्र रोग गुप्तांग शोथ, शीघ्र पतन व धातु रोग का कारक माना गया है। इन कारकों पर अशुभ प्रभाव का आना या कारक ग्रहों का रोग स्थान या षष्ठेश से संबंधित होना या नीच नवांश अथवा नीच राशि में उपस्थित होना यौन रोगों का कारण
बनता है।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ज्योतिषीय ग्रह योगों के कारण भी यौन रोग हो सकते हैं—-
—जब शनि, मंगल व चंद्र यदि अष्टम, षष्ठ द्वितीय या द्वादश में हों तो काम संबंधी रोग होता है। इनका किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करना भी यौन रोगों को जन्म देता है। कर्क या वृश्चिक नवांश में यदि चंद्र किसी पाप ग्रह से युत हो तो गुप्त रोग होता है। यदि अष्टम भाव में कई पाप ग्रह हो या बृहस्पति द्वादश स्थान में हो या षष्ठेश व बुध यदि मंगल के साथ हो तो जननेंद्रिय रोग होता है।
—–जब शनि, सूर्य व शुक्र यदि पंचम स्थान में हो, या दशम स्थान में स्थित मंगल से शनि का युति, दृष्टि संबंध हो या लगन में सूर्य व सप्तम में मंगल हो तो प्रमेह, मधुमेह या वसामेह होता है। चतुर्थ में चंद्र व शनि हों या विषम राशि लग्न में शुक्र हो या शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृष्ट हो या शुक्र की राशि में चंद्र स्थित हो तो जातक
अल्प वीर्य वाला होता है।
—-शनि व शुक्र दशम या अष्टम में शुभ दृष्टि से रहित हों, षष्ठ या द्वादश भाव में जल राशिगत शनि पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो या विषम राशिगत लग्न को समराशिगत मंगल देखे या शुक्र, चंद्र व लग्न पुरुष राशि नवांश में हों या शनि व शुक्र दशम स्थान में हों या शनि शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में हो तो जातक नपुंसक होता है। चंद्र सम राशि या बुध विषम राशि में मंगल से दृष्ट हो या षष्ठ या द्वादश भाव में नीचगत शनि हो या शनि व शुक्र पर
किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक नपुंसक होता है।
—-जब राहु, शुक्र व शनि में से कोई एक या सब उच्च राशि में हों, कर्क में सूर्य तथा मेष में चंद्र हो तो वीर्यस्राव या धातु रोग होता है। लग्न में चंद्र व पंचम स्थान में बृहस्पति व शनि हों तो धातु रोग होता है। कन्या लग्न में शुक्र मकर या कुंभ राशि में स्थित हो व लग्न को बुध और शनि देखते हांे तो धातु रोग होता है।
—-यदि अष्टम स्थान में मंगल व शुक्र हो तो वायु प्रकोप व शुक्र मंगल की राशि में मंगल से युत हो तो भूमि संसर्ग से अंडवृद्धि होती है।
—–लग्नेश छठे भाव में हो तो षष्ठेश जिस भाव में होगा उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। यदि यह संबंध शुक्र/पंचम/सप्तम/अष्टम से हो जाए तो निश्चित रूप से यौन रोग होगा।
——अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो मृत्यु अत्यंत कष्टकारी होती है। इसी भाव में शुभ ग्रह स्थित हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो गुप्त रोग या नेत्ररोग की पीड़ा से मृत्यु होती है। क्षीण चंद्र अष्टमस्थ हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो इस स्थिति में भी उक्त रोगों से मृत्यु होती है।
——-यदि अष्टम भाव में मंगल हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो मृत्यु सर्जरी या गुप्त रोग अथवा आंख की बीमारी के कारण होती है।
——जिस जातक के जन्मकाल में क्षीण चंद्र बलवान मंगल से दृष्ट हो और शनि लग्न से अष्टम भाव में स्थित हो तो उसकी मृत्यु गुप्त रोग या शरीर में कीड़े पड़ने से या शस्त्र से या अग्नि से होती है।
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यदि पश्चिम दिशा में हैं वास्तुदोष तो होता हैं गुप्तरोग–—
वास्तुशास्त्र,अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
आज के समय में वास्तु शास्त्र भी मानव जीवन मे महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चुका है। क्योंकि मानव जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नही है जो वास्तु शास्त्र से प्रभावित न हो। यह तो अब माना जाने लगा है कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हे रखने का तरीका जीवन को बना व बिगाड़ सकता है। कुछ समय पहले वास्तु शास्त्र का उपयोग सिर्फ धनाढ़्य व्यक्ति अपनी फैक्टरियों व कोठियां आदि बनवाने में करते थे, परन्तु आज एक साधारण व्यक्ति भी इस बारे में जानकारी रखता है और उसकी कोशिश रहती है कि वह अपना भवन वास्तु शास्त्र की दिशा निर्देश के अनुसार करवाए, ताकि भविष्य मे आने वाले दुःख तकलीफ का निवारण कर सके।
वास्तु शास्त्र के नियम बहुत ही सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव के आधार पर बने हैं.इसमे पंच मूलभूत तत्त्वो का भी समावेश किया गया हैं. ये पंच मूलभूत तत्त्व हैं – आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि, वास्तु मात्र भवन निर्माण नहीं, अपितु वो सम्पूर्ण देश, नगर, उपनगर,निर्माण योजना से लेकर छोटे छोटे भवन और उसमे रखी जाने वाली वस्तुओं तक से सम्बंधित हैं.जिन घरों में वास्तु दोष होता हैं, उन घरों के सदस्यों को अक्सर बीमारी रहती हैं.
मनुष्यों एवं बह्याण्ड की रचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई है। यह पंचभूत है-पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु। हर स्त्री पुरूष के जीवन मे इनका बहुत महत्व है प्रकृति के विरूद्ध काम करने से इनका सन्तुलन बिगड़ जाता है और हमारी ऊर्जाएं गलत दिशांए अपना लेती है, जिससे अस्वस्थता पैदा होकर हमारे दिमागी व शारीरिक संतुलन को बिगाड़ देती है, और बैचेनी, तनाव अशान्ति इत्यादि को पैदा कर देती है। इसी तरह जब मनुष्य प्रकृति से छेड़छाड करता है तो उसका संन्तुलन बिगड़ जाता है तब तूफान, बाढ़, अग्निकांड तथा भूकम्प आदि अपना तांडव दिखाते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि पंच तत्वों का सन्तुलन बनाए रखा जाए ताकि हम शान्तिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। जैसे कि ऊपर कहा गया है कि भवन निर्माण के बाद यह पंच तत्व गृह मे रहने लगते है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इन सबका सही सन्तुलन बना रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास करने वाला मानव सुख-शान्ति से नहीं रह पाएगा। उसे सदैव अशान्ति, कलेश, आर्थिक तंगी, रोग तथा मानसिक द्वंद आदि समस्याएं हमेशा घेरे रहेगी। इन पंच तत्वों को जानने के लिए हमें इनके बारे मे अलग-अलग समझना होगा कि यह क्या है और इनका मनुष्य व ब्रह्याण्ड पर किस प्रकार असर पड़ता है।
इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर में स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमें निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
वास्तुशास्त्र के नियमानुसा पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.वास्तु दोष पंच तत्वों के असंतुलन के कारण होता हैं.जिस तत्व के कारण असंतुलन होता हैं, उससे सम्बंधित रोग उत्पन्न होते हैं.आईए जाने पश्चिम दिशा में क्या दोष होने से किस प्रकार के रोगों का सामना करना पढ़ सकता हैं….
—-यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार में फेफडे, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पडता है.
—-यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.
—–यदि पश्चिम दिशा की दिवार में दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग में अवश्य कोई बीमारी होगी.
—-यदि पश्चिम दिशा में रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोडे-फिन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.
—–यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पडेगा.
—-दक्षिण-पश्चिम टी प्वाइंट भवन में निवास करने वाले सदस्यों को पैरों से संबंधित बीमारियों से ग्रसित देखा जा सकता है। अगर ऐसे भवन में निर्माण संबंधी कोई अन्य वास्तु दोष भी है तो परिवार के किसी सदस्य को बवासिर से ग्रसित भी पाया जाता है। यही नहीं, इस स्थिति में अन्य गुप्त रोगों की भी आशंका बनी रहती है।
—–पश्चिम दिशा का स्वामी ‘वरूण’ है और इसका प्रतिनिधि ग्रह ‘शनि’ है। यदि ऐसे गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी उसे गुप्तांग की बीमारी होगी।
—–यदि वायव्य द्घर मे सबसे बड़ा या ज्यादा गोलाकार है तो गृहस्वामी को गुप्त रोग सताएंगें। इस कोण का स्वामी ‘बटुक’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘चन्द्रमा’ माना गया है।
—-उत्तर पश्चिम दिशा (वायव्य कोण में दोष होने पर जातक को निम्नलिखित कष्टों का सामना करना पड़ता है-
.1–माता तथा रिश्तेदारों से संबंध ठीक न होना।
02–मानसिक परेशानी, अनिद्रा, तनाव रहना।
0.–काक संबंधी रोग अस्थमा, मासिक चक्र अथवा प्रजनन संबंधी रोगों का बढ़ना।
===बचाव के कुछ कारगर उपाय:—-
—-शनि यंत्र की उपासना करें।
—–मांस मदिरा का सेवन न करें।
—–भैरो की उपासना करें।
——ऎसी स्थिति में पश्चिमी दिवार पर ‘वरूण यन्त्र’ स्थापित करें.
—–परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों में काले चने वितरित करे.
—–पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा में ढाल न रखें.
—–पश्चिम दिशा में अशोक का एक वृक्ष लगायें.
—–घर की पश्चिम दिशा में भूल कर भी कभी ढाल ना रखे, यदि है तो तुरंत हटाएँ.
—–वायव्य कोण को ईशान की अपेक्षा नीचा न रक्खें। चंद्र की रोशनी में बैठकर ‘‘ऊँं श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः’’ मंत्र का जाप करें। माता का आदर करें। शिव की उपासना करें।
वास्तु दोषों का उपाय संभव है। इन उपायों को किसी कुशल वास्तु विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में ही अपनाना चाहिए।
आशा हैं की इन उपायों को करने से काफी हद तक उपरोक्त समस्याओं से रहत मिलेगी.ज्योतिष वास्तु के साथ-साथ चलता है और इनका आपस मे गूढ़ संबंध है। यह दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं।