विवाह के समय इन आवश्यक बातो का रखें ध्यान—- एक ज्योतिषीय विश्लेष्ण—
हिंदू धर्म शास्त्रों में हमारे सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन संस्कारों में काफी महत्वपूर्ण विवाह संस्कार। शादी को व्यक्ति को दूसरा जन्म भी माना जाता है क्योंकि इसके बाद वर-वधू सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर-वधू का जीवन सुखी और खुशियोंभरा हो यही कामना की जाती है।
हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है विवाह। सामान्यत: सभी लोगों का विवाह हो जाता है, कुछ लोगों का जल्दी विवाह होता है तो कुछ लोगों की शादी में विलंब होता है। यदि किसी अविवाहित लड़के या लड़की की सभी परिस्थितियां बहुत अच्छी हैं और फिर भी विवाह नहीं हो पा रहा है तो ऐसा संभव है कि उनकी कुंडली में कोई ग्रह बाधा हो।
मानव जीवन में विवाह बहुत बड़ी विशेषता मानी गई है। विवाह का वास्तविक अर्थ है- दो आत्माओं का आत्मिक मिलन। एक हृदय चाहता है कि वह दूसरे हृदय से सम्पर्क स्थापित करे, आपस में दोनों का आत्मिक प्रेम हो और हृदय मधुर कल्पना से ओतप्रोत हो।
वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। साथ ही दोनों की पत्रिका में ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इनका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? यह भी सटिक अंदाजा लगाया जाता है। यदि दोनों की कुंडलियां के आधार इनका जीवन सुखी प्रतीत होता है तभी ज्योतिषी विवाह करने की बात कहता है।
जब दोनों एक सूत्र में बँध जाते हैं, तब उसे समाज ‘विवाह’ का नाम देता है। विवाह एक पवित्र रिश्ता है।
— विवाह में अशौचादी की संभावना हो तो १० दिन प्रथम नान्दी श्राद्ध करना चाहिए । नान्दी श्राद्ध के बाद विवाह समाप्ति तक अशौच होने पर भी वर -वधू को और उनके माता -पिता को अशौच नहीं होता है
—-नान्दी श्राद्ध के प्रथम भी विवाह के लिए सामग्री तैयार होने पर अशौच प्राप्ति हो तो प्रायश्चित करके विवाह कर्म होता है ” कुष्मांड सूक्त” से ।हवन ,गोदान और पञ्च गव्य प्राशन इसका प्रायश्चित्त है ।
——जिनकी जन्मपत्री में राहु सातवें घर में बैठा होता है उसे ..वें वर्ष में शादी नहीं करनी चाहिए। ऐसा करना से वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होता है। पति-पत्नी एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। कुण्डली में लग्न स्थान यानी पहले घर में चन्द्रमा बैठा हो तो 25 वें वर्ष में शादी नहीं करनी चाहिए। 25 वां वर्ष चन्द्रमा की आयु मानी जाती है। चन्द्रमा की दृष्टि सातवें घर पर होती है जो शुक्र का घर है। शुक्र और चन्द्रमा में शत्रुता होने के कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है।
—- विवाह के समय हवन के पूर्व अथवा मध्य में वा प्रारम्भ में कन्या यदि रजस्वला हो जाने पर कन्या को स्नान कराकर ” युञ्जान ” इस मन्त्र से हवन करके अवशिष्ट कर्म करना चाहिए ।
—- वधू और वर के माता को ”रजोदर्शन ” की संभावना हो तो नान्दी श्राद्ध दश दिन प्रथम कर लेना चाहिए । ——नान्दी श्राद्ध के बाद रजोदर्शन जानी दोष नहीं होता है ।
—–केवल मांगलिक योग शादी में 2.% ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते है। यदि लग्नेश, सप्तमेश एवं पंचमेश सप्तम भाव में 5 या इससे अधिक पाते है, तथा इनमें से कोई अस्त या नीच का न हो तो लड़का-लड़की दोनों आजीवन सुखी एवं खुश रहेगें। चाहे कुंडली कितनी भी भयंकर मांगलीक क्यों न हो।
—–दोनों के सप्तमांश कुंडली में सप्तमेश परस्पर शत्रु ग्रह नहीं होने चाहिये। यदि संयोग से ऐसा हो भी जाता है, तो शादी के समय उस नक्षत्र में विवाह कदापि न करें जिसमे जन्म के समय दोनों के सप्तमेश हो।
—–यदि सप्तम भाव में प्रत्येक ग्रह को 5 या इससे अधिक मिलें तो गणना न मिलने पर भी शादी सदा शुभ होगी।
——इसके विपरीत यदि गणना के अंक 25 या .0 या इससे अधिक ही क्यों न मिलें, किन्तु अष्टक वर्ग में यदि प्रत्येक ग्रह को 3 या इससे कम अंक मिलते हो, तो वह विवाह सदा ही अशुभ होता है।
—–यदि भाव दोष के कारण विवाह में बाधा पहुँच रही हो तो पहले नक्षत्र व्युत्क्रमण की विधि पूरी करें। यदि नक्षत्र दोष के कारण बाधा हो तो स्थान व्युत्क्रमण की विधि पूरी करें। किन्तु यदि दोनों दोष हो तो विवाह किसी भी कीमत पर न करें।
—–नान्दी श्राद्ध के प्रथम रजोदर्शन होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह करना चाहिए ।
—— वर -वधू की माता के ”रजस्वला ” अथवा संतान होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह हो सकता है ।
—- विवाह में अशौच की संभावना हो तो अशौच के प्रथम अन्न का संकल्प कर देना चाहिए । फिर उस संकल्पत अन्न का दोनों पक्ष के मनुष्य भोजन कर सकते हैं ,उसमें कोई दोष नहीं है ।परिवेषण असगोत्र के मनुष्यों को करना चाहिए ।
—– विवाह में वर-वधू का ”ग्रंथिबंधन कन्यादान के पहले ही शास्त्र सम्मत है ,कन्यादान के बाद नहीं । कन्या दाता का अपनी स्त्री के साथ ग्रंथि बंधन कन्यादान के प्रथम होना चाहिए ।
—- दो क का एक समय विवाह हो सकता है परन्तु एक साथ नहीं ,किन्तु एक कन्या का वैवाहिक कृत्य समाप्त होने पर द्वार -भेद और आचार्य भेद भी हो सकता है ।
—— एक समय में दो शुभ -कर्म निषेध है ,उसमें भी कन्या के विवाह के अनन्तर पुत्र का विवाह हो सकता है और पुत्र-विवाह के अनन्तर पुत्री का विवाह छ मॉस तक नहीं हो सकता है ।
——पहले गर्भ में उत्पन्न लड़के या लड़की का विवाह उसके जन्म मास, जन्म नक्षत्र या जन्म तिथि में नही करना चाहिए। यदि माता का पहला गर्भ नष्ट हो गया हो तब यह विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जन्म मास के सन्दर्भ में मुहूर्तशास्त्रियों के दो मत हैं, कुछ तो जन्म के चान्द्रमास को जन्म मास मानते हैं और कुछ जन्म दिन से लेकर तीस दिन के अवधि को जन्म मास माना जाए।
——ज्येष्ठ लड़के और ज्येष्ठ लड़की का परस्पर विवाह ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। पुत्र के विवाह के 6 माह के भीतर पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। पुत्री का विवाह करने के बाद पुत्र का विवाह कभी भी किया जा सकता है।
——एक वर्ष में सहोदर भाई अथवा बहनों का विवाह शुभ कारक नहीं ,वर्ष भेद में और संकट में कर सकते हैं ।
—- समान गोत्र और समान प्रवर वाली कन्या के साथ विवाह निषिद्ध है ।
—फाल्गुन, बारहवां, बुद्ध और सोम इन वारों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है।
—-मघा, मार्गशीर्ष, मूल, मृगशिरा, रेवती, वर्णवाली रोगिणी नहीं होनी चाहिए। विवाह में सपिण्ड, वाचाल, विचार, वैशाख, शुक्र, स्वाति, हस्त ये नक्षत्र विवाह में शुभ हैं। विवाह में सौरमास ग्रहण करना चाहिए।
—— विवाह के बाद १ वर्ष तक पिंड दान ,मृत्तिका स्नान ,तिल तर्पण ,तीर्थ यात्रा ,मुंडन ,प्रेतानुगमन आदि नहीं करनी चाहिए ।
—– विवाह में छींक का दोष नहीं होता है ।
—– विवाहादिक कार्यों में स्पर्शास्पर्श का दोष नहीं होता है ।
—-अनुराधा, अषाढ़ महिनों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है। रोहिणी, आठवां, आठवें एवं बारहवें नहीं लेने चाहिए। विवाह में मास ग्रहण के लिए व्यास ने कहा हें.
—–कन्या ग्रहण के विषय में मनु ने कहा है कि वह कन्या अधिक अंग वाली, गोत्र, चन्द्रमा नहीं लेना चाहिए।
—-गुरु तथा रवि भी चौथे, ज्येष्ठ, तीनों उत्तरा, नवमी इन तिथियों को त्याग देना चाहिए।
—– विवाहादि कार्यों में ४ ,१२, चन्द्रमा ग्रहण किया जाता है ।
—– विवाह में ६,८ ,१०,शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा रिक्ता आदि तिथि निषिद्ध है ।.
——कुण्डली में अगर सूर्य और शुक्र एक साथ एक घर में बैठे हों तो विवाह के लिए 22 वां और 25वां वर्ष शुभ नहीं होता है। इस उम्र में विवाह करने पर पति-पत्नी के संबंध अच्छे नहीं रहते हैं। शुभ ग्रहों का प्रभाव नहीं हो तो अलगाव भी हो सकता है। इस किताब में विवाह के संबंध में बताया गया कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में बुध छठे घर में बैठा होता है उसे अपनी बेटी की शादी उत्तर दिशा में रहने वाले व्यक्ति से नहीं करनी चाहिए। इससे विवाह के बाद बेटी को दुःख उठाना पड़ता है।
—–लडके एवं लड़की दोनों का जन्म एक दूसरे के तृतीयांत राशि में न हो। अर्थात यदि लडके का जन्म मेष राशि के अंत में अर्थात कृत्तिका नक्षत्र के प्रथम चरण में हो तो लड़की का जन्म मिथुन राशि के अंत अर्थात पुनर्वसु नक्षत्र के अंतिम चरण में नहीं होना चाहिये।
—-कुंडली में लडके के जिस भाव में सूर्य हो लड़की की कुंडली में उस भाव में गुरु न होवे।
—–लड़की के जिस भाव में मंगल हो लडके की कुंडली में उस भाव में शुक्र न होवे।
—–लडके की कुंडली में यदि आठवें भाव में शनि, राहु, मंगल या सूर्य हो तो लड़की की कुंडली में इसी भाव में इनमें से कोई भी ग्रह उस शर्त पर हो जो लडके के अष्टक वर्ग में आठवें भाव में 4 या इससे कम अंक लिया हो। अन्यथा अल्पायु योग स्वतः बन जायेगा।
—–विवाह का मुहूर्त तभी निकालें जब लड़का या लड़की किसी एक का किसी भी ग्रह में राहु की अन्तर्दशा चल रही हो। तथा दूसरे की सप्तम या दूसरे भाव की संध्या दशा में पाचक दशा चल रही हो। ऐसा इसलिये ताकि आजीवन एक की दशा विपरीत होने पर दूसरे की दशा बली होकर उसे सहारा दे देती है।
——पारंपरिक गणना के अनुसार यदि नाडी एक हो जाती है। तो शादी निषिद्ध कर दी जाती है। कारण यह है की एक तो गणना में सीधे आठ अंक कम हो जाते है। दूसरे वंश क्रम अवरुद्ध होने का कथन है। किन्तु यदि दोनों की कुंडली में पंचमेश, सप्तमेश एवं लग्नेश दोनों के पांचवें भाव की राशि में 5 या इससे अधिक अंक पाते है। तो वंशक्रम अवरुद्ध नहीं हो पाता है।
——जिनकी कुण्डली में सूर्य, बुध और राहु एक साथ एक घर में बैठा होता है उनका वैवाहिक जीवन संघर्षपूर्ण होता है। ऐसे लोगों की एक से अधिक शादी होने की संभावना रहती है। सूर्य जिनकी कुण्डली में छठे घर होता है और शनि 12 वें घर में उनकी भी एक से अधिक शादी हो सकती है। इस स्थिति में वैवाहिक जीवन के सुख को बनाए रखने के लिए लाल किताब में उपाय बताया गया है कि विवाह के समय ससुराल पक्ष से दो तांबे एवं चांदी के चौकोर टुकड़े लें। एक टुकड़ा पानी में बहा दें और दूसरा अपने पास रखें।
——कुंडली मिलान से दोनों ही परिवार वर-वधू के बारे काफी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो और इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए।
——जिनकी जन्मपत्री में राहु सातवें घर में बैठा होता है उसे ..वें वर्ष में शादी नहीं करनी चाहिए। ऐसा करना से वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होता है। पति-पत्नी एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। कुण्डली में लग्न स्थान यानी पहले घर में चन्द्रमा बैठा हो तो 25 वें वर्ष में शादी नहीं करनी चाहिए। 25 वां वर्ष चन्द्रमा की आयु मानी जाती है। चन्द्रमा की दृष्टि सातवें घर पर होती है जो शुक्र का घर है। शुक्र और चन्द्रमा में शत्रुता होने के कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है।
—- विवाह के समय हवन के पूर्व अथवा मध्य में वा प्रारम्भ में कन्या यदि रजस्वला हो जाने पर कन्या को स्नान कराकर ” युञ्जान ” इस मन्त्र से हवन करके अवशिष्ट कर्म करना चाहिए ।
—- वधू और वर के माता को ”रजोदर्शन ” की संभावना हो तो नान्दी श्राद्ध दश दिन प्रथम कर लेना चाहिए । ——नान्दी श्राद्ध के बाद रजोदर्शन जानी दोष नहीं होता है ।
—–केवल मांगलिक योग शादी में 2.% ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते है। यदि लग्नेश, सप्तमेश एवं पंचमेश सप्तम भाव में 5 या इससे अधिक पाते है, तथा इनमें से कोई अस्त या नीच का न हो तो लड़का-लड़की दोनों आजीवन सुखी एवं खुश रहेगें। चाहे कुंडली कितनी भी भयंकर मांगलीक क्यों न हो।
—–दोनों के सप्तमांश कुंडली में सप्तमेश परस्पर शत्रु ग्रह नहीं होने चाहिये। यदि संयोग से ऐसा हो भी जाता है, तो शादी के समय उस नक्षत्र में विवाह कदापि न करें जिसमे जन्म के समय दोनों के सप्तमेश हो।
—–यदि सप्तम भाव में प्रत्येक ग्रह को 5 या इससे अधिक मिलें तो गणना न मिलने पर भी शादी सदा शुभ होगी।
——इसके विपरीत यदि गणना के अंक 25 या .0 या इससे अधिक ही क्यों न मिलें, किन्तु अष्टक वर्ग में यदि प्रत्येक ग्रह को 3 या इससे कम अंक मिलते हो, तो वह विवाह सदा ही अशुभ होता है।
—–यदि भाव दोष के कारण विवाह में बाधा पहुँच रही हो तो पहले नक्षत्र व्युत्क्रमण की विधि पूरी करें। यदि नक्षत्र दोष के कारण बाधा हो तो स्थान व्युत्क्रमण की विधि पूरी करें। किन्तु यदि दोनों दोष हो तो विवाह किसी भी कीमत पर न करें।
—–नान्दी श्राद्ध के प्रथम रजोदर्शन होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह करना चाहिए ।
—— वर -वधू की माता के ”रजस्वला ” अथवा संतान होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह हो सकता है ।
—- विवाह में अशौच की संभावना हो तो अशौच के प्रथम अन्न का संकल्प कर देना चाहिए । फिर उस संकल्पत अन्न का दोनों पक्ष के मनुष्य भोजन कर सकते हैं ,उसमें कोई दोष नहीं है ।परिवेषण असगोत्र के मनुष्यों को करना चाहिए ।
—– विवाह में वर-वधू का ”ग्रंथिबंधन कन्यादान के पहले ही शास्त्र सम्मत है ,कन्यादान के बाद नहीं । कन्या दाता का अपनी स्त्री के साथ ग्रंथि बंधन कन्यादान के प्रथम होना चाहिए ।
—- दो क का एक समय विवाह हो सकता है परन्तु एक साथ नहीं ,किन्तु एक कन्या का वैवाहिक कृत्य समाप्त होने पर द्वार -भेद और आचार्य भेद भी हो सकता है ।
—— एक समय में दो शुभ -कर्म निषेध है ,उसमें भी कन्या के विवाह के अनन्तर पुत्र का विवाह हो सकता है और पुत्र-विवाह के अनन्तर पुत्री का विवाह छ मॉस तक नहीं हो सकता है ।
——पहले गर्भ में उत्पन्न लड़के या लड़की का विवाह उसके जन्म मास, जन्म नक्षत्र या जन्म तिथि में नही करना चाहिए। यदि माता का पहला गर्भ नष्ट हो गया हो तब यह विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जन्म मास के सन्दर्भ में मुहूर्तशास्त्रियों के दो मत हैं, कुछ तो जन्म के चान्द्रमास को जन्म मास मानते हैं और कुछ जन्म दिन से लेकर तीस दिन के अवधि को जन्म मास माना जाए।
——ज्येष्ठ लड़के और ज्येष्ठ लड़की का परस्पर विवाह ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। पुत्र के विवाह के 6 माह के भीतर पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। पुत्री का विवाह करने के बाद पुत्र का विवाह कभी भी किया जा सकता है।
——एक वर्ष में सहोदर भाई अथवा बहनों का विवाह शुभ कारक नहीं ,वर्ष भेद में और संकट में कर सकते हैं ।
—- समान गोत्र और समान प्रवर वाली कन्या के साथ विवाह निषिद्ध है ।
—फाल्गुन, बारहवां, बुद्ध और सोम इन वारों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है।
—-मघा, मार्गशीर्ष, मूल, मृगशिरा, रेवती, वर्णवाली रोगिणी नहीं होनी चाहिए। विवाह में सपिण्ड, वाचाल, विचार, वैशाख, शुक्र, स्वाति, हस्त ये नक्षत्र विवाह में शुभ हैं। विवाह में सौरमास ग्रहण करना चाहिए।
—— विवाह के बाद १ वर्ष तक पिंड दान ,मृत्तिका स्नान ,तिल तर्पण ,तीर्थ यात्रा ,मुंडन ,प्रेतानुगमन आदि नहीं करनी चाहिए ।
—– विवाह में छींक का दोष नहीं होता है ।
—– विवाहादिक कार्यों में स्पर्शास्पर्श का दोष नहीं होता है ।
—-अनुराधा, अषाढ़ महिनों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है। रोहिणी, आठवां, आठवें एवं बारहवें नहीं लेने चाहिए। विवाह में मास ग्रहण के लिए व्यास ने कहा हें.
—–कन्या ग्रहण के विषय में मनु ने कहा है कि वह कन्या अधिक अंग वाली, गोत्र, चन्द्रमा नहीं लेना चाहिए।
—-गुरु तथा रवि भी चौथे, ज्येष्ठ, तीनों उत्तरा, नवमी इन तिथियों को त्याग देना चाहिए।
—– विवाहादि कार्यों में ४ ,१२, चन्द्रमा ग्रहण किया जाता है ।
—– विवाह में ६,८ ,१०,शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा रिक्ता आदि तिथि निषिद्ध है ।.
——कुण्डली में अगर सूर्य और शुक्र एक साथ एक घर में बैठे हों तो विवाह के लिए 22 वां और 25वां वर्ष शुभ नहीं होता है। इस उम्र में विवाह करने पर पति-पत्नी के संबंध अच्छे नहीं रहते हैं। शुभ ग्रहों का प्रभाव नहीं हो तो अलगाव भी हो सकता है। इस किताब में विवाह के संबंध में बताया गया कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में बुध छठे घर में बैठा होता है उसे अपनी बेटी की शादी उत्तर दिशा में रहने वाले व्यक्ति से नहीं करनी चाहिए। इससे विवाह के बाद बेटी को दुःख उठाना पड़ता है।
—–लडके एवं लड़की दोनों का जन्म एक दूसरे के तृतीयांत राशि में न हो। अर्थात यदि लडके का जन्म मेष राशि के अंत में अर्थात कृत्तिका नक्षत्र के प्रथम चरण में हो तो लड़की का जन्म मिथुन राशि के अंत अर्थात पुनर्वसु नक्षत्र के अंतिम चरण में नहीं होना चाहिये।
—-कुंडली में लडके के जिस भाव में सूर्य हो लड़की की कुंडली में उस भाव में गुरु न होवे।
—–लड़की के जिस भाव में मंगल हो लडके की कुंडली में उस भाव में शुक्र न होवे।
—–लडके की कुंडली में यदि आठवें भाव में शनि, राहु, मंगल या सूर्य हो तो लड़की की कुंडली में इसी भाव में इनमें से कोई भी ग्रह उस शर्त पर हो जो लडके के अष्टक वर्ग में आठवें भाव में 4 या इससे कम अंक लिया हो। अन्यथा अल्पायु योग स्वतः बन जायेगा।
—–विवाह का मुहूर्त तभी निकालें जब लड़का या लड़की किसी एक का किसी भी ग्रह में राहु की अन्तर्दशा चल रही हो। तथा दूसरे की सप्तम या दूसरे भाव की संध्या दशा में पाचक दशा चल रही हो। ऐसा इसलिये ताकि आजीवन एक की दशा विपरीत होने पर दूसरे की दशा बली होकर उसे सहारा दे देती है।
——पारंपरिक गणना के अनुसार यदि नाडी एक हो जाती है। तो शादी निषिद्ध कर दी जाती है। कारण यह है की एक तो गणना में सीधे आठ अंक कम हो जाते है। दूसरे वंश क्रम अवरुद्ध होने का कथन है। किन्तु यदि दोनों की कुंडली में पंचमेश, सप्तमेश एवं लग्नेश दोनों के पांचवें भाव की राशि में 5 या इससे अधिक अंक पाते है। तो वंशक्रम अवरुद्ध नहीं हो पाता है।
——जिनकी कुण्डली में सूर्य, बुध और राहु एक साथ एक घर में बैठा होता है उनका वैवाहिक जीवन संघर्षपूर्ण होता है। ऐसे लोगों की एक से अधिक शादी होने की संभावना रहती है। सूर्य जिनकी कुण्डली में छठे घर होता है और शनि 12 वें घर में उनकी भी एक से अधिक शादी हो सकती है। इस स्थिति में वैवाहिक जीवन के सुख को बनाए रखने के लिए लाल किताब में उपाय बताया गया है कि विवाह के समय ससुराल पक्ष से दो तांबे एवं चांदी के चौकोर टुकड़े लें। एक टुकड़ा पानी में बहा दें और दूसरा अपने पास रखें।
——कुंडली मिलान से दोनों ही परिवार वर-वधू के बारे काफी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो और इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए।
——-कुंडली के सही अध्ययन से किसी भी व्यक्ति के सभी गुण-दोष जाने जा सकते हैं। कुंडली में स्थित ग्रहों के आधार पर ही हमारा व्यवहार, आचार-विचार आदि निर्मित होते हैं। उनके भविष्य से जुड़ी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। कुंडली से ही पता लगाया जाता है कि वर-वधू दोनों भविष्य में एक-दूसरे की सफलता के लिए सहयोगी सिद्ध या नहीं। वर-वधू की कुंडली मिलाने से दोनों के एक साथ भविष्य की संभावित जानकारी प्राप्त हो जाती है इसलिए विवाह से पहले कुंडली मिलान किया जाता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि ये सारे प्रतिबन्ध या नियम /सम्मति सिर्फ उनके लिए लागू है जो ज्योतिष, गणना या इस परम्परा को मानते हैं, विश्वास करते हें । जो नहीं मानते या संदेह करते हें उनके लिये यह सारा विवरण निरर्थक है।