आइये जाने की क्या हें देव गरु(वृहस्पति) ?? उनके प्रभाव एवं परिणाम..

खगोल शास्त्र और ज्योतिष में सौरमंडल के नौ ग्रहों में सूर्य सहित शुक्र और बृहस्पति आते हैं। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण में भी इन तीनों से तीन दिनों का नाम जु़डा हुआ है। परस्पर तीनों की तुलना में सूर्य सर्वाधिक प्रकाशवान हैं, सबसे बडे़ और सबसे भारी हैं। बृहस्पति ग्रह का एक पर्यायवाची शब्द जो प्रचलन में व्यापक देखने को मिलता है वह गुरू शब्द है। गुरू शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनमें आधार भूत अर्थ जो अधंकार को मिटाये, भारी, ब़डा इत्यादि हैं। पौराणिक साहित्य में देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं और असुरों के गुरू शुक्र शुक्राचार्य हैं। अत: इन तीनों यथा सूर्य, बृहस्पति और शुक्र में गुरू का संबोधन सूर्य को न दिया जाकर बृहस्पति को क्यों दिया गया हैक् यह एक सहज जिज्ञासा है। 
जिन व्यक्तियों पर बृहस्पतिदेव की कृपा एवं प्रभाव होता है, वे परोपकारी, कर्तव्यपरायण, संतुष्ट एवं कानून का पालन करने वाले होते हैं। बृहस्पति को धनु एवं मीन राशियों का स्वामित्व प्राप्त है यह दोनों राशियाँ बृहस्पति के दो रूपों का आरेखन करती है। धनुष-बाण से लक्ष्य साधता धनुर्धर, आत्मविश्वास, आशावाद और लक्ष्य भेदन की क्षमता का प्रतीक है, तो जल में विचरण करती मीन शांत परंतु सतत कार्यशीलता, आसानी से प्रभावित न होने एवं पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। पाराशर जी ने बृहस्पति देव का चित्रांकन एक धीर, गंभीर, चिंतक एवं ज्ञान के अतुल भंडार के रूप में किया।
चौ़डा ललाट अच्छे भाग्य की निशानी माना जाता है तथा उन्नत चौ़डा ललाट बृहस्पति देव का ही विषय क्षेत्र है। जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर बृहस्पतिदेव का अधिकार है, जैसे- शिक्षा, विवाह, संतान, धर्म, धन, परोपकार, जीवन के इन पक्षों से संतुष्ट व्यक्ति नि:संदेह भाग्यशाली होगा। एक महत्वपूर्ण ग्रंथ के श्लोक में वर्णित है कि ब्रह्मा  ने कष्ट एवं दु:ख के भवसागर को पार करने के लिए बृहस्पति और शुक्र नामक दो चप्पू बनाए। इनकी सहायता से व्यक्ति दोष रूपी समंदर को पार करके दूसरे किनारे पहुंच सकता है, जहाँ शुभ कर्म हैं अत: सात्विक गुणों के प्रदाता बृहस्पतिदेव ही हैं।
भारत में गुरू को, शिक्षक को, विद्यादाता को, मंत्रदाता को, मार्गदर्शक को सर्वोच्चा श्रद्धा का अधिकारी माना गया है। जो देश, ज्ञान के पूजक हैं उन सबमें गुरू को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। कृष्ण जगद्गुरू हैं, वेदव्यास मंत्र गुरू हैं इसलिए हम उन्हें पूजते हैं। गुरू नानक और गोविन्द सिंह तक दस गुरू मार्गदर्शक होने के कारण पूजे जाते हैं। उनके बाद उनकी गुरू परम्परा ग्रंथ साहेब में समाहित हुई इसलिए ग्रंथ की पूजा होती है।
वेदकाल में गुरू को सर्वाधिक बडे़ होने के कारण तथा बुद्धि और वाणी के अधिष्ठाता होने के कारण जो गरिमा प्राप्त हुई उसके कारण बृहस्पति नाम लोकप्रिय हो गया। यही कारण है कि अनेक ऋषियों, आचार्यो एवं ज्योतिर्विदों के नाम भी बृहस्पति पाये जाते हैं। एक आचार्य बृहस्पति ज्योतिविज्ञानी के रूप में प्रसिद्ध हैं जो खगोल, कालगणना और संवत्सरों के नामकरण के लिए भी विख्यात हैं। बार्हस्पत्य मान के अनुसार ही हम आज भी संवत्सरों के नाम विलम्बी आदि उद्धृत करते हैं।
बृहस्पति देवगुरू और शुक्राचार्य दैत्यगुरू कहे जाते हैं। दैत्यों और देवों में सदा से तनातनी रही है, विश्वयुद्ध इसी कारण होते थे। देव, दैत्यों का संहार कर देते थे पर वे पुन: फलने-फूलने लगते थे। इसका कारण माना जाता था, मृत संजीवनी विद्या, जो दैत्य गुरू शुक्राचार्य के पास थी। इस विद्या को प्राप्त करने का प्रयत्न देवगण किया करते थे। देवगुरू बृहस्पति भी इसमें मदद देते थे। एक बार देवों ने देवगुरू बृहस्पति के पुत्र कच को किसी न किसी प्रकार से यह विद्या प्राप्त करने के लिए शुक्राचार्य के पास शिष्य बनाकर भेजा। कच मन लगाकर सैक़डों वर्षो तक अनेक विद्याओं का अध्ययन करता रहा। इस दौरान शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को कच से प्रेम हो गया। फिर क्या हुआ- यह कथा तो महाभारत के कारण जन-जन में परिज्ञात हो ही गई है। इस पर कथाएं, काव्य आदि भी खूब लिखे गये हैं। यह अपने आपमें प्रतीक कथा है, वह बात अलग है।

बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और उन्हें ब्रह्मा की सभा में बैठने का अधिकार है। उनका शौक ब्राह्मण जैसा हैं, उन्हें पवित्र व दैवीय गुणों से युक्त माना जाता है। वे शिक्षक हैं, उपदेशक हैं और धर्म-कर्म इत्यादि के प्रवक्ता हैं। सभी गुरुओं में, धर्माचार्यों में, न्यायाधीशों में, अमात्य व मंत्रियों में और वित्त से संबंध रखने वाले व्यक्तियों में बृहस्पति का अंश है। ये ज्ञान और सुख स्वरूप हैं, गौर वर्ण हैं, इनके प्रत्यधि देवता इन्द्र हैं और इन्हें पुरुष ग्रह माना जाता है। इनकी सत् प्रकृति, विशालदेह, पिंगल वर्ण केश और नेत्र, कफ प्रकृति, बुद्धिमान और सभी शास्त्रों के ज्ञाता हैं। शरीर में वसा या चर्बी पर इनका अधिकार है। मधुर वस्तुओं पर उनका अधिकार है। संसार भर के कोष पर उनका अधिकार है। पूर्व दिशा में बलवान हैं तथा यदि दिन में जन्म हो तो यह अधिक शक्तिशाली माने गए हैं। फल वाले वृक्षों को भी बृहस्पति उत्पन्न करते हैं। गुरु के वस्त्र पीले हैं और हेमन्त ऋतु पर इनका अधिकार माना गया है। इन्हें कर्क राशि में उच्च का, मकर राशि में नीच का और धनु राशि में मूल त्रिकोण का माना गया है। ग्रहमण्डल में सूर्य, चंद्रमा और मंगल इनके मित्र माने गए हैं। शनि सम माने गए हैं और बुध शत्रु माने गए हैं।
—–जन्मपत्रिका में बृहस्पति की दो राशियां मानी गई हैं – धनु तथा मीन। धनु राशि को पृष्ठोदयी माना गया है। यह राशि अपने अंतिम रूप में परिणाम देती है। इस राशि में पिंगल वर्ण, रात्रि में बलवान, अग्नि तत्व, क्षत्रिय स्वभाव, धनुषधारी, पूर्व दिशा में बसने वाली, भूमि पर भूचारी और तेजस्वी माना गया है। इस राशि में प्रशासनिक लक्षण हैं और अत्यंत ऊर्जावान है। 

——-बृहस्पति की ही दूसरी राशि मीन है। ऐसे दो मछलियां जिनके मुंह एक-दूसरे की पूंछ की तरह हैं। ये राशि दिन में बलवान होती है। इस राशि से प्रभावित लोग जल में या जल के आसपास में होते हैं। ब्राह्मण राशि मानी गई है।
—–खगोलशास्त्र की दृष्टि से बृहस्पति बहुत बड़े ग्रह हैं और उन पर एक बड़ा गड्ढा है जिसमें हमारी पांच पृथ्वी समा जाएं। बृहस्पति में अमोनिया गैस बहुत ज्यादा पाई जाती है जिसके कारण यह बहुत शीतल है। जब किसी ग्रह पर बृहस्पति की दृष्टि होती है तो सारे दोष दूर हो जाते हैं और इनकी दृष्टि को अमृत माना गया है। जिस भाव को बृहस्पति दृष्टि कर लेते हैं उस भाव में शुभत्व आ जाता है और उस भाव की रक्षा होना माना गया है। बृहस्पति को पुत्र का कारक माना गया है। जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति से पुत्र के शुभ-अशुभ देखे जाते हैं। ————-बृहस्पति हर लग्न के लिए शुभफल नहीं देते। सामान्य रूप से बृहस्पति की महादशा में नवीन वस्त्र की प्राप्ति होती है। नौकर-चाकर और परिवार के लोगों में वृद्धि होती है, पुत्र की प्राप्ति होती है, धन व मित्रों में वृद्धि होती है, प्रशंसा मिलती है, श्रेष्ठ व्यक्तियों से सम्मान प्राप्त होता है परंतु गुरुजनों का, पिता आदि का वियोग सहना पड़ता है। कफ रोग होते हैं और कान से संबंधित समस्याएं आती हैं।
——-बृहस्पति को ., 5, 9, .. और 11वें भाव का स्थिर कारक माना गया है। आमतौर से अपने ही भाव में कारक को अच्छा नहीं माना गया है परंतु दूसरे भाव में बृहस्पति को लाभ देने वाला माना गया है।
—–प्रत्येक लग्र के लिए बृहस्पति का शुभ-अशुभ: मेष लग्न में बृहस्पति योगकारक हैं। वृषभ व मिथुन लग्न के लिए पाप फल देते हैं। कर्क, सिंह लग्न के लिए बृहस्पति शुभ फलदायी हैं परंतु कन्या और तुला लग्न के लिए अशुभ फलदायी होते हैं। 

——वृश्चिक लग्न के लिए बृहस्पति शुभफल देने वाले, धनु लग्न के लिए सम, मकर और कुंभ लग्न के लिए पाप फल देने वाले और मीन लग्न के लिए शुभफल माने गए हैं।
——बृहस्पति जन्मपत्रिका में जब वक्री होते हैं तब अत्यंत शक्तिशाली परिणाम देते हैं। आमतौर से बृहस्पति अपनी सोलह वर्ष की दशा भोगने के बाद ही पूरे परिणाम देते हैं और जिस भाव के अधिपति होते हैं उसका तो निश्चित परिणाम देते हैं। जिस भाव पर इनकी दृष्टि हो, उस भाव के भी शुभ परिणाम देेते हैं। दैनिक भ्रमण में भी बृहस्पति जिस-जिस भाव पर दृष्टि करते हुए चलते हैं उस भाव के शुभ परिणामों में वृद्धि हो जाती है। जिस भाव के स्वामी के साथ बृहस्पति युति कर रहें हो तो उस भाव के स्वामी के भी शुभफल आना शुरु हो जाते हैं। 
——-बृहस्पति अस्त होते हैं तो अशुभ परिणाम देते हैं। जन्मपत्रिका में अस्त होने से शरीर में वसा संबंधी विकृतियां आती हैं और आमतौर से पेट और लीवर इत्यादि प्रभावी होते हैं। बृहस्पति जब आकाश में अस्त चल रहे होते हैं तो मुहूर्त नहीं निकाले जाते। मूल जन्मपत्रिका में भी यदि बृहस्पति अस्त हो गए हों तो विवाह में शुभ नहीं माने जाते हैं। कन्याओं की जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति को विवाह का कारक माना जाता है और इनका अस्त होना अच्छा नहीं माना जाता। मंगल और बृहस्पति का जन्मपत्रिका में परस्पर संबंध भी शुभ नहीं माना जाता।
——बृहस्पति जिस भाव में बैठे होते हैं उसी भाव की चिंता कराते हैं। सप्तम भाव में स्थित बृहस्पति विवाह के लिए शुभ नहीं माने जाते हैं। या तो यह विवाह होने नहीं देते या विवाह को टिकने नहीं देते। पंचम भाव में स्थित बृहस्पति अधिकांश राशियों में कन्या अधिक देते हैं और पुत्र कम देते हैं।
—–यदि बृहस्पति जन्मपत्रिका में अस्त या वक्री हों तो मोटापे से संबंधित दोष आते हैं और पाचन तंत्र के विकार परेशान करते हैं। जब-जब गोचर में बृहस्पति लग्न, लग्नेश तथा चंद्र लग्न को देखते हैं तो वजन बढऩे लगता है क्योंकि खानपान का स्तर उच्चकोटि का रहता है। बृहस्पति जब-जब बलवान होंगे, गरिष्ठ भोजन करने को मिलेगा और सभाओं में और दावत में जाने का अवसर मिलता रहेगा।
——–बृहस्पति अपनी दशाओं में व्यक्ति को लेखक बनाते हैं, धार्मिक बनाते हैं, व्यक्ति की प्रसिद्धि कराते हैं और लोग व्यक्ति से सलाह लेने आते हैं। व्यक्ति की मित्रता राज्य के अधिकारियों से होती है और वह बड़े लोगों की संगत में बैठता है। बृहस्पति ज्ञान में वृद्धि करते हैं, यज्ञ-हवन कराते हैं और शरीर व मस्तिष्क पर तेज आता है। यदि जन्मकाल में बृहस्पति केन्द्र में उच्च या स्वराशि में होकर बैठ जाएं तो हंसयोग बनाते हैं जिसमें व्यक्ति महान होता चला जाता है। यदि चंद्रमा से केन्द्र में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बनता है जिसके प्रभाव में व्यक्ति समाज में ऊंचा उठता हुआ चला जाता है। हंसयोग में जन्मे व्यक्ति के हाथ व पैरों में शंख, कमल आदि के चिन्ह मिलते हैं। सौम्य शरीर होता है, उत्तम भोजन करने वाला होता है और लोग उसकी प्रशंसा करते हैं।
बृहस्पति के बारे में कुछ विशेष :—– यदि नीच राशि के हों, अस्तंगत हों, लग्न से 6, 8, 12 में हों, शनि, मंगल से दृष्ट हों या युत हों तो अपने करीबी लोगों से और सरकार से कलह होती है, चोर से कष्ट होता है, माता-पिता के लिए हानिकारक है, मानहानि होती है, राजभय होता है, धन नाश होता है, विष से या सर्प से या ज्वर से पीड़ा होती है और खेती और भूमि की हानि होती है।
—–यदि महादशानाथ से बृहस्पति केन्द्र-त्रिकोण में हों या 11वें भाव में हों और षड्बल से युक्त हों तो बंधुओं से और पुत्र से सुख होता है, उत्साह होता है, धन, पशु और यश की वृद्धि होती है और अन्न इत्यादि का दान करते हैं। आजकल पशुओं की जगह कारें आ गई हैं। यदि महादशानाथ से 6, 8, 12 में स्थित बृहस्पति निर्बल हो जाएं तो दु:ख, परेशानियां, रोग, भय, स्त्री और बंधु से द्वेष होता है, बहुत ज्यादा खर्चा होता है, राजकोप होता है, धन हानि होती है और ब्राह्मण से भय होता है। बृहस्पति यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हों या दूसरे और सातवें भाव में हों तो कष्ट होता है।
बृहस्पति के दोषों के निवारण के लिए शिव सहस्त्र नाम जप, गऊ और भूमि का दान तथा स्वर्ण दान करने से अरिष्ट शांति होती है।
गजकेसरी योग:—– चन्द्रमा से केन्द्र में यदि बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग होता है। गजकेसरी योग में व्यक्तिमें गज और केसरी दोनों के गुण आते हैं। हाथी जैसा बल और सिंह जैसा चातुर्य दोनों जिसमें हों वह व्यक्ति धीरे-धीरे जीवन में प्रगति करता है और सबसे ऊपर उठ जाता है परन्तु इस योग में भी बहुत सारे स्तर हैं। जैसे- अष्टम में चंद्रमा हों और तब उससे गजकेसरी योग बने तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार बृहस्पति 6, 8, 12 भाव में बैठकर चंद्रमा से गजकेसरी योग बनाएं तो कमजोर हो जाता है।
——यदि चंद्रमा अपनी ही राशि में हों और उसी में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बहुत शक्तिशाली होगा परन्तु यही योग यदि लग्न में हो तो वह योग और भी शक्तिशाली हो जाएगा। केन्द्र में कर्क राशि में बनने वाला गजकेसरी योग सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि केन्द्राधिपति दोष न होने पर भी लग्नेश चंद्रमा लग्न में हों तो सबसे अधिक शक्तिशाली होते हैं। यहां पर बृहस्पति नवमेश भी होने के कारण भाग्येश हुए और व्यक्ति के जीवन में बहुत उन्नति देखने को मिलेगी। एक अन्य शक्तिशाली स्थिति है जिसमें कर्क राशि पंचम भाव में हो और बृहस्पति दूसरे भाव में हों। यह दोनों अत्यन्त शक्तिशाली स्थितियां हैं। 
——-एक अन्य परिस्थिति है जिसमें चंद्रमा धनु लग्न में हों और बृहस्पति मीन राशि में हों। यह भी अतिशक्तिशाली योग है परन्तु इनमें से एक भी ग्रह खराब भाव में चला गया तो गजकेसरी योग में कमी आ जाती है। गजकेसरी योग अन्य जिन बातों के कारण कमजोर होता है उनमें बृहस्पति और चंद्रमा का केन्द्राधिपति दोष से पीडि़त होना, चंद्रमा का क्षीण होना तथा चंद्रमा या बृहस्पति का नीच राशि, शत्रु राशि, नीच नवांश, अस्तंगत होना या पापकर्तरि में होना शामिल है। गजकेसरी योग बलवान हो जाता है यदि योग बनाने वाले ग्रह उत्तम वर्गों में हों या शुभ ग्रहों से दृष्ट हों या युत हों तथा चंद्र और बृहस्पति षड्बल से युक्त हो जाएं। दो गजकेसरी योगों के फलों में 1 और 100 का अनुपात हो सकता है।
स्त्री जातक और बृहस्पति:——- स्त्रियों के गुण-अवगुणों का पता लगाने के लिए त्रिंशांश कुण्डली का प्रयोग किया जाता है। त्रिंशांश कुण्डली में मंगल और शनि के त्रिंशांश बहुत ही खराब माने गए हैं परन्तु यदि बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री बहुत गुणी मानी जाती है। चंद्रमा, शुक्र और बुध के त्रिंशांश में भी दोष बताए गए हैं परन्तु किसी भी लग्न में लग्नेश या ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री अत्यन्त गुणवती मानी गई है। बृहस्पति एकमात्र ऐसे ग्रह हैं जो किसी भी राशि में हों, अगर कोई ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में पड़ जाए तो उसे शुद्ध, पवित्र और मंगलकारी माना गया है।
वेद आदि का ज्ञान: —–यदि लग्न समराशि हो और बृहस्पति बलवान हों तो स्त्री शास्त्रों में निपुण और वेदों के अर्थ को जानने वाली होती है।
विवाह लग्न: —-विवाह लग्न में यदि बृहस्पति हों तो वह स्त्री धनवान हो जाती है और पति का सुख मिलता है। यदि विवाह लग्न से तीसरे में बृहस्पति हों तो वह स्त्री संतान वाली और धनवान हो जाती है। यदि विवाह लग्न से पांचवें स्थान में बृहस्पति हों तो कई पुत्र होते हैं। विवाह लग्न से सातवें बृहस्पति शुभ नहीं माने गए हैं और न ही आठवें भाव में शुभ माने गए हैं। विवाह लग्न से दसवें भाव में बृहस्पति, स्त्री को धार्मिक बनाते हैं।
दशम भाव और बृहस्पति: —-किसी भी भाव से बृहस्पति यदि दशम भाव को देखें तो कितने भी अरिष्ट हों, शांत हो जाते हैं। राजा से या नियोक्ता से या पिता से लाभ होता है, समाज में सम्मान बढ़ता है। केवल लग्न से छठे बृहस्पति की निंदा की गई है क्योंकि वे व्यक्ति को ऋणग्रस्त कराते हैं।
बृहस्पति का दशाक्रम: ——बृहस्पति अपनी महादशा में शुभ फल करेंगे यदि वे लग्न, पंचम, नवम, चतुर्थ या दशम के स्वामी हों। यदि केन्द्र के स्वामी हों तो बृहस्पति की सामथ्र्य में एकदम से कमी आ जाएगी और केन्द्राधिपत्य दोष के कारण बहुत कम शुभ फल देंगे इसीलिए बृहस्पति सदा त्रिकोण के स्वामी होने पर शानदार फल देते हैं। अपनी मित्र अंतर्दशाओं में शुभ फल देते हैं और अपनी शत्रु अंतर्दशाओं में खराब फल देते हैं। यदि बृहस्पति लग्नेश के मित्र हुए तो अत्यन्त शुभ फल प्रदान करेंगे और लग्नेश के शत्रु हुए तो खराब फल देंगे।
बृहस्पति महादशा में शुक्र अन्तर्दशा में बृहस्पति और शुक्र के घात-प्रतिघात से नुकसान हो सकता है। कुण्डलियों में बृहस्पति का अस्त होना या सूर्य के साथ योग बनाना शुभ परिणामदायी नहीं माना गया है। गुर्वादित्य योग में या बृहस्पति के अस्त होने से विवाह असफल हो जाते हैं, ऐसा माना गया है। प्राय: वक्री बृहस्पति या अस्त बृहस्पति या नीच बृहस्पति स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी करते हैं। पाचनतंत्र के विकार, आंखों से संबंधित विकार और मोटापे से संबंधित विकार बृहस्पति की देन है। बृहस्पति बलवान होने पर व्यक्ति को अहंकारी बना देते हैं। हथेली में यदि बृहस्पति पर्वत ज्यादा उन्नत हो जाए तो स्वाभिमानी व्यक्ति को कब अहंकारी बना दें पता ही नहीं चलता। बृहस्पति यदि दोष युक्त हों तो स्वभाव में मिथ्या अहंकार जन्म लेता है और व्यक्ति अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता। उसके व्यवहार में बहुत जल्दी परिवर्तन आते हैं।

गोचर: —बृहस्पति अपनी कक्षापथ में 1. वर्ष में एक चक्कर पूरा कर लेते हैं। करीब एक वर्ष एक राशि में रहते हैं। वर्ष में एक बार वे अस्त होते हैं और एक बार वक्री होते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बृहस्पति किसी राशि से अगली राशि में चले जाते हैं और पुन: पिछली राशि में आकर (वर्तमान से) अगली राशि में चले जाएंगे। एक वर्ष में तीन राशियों में रहने से बृहस्पति अतिचारी हो जाते हैं और आखिरी भाग में निष्फल हो जाते हैं। वक्री बृहस्पति अतिशक्तिशाली होते हैं और शुभ हैं तो अत्यन्त शुभ परिणाम और यदि वे अशुभ हो गए हों तो अत्यन्त अशुभ परिणाम देते हैं। बृहस्पति जब अस्त होते हैं तो शुक्र की भांति शुभ मुहूर्त नहीं किए जाते और इसे सामान्य भाषा में तारा डूबना बताया गया है।
सिंहस्थ गुरु का विचार:—- सिंह राशि में गुरु होने पर कई सारे कार्यों का निषेध बताया गया है। भारत के कई क्षेत्रों में विवाह इत्यादि निषेध किया गया है। न केवल विवाह बल्कि व्रत, यात्रा, नगर प्रासाद, घर आदि का निर्माण, मुण्डन, विद्या और उपविद्या ज्ञान करने का निषेध किया गया है तथा क्षौैरकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, दीक्षा, परीक्षा, तीर्थयात्रा, भूमि दान व देव प्रतिष्ठा कराने पर शुभ फल प्राप्त नहीं होता है, ऐसा कहा गया है। वसिष्ठ ऋषि ने यह बताया है कि गोदावरी से उत्तर से और गंगा के दक्षिण भाग में सिंह के गुरु में विवाह नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अन्य भागों में विवाह किया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने एक तर्क दिया है कि जब सिंह राशि में गुरु हों और मेष राशि में सूर्य हों तो कुछ कार्य किए जा सकते हैं। कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें सिंह के गुरु में, मेष का सूर्य होने पर विवाह आदि किए जा सकते हैं, शेष महीनों में नहीं किए जा सकते।
——–इसी तरह से मकर राशि के बृहस्पति जब तक बृहस्पति अपने परम नीच अंश में नहीं पहुंच जाएं तब तक विवाह इत्यादि नहीं करना चाहिए। करीब-करीब 60 दिनों का निषेध कुल मिलाकर बताया है। इसी तरह से गुरु के अतिचारी या वक्री होने पर 28दिनों तक यज्ञोपवीत और विवाह इत्यादि नहीं किए जाते। सूर्य और बृहस्पति का योग जब एक ही नक्षत्र में हो तो विवाह के लिए अत्यन्त अशुभ सिद्ध होता है। सूर्य की राशि में बृहस्पति और बृहस्पति की राशि में सूर्य हों तब भी कुछ मुहूर्त नहीं किए जाते और उसकी निंदा की गई है।
——बृहस्पति को लेकर बहुत अधिक कहा गया है और इनका उल्लेख इसलिए किया गया है कि बिना महादशा के भी उपरोक्त परिस्थितियों में बृहस्पति शुभ और अशुभ देने में समर्थ हैं। इनके दिन में दर्शन होने पर भी मुहूर्त के दृष्टिकोण से अशुभ मान लिया गया है।
बृहस्पति जिन ग्रहों के साथ मिलकर योग बनाते हैं वे अपनी-अपनी दशाओं में बृहस्पति का भी फल देते हैं।
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बृहस्पति के नक्षत्र—-
व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर संचार कर रहे होते हैं वह उसका जन्म नक्षत्र कहलाता है। जन्म नक्षत्र का प्रभाव व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार पर पूर्ण रूप से प़डता है तथा व्यक्ति के गुण एवं दोष उसके नक्षत्र के अनुरूप ही देखने को मिलते हैं। अब हम बृहस्पति के तीनों नक्षत्र पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद का विस्तृत वर्णन कर रहे हैं।
पुनर्वसु :—- पुनर्वसु शब्द का अर्थ है पुन: वास। अत: अच्छे के लिए परिवर्तन करने का गुण इस नक्षत्र में हैं। पुनर्वसु नक्षत्र के तीन चरण मिथुन राशि में एवं एक चरण कर्क में आता है। इस नक्षत्र के स्वामी गुरू हैं। इस प्रकार बुध, चंद्रमा एवं गुरू का सम्मिलित प्रभाव पुनर्वसु नक्षत्र में होता है। बुद्धि, कल्पना और आध्यात्म इस नक्षत्र से प्रभावित व्यक्ति के जीवन के महत्वपूर्ण विषय होते हैं। यही प्रभाव इन व्यक्तियों को वाक्पटुता भी देता है तथा लेखन आदि के प्रति झुकाव पैदा करता है। बुध का यथार्थ होने के कारण इस नक्षत्र से प्रभावित व्यक्ति हवाई किले नहीं बनाते अपितु कार्यो के क्रियान्वयन में विश्वास रखने वाले होते हैं।पुनर्वसु नक्षत्र का चिह्न “धनुष बाण” है। अत: लक्ष्य बनाने एवं साधने की कला यह नक्षत्र देता है इसमें जन्मे व्यक्तियों का दृष्टिकोण सकारात्मक होता है, यथार्थवादी होने के कारण यह नक्षत्र व्यक्तियों को जोखिम लेने के लिए प्रेरित नहीं करता है इसलिए इनकी निर्णय लेने की क्षमता अधिक सुदृढ़ नहीं होती।पुनर्वसु नक्षत्र की देवी माता अदिति हंै। ये देवताओं की माता है, इसलिए पालन-पोषण, संवेदनशीलता आदि गुण भी पुनर्वसु नक्षत्र में निहित है।
विशाखा :—– बृहस्पति के नक्षत्रों मेे दूसरा नक्षत्र विशाखा है इस नक्षत्र के प्रथम तीन चरण “तुला राशि” में तथा अंतिम चरण वृश्चिक राशि में प़डता है। इस नक्षत्र के स्वामी ग्रह “देवगुरू बृहस्पति” हैं तथा तुला व वृश्चिक राशि में प़डने के कारण इस नक्षत्र पर शुक्र, बृहस्पति तथा मंगल का सम्मिलित प्रभाव रहता है। स्वामी ग्रह बृहस्पति वाक् कला, मंगल ऊर्जा तथा शुक्र लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए असाधारण प्रयास प्रदान करते हैं, यह सभी समग्र रूप से इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों के स्वभाव व व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है। योजनाबद्ध ढंग, आशावादी दृष्टिकोण व दृढ़ निश्चय इस नक्षत्र की मुख्य देन है।“विशाखा” नक्षत्र के प्रतिनिधि देवता इन्द्र एवं अग्नि हैं। “अग्नि व इन्द्र” लक्ष्य के प्रति समर्पण तथा कभी-कभी लक्ष्य साधने की चेष्टा में मार्ग से भटका भी देते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों के व्यक्तित्व में यह सब बातें देखने को मिलती हैं। इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न “एक आकर्षक मुख्य द्वार” के समान है, जो आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति से संबंधित होता है। विशाखा नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति अपनी दृष्टि गिद्ध की भांति पैनी रखते हैं तथा अपने बाहरी व भीतरी शत्रुओं को परास्त कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं परन्तु इस सब बातों से इस नक्षत्र के जन्मे व्यक्तियों के व्यवहार में क्रोध एवं “झग़डालूपन” भी आ जाता है और नकारात्मक विचार भी इन पर हावी हो जाते हैं।शास्त्रों के अनुसार यह नक्षत्र “भगवान श्रीकृष्ण” की प्रिया राधा से संबंधित है, जिनके श्रीकृष्ण से निस्वार्थ प्रेम ने उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी से ऊपर स्थापित किया।
पूर्वाभाद्रपद  :—— बृहस्पति के नक्षत्रों में तीसरा नक्षत्र पूर्वाभाद्रपद है। इस नक्षत्र के तीन चरण कुंभ राशि में तथा अंतिम चरण “मीन” राशि में आता है। अत: इस नक्षत्र पर शनि एवं गुरू का मिश्रित प्रभाव रहता है। पूर्वाभाद्रपद शब्द का अर्थ है- जन्म से ही भाग्यशाली।इस नक्षत्र के स्वामी देवता “अजैकपाद”, अर्थात् “एक पैर वाली बकरी” हैं। इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों में गुरू का ज्ञान व शनि की एकाग्रता का प्रभाव रहता है। किसी पर आश्रित रहने से यह व्यक्ति घृणा करते हैं। बृहस्पति का उर्वर मस्तिष्क व ज्ञान एवं शनि की दार्शनिकता इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों के विशेष गुण होते हैं। नए मार्गो को खोजना व उन पर चलना, निष्ठा व कठोर परिश्रम से कार्यो को पूरा करना इस नक्षत्र के व्यक्तियों का स्वभाव होता है।दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं का विश्लेषण करना और उनकी निरपेक्ष आलोचना कर अपनी गलतियों पर पश्चात्ताप करना भी इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों में देखा जा सकता है।इनका स्वभाव गुरू के समान हित करने वाला व कला का उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाला होता है।
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बृहस्पति की राशियाँ—–
आकाशीय पिण्डों में सर्वाधिक भारी, विशालतम और गरिमामय होने के कारण बृहस्पति ग्रह को देवगुरू कहा गया क्योंकि हमारी मान्यता के अनुसार उनका गुरूत्वाकर्षण सर्वाधिक होता है। वैज्ञानिक तथ्य भी इसकी पुष्टि करते है। देवगुरू का अर्थ देवों के गुरू भी लगा लिया गया और प्रतीक रूप में शतश: पौराणिक कथाएं भी प्रचलित हो गई, यह स्वाभाविक ही था। वैसे बृहस्पति, ग्रह के रूप में अत्यन्त महिमामय हैं। वेदकाल से उनकी गति की परख हमने कर ली थी। लगभग एक वर्ष का उनका खगोलीय भ्रमण भी हमें ज्ञात था। बृहस्पति- यह एक प्रसिद्ध यज्ञ था जो वाजपेय यज्ञ के समान माना जाता था। ज्योतिर्विज्ञान के ग्रंथों में बृहस्पति की विशालता का, उनके ग्रहाचार का, उनके उपग्रहों का संकेत तो मिलता है कि बृहस्पति विशालतम ग्रह हैं, उनकी चुम्बकीय आकर्षण शक्ति सर्वाधिक है तथा उनके सोलह उपग्रह या चन्द्र हैं।
इन मान्यताओं का प्रतिबिम्ब पौराणिक कथाओं में रूपात्मक ढंग से पाया जाता है। वायु, मत्स्य, भागवत आदि पुराणों में अनेक ऎसी कथाएं आती हैं जिनसे ज्ञान होता है कि ये प्रजापति थे। अंगिरा इनके पिता, सुनीथा इनकी माता थीं। स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्त ऋषियों में भी एक बृहस्पति गिने जाते हैं। चाक्षुष मन्वन्तर में ये मंत्र ब्राrाणकार ऋषि माने जाते थे। जिनकी माता का नाम फाल्गुनी मिलता है। ऋग्वेद में जो इनकी परिकल्पना है वह ब़डी विचित्र है। ये सात मुँह वाले , एक सुन्दर जीभ वाले, पैनें सींगों वाले और सैंक़डो पंखों वाले हैं। इनके हाथ में धनुष बाण भी है और स्वर्णिम परशु भी, इन्हें बुद्धि और वक्तत्व कौशल का देवता माना गया है। स्पष्ट है कि यह प्रतीकात्मक परिकल्पना है। इसी के आधार पर पुराणों की वे कथाएं प्रचलित हुई जिनमें इन्हे देवगुरू होने के कारण चन्द्रमा के भी गुरू बताया गया। इनकी पत्नी तारा बताई गई। चन्द्रमा का गुरू पत्नी से अवैध सम्बन्ध हो जाने के कारण कु्रद्ध गुरू ने उन्हें प्रतिमास क्षय का शाप दे दिया आदि कथाएं प्रसिद्ध हैं। चन्द्र ने गुरू पत्नी तारा का हरण कर लिया था किन्तु देवों ने गुरू-शिष्य में समझौता करा दिया आदि कथाएं खगोलीय घटनाओं की मिथकीय प्रस्तुति है, यह भी विद्वान् जानते हैं।

व्यक्ति के जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि पर होते हैं, वह व्यक्ति की जन्म राशि होती है। संपूर्ण भचक्र को 12 राशियों में विभक्त किया गया है। सूर्य व चंद्रमा को एक-एक राशि का तथा मंगल, बुध, गुरू, शुक्र एवं शनि को दो-दो राशियों का प्रतिनिधित्व मिला है। कालपुरूष की जन्मपत्रिका में देवगुरू बृहस्पति नवीं एवं बारहवीं राशि का प्रतिनिधित्व करते हैं अर्थात् देवगुरू बृहस्पति की प्रथम राशि धनु व द्वितीय राशि मीन है। राशि मनुष्य के स्वभाव को प्रभावित करती है, अत: गुरू के गुण गुरू की इन राशियों में जन्मे व्यक्तियों में देखे जा सकते हैं।
देवगुरू बृहस्पति की पहली राशि धनुराशि अग्नि तत्व राशि है। इस राशि के व्यक्तियों में अग्नि का पोषक रूप दिखाई देता है। यह अग्नि इन को ज्ञान की ओर ले जाती है तथा अत्यधिक जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करती है। अत: ये व्यक्ति बहुत ही उद्यमी होते हैं और नित प्रयोगों एवं खोजों में लगे रहते हैं। इन प्रयोगों और खोजों को पूरा करने के लिए अग्नि का ताप इन्हें दूर-दूर तक ले जाता है। मानव शक्ति का भरपूर प्रयोग करना और करवाना इस राशि के व्यक्ति बखूबी जानते हैं तथा सतत क्रियाशील रहते हैं, परन्तु पोषण एवं ताप देने वाली अगिA जब सत्य वचनों के रूप में इनके मुख से बाहर आती है तो ये व्यक्ति अत्यधिक क्रूर हो जाते हैं तथा वस्तु को जलाकर भस्म करने की प्रवृत्ति भी अपना लेते हैं।
यह एक द्विस्वभाव राशि है। इस राशि के व्यक्ति भी दोहरे स्वभाव वाले होते हैं। कभी संवेदनशील व हास्य-व्यंग वाणी प्रयोग करने वाले और कभी सौम्य तो कभी अत्यधिक क्रूर हो जाते हैं।
इस राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। इस राशि के व्यक्ति भी न्याय एवं शांतिप्रिय होते हैं, ईमानदारी एवं मानवीय मूल्यों को बहुत महत्व देते हैं। गुरू की भांति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होते हैं और उन्हें निष्ठा के साथ पूरा करते हैं। जिस प्रकार कोई गुरू अपने शिष्यों के लिए हितैषी और मित्र दोनों ही होते हैं, ठीक इसी प्रकार देवगुरू बृहस्पति की भांति इस राशि के व्यक्ति भी सबके हितैषी होते हैं।
गुरू ज्ञान के कारक हैं। इस राशि के व्यक्ति भी ज्ञान का अतुल भंडार लिए होते हैं। अनेकों भाषाओं, गुप्त विद्याओं और दर्शन का ज्ञान भी इस राशि के व्यक्तियों को होता है। इस राशि के व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं पर पूर्ण एवं अटूट विश्वास होता है। ये किसी भी कार्य को असंभव नहीं मानते। मानवीयता एवं मानव हित इनके लिए सर्वोपरि होते हैं। मानव हित के साथ ही यह व्यक्ति सिद्धांतों एवं नीतियों का पालन दृढ़ता से करते हैं। सिद्धांतों के पालन में किसी तरह का समझौता करना इन्हें पसंद नहीं होता, इसलिए इनके स्वभाव में जिद्दीपन आ जाता है तथा ज्ञान के अतुल भंडार का दंभ भी कभी-कभी इनके व्यवहार में देखने को मिलता है।
इस राशि का चिह्न “धनुर्धर” है जो आधा मनुष्य और आधा अश्वाकार हैं। “धनुर्धर” की ही भांति इस राशि के व्यक्ति भी केवल अपने निर्धारित लक्ष्यों पर निगाहें रखते हैं और उन्हें पाने की चेष्टाएं लगातार करते रहते हैं। धनुर्धर का लक्ष्य एवं अश्व की गति दोनों मिलकर इस राशि के व्यक्तियों को इन्द्रधनुषी कामनाओं और आशाओं की ओर ले जाती है, जिन्हें पूर्ण करना उनका उद्देश्य होता है। इन्द्रधनुषी कामनाएं ज्ञान की शाखाओं से जु़डी होती है।
धनु राशि शरीर में जंघा, ऊरू तथा कूल्हों का प्रतिनिधित्व करती है। इस राशि में मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र आते हैं, अत: इस राशि के व्यक्तियों के जीवन में इन नक्षत्रों के स्वामी देवताओं केतु, शुक्र एवं सूर्य की महादशाएं आ सकती हैं।
धनु राशि के व्यक्तियों को अपने स्वभाव में आए जिद्दीपन को छो़डने का प्रयास करना चाहिए।
बृहस्पति देव की दूसरी राशि मीन जल तत्व राशि है। जिस प्रकार निर्मल व सौम्य जल व्यक्ति की प्यास बुझाकर उसे जीवन देता है ठीक उसी प्रकार मीन राशि के व्यक्ति भी विनम्र एवं सौम्य स्वभाव के होते हैं। मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण होेते हैं, जल की तरह जीवन देने की इनकी परोपकारी एवं सहानुभूतिपूर्ण प्रकृति होती है। यह सबकी मदद भोलेपन से करते हैं व लोक हितैषी होते हैं और अपने भोलेपन से अक्सर लोगों की धोखाध़डी के शिकार हो जाते हैं। जल का कार्य है बहना तथा अपने राह में आने वाली हर वस्तु को धोना। मीन राशि के व्यक्ति भी सह्वदय होते हैं तथा व्यक्ति की जरूरत पता चलते ही उसी क्षण उसकी मदद के लिए चल प़डते हैं, जैसे जल का प्रवाह असीमित एवं निरन्तर होता है, ठीक वैसे ही इस राशि के व्यक्तियों की कल्पनाएं भी असीमित होती हैं। यह द्विस्वभाव राशि है। द्विस्वभाव अर्थात दोहरा स्वभाव। इस राशि के व्यक्ति भी ऎसे ही होते हैं, ये कभी तो अपनी कामनाओं एवं अभिलाषाओं से अनभिज्ञ होते हैं और कभी इनके मन में अलौकिक कामनाएं होती हैं।
इस राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। देवगुरू ज्ञान के कारक हैं। इस राशि के व्यक्ति भी ज्ञानी, ईश्वर में विश्वास रखने वाले होते हैं। गुरू परोपकारी हैं, भेदभाव से रहित हैं जिस प्रकार एक गुरू अपने सभी शिष्यों को समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्रदान करते हैं ठीक ऎसे ही मीन राशि के व्यक्ति भी सभी से समान व्यवहार करने वाले होते हैं। बुराई के प्रत्युत्तर में भी अच्छाई करना इनकी विशेषता होती है। ज्ञानी गुरू व्यवहार कुशल, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता, रूढि़यों का पालन करने वाले हैं। इस राशि के व्यक्ति भी बातचीत की कला में निपुण,समझदार व नीति-निपुण होते हैं। अत: यह व्यक्ति अच्छे सलाहकार होते हैं परन्तु अधिक ज्ञानी होने का दंभ भी इस राशि के व्यक्तियों में आ जाता है। ये आत्मश्लाघी व डींगे मारने वाले होते हैं और कभी-कभी आशा से अधिक आत्मविश्वासी दिखने का प्रयास करते हैं।
इस राशि का चिन्ह जल क्री़डा करती दो मछलियाँ हैं। जिस प्रकार मछली अकेली अपनी ही दुनिया में तैरती रहती है, उसी प्रकार इस राशि के व्यक्ति भी अपने कल्पना लोक में अकेले ही रहना चाहते हैं। इनका काल्पनिक लोक परीकथाओं का सा होता है जिसमें डूबकर यह व्यक्ति जीवन की वास्तविकताओं से दूर चले जाते हैं। जिस प्रकार मछली पानी से बाहर निकाली जाने पर त़डप कर मर जाती है ठीक उसी प्रकार मीन राशि के व्यक्ति जिनसे भावनात्मक रूप से जुडे़ होते हैं, उनसे दूर हो जाने पर उसको सहन नहीं कर सकते । यह राशि शरीर में दोनों पैर तलवे तथा पैर की अंगुलियों का प्रतिनिधित्व करती है।
इस राशि में पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र आते हैं। अत:इस राशि के व्यक्तियों के जीवन में इन नक्षत्रों के स्वामी ग्रहों गुरू, शनि तथा बुध की महादशाएं आ सकती हैं।
मीन राशि के व्यक्तियों को आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को छो़डने का प्रयास करना चाहिए।
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बृहस्पति को गुरू क्यो कहते हैं…????
देवगुरू बृहस्पति की गरिमा भारतीय संस्कृति, पौराणिक वाङ्मय और सांस्कृतिक मान्यताओं में जितनी रची बसी है, उतनी ही ज्योतिर्विज्ञान और खगोल में भी है। इसमें तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अनेक वैज्ञानिक तथ्यों को हमने पौराणिक मान्यताओं और प्रतीकात्मक मिथकों में इस तरह पिरो कर रखा है कि विज्ञान हमारे जीवन में रचा-बसा रहे। यह बात अलग है कि सहस्त्राब्दियों के कालातिपात के कारण मिथक ही मिथक हमारी मान्यताओं में रचे बसे रह गए विज्ञान उनमें से तिरोहित हो गया। स्वयं बृहस्पति के साथ भी यही हुआ। देव शब्द का अर्थ है ज्योतिष्मान, चमकदार क्योंकि दिव धातु चमकने के अर्थ में आता है। दीप्यति अर्थात् चमकता है । इसलिए आकाश के चमकदार पिंडों अर्थात् ग्रहों और ताराओं को देव कहा गया। वेदकाल में यह अर्थ अधिक प्रचलित था। गुरू का अर्थ है भारी, गरिमामय। गुरूत्वाकर्षण जैसे शब्दों के कारण यह अर्थ अब तो छात्र भी समझने लगे हैं।
बृहस्पति को देवताओं के गुरू, आचार्य एवं पुरोहित का स्थान प्राप्त है, जो उन्हें सही सलाह देते हैं, भटकने से बचाते हैं, अपने संस्कारों के विरूद्ध नहीं जाने देते और समय-समय पर वेद, शास्त्र एवं ज्ञान से परिचय कराते हैं। यही बृहस्पतिदेव का मुख्य कारकत्व है। जन्मपत्रिका में शुभ बृहस्पति गुरू का दर्जा दिलाते हैं। ऎसा गुरू जो सही राह दिखलाता है, संस्कारों से जु़डे रहने की शिक्षा देता है, जिसके शब्दों में इतनी गहराई और सार होता है कि सभी विश्वास करने पर विवश हो जाते हैं। ज्ञान, ध्यान, आध्यात्म, तीर्थ यात्रा का सुख यह सभी बृहस्पति देव की कृपा से ही संभव है।
भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर बृहस्पति को देवगुरू एवं ग्रह के रूप में प्रतिष्ठा दी। भगवान शिव ही नीति, धर्म, वेद आदि के स्त्रोत हैं। पुराणों में वर्णन है कि सृष्टि की रचना के समय ब्रrाा जी ने जिस नीतिशास्त्र को रचा था, उसे भगवान शिव ने ग्रहण कर संक्षिप्त किया। तत्पश्चात् उसे देवराज इन्द्र ने, भगवान शंकर से ग्रहण कर इस शास्त्र का संक्षिप्तिकरण किया और पुन: बृहस्पति ने इस शास्त्र को अधिक संक्षिप्त किया, जो बार्हस्पत्य नीतिशास्त्र के नाम से विख्यात हुआ। ज्योतिष में बृहस्पति को सप्तम के अलावा पंचम और नवम दृष्टि भी प्राप्त है। ऎसा इसलिए है कि बृहस्पति मंत्री हैं इसलिए अच्छी शिक्षा व धर्म के रक्षार्थ इन भावों पर उनकी पूर्ण दृष्टि आवश्यक है अत: धर्म एवं नीति बृहस्पति देव के ही विषय हैं। महाभारत में युधिष्ठिर को धर्म तत्व का रहस्य बताते हुए जो देवगुरू बृहस्पति ने कहा है, वह इस पृथ्वी पर शांति स्थापित करने का एकमात्र साधन है।
यद्यपि ज्योतिष में वाणी का कारक बुध ग्रह को माना गया है परंतु व्याख्यान शक्ति बृहस्पति से ही आती है। ज्योतिष ग्रंथों में उल्लेख है कि बुध के बली होने से वाणी अच्छी होगी परंतु सारगर्भित वाणी के लिए बृहस्पति का बली होना भी आवश्यक है। यदि बुध बली हों परंतु बृहस्पति बली न हों तो व्यक्ति अधिक परंतु अनर्गल बोलता है। उत्तर कालामृत के रचयिता कवि कालिदास ने लिखा है कि सभा को आमोदित करना बृहस्पति का कारकत्व है। अत: पाण्डित्य एवं शास्त्र पूर्ण वाणी जन्म कुण्डली में बली बृहस्पति ही प्रदान कर सकते हैं। महाभारत में भीष्म पितामह ने देवगुरू बृहस्पति को वाणी, बुद्धि एवं ज्ञान के अधिष्ठाता तथा महान परोपकारी बताया है।

बृहस्पति को गुरू नामकरण दिया जाना निरर्थक नहीं हो सकता है अपितु उसमें कोई सार्थकता अवश्य है वह सार्थकता क्या हो सकती है और वह कितनी हितकारी हो सकती है यह जानने के लिए गुरू शब्द की पवित्रता और महानता की पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक प्रतीत होता है। गुरू शब्द का प्रयोग भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक स्तर पर किया जाता है। भौतिक और दैविक स्तर अपरा जगत के अंतर्गत हैं और आध्यात्म को परास्तर पर व्यक्त किया जाता है। इन्हीं को पांच कोष अथवा सात लोकों के रूप में भी व्यक्त किया गया है यथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश हैं तथा भू, भुव:, स्व: जन, मह, तप और सत्य लोक हैं। इनमें मनोमय को चन्द्रलोक तथा विज्ञानमय को सूर्य लोक भी कहा गया है। आनंदमय कोश का स्थान सत्यलोक माना गया है। भारतीय परम्परा में विश्व शांति हेतु भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति हेतु एकरूपता बनाए रखते हुए। ईश्वर से प्रार्थना की जाती है यथा ú शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
आध्यात्म का स्तर सूर्य और चन्द्रमा के लोकों से भी कहीं आगे तक जाता है। अत: गुरू संबोधन सूर्य अथवा चंद्रमा को नहीं दिया गया। दैविक स्तर पर सतयुग की गाथाएं देव और असुरों के मध्य परस्पर संघष्ाोü का वर्णन करती हैं। संघष्ाü से अशांति ही उत्पन्न होती हैं अत: अधिदैविक स्तर पर शांति हेतु मार्गदर्शन कौन करें- देवगुरू बृहस्पति या असुर गुरू शुक्राचार्यक् गुरूपद की मर्यादा की पवित्रता के अनुरूप यद्यपि देव और असुर परस्पर शत्रु थे किन्तु उनके गुरू बृहस्पति और शुक्र के संबंध आत्मीय थे।
भौतिक जगत में जहाँ संपूर्ण संसार धन-संपत्ति और सांसारिक सुखों की कामना करता है वहाँ जगद्गुरू शंकराचार्य ने गुरू प्रशस्ति पर संस्कृत भाषा में दो अष्टक लिखे हैं। एक अष्टक में गुरू तत्व का विवेचन करते हुये श्री सत्यदेव को समर्पित किया है जिनका निरंतर स्मरण बना रहना चाहिए। दूसरे अष्टक में श्री गुरू के चरण कमल की तुलना में संपूर्ण संसार की निस्सारता को व्यक्त किया है। आध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिये ये अमूल्य योगदान है।
गुरु के लिए उपाय—
——-जिन जातकों की कुण्डली में गुरु प्रतिकूल है या उच्च का होकर भी प्रभावहीन है अर्थात्‌ अपना फल नहीं दे रहा उन्हें इस अवसर पर पीले रंग की दालें, हल्दी, सोना, आदि वस्तुओं दान देना चाहिए।
——इसके अतिरिक्त कोई भी जातक इस दिन अपने कल्याण हेतु व गुरु की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए धर्मस्थलों में या गरीबों को विविध प्रकार की खाद्य सामग्री, वस्त्रादि भेंट कर सकते हैं। कोई धार्मिक अनुष्ठान जैसे भगवान विष्णु व उनके अवतारों की पूजा-पाठ हवनादि कर ब्राह्मणों को प्रसन्न कर अपने सौभाग्य में वृद्धि सकते हैं।दुर्भाग्य व दरिद्रता का नाश करने वाला, मनोवांछित फल देने वाला तथा धार्मिक कार्यों को संपन्न करने वाला, यह गुरु-पुष्य योग अत्यधिक पवित्र एवं शुभ है।
——-वृहस्पति वार को ॐ ब्रम्ह वृहस्पताये नम : का जाप करे | 

—- यदि कुंडली में बृहस्पति खराब हो या उच्च स्थित हो (बुरे भाव का स्वामी होकर) तो तैलीय-मसालेदार भोजन से परहेज रखें। गले में हल्दी की गाँठ गुरुवार को धारण करने से मोटापे पर नियंत्रण हो सकता है। पीली वस्तुओं का दान और गुरु के मंत्र का जाप लाभ दे सकता है।

—–यदि शुक्र खराब होने से मोटापा बढ़ रहा है तो सफेद व ठंडी चीजों से परहेज रखें। मांस-मदिरा के सेवन से बचें। त्रिफला का नियमित सेवन करने से लाभ मिलता है। खट्टी-मीठी वस्तुओं का दान भी लाभ देगा।

—–कई बार गोचर के ग्रहों का लग्न से भ्रमण होने पर भी मोटापा बढ़ता है। अत: इन ग्रहों का अध्ययन करके अन्य उपायों के साथ इन उपायों को अपनाने से उपयुक्त फल प्राप्त हो सकते हैं।
—–गुरुवार के दिन देवगुरु बृहस्पति की पूजा में गंध, अक्षत, पीले फूल, पीले पकवान, पीले वस्त्र अर्पित कर इस गुरु का यह वैदिक मंत्र बोलें या किसी विद्वान ब्राह्मण से इस मंत्र के जप कराएं – 

ऊँ बृहस्पतेति यदर्यो अर्हाद्युमद्विभार्ति क्रतुमज्जनेषु। 
यद्दीदयच्छवसे ऋतु प्रजात तदस्मासु द्रविणं देहि चितम्। 

संभव हो तो यह मंत्र जप करने या करवाने के बाद योग्य ब्राह्मण से हवन गुरु ग्रह के लिए नियत हवन सामग्री से कराना निश्चित रूप से पेट रोगों में लाभ देता है।

—-गुरूवार को बृहस्पति पूजन में केल का पूजन अनिवार्य हैं। .
——यदि कुंडली में जलीय लग्न हो, चंद्रमा की स्थिति ठीक न हो तो चाँदी के गिलास में पानी पीना, सफेद वस्तु का सेवन करना लाभ‍दायक रहता है। चंद्र मंत्र का जाप, चंद्र यंत्र धारण करना भी लाभ देते हैं।

—— गुरु आध्यात्मिक ज्ञान का कारक है | अत : ब्राम्हण देवता , गुरु का सम्मान करे | 

——-वृहस्पति वार को ॐ ब्रम्ह वृहस्पताये नम : का जाप करे | 

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