जाने और समझें चातुर्मास क्या है, इस वर्ष ..20 में कब होगा आरम्भ चातुर्मास ??
क्यों होते हैं चातुर्मास्य में विवाह निषेध ??
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हमारी सनातन संस्कृति में व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के 4 महीने को’चातुर्मास’ कहा गया है। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए ये 4 माह महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी अच्छा रहता है। चातुर्मास 4 महीने की अवधि है, जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। चातुर्मास्य और विवाह निषेध की परम्परा आषाढ़ मास के एकादशी के दिन को हरिशयनी एकादशी कहा जाता है ।
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ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि इस वर्ष जप-तप और साधना-सिद्धि का पवित्र चातुर्मास . जुलाई 2020 से प्रारंभ हो रहा है। भगवान श्रीहरि विष्णु के योगनिद्रा में चले जाने के कारण चातुर्मास में मांगलिक कार्यों पर प्रतिबंध लग जाता है। इस बार चातुर्मास में अधिकमास होने से चातुर्मास की अवधि बढ़कर 148 दिन हो गई है। इस वर्ष आश्विन माह का अधिकमास है। चातुर्मास 1 जुलाई देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर 25 नवंबर 2020 देवोत्थान एकादशी तक रहेगा। इस दौरान एक ओर जहां विवाह आदि मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं, वहीं तीज-त्योहारों का उल्लास भी छाएगा। अधिकमास के कारण आश्विन मास से लेकर आगे के महीनों में आने वाले तीज-त्योहार भी 20 से 25 दिन तक आगे बढ़ जाएंगे।
ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्री महाविष्णु चार महीने की अखण्ड निद्रा में चले जाते हैं।वर्षा के इन चार महीनों को विष्णु शयन के कारण विवाहादि शुभ कार्यों का निषेध किया गया है ।यह धारणा उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है ।इस विषय पर विचार करना अप्रासंगिक नही होगा ।
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हमारे भारत के सनातनी पंचागों के अनुसार वर्ष के ये चार माह जिन्हें वर्षाकाल के चार माह भी कहा जाता है देवताओं के शयन के रूप में न जाने कब से निर्धारित हो गये है। जिसका परिणाम यह हुआ कि इन चार महीनों में न तो विवाहादि शुभ कार्य होते हैं,न गृहप्रवेशादि ।कार्तिक मास में जब देवोत्थानी एकादशी होती है,तब देवताओं की नींद टूटती है।आषाढ़ शुक्ल की देवशयनी एकादशी से देव उठनी एकादशी तक का काल ब्लैक लिस्ट में जब से आया ,तबसे विवाहादि के मुहूर्त शेष आठ महीनों में सीमित होकर रह गये ।
इनमें से कभी शुक्रास्त,कभी गुर्वस्त अर्थात तारा डूबने के कारण विवाह के मुहूर्त नही मिलते हैं । इन सबके कारण विवाह मुहूर्त इतने सीमित होकर रह गये हैं कि एक दिन हजारों की संख्या में विवाह होने के कारण मैरेज हाल ,घोड़े-बाजा वाले,टेन्ट हाउस वालों पर उस दिन जो दबाव रहता है तथा समाज में जो असुविधा होती है ,उससे हम सब सुपरिचित हैं ।चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है।
इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण हो जाती है।
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आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के रोगाणु उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही इन दिनों ही कई बड़े त्यौहार आते हैं। त्यौहार व शादी दोनों क उल्लास और हर्श समय समय पर बना रहे। इसीलिए चार माह तक शादी ब्याह नहीं किए जाते हैं।
विवाह मुहूर्त जैसी धार्मिक और ज्योतिषीय घटना का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव दूरगामी होता है ।एक और बात यह भी है कि उत्तर भारत में विवाह के साथ यह परम्परा न जाने कब से आ जुड़ी है कि विवाह रात में ही हों दिन में नही ।
विवाह मुहूर्त के अवसर पर बिजली के उपभोग पर पड़े भारी दबाव के कारण टांसफार्मरों के जलने से लेकर रात्रि को सड़कों पर ट्रैफिक जाम और वृद्धों और विद्यार्थियों की शान्ति में व्यवधान आदि समस्याएँ भी होती है ।रात्रि में या गोधूलि में विवाह मुहूर्त निकालने की घटना का शास्त्रीय आधार नही है ।
यह केवल मुगल काल में अनेक सामाजिक कारणों से हुई थी ।उस समय भी दिवा लग्न दक्षिण भारत में,महाराष्ट्र आदि में उत्कृष्ट माने जाते थे और आज भी माने जाते हैं ।उत्तर भारत मे भी विवाह दिन में विवाह का निषेध कभी नही रहा ।आजकल पंचागों मे दिवा लग्न उद्धृत किये जा रहे हैं।
-चातुर्मास्य में विवाह नही होने की स्थितियाॅ आज भी उत्तर भारत में देखी जा रहीं हैं,जिसका कारण देवों का शयन बताया जाता है ।कई बार विद्वानों द्वारा स्पष्ट भी किया गया है कि देवता इतने आलसी नही हैं कि चार महीने तक सोते रहें और भगवान विष्णु तो विश्व के प्रतिपालक हैं,सदा सजग रहते हैं । वे यदि एक दिन भी अधिक सो जायें तो विश्व की क्या स्थिति होगी? इसकी कल्पना की जा सकती है ।
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इस बार चातुर्मास पांच महीने का होगा???
पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं की इस वर्ष अधिमास पड़ेगा जिस कारण से आश्विन माह दो होंगे। अधिमास होने के कारण चातुर्मास चार महीने के बजाय पांच महीने का होगा। ऐसे में इसके बाद सभी तरह के त्योहार आम वर्षो के मुकाबले देरी से आएंगे। जहां श्राद्ध के खत्म होने पर तुरंत अगले दिन से नवरात्रि आरंभ हो जाते लेकिन अधिमास के होने से ऐसा नहीं हो पाएगा। इस बार जैसे ही श्राद्ध पक्ष खत्म होगा फिर अगले दिन से आश्विन मास का अधिमास आरंभ हो जाएगा।
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क्या होता है अधिमास???
हिंदू कैलेंडर के अनुसार हर तीन वर्ष में एक बार एक अतिरिक्त माह आता है। इसे ही अधिमास, मलमास और पुरुषोत्तम माह के नाम से जाना जाता है।
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क्यों आता है हर तीन साल में अधिमास???
पंडित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार वैदिक हिंदू कैलेंडर सूर्य मास और चंद्र मास की गणना के आधार पर चलता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार एक सूर्य वर्ष .65 दिन और करीब 6 घंटे का होता है। वहीं एक चंद्र वर्ष  में 354 दिन होते हैं। इन दोनों का अंतर लगभग 11 दिनों का होता है। धीरे-धीरे तीन साल में यह एक माह के बराबर हो जाता है। इस बढ़े हुए एक महीने के अतंर को दूर करने के लिए हर तीन साल में एक अतिरिक्त महीना आ जाता है। इसे ही अधिमास कहा जाता है। अधिमास का महीना आने से ही सभी त्योहार सही समय पर मनाए जाते हैं।
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वेदकाल या वेदोत्तरकाल में विष्णु शयन जैसी कल्पना का तो प्रश्न ही नही उठता है ।पुराण काल में ब्रह्म पुराण,स्कन्दपुराण आदि में विष्णु भगवान के शयन और जागृत होने की परिकल्पना है ।वह रूपात्मक प्रतीक है ।त्रिविक्रम विष्णु भगवान सूर्य के ही स्वरूप हैं ।मेघाच्छन कालखण्ड में सूर्य के दर्शन नही हो पाते हैं। रात में भी बादलों के कारण ग्रह,नक्षत्र प्रकाश नही दे पाते हैं,अतः सूर्य (विष्णु)के शयन और देवों के सोने की परिकल्पना की गई ।इस कारण पौराणिक रूपक कल्पना के कारण चार महीनों के लिए विवाहादि कार्यों पर रोक लग गयी।
निर्णय सिन्धु,धर्म सिन्धु आदि ग्रन्थों में या किसी भी शास्त्र में चार महीनों तक विवाह के निषेध की बात नही मिलती है ।गुरु आदि ग्रहों के प्रतिकूल होने पर विवाह निषेध का उल्लेख है,किन्तु आषाढ़ से कार्तिक तक विवाह का निषेध नहीं पाया जाता है ।बौधायन सूत्र मे स्पष्ट कहा गया है –
“सर्वे मासा विवाहस्य शुचि तपस्तपस्यवर्जम् । 
–आपस्तम्ब सूत्र भी कहता है -“सर्व ॠतवो विवाहस्य ।शैशिरौ मासौ परिहाय्य,उत्तमं न नैदाद्यम्। 
–अर्थात तीव्र शिशिर ॠतु होने पर विवाह न किया जाय,गर्मी में विवाह उत्तम होता है,बाकी सभी मासो में विवाह किया जा सकता है ।
निर्णय सिन्धु स्वयं स्पष्ट करता है कि आचार्य चूड़ामणि ग्रन्थ में,ज्योतिष के सन्दर्भ से गर्ग और राजमार्तण्ड आदि के प्रमाण से कहा गया है कि–
“मांगल्येषु विवाहेषु कन्यासंवरणेषु च ।दशमासाः प्रशस्यन्ते चैत्र पौष विवर्जिताः 
“-अर्थात चैत्र और पौष के अलावा हर महीने में विवाह किया जा सकता है ।
मध्यकाल में गत कुछ सदियों के बीच जब वर्षा ॠतु में यात्रा आदि अत्यन्त असुविधाजनक होने लगी और वर्षा ॠतु में सबको यात्रा निषेध का अनुरोध किया जाने लगा,तो वर यात्रा का भी निषेध कर दिया गया।,यही इसका कारण प्रतीत होता है ।इसी तरह शीत ॠतु मे शीत प्रधान अंचलों में विवाह वर्जित कर दिये गये ।उत्तर भारत में ॠतु की असुविधा का यह कारण किसी समय में शास्त्रीय और ज्योतिषीय निषेध भी बन गया होगा ।
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धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में जिस प्रकार के विधि-निषेध हैं,उससे हम अनुमान कर सकते हैं कि उनकी दृष्टि शुभाशुभ पर उतनी नही हैं जितना कि सुविधा-असुविधा पर है ।आचार्य शौनक का कथन है कि वर्षा के दिनों में,अधिक मास में,ग्रहों की प्रतिकूलता में,विवाह,यात्रा,मकान बनाने का कार्य आदि जहाँ तक हो सके नही करना चाहिए ।
यह कहकर उन्होंने सुविधा-असुविधा को परिलक्षित किया है ।पूरे चार महीने विवाह के लिए निषिद्ध हैं।,यह स्पष्ट नही कहा गया है ।एक स्थान पर इतना संकेत है कि कुछ लोग आषाढ़ से लेकर कार्तिक तक विवाह को वर्जित मानते हैं ।कालादर्श में तो कहा गया है कि यदि रात्रि में विवाह करना है तो बारह माह में विवाह कभी भी किये जा सकते हैं ।विवरण का आशय यह है कि विवाह के लिए जोर चार महीने निषेध किये गये हैं वह परम्परा का अनुसरण अधिक लगता है,धर्मशास्त्र,खगोलीय वास्तविकता और तर्कदृष्टि का अनुसरण कम ।
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उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं कि इन चार महीनों में तमाम तरह के शुभ कार्य करना निषेध रहेगा जबकि धार्मिक आयोजन पुण्यदायक माने जाएंगे। इस समयावधि में विभिन्न स्थानों पर श्रीमद् भागवत, रामायण एवं अन्य धार्मिक आयोजन बड़ी संख्या में होंगे।इन चार महीनों में विशेष देव आराधना की जाती है। इस दौरान कई हिन्दू तीज त्यौहार भी आते हैं। इस दौरान विवाह आदि व्यक्तिगत मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। देश के तमाम साधू-संत चातुर्मास करने अलग-अलग सिद्ध स्थानों पर पहुंचते हैं और विशेष साधना में लीन हो जाते हैं। चातुर्मास समाप्त होने पर वह किसी दूसरी जगह जाकर दोबारा से साधना शुरू करते हैं।चातुर्मास में यात्रा करने से यह बचते हैं, क्योंकि ये वर्षा ऋतु का समय रहता है, इस दौरान नदी-नाले उफान पर होते है तथा कई छोटे-छोटे कीट उत्पन्न होते हैं। इस समय में विहार करने से इन छोटे-छोटे कीटों को नुकसान होने की संभावना रहती है। इसी वजह से जैन धर्म में चातुर्मास में संत एक जगह रुककर तप करते हैं। चातुर्मास में भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। देवउठनी एकादशी के बाद विष्णुजी फिर से सृष्टि का भार संभाल लेते हैं।
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जानिए चातुर्मास में क्या खाएं और न खाएं??
इस दौरान बैंगन, मूली और परवल न खाएं। दूध, शकर, दही, तेल, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन, मसालेदार भोजन, मिठाई और सुपारी का सेवन नहीं किया जाता है। मांसाहार और शराब का सेवन भी वर्जित है। शहद या अन्‍य किसी प्रकार के रस का प्रयोग भी नहीं किया जाता है। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक, आलू, कंदमूल यानी जमीन के अंदर उगने वाली सब्जियां आदि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक माह में प्याज, लहसुन एवं उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
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जानिए चातुर्मास के व्रत नियम को-
चातुर्मास में फर्श पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना चाहिए। इन 4 महीनों में ज्यादातर समय मौन रहने की कोशिश की जाती है। हो सके तो दिन में केवल एक बार ही भोजन करना चाहिए। सहवास न करें और झूठ न बोलें। पलंग पर नहीं सोना चाहिए। हर तरह के संस्कार और मांगलिक कार्य भी इन दिनों में नहीं किए जाते हैं। नियम और संयम से रहने के लिए इन 4 महीनों में हर तरह की भौतिक सुख सुविधाओं से दूर रहने की कोशिश की जाती है। शरीर को आराम नहीं दिया जाता है और लगातार भगवान के नाम का जाप किया जाता है। 
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इस समय करें भगवान का ध्यान-
इन 4 महीनों में किया गया शारीरिक तप भगवान से जुड़ने में मदद करता है। चातुर्मास में शरीरिक और मानसिक तप के अलावा मन की शुद्धि पर भी जोर दिया गया है। जिसे धार्मिक और आध्यात्मिक तप भी कहा जा सकता है। इस तरह के तप से मन में नकारात्मक विचार और गलत काम करने की इच्छाएं पैदा नहीं होती। इन दिनों में जप-तप और ध्यान की मदद से परमात्मा के साथ जुड़ने की कोशिश की जाती है। जिससे सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। 
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चातुर्मास के वैज्ञानिक महत्व को समझें–
चातुर्मास धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्व पूर्ण है। इन दिनों में परहेज करने और संयम से जीवन जीने पर जोर दिया जाता है। वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो इन दिनों में  बारिश होने से हवा में नमी बढ़ जाती है। इस कारण बैक्‍टीरिया और कीड़े-मकोड़े बढ़ जाते हैं। जिनकी वजह से संक्रामक रोग और अन्य तरह की बीमारियां होने लगती हैं। इनसे बचने के लिए खान-पान में सावधानी रखी जाती है और संतुलित जीवनशैली अपनाई जाती है।

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