जानिए की श्री यंत्र क्या हें..?? 
श्री यंत्र का प्रभाव क्या होता हें..??
दोष या बाधा निवारण में यंत्रों का उपयोग कब और केसे करें..??
कैसे रचना की जाती है श्रीयंत्र की?


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यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचीन यन्त्र है,इसकी अधिष्टात्री देवी स्वयं श्रीविद्या अर्थात त्रिपुर सुन्दरी हैं,और उनके ही रूप में इस यन्त्र की मान्यता है। यह बेहद शक्तिशाली ललितादेवी का पूजा चक्र है,इसको त्रैलोक्य मोहन अर्थात तीनों लोकों का मोहन यन्त्र भी कहते है। यह सर्व रक्षाकर सर्वव्याधिनिवारक सर्वकष्टनाशक होने के कारण यह सर्वसिद्धिप्रद सर्वार्थ साधक सर्वसौभाग्यदायक माना जाता है। इसे गंगाजल और दूध से स्वच्छ करने के बाद पूजा स्थान या व्यापारिक स्थान तथा अन्य शुद्ध स्थान पर रखा जाता है। इसकी पूजा पूरब की तरफ़ मुंह करके की जाती है,श्रीयंत्र का सीधा मतलब है,लक्ष्मी यंत्र जो धनागम के लिये जरूरी है। 


श्रीयंत्र अलौकिक शक्ति व चमत्कारों से परिपूर्ण गुप्त शक्तियों का प्रजनन केन्द्र बिद्नु कहा गया है। जिस प्रकार से सब कवचों से चन्डी कवच सर्वश्रेष्ठ कहा गया है,उसी प्रकार से सभी देवी देवताओं के यंत्रों में श्रीदेवी का यंत्र सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसी कारण से इसे यंत्रराज की उपाधि दी गयी है। इसे यन्त्रशिरोमणि भी कहा जाता है। दीपावली धनतेरस बसन्त पंचमी अथवा पौष मास की संक्रान्ति के दिन यदि रविवार हो तो इस यंत्र का निर्माण व पूजन विशेष फ़लदायी माना गया है


सर्वाधिक रहस्यमय श्रीविद्या के यंत्र स्वरूप को ‘श्रीयंत्र’ या ‘श्रीचक्र’ कहते हैं। यह एक मात्र ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र ‘श्री विद्या’ से संबंध रखता है। साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि की ‘श्री’ देने वाली विद्या को ही ‘श्रीविद्या’ कहा जाता है। श्रीयंत्र को यंत्रराज भी कहा जाता है, इसे यंत्रों में सर्वोत्तम माना गया है। कलियुग में कामधेनु के समान ही है जो साधक को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। श्री यंत्र को कल्पवृक्ष भी कहा गया है, जिसके सान्निध्य में सारी कामनाएं पूर्ण होती हैं।


श्री विद्या के यंत्र को ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं या ‘श्रीचक्र’ कहते हैं। यह अकेला ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है। श्री विद्या का अर्थ साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ‘श्री’ देने वाली विद्या को कहा जाता है।


यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है। यह यंत्र हर प्रकार से श्री प्रदान करता है जैसा कि दुर्गा सप्तशती में कहा गया है-


आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा


आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की ‘श्री’ अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसील‍िए इसे ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है। वामकेश्वर तंत्र में कहा है-


सर्वदेव मयी विद्या


दुर्गा सप्तशती में- 


विद्यासि सा भगवती परमा‍हि देवि।


हे देवी! तुम ही परम विद्या हो।


इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं। आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में कहा-


चतुर्भि: श्रीकंठे: शिवयुवतिभि: पश्चभिरपि


नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में 4. त्रिकोण, .8 मर्म स्थान, 24 संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।




श्रीयंत्र का मूल मंत्र:-   ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः


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सिद्ध श्री यंत्र ही देता है फल—


आजकल बाजार में रत्नों के बने श्री यंत्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं किंतु वे सिद्ध नहीं होते। सिद्ध श्री यंत्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्री यंत्र समृद्धि देने वाला बनता है। यह आवश्यक नहीं कि श्री यंत्र रत्नों का बना हो। श्री यंत्र तांबे पर बना हो अथवा भोज पत्र पर जब तक उसमें मंत्र शक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात धन प्रदान करने वाला नहीं होता।


पौराणिक कथा—


श्री यंत्र के संदर्भ में एक कथा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार एक बार आदि शंकराचार्यजी ने कैलाश मान सरोवर पर भगवान शंकर को कठिन तपस्या कर प्रसन्न कर दिया। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने के लिए कहा। आदि शंकराचार्य ने विश्व कल्याण का उपाय पूछा। भगवान शंकर ने शंकराचार्य को साक्षात लक्ष्मी स्वरूप श्री यंत्र की महिमा बताई और कहा- यह श्री यंत्र मनुष्यों का सर्वथा कल्याण करेगा। श्री यंत्र परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महा त्रिपुर सुदंरी का आराधना स्थल है क्योंकि यह चक्र ही उनका निवास और रथ है। श्री यंत्र में देवी स्वयं मूर्तिवान होकर विराजती हैं इसीलिए श्री यंत्र विश्व का कल्याण करने वाला है।


आज के यांत्रिक युग में जबकि मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से आक्रान्त है, अगर वह श्रीयंत्र की स्थापना करें तो यह यंत्र उसके लिए रामबाण सिद्व हो सकता है। इस यंत्र को पूर्ण श्रद्वा, विश्वास से अपने व्यवसाय, दुकान, ऑफिस , फैक्टरी आदि में स्थापित करना चाहिए। इसकी प्रतिदन पूजा से श्रीलक्ष्मी प्रसन्न होती है। तथा साथक धनाढय बनता है आज जबकि वास्तु का युग है, प्रत्येक व्यक्ति वास्तु के द्वारा सुख भी प्राप्ति करना चाहता है। ऐसे में श्रीयंत्र की स्थापना और भी आवश्यक हो जाती है।


आदिकालीन विद्या का द्योतक हैं वास्तव में प्राचीनकाल में भी वास्तुकला अत्यन्त समृद्व थी। श्रीयंत्र में सर्वप्रथम धुरी में एक बिन्दु और चारो तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते है जो शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और चार ऊपर की तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते हैं जो शक्ति का प्रदर्शन करते है और चार ऊपर की तरफ शिव ती तरफ दर्शाते है। अन्दर की तरफ झुके पांच-पांच तत्व, पांच संवेदनाएँ, पांच अवयव, तंत्र और पांच जन्म बताते है। ऊपर की ओर उठे चार जीवन, आत्मा, मेरूमज्जा व वंशानुगतता का प्रतिनिधत्व करते है। चार ऊपर और पांच बाहारी ओर के त्रिकोण का मौलिक मानवी संवदनाओं का प्रतीक है। यह एक मूल संचित कमल है। आठ अन्दर की ओर व सोलह बाहर की ओर झुकी पंखुड़ियाँ है। ऊपर की ओर उठी अग्नि, गोलाकर, पवन,समतल पृथ्वी व नीचे मुडी जल को दर्शाती है। ईश्वरानुभव, आत्मसाक्षात्कार है। यही सम्पूर्ण जीवन का द्योतक है। यदि मनुष्य वास्तव में सुखी और सृमद्व होना चाहता है तो उसे श्रीयंत्र स्थापना अवश्य करनी चाहिये।


अनन्त ऐश्वर्य एवं लक्ष्मी प्राप्ति के मुमक्ष को चाहिए कि श्री यंत्र के सम्मुख श्री सूक्त का  पाठ करो पंचमेवा देवी को भोग लगायें तो शीघ्र ही इसका चमत्कार होता है।
यंत्र का उपयोगइस यंत्र को व्यापार वृद्धि के लिए तिजोरी में रखा जाता है धान्य वृद्धि के लिए धान्य में रखा जाता है
इस यंत्र को वेलवृक्ष की छाया में उपासना करने से लक्ष्मी शीघ्र प्रसन्न होती है और अचल सम्पत्ति प्रदान करती हैं।
इस यंत्र को सम्मुख रखकर सूखे वेलपत्र घी में डुबोकर वेल की समिधा में आहूति डालने से मां भगवती शीघ्र ही प्रसन्न होती है एवं धन ऐश्वर्य प्राप्त होता है तथा जीवन भर लक्ष्मी के लिए दुखी नहीं होना पड़ता।


मान्यता है कि भोजपत्र की अपेक्षा तांबे पर बने श्रीयंत्र का फल सौ गुना, चांदी में लाख गुना और सोने पर निर्मित श्रीयंत्र का फल करोड़ गुना होता है। ‘रत्नसागर’ में रत्नों पर भी श्रीयंत्र बनाने की बात लिखी गई है। इनमें स्फटिक पर बने श्रीयंत्र को सबसे अच्छा बताया गया है। विद्वानों की ऐसी धारणा है कि भोजपत्र पर 6 वर्ष तक, तांबे पर .2 वर्ष तक, चांदी में 20 वर्ष तक और सोना धातु में श्रीयंत्र आजीवन प्रभावी रहता है। केसर की स्याही से अनार की कलम द्वारा भोजपत्र पर श्रीयंत्र बनाया जाना चाहिए। धातु पर निर्मित श्रीयंत्र की रेखाएं यदि खोदकर बनाई गई हों और गहरी हों, तो उनमें चंदन, कुमकुम आदि भरकर पूजन करना चाहिए।


दीपावली की रात गृहस्थ के लिए श्री यंत्र सिद्ध करना सबसे आसान है। इसके लिए पूजन के बाद लक्ष्मी मंत्र- ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः की 11 माला का जाप करें। साथ ही श्री यंत्र की स्थापना कर उसका पूजन करें तो वह सिद्ध हो जाएगा।
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क्या है श्री यंत्र- कैसे करे इसका उपयोग –


यन्त्र शास्त्र के अनुसार  श्रीयंत्र लक्ष्मी को आकर्षित करने वाला प्रभावी  यंत्र है. श्रीयंत्र के माध्यम से आर्थिक स्थिति मजबूत होती है और आर्थिक परेशानिया दूर होती है. आजकल हर वयक्ति श्री लेने के पीछे पड़ा होता है बेचने वालो की भी कमी नही है. क्या एक श्री यन्त्र रखने मात्र से काम बन जाते है. क्या आप जानते है के श्री यन्त्र क्या होता है और इसका कैसे उपयोग करना चाहिए।  
यन्त्र शास्त्र विज्ञानं में हर कार्य के लिए यंत्रो का निर्माण किया जाता है. जिसमे financial problems  को दूर करने के लिए श्री यंत्र का निर्माण किया जाता है. इसके अलावा भी बहुत सारे यन्त्र होते है जैसे कुबेर यन्त्र, व्यापर यन्त्र। लेकिन श्री यन्त्र को सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है इसीलिए इसे यन्त्र राज कहा जाता है. पहले इसकी रचना समझते है. 



श्री यन्त्र की रचना पांच त्रिकोण के नीचे के भाग के ऊपर चार त्रिकोण के संयोजन से जिसमें 43 त्रिकोण द्वारा होती है. इन त्रिकोणों को दो कमल घेरे हुए होते हैं, पहला कमल अष्टदल का होता है और दूसरा बाहरी कमल षोडशदल का होता है.


इन दो कमलों के बाहर तीन वृत हैं इसके बाहर तीन चैरस होते हैं जिन्हें भूपुर कहते हैं. इस यंत्र को तांबे, चांदी या सोने पर बनाया जा सकता है. स्फटिक के श्री यन्त्र भी आजकल उपलब्ध है. 



अब बात आती है के आपने श्री यन्त्र ले लिया है और देने वाले ने आपको  बताया के ये सिद्ध है. लेकिन आजकल 24 घंटे में ये  श्री यन्त्र मिल जाता है क्या जिस दिन आपने मंगाया उसी दिन शुभ मुहूर्त भी था ? जो बेचने वाले ने उसी दिन सिद्ध भी कर दिया? ऐसी स्थिति में श्री यन्त्र अपना पूर्ण प्रभाव नही देता। इन यंत्रो में भी जान डालनी पड़ती है. 




अगर आपने श्री यंत्र लगाया और  कोई प्रभाव नही मिल रहा है तो ये उपाय करे—


कैसे करें सिद्ध श्री यंत्र को–


कोई  अच्छा सा दिन देख लें या शुक्ल पक्ष का शुक्रवार ले. श्री यन्त्र को गंगा जल से धो ले. और अपने मंदिर रख कर माता लक्ष्मी का ध्यान लगाते हुए “ओम श्रीँ” मंत्र का जाप करें। ये कम से कम 21  माला आपको  करनी है. जो की पांच दिन तक करनी है. उसके बाद ये यन्त्र सिद्ध होता  है. हालाँकि ऐसा तभी करे जब आपको की योग्य जानकार ना मिल रहा हो. क्यूंकि योग्य वयक्ति से ही सिद्ध कराना अच्छा रहता है. 




उसके बाद यंत्र को अपने मंदिर में स्थापित करे या जहा भी आप चाहते है दुकान या ऑफिस में रख दे. नित्य इन मंत्रो से श्री यंत्र की पूजा कर सकते है. की एक मन्त्र भी पढ़  सकते है. ध्यान रहे श्री यन्त्र की जितनी पूजा होती है उतना ही बल मिलता है.


श्री यंत्र मंत्र—-


श्री महालक्ष्म्यै नमः


* श्री ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः


* श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः






श्रीयंत्र का महत्व–


 श्रीयंत्र को घर, ऑफिस में बने पूजा स्थान पर रख सकते हैं तथा प्रतिदिन इसके सम्मुख धूप, दीप एवं मंत्र जाप करने से समृद्धि, वैभव, सौभाग्य की प्राप्ति होती है|
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अचरज भरा अद्भुत सिद्धिप्रद यंत्र श्री यंत्र—



श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकला विलास, त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है। महालक्ष्मी स्वयं कहती हैं – ‘ श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं। ’


श्रीयंत्र को यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दुर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है। जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है। जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं। यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फल देती है। जिस तरह मंत्र की शक्ति उसके शब्दों में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है। मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठित श्री यंत्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है।


शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना प्रारम्भ हो जाता है।


जन्मकुंडली में मौजूद केमद्रुम, दरिद्र, शकट, ऋण, निर्भाग्य, काक आदि विभिन्न कुयोगों को दूर करने में श्री यंत्र अत्यंत लाभकारी है। यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्ट सिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से शक्ति स्तंभन होता है व पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है।
श्रीयंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं। श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुःख दारिद्र्य का नाश होता है। श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं की कृपा भी प्राप्त होती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।


 
 

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लक्ष्मी और श्रीयंत्र—


एक सुन्दर आख्यान आता है कि एक बार लक्ष्मी अप्रसन्न होकर बैकुण्ठ को चली गईं, इससे पृथ्वी तल पर काफी समस्याएं पैदा हो गईं। ब्राह्मण और वणिक वर्ग बिना लक्ष्मी के दीन-हीन, असहाय से घूमने लगे, तब ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, वशिष्ठ ने निश्चय किया, कि मैं लक्ष्मी को प्रसन्न कर भूतल पर ले आऊंगा।
जब वशिष्ठ बैकुण्ठ में जा कर लक्ष्मी से मिले तो ज्ञात हुआ, कि लक्ष्मी अप्रसन्न हैं और वह किसी भी स्थिति में भूतल पर आने को तैयार नहीं हैं, तब वशिष्ठ वहीं बैठ कर विष्णु की आराधना करने लगे। जब विष्णु प्रसन्न होकर प्रकट हुए, तो वशिष्ठ ने कहा, कि हम पृथ्वी पर बिना लक्ष्मी के दुःखी हैं, हमारे आश्रम उजड़ गए हैं, चौपट हो गए हैं और जीवन की उमंग और उत्साह समाप्त हो गया है।




भगवान विष्णु, वशिष्ठ को साथ लेकर लक्ष्मी के पास गए और उन्हें मनाने लगे, परन्तु लक्ष्मी नहीं मानीं और उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, कि मैं किसी भी स्थिति में भूतल पर जाने को तैयार नहीं हूं। क्योंकि पृथ्वी पर साधना और शुद्धि नहीं है।
हताश होकर वशिष्ठ पुनः भूतल पर लौट आए और लक्ष्मी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया। सभी किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे, कि क्या किया जाए? तब देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा, कि अब एकमात्र ‘ श्रीयंत्र साधना ’ ही बची है, और यदि सिद्ध ‘ श्री यंत्र ’ बना कर स्थापित किया जाए, तो निश्चय ही लक्ष्मी को आना पड़ेगा।


बृहस्पति की बात से ॠषियों में हर्ष की लहर दौड़ गई और उन्होंने बृहस्पति के निर्देशन में धातु पर श्रीयंत्र का निर्माण किया और उसे मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त किया और दीपावली से दो दिन पूर्व धन त्रयोदशी को उस श्रीयंत्र को स्थापित कर विधि-विधान से उसका षोडशोपचार पूजन किया। पूजन समाप्त होते-होते लक्ष्मी स्वयं वहां उपस्थित हो गईं और बोलीं – मैं किसी भी स्थिति में यहां आने के लिए तैयार नहीं थी, यह मेरा प्रण था, परन्तु बृहस्पति की युक्ति से मुझे आना ही पड़ा। श्रीयंत्र मेरा आधार है और इसी में मेरी आत्मा निहित है।
इस कथा से यह भली भांति स्पष्ट है, कि श्रीयंत्र अपने आप में लक्ष्मी का सर्वाधिक प्रिय स्थान है, और जहां यह यंत्र स्थापित होता है, वहां लक्ष्मी स्थायी रूप से रहती ही हैं।


साधकों, ॠषियों, मुनियों और तपस्वियों ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है, कि यह यंत्र अद्भुत धनप्रदायक यंत्र है। अन्य किसी भी प्रयोग या साधना से लक्ष्मी प्रसन्न हों या न हों, परन्तु श्रीयंत्र का स्थापन करने से निश्चय ही लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और वह साधक को पूर्ण भौतिक सुख, सफलता और सम्पन्नता प्रदान करती हैं।
जहां पर यह यंत्र स्थापित होता है, वहां पर दरिद्रता का विनाश होता है, ॠण मोचन में यह यंत्र पूर्ण सफलतादायक है। भारद्वाज ॠषि के अनुसार यह यंत्र स्वयं ही पूर्ण होता है, यदि यह श्रीयंत्र धातु निर्मित मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त हो ।


कणाद ने कहा है, कि श्री यंत्र यदि मंत्र सिद्ध है, तो इस पर अन्य किसी भी प्रकार का प्रयोग या उपाय करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह स्वयं ही चैतन्य हो जाता है और जहां पर भी यह स्थापित होता है, उसको अनुकूल फल और प्रभाव देने लग जाता है। जिस प्रकार अगरबत्ती किसी व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं होती, वह जहां पर भी जलाई जाती है, वहीं पर सुगन्ध बिखेरने लग जाती है, इसी प्रकार मंत्र सिद्ध चैतन्य श्रीयंत्र जहां पर भी स्थापित होता है वहीं पर यह अनुकूल फल देने में समर्थ हो जाता है।



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श्रीयंत्र का स्वरूप–


श्रीयंत्र अपने आप में रहस्यपूर्ण है। यह सात त्रिकोणों से निर्मित है। मध्य बिन्दु-त्रिकोण के चतुर्दिक् अष्ट कोण हैं। उसके बाद दस कोण तथा सबसे ऊपर चतुर्दश कोण से यह श्रीयंत्र निर्मित होता है। यंत्र ज्ञान में इसके बारे में स्पष्ट किया गया है-




चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥




श्रीयंत्र के चतुर्दिक् तीन परिधियां खींची जाती हैं। ये अपने आप में तीन शक्तियों की प्रतीक हैं। इसके नीचे षोडश पद्मदल होते हैं तथा इन षोडश पद्मदल के भीतर अष्टदल का निर्माण होता है, जो कि अष्ट लक्ष्मी का परिचायक है। अष्टदल के भीतर चतुर्दश त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो चतुर्दश शक्तियों के परिचायक हैं तथा इसके भीतर दस त्रिकोण स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जो दस सम्पदा के प्रतीक हैं। दस त्रिकोण के भीतर अष्ट त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो अष्ट देवियों के सूचक कहे गए हैं। इसके भीतर त्रिकोण होता है, जो लक्ष्मी का त्रिकोण माना जाता है। इस लक्ष्मी के त्रिकोण के भीतर एक बिन्दु निर्मित होता है, जो भगवती का सूचक है। साधक को इस बिन्दु पर स्वर्ण सिंहासनारूढ़ भगवती लक्ष्मी की कल्पना करनी चाहिए।


इस प्रकार से श्रीयंत्र 2816 शक्तियों अथवा देवियों का सूचक है और श्री यंत्र की पूजा इन सारी शक्तियों की समग्र पूजा है।


श्री यंत्र का रूप ज्योमितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है। तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो सृष्टि-क्रिया निर्माण कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो संहार-क्रिया निर्माण कहलाता है।




अद्भुत त्रिकोण—-


चमत्कारी साधनाओं में श्रीयंत्र का स्थान सर्वोपरि है तथा मंत्र और तंत्र इसके साधक तत्व माने गए हैं। श्रीयंत्र सब सिद्धियों का द्वार है तथा लक्ष्मी का आवास है जिसमें अपने-अपने स्थान, दिशा, मंडल, कोण आदि के अधिपति व्यवस्थित रूप से आवाहित होकर विराजमान रहते हैं। मध्य में उच्च सिंहासन पर प्रधान देवता प्राण प्रतिष्ठित होकर पूजा प्राप्त करते हैं। श्रीयंत्र के दर्शन मात्र से साधक मनोरथ को पा लेता है।


शास्त्रकारों ने इस बात पर बल दिया है कि जिस प्रकार शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं होता है उसी प्रकार श्रीयंत्र और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं होता है। भारतीय तंत्र विधा का आधार अध्यात्म है। इस विधा की प्राचीनता ऋग्वेद से पहचानी जा सकती है। वैदिक जीवन चर्या में पूजन, यज्ञ तथा तंत्र में साधना का अपना विशेष स्थान था। पूजन पद्धतियों का उपयोग जीवन को शांत, उन्नातिशील, ऐश्वर्यवान बनाने के लिए होता था। 

भौतिक जीवन में खुशहाली लाने के निमित्त श्रीयंत्र का निर्माण हुआ। श्रीयंत्र दरिद्रता रूपी स्थितियों को समाप्त करता है। ऋण भार से दबे साधकों के लिए यह रामबाण है। 

पूर्व जन्म के दुष्कर्मानुसार ही व्यक्ति की कुंडली में केमद्रुम योग, काक योग, दरिद्र योग, शकट योग, ऋण योग, दुयोग एवं ऋणग्रस्त योग आदि अशुभ योग मनुष्य को ऐश्वर्यहीन बनाते हैं। इन कुयोगों को दूर कर व्यक्ति को धन-ऐश्वर्य देने वाले यंत्रराज श्रीयंत्र की बड़ी महत्ता है। जिस प्रकार यंत्र एवं देवता में कोई भेद नहीं होता है। यंत्र देवता का निवास स्थान माना गया है। यंत्र और मंत्र मिलकर शीघ्र फलदायी होते हैं। श्रीयंत्र में लक्ष्मी का निवास रहता है। यह धन की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर-सुंदरी का यंत्र है। इसे षोडशी यंत्र भी कहा जाता है। 

श्रीयंत्र बिंदु, त्रिकोण, वसुकोण, दशार-युग्म, चतुर्दशार, अष्ट दल, षोडसार, तीन वृत तथा भूपुर से निर्मित है। इसमें 4 ऊपर मुख वाले शिव त्रिकोण, 5 नीचे मुख वाले शक्ति त्रिकोण होते हैं। इस तरह त्रिकोण, अष्टकोण, 2 दशार, 5 शक्ति तथा बिंदु, अष्ट कमल, षोडश दल कमल तथा चतुरस्त्र हैं। ये आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। यह यंत्र मनुष्य को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष देने वाला है। 


श्री यंत्र में 9 त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की 9 मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाए जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में 5 ऊध्वर्मुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये 5 ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। 4 अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में 4 ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और 4 अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं।
श्री यंत्र में 4 त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर 43 छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो 43 देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो 43 त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम 10, नियम 10, आसन 8, प्रत्याहार 5, धारणा 5, प्राणायाम 3, ध्यान 2 के स्वरूप हैं।




प्रत्येक त्रिकोण एवं कमल दल का महत्व—


इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ 8 कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर 16 दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है। मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी 9 चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ बिंदु फिर त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर 8 त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर के 10 त्रिकोण सर्व रोगनाशक हैं। फिर 10 त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर 14 त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर 8 कमलदल का समूह दुःख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर 16 कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर वाला भाग त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन 9 चक्रों की अधिष्ठात्री 9 देवियों के नाम इस प्रकार हैं – 1. त्रिपुरा 2. त्रिपुरेशी 3. त्रिपुरसुंदरी 4. त्रिपुरवासिनी, 5. त्रिपुरात्रि, 6. त्रिपुरामालिनी, 7. त्रिपुरसिद्धा, 8. त्रिपुरांबा और 9. महात्रिपुरसुंदरी।



श्रीयंत्र निर्माण–


श्रीयंत्र कई प्रकार से निर्मित तथा कई रूपों में उपलब्ध होता है। विभिन्न प्रकार से अंकित श्रीयंत्रों का प्रभाव भी अलग-अलग तरह का होता है। सबसे विशेष बात यह है कि ताम्र पत्र पर अंकित और पारद निर्मित प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र ही सबसे अधिक प्रभावकारी होते हैं।
श्रीयंत्र का निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा ही श्रीयंत्र के प्रभावशाली होने का सबसे बड़ा स्रोत है। वैसे तो आजकल सभी जगह श्रीयंत्र उपलब्ध है परन्तु उनकी विश्वसनियता नहीं है। श्रीयंत्र निर्माण अपने आप में जटिल प्रक्रिया है, और जब तक सही रूप में यंत्र उत्कीर्ण नहीं होता, तब तक उससे सफलता भी संभव नहीं। मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र के स्थापन से साधक शीघ्र लाभ प्राप्ति की स्थिति को प्राप्त करता है। श्रीयंत्र चाहे ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण हो, चाहे पारद निर्मित श्रीयंत्र हो उसके प्राण प्रतिष्ठित होने पर ही उसका लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
श्रीयंत्र निर्माण की जटिल प्रक्रिया से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि आप जब भी घर में श्रीयंत्र स्थापित करें तो प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र ही स्थापित करें।
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जानिए की कब करें श्रीयंत्र स्थापना —


श्री यंत्र का निर्माण सिद्ध मुहूर्त में ही किया जाता है। गुरुपुष्य योग, रविपुष्य योग, नवरात्रि, धन-त्रयोदशी, दीपावली, शिवरात्रि, अक्षय तृतीया आदि श्रीयंत्र निर्माण और स्थापन के श्रेष्ठ मुहूर्त हैं।


अपने घर में किसी भी श्रेष्ठ मुहूर्त में श्रीयंत्र को स्थापित किया जा सकता है। ‘ तंत्र समुच्चय’ के अनुसार किसी भी बुधवार को प्रातः श्रीयंत्र को स्थापित किया जा सकता है। इसकी स्थापना का विधान बहुत ही सरल है, शास्त्रों में इसके स्थापन का जो विधान है, वह आगे स्पष्ट किया जा रहा है।


शास्त्रों के अनुसार मंत्र सिद्ध चैतन्य श्रीयंत्र की नित्य पूजा आवश्यक नहीं है और न ही नित्य जल से स्नान आदि कराने की जरूरत है। यदि संभव हो, तो इस पर पुष्प, इत्र आदि समर्पित किया जा सकता है और नित्य इसके सामने अगरबत्ती व दीपक जला देना चाहिए, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है। यदि किसी दिन श्रीयंत्र की पूजा नहीं भी होती या इसके सामने अगरबत्ती व दीपक नहीं भी जलाया जाता, तब भी इसके प्रभाव में कोई न्यूनता नहीं आती।
शुभ अवसरों पर श्री यंत्र की पूजा का विधान है। अक्षय तृतीया, नवरात्रि, धन-त्रयोदशी, दीपावली, आंवला नवमी आदि श्रेष्ठ दिवसों पर श्रीयंत्र की पूजा का विधान है।
सुविख्यात ‘श्रीयंत्र’ भगवती त्रिपुर सुंदरी का यंत्र है। इसे यंत्रराज के नाम से जाना जाता है। श्रीयंत्र में देवी लक्ष्मी का वास माना जाता है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति तथा विकास का प्रतीक होने के साथ मानव शरीर का भी द्योतक है।
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श्रीयंत्र में स्वतः कई सिद्धियों का वास है। उचित प्रभाव के लिए मंत्र सिद्ध, प्राण प्रतिष्ठायुक्त श्रीयंत्र स्थापित करना या करवाना चाहिए। बिना प्राण प्रतिष्ठायुक्त श्रीयंत्र को ऐसे समझें जैसे खाली मकान।  श्रीयंत्र के सम्मुख प्रतिदिन सामान्य रूप से धूप/ अगरबत्ती तथा घी का दीपक जलाने से लक्ष्मी की सामान्य पूजा होती है। श्रीयंत्र की पूजा से मनोकामना पूर्ति में कोई शंका नहीं रहती। साधक अपनी श्रद्धानुसार लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करे तो लक्ष्मी उस पर प्रसन्ना होकर अभीष्ट लाभ प्रदान कर उसे संतुष्ट करेगी। 

गले की चेन या लॉकेट में पहने गए यंत्र ज्यादा प्रभावशाली रहते हैं। क्योंकि उनमें पवित्रता स्थायी रूप से बनी रहती है। भोजपत्र पर अष्टगंध से श्रीयंत्र बनाकर यदि बटुए में रखा जाए तो बटुआ रुपयों से भरा रहता है। धन की बरकत होती है। 
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यह हैं श्रीयंत्र स्थापन पूजन विधान—


इस यंत्र को पूजा स्थान के अलावा अपनी अलमारी में भी रखा जा सकता है, फैक्टरी या कारखाने अथवा किसी महत्वपूर्ण स्थान पर भी स्थापित किया जा सकता है। जिस दिन से यह स्थापित होता है, उसी दिन से साधक को इसका प्रभाव अनुभव होने लगता है।
श्रीयंत्र का पूजन विधान बहुत ही सरल और स्पष्ट है। स्नान, ध्यान शुद्ध पीले रंग के वस्त्र धारण कर, पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर पीले या सफेद आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट स्थापित कर उस पर लाल वस्त्र बिछा लें। गृहस्थ व्यक्तियों को श्रीयंत्र का पूजन पत्नी सहित करना सिद्धि प्रदायक बताया गया है। आप स्वयं अथवा पत्नी सहित जब श्रीयंत्र का पूजन सम्पन्न करें तो पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ही पूजन सम्पन्न करें।




साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर गुरु का ध्यान करें –




गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥




इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।


बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें।इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का ध्यान करें –




दिव्या परां सुधवलारुण चक्रयातां
मूलादिबिन्दु परिपूर्ण कलात्मकायाम।
स्थित्यात्मिका शरधनुः सुणिपासहस्ता
श्री चक्रतां परिणतां सततां नमामि॥




श्री यंत्र ध्यान के पश्चात् श्रीयंत्र प्रार्थना करनी चाहिए। यदि नित्य इस प्रार्थना का 108 बार उच्चारण किया जाए, तो अपने आप में अत्यन्त लाभप्रद देखा गया है –




धनं धान्यं धरां हर्म्यं कीर्तिर्मायुर्यशः श्रियम्।
तुरगान् दन्तिनः पुत्रान् महालक्ष्मीं प्रयच्छ मे॥




ध्यान-प्रार्थना के पश्चात् श्रीयंत्र पर पुष्प अर्पित करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करें –


ॐ मण्डूकाय नमः। ॐ कालाग्निरुद्राय नमः। ॐ मूलप्रकृत्यै नमः। ॐ आधारशक्तयै नमः। ॐ कूर्माय नमः। ॐ शेषाय नमः। ॐ वाराहाय नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ सुधाम्बुधये नमः। ॐ रत्नद्वीपाय नमः। ॐ भैरवे नमः। ॐ नन्दनवनाय नमः। ॐ कल्पवृक्षाय नमः। ॐ विचित्रानन्दभूम्यै नमः। ॐ रत्नमन्दिराय नमः। ॐ रत्नवेदिकायै नमः। ॐ धर्मवारणाय नमः। ॐ रत्न सिंहासनाय नमः।




कमलगट्टे की माला से लक्ष्मी बीज मंत्र की एक माला मंत्र जप करें।


लक्ष्मी बीज मंत्र—-


ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः॥


सबसे प्रभावपूर्ण एवं सर्वाधिक लाभप्रद लक्ष्मी बीज मंत्र है, जिसका प्रयोग मैंने अपने जीवन में किया है और जिन व्यक्तियों को भी मैंने इस बीज मंत्र के बारे में बताया है, उन्हें भी यह लक्ष्मी बीज मंत्र विशेष अनुकूल रहा है।


लक्ष्मी से सम्बन्धित ग्रंथों के अनुसार यदि मंत्रसिद्ध श्रीयंत्र के सामने ‘ कमलगट्टे की माला ’ से नित्य लक्ष्मी बीज मंत्र का एक माला मंत्र जप किया जाए, तो आश्चर्यजनक प्रभाव देखने को मिलता है।
मंत्र जप के पश्चात् साधक लक्ष्मी आरती सम्पन्न कर, अपनी मनोकामना प्रकट करें।


वस्तुतः आर्थिक उन्नति तथा भौतिक सुख-सम्पदा के लिए तो श्रीयंत्र से बढ़ कर कोई यंत्र संसार में है ही नहीं। वास्तव में वह घर दुर्भाग्यशाली है, जिस घर में श्रीयंत्र स्थापित नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं, कि श्री यंत्र में स्वतः ही कई सिद्धियों का वास है। श्रीयंत्र जिस घर में स्थापित कर इसकी पूजा की जाती है, तो उस घर में भौतिक दृष्टि से किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहता। आर्थिक उन्नति तथा व्यापारिक सफलता के लिए तो यह यंत्र बेजोड़ है।


इसके अतिरिक्त ॠण मुक्ति, रोग निवृत्ति, स्वास्थ्य लाभ, पारिवारिक प्रसन्नता और आर्थिक सफलता प्राप्ति के लिए यह यंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त प्रामाणिक श्रीयंत्र को घर में स्थापित कर देना ही पर्याप्त है, क्योंकि मात्र स्थापित करने से ही यह असीम सफलता देने में सहायक बन जाता है।
वस्तुतः श्री यंत्र पर जितना भी लिखा जाए, कम है। भौतिक और आर्थिक उन्नति के लिए इससे बढ़ कर कोई अन्य यंत्र या साधन नहीं है।


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श्रीयंत्रों में विशेष – पारद श्रीयंत्र


पारद श्रीयंत्र तो अपने आप में ही भव्य और अद्वितीय माना जाता है, इसलिए कि इसका प्रभाव तुरंत और अचूक होता है, इसलिए कि जिस घर में भी पारद श्रीयंत्र होता है, उस घर में गरीबी रह ही नहीं सकती, जिस घर में पारद श्रीयंत्र स्थापित होता है, उसके घर में ॠण की समस्या संभव ही नहीं है, जिस घर में अपनी भव्यता के साथ पारद श्रीयंत्र स्थापित है, उसके घर में आठों लक्ष्मियां अपने सम्पूर्ण वेग के साथ आबद्ध रहती ही हैं।


पारद भगवान शिव का विग्रह कहलाता है, समस्त देवताओं का पुंजीभूत स्वरूप पारे को माना गया है, और लक्ष्मी ने स्वयं स्वीकार किया है, कि ‘‘पारद ही मैं हूं और मेरा ही दूसरा स्वरूप पारद है। ’’
जब पारद श्रीयंत्र को स्थापित करते हैं, तो यह अपने आप में ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि बन सकती है, यदि हम विधि-विधान के साथ पारद श्रीयंत्र को धन त्रयोदशी के दिन अपने घर में, दुकान में, कार्यालय में या व्यापारिक प्रतिष्ठान में स्थापित करते हैं, तो यह अपने आप में श्रेष्ठता, भव्यता और पूर्णता की ही उपलब्धि है।
लक्ष्मी सूक्त के अनुसार इस पारद श्रीयंत्र को अपने घर में स्थापित कर इसके दर्शन करें, और श्रद्धा के साथ इसको अपने घर में स्थापित करें, तो निश्चय ही यह आपके लिए इस वर्ष की महत्वपूर्ण घटना मानी जाएगी।
श्रीयंत्र, विशेषकर पारद श्रीयंत्र के माध्यम से तो आठों प्रकार की लक्ष्मियां पूर्ण रूप से आबद्ध होकर, उसे स्थापित करने वाले व्यक्ति के घर अपना प्रभाव देती ही हैं, संतान लक्ष्मी, व्यापार लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, स्वास्थ्य लक्ष्मी, राज्य लक्ष्मी, वाहन लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी और आयु लक्ष्मी के साथ-साथ जीवन के अभाव, जीवन की दरिद्रता और जीवन के कष्ट दूर करने में इस प्रकार का श्रीयंत्र अपने आप में ही अनुकूलता और भव्यता प्रदान करता है।


‘ श्रीसूक्त ’ के अनुसार जिसके भी घर में पारद श्रीयंत्र स्थापित होता है, स्वतः ही वहां पर लक्ष्मी का स्थायी वास होता है, जिसके भी घर में पारद श्रीयंत्र होता है, अपने आप में वह व्यक्ति रोग-रहित एवं ॠण-मुक्त होकर जीवन में आनन्द एवं पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम हो पाता है।
श्रीयंत्र कई प्रकारों में मिलता है, चन्दन पर अंकित श्रीयंत्र सफेद आक पर अंकित श्रीयंत्र, ताम्र पत्र पर अंकित श्रीयंत्र, पारद निर्मित श्रीयंत्र और यदि गणना की जाए तो लगभग 108 तरीकों से श्रीयंत्र अंकित किए जाते हैं, सबका अलग-अलग महत्व है, अलग-अलग विधान है।
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सामान्य तय यंत्रों को यद्यपि मंत्रों से अलग माना जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यंत्र यदि शिवरूप हैं तो मंत्र उनकी अंतर्निहित शक्ति है जो डन्हें संचालित करती है और जीवन के सभी साध्यों की प्राप्ति का साधन बनती है। इस लेख में यंत्र में अंकित विभिन्न रूपाकारों की दार्शनिकता एवं रहस्यों के वैज्ञानिक आधार का निरूपण और रहस्योद्घाटन किया गया है।


यंत्र एक प्रकार से सुरक्षा कवच है और यह सही नक्षत्र और तिथि में कागज पर, भोजपत्र पर या तांबे पर बनाया जाता है जो ग्रह मारक या बाधक हो उस ग्रह की पूजा यंत्र द्वारा करें। युद्ध दशा-अंतर्दशा प्रत्यंतर्दशा में यंत्र लाभदायक होते हैं। यंत्र को मंत्र का रूप माना जाता है। यंत्र-रचना मात्र रेखांकन नहीं है बल्कि उसमें वैज्ञानिक तथ्य भी है। कुछ यंत्र रेखा प्रधान होते हैं, कुछ आकृति प्रधान और कुछ संख्या प्रधान होते है। कुछ यंत्रों में बीजाक्षरों का प्रयोग होता है। बीजाक्षर एक संपूर्ण यंत्र होता है। हर ग्रह का यंत्र अलग होता है। यह यंत्र केवल दीपावली, होली या ग्रहणकाल में ही बनाकर सिद्ध किया जा सकता है यदि स्वयं निर्माण कर सकते हैं तो ठीक, नहीं तो किसी विद्वान से इन्हें बनवा सकते हैं।
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जानिए की यंत्र किस सिद्धांत पर कार्य करते हैं?


तंत्र के अनुसार यंत्र मे चमत्कारिक दिव्य शक्तियों का निवास होता है लेकिन श्री यंत्र बिना सिद्ध किए नहीं रखना चाहिए। यंत्र सामान्यतः ताम्रपत्र पर बनाए जाते हैं। इसके अलावा यंत्रों को तांबे, चांदी, सोने और स्फटिक में भी बनाया जाता है। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगे उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। कुछ यंत्र भोज-पत्र पर भी बनाए जाते हैं। 
यंत्र देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करने के लिए यंत्र-साधना को सबसे सरल विधि माना जाता है। तंत्र के अनुसार यंत्र मंे चमत्कारिक दिव्य शक्तियों का निवास होता है। यंत्र सामान्यतः ताम्रपत्र पर बनाए जाते हैं। इसके अलावा यंत्रों को तांबे, चांदी, सोने और स्फटिक में भी बनाया जाता है। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगे उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। कुछ यंत्र भोज-पत्र पर भी बनाए जाते हैं। यंत्र मुख्यतः तीन सिद्धांतों का संयुक्त रूप हैं- आकृति रूप, क्रिया रूप, शक्ति रूप ऐसी मान्यता है कि वे ब्रह्मांड के आंतरिक धरातल पर उपस्थित आकार व आकृति का प्रतिरूप हैं। जैसा कि सभी पदार्थों का बाहरी स्वरूप कैसा भी हो, उसका मूल अणुओं का परस्पर संयुक्त रूप ही हैं। इस प्रकार यंत्र में, विश्व की समस्त रचनाएं समाहित हैं। यंत्र को विश्व-विशेष को दर्शाने वाली आकृति कहा जा सता हैं। ये सामान्य आकृतियां ब्रह्ममांड से नक्षत्र का अपनी एक विशेष आकृति रूप-यंत्र होता हैं। यंत्रों की प्रारंभिक आकृतियां मनोवैज्ञानिक चिन्ह हैं जो मानव की आंतरिक स्थिति के अनुरूप उसे अच्छे बुरे का ज्ञान, उसमें वृद्धि या नियंत्रण को संभव बनाती हैं। इसी कारण यंत्र क्रिया रूप हैं। ‘‘यंत्र’’ की निरंतर निष्ठापूर्वक पूजा करने से ‘आंतरिक सुषुप्तावस्था समाप्त होकर आत्मशक्ति जाग्रत होती हैं और आकृति और क्रिया से आगे जाकर ‘‘शक्ति रूप उत्पन्न होता हैं। जिससे स्वतः उत्पन्न आंतरिक परिवर्तन का मानसिक अनुभव होने लगता हैं। इस स्थिति पर आकर सभी रहस्य खुल जाते हैं।


यंत्र विविध प्रकार में उपलब्ध होते हैं कूर्मपृष्ठीय यंत्र, धरापृष्ठीय यंत्र, मेरुपृष्ठीय यंत्र, मत्स्ययंत्र, मातंगी यंत्र, नवनिधि यंत्र, वाराह यंत्र इत्यादि यह यंत्र स्वर्ण, चांदी तथा तांबे के अतिरिक्त स्फटिक एवं पारे के भी होते हैं. सबसे अच्छा यंत्र स्फटिक का कहा जाता है यह मणि के समान होता है. भक्त, संत, तांत्रिक संन्यासी सभी इस यंत्र की प्रमुखता को दर्शाते हें तथा इन्हें पूजनीय मानते हैं.

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यंत्रों में मंत्रों के साथ दिव्य अलौकिक शक्तियां समाहित होती हैं. इन यंत्रों को उनके स्थान अनुरूप पूजा स्थान, कार्यालय, दुकान, शिक्षास्थल इत्यादि में रखा जा सकता है. यंत्र को रखने एवं उसकी पूजा करने से धन-धान्य में वृद्धि होती है और सफलता प्राप्त होती है. श्रीयंत्र विभिन्न आकार के बनाए जाते हैं जैसे अंगूठी, सिक्के, लॉकेट या ताबीज रुप इत्यादि में देखे जा सकते हैं.



यंत्र शास्त्र के अतंर्गत कई ऐसे दुर्लभ यंत्रों का वर्णन है जिनका विधि-विधान से पूजन करने से अभिष्ट फल की सिद्धि होती है, यंत्र की चल या अचल दोनों तरह से प्रतिष्ठा की जा सकती है यह यंत्र धन प्राप्ति, शत्रु बाधा निवारण, मृत्यंजय जैसे कार्यों लिए रामबाण प्रयोग होते हैं. अपने आप में अचूक, स्वयं सिद्ध, ऐश्वर्य प्रदान करने में सर्वथा समर्थ यह यंत्र जीवन को सुख व सौम्यता से भर देता है.



यद्यपि यंत्र का स्थूल अर्थ समझना सरल हैं। परंतु इसका आंतरिक अर्थ समझना सरल नहीं, क्योंकि मूलतः श्रद्धापूर्वक किये गए प्रयासों के आत्मिक अनुभव से ही इसे जाना जा सकता हैं। यंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा पंचगव्य, पंचामृत एवं गंगाजल से पवित्र करके संबंधित मंत्र से की जाती हैं। बिना प्राण-प्रतिष्ठा के यंत्र को पूजा स्थल पर नहीं रखा जाता। ऐसा करने से नकारात्मक किरणों के प्रभाव से हानि होने की संभावना रहती हैं। पूजा हेतु मार्गदर्शन, अनेक प्रकार के यंत्रों को एक बार प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात् नियमित पूजा की आवश्यकता नहीं होती और वे जीवन पर्यंत रखे जा सकते हैं। यंत्रों पर आधारित कुछ विशेष मंदिर यंत्रों की अदभुत महिमा को देखते हुए, यहां प्राचीन काल से ही यंत्रों पर आधारित मंदिरों का निर्माण किया जाता रहा हैं। 



यह भी मान्यता रही है कि जो मंदिर यंत्र आधारित होते हैं, वे अपना विशेष धार्मिक महत्व रखते हैं। 
ऐसे ही कुछ मंदिरों की संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास–


01 .- श्री यंत्र मंदिर:—- यह श्री यंत्र मंदिर हरिद्वार के कनखल नामक स्थान का विशेष मंदिर हैं। यह मंदिर अपने आप में अदभुत कला का आदर्श नमूना हैं। इस मंदिर में विशेष रूप से त्रिपुर सुंदरी की पूजा की जाती हैं। इसकी इस्थापना मेरे दीक्षा गुरु परम पूजनीय ब्रह्मलीन स्वामी विशदेवनंद जी द्वारा कुम्भ 2010  में संपन्न हुयी थी | इस मंदिर में माँ त्रिपुरा सुंदरी की बहुत दिव्य प्रतिमा विराजित हैं |


02.– आयल का मेंढक मंदिर भारत का एकमात्र मेंढक मंदिर हैं। यह मंदिर उत्तरप्रदेश में लखनऊ के आॅयल कस्बे में हैं। मेंढक मंदिर देश में अपने ढंग का अकेला और अनोखा मंदिर हैं। इसका निर्माण राज्य को सूखे व बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाने के उद्देश्य से किया गया था। मंडूक यंत्र पर आधारित यह मंदिर ग्यारहवीं शती के शासकों के द्वारा किया गया था। इसकी रचना तंत्रवाद पर आधारित हैं। इसकी परिकल्पना एक प्रसिद्ध तांत्रिक ने की थी।

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यंत्रों की उपयोगिता यंत्र देवशक्तियों के प्रतिक हैं। जो व्यक्ति मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकते, उनके लिए पूजा में यंत्र रखने से ही मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। प्रत्येक यंत्र का अपना अलग महत्व है। कई यंत्र हमें सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। प्राचीन काल से ही, भारतीय संस्कृति में सुख-समृद्धि, दीर्घजीवन, एवं अच्छे स्वास्थ्य के लिए, यंत्र, तंत्र-मंत्र का महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं। विभिन्न प्रकार की आध्यात्मिक महत्व की आकृतियों यंत्र के रूप में, सोने, चांदी, तांबा, अष्टधातु अथवा भोज पत्र पर विभिन्न शक्तियों को जाग्रत करने के लिए बनाई जाती हैं।
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मनुष्य अपनी जिज्ञासु प्रवृति के कारण प्रकृति एवं ब्रह्मांड के रहस्यों के बारे में जानने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। यह भी सर्वमान्य एवं सर्वविदित है कि ब्रह्मांड में स्थित समस्त चर अचर जगत में आपसी संबंध है तथा समस्त ब्रह्मांड एक लयबद्ध तरीके से निश्चित नियमों के आधार पर कार्य करता है। भारतीय वैदिक शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मांड की समस्त क्रियायें ब्रह्ममांड में स्थित विभिन्न शक्तियों द्वारा संचालित की जाती है। चूंकि मनुष्य भी इसी ब्रह्मांड का एक प्रमुख भाग है अतः मानव जीवन भी बहुत हद तक इन्ही शक्तियों द्वारा नियंत्रित एवं संचालित किया जाता है। ये शक्तियां मनुष्यों के जीवन को उनके कर्मों के अनुसार नियंत्रित एवं निर्देशित करती है। अतः मानव जीवन के संचालन में इन शक्तियों की अहम भूमिका होती है। भारतीय वैदिक साहित्य में ऐसी अनेक विधियों का वर्णन मिलता है जिसके माध्यम से इन शक्तियों का आवाहन किया जा सकता है तथा इनकी कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।

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यह हैं यंत्रों के संक्षिप्त शब्द व अंक—-


यंत्रों के संक्षिप्त शब्द एवं अंक वास्तव में देवी और देवता होते हैं जैसे कि विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि भ्2व् का अर्थ है अर्थात पानी जबकि सामान्यजन नहीं जान पाते हैं इसी प्रकार यंत्रों में उल्लिखित शब्द ह्रीं, क्रीं, श्रीं और क्लीं का क्या अर्थ है एक ज्योतिषी या तांत्रिक ही जान सकता है यह सब देवी के संक्षिप्त नाम हैं जैसे ह्रीं का अर्थ बगलामुखी देवी, क्रीं का अर्थ महाकाली से, श्रीं का अर्थ महालक्ष्मी से, क्लीं का अर्थ भगवती दुर्गा से है।


इसी प्रकार से यंत्रों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले चिह्न बिंदु का अर्थ ब्रह्म से, त्रिकोण का अर्थ है शिव एवं भूपूर का अर्थ भगवती से होता है।
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यंत्रों में श्रद्धा एवं विश्वास का प्रभाव :—-


यंत्र तभी अपना कार्य करते हैं जब इनको निर्माण करने वाला साधक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ पूर्ण मनोयोग एवं पवित्रता के साथ तथा नियमों की जानकारी प्राप्त करके करता है। यदि यंत्र के निर्माण में संदेह होगा तो यंत्र मृत हो जायेगा। इसी के साथ यंत्रों के निर्माण में उपरोक्त बातों एवं अन्य नियमों का ध्यान रखना चाहिए अन्यथा यंत्र निर्माण करने वाले को हानि भी पहुंचा देते हैं। यंत्र ऊर्जा विज्ञान का एक शक्तिशाली माध्यम है। यंत्र विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए निर्मित किये जाते हैं।


इनका वर्गीकरण होता है परंतु उनका शास्त्रानुसार प्रयोग, कोई विषम स्थिति न हो तो, अच्छे कार्यों में ही करना चाहिए जिनका विवरण निम्न प्रकार है- शांतिकर्म यंत्र: यह वह यंत्र होते हैं जिनका उद्देश्य कल्याणकारी और शक्तिप्रद कार्यों के लिए किया जाता है। इससे किसी का अहित नहीं किया जा सकता है। इनका मूल प्रयोग रोग निवारण, ग्रह-पीड़ा से मुक्ति, दुःख, गरीबी के नाश हेतु, रोजगार आदि प्राप्त करने में किया जाता है जैसे श्रीयंत्र।


स्तंभन यंत्र:—– आग, हवा, पानी, वाहन, व्यक्ति, पशुओं आदि से होने वाली हानि को रोकने के लिए इस प्रकार के यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग करने से उपरोक्त कारणों से आई हुई विपदाओं का स्तंभन किया जाता है अर्थात उन पर रोक लगाई जाती है।


सम्मोहन यंत्र:—–
ये यंत्र वह होते हैं जिनसे किसी वस्तु या मनुष्य को सम्मोहित किया जाता है। उच्चाटन यंत्र: ये यंत्र वह होते हैं जिनसे प्राणी में मानसिक अस्थिरता, भय, भ्रम, शंका और कार्य से विरत रहने का कार्य लिया जाता है। इन यंत्रों का प्रयोग वर्जित माना जाता है।


वशीकरण हेतु यंत्र:—-
इन यंत्रों के द्वारा प्राणियों, प्रकृति में उपस्थित तत्वों का वशीकरण किया जाता है। इनके प्रयोग से संबंधित व्यक्ति धारण करने वाले के निर्देशों, आदेशों का पालन करते हुए उसके अनुसार आचरण करने लगता है।


आकर्षण हेतु यंत्र:—–
सम्मोहन, वशीकरण, इस यंत्र में बहुत मामूली-सा अंतर है। सामान्यतः ये तीनों एक ही यंत्र हैं पर आकर्षण यंत्र के प्रयोग से दूरस्थ प्राणी को आकर्षित कर अपने पास बुलाया जाता है।


जुम्मन हेतु यंत्र:—-
इस यंत्र के प्रयोग से इच्छित कार्य हेतु संबंधित व्यक्ति को आज्ञानुसार कार्य करने के लिए विवश किया जाता है। इसके प्रभाव में आने से व्यक्ति अपना अस्तित्व भूलकर साधक की आज्ञानुसार कार्य करने लगता है। वास्तव में इसके द्वारा प्राणी में दासत्व की भावना पैदा करके उससे कार्य लिया जाता है।


विद्वेषण यंत्र:—-


इन यंत्रों के माध्यम से प्राणियों में फूट पैदा करना, अलगाव कराना, शत्रुता आदि कराना होता है। इससे प्राणी की एकता, सुख, शक्ति, भक्ति को नष्ट करना होता है।


मारणकर्म हेतु यंत्र:—–
इन यंत्रों के द्वारा अभीष्ट प्राणी, पशु-पक्षी आदि की मृत्यु का कार्य लिया जाता है। इसके प्रयोग से संबंधित मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में यह हत्याकर्म है। इन यंत्रों का प्रयोग सपने में भी नहीं करना चाहिए। यह सबसे घृणित यंत्र है।


पौष्टिक कर्म हेतु यंत्र:—-


किसी का भी अहित किये बिना साधक अपने सिद्ध यंत्रों से अन्य व्यक्तियों के लिए धन-धान्य, सुख सौभाग्य, यश, कीर्ति और मान-सम्मान की वृद्धि हेतु प्रयोग करता है, उन्हें पौष्टिक कर्म यंत्र कहते हैं।
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प्रत्येक यंत्र हर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उसका पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए जातक की जन्मकुंडली में निर्बल योग कारक ग्रह की खोज करके यदि संबंधित यंत्र का प्रयोग करें तो अवश्य ही यथेष्ट लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस लेख में सभी ग्रहों से संबंधित पृथक-पृथक यंत्र और रोग निवारक तेल बनाने की विधि के बारे में बताया गया है। कुंडली में लग्न और चंद्रमा की स्थिति से उपायों की जानकारी मिलती है। ग्रह यदि अग्नि तत्व राशि में है तो यज्ञ, व्रत आदि से लाभ मिलता है।


हिंदु संस्कृति में मंदिर जो कि देवी-देवताओं के पूजा स्थल होते हैं, इनका निर्माण वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है। मंदिरों के स्थान का चयन, मूर्ति स्थापना मंदिरों के उपर स्थित गुंबद एवं ध्वजा आदि सभी का निर्माण वास्तु शास्त्र के नियमों के अनुसार किया जाता है जिससे वहां पर अधिक से अधिक आध्यात्मिक एवं दैवीय कृपा आ सके। हिंदु संस्कृति में देवी देवताओं को आवाहन करने के अनेक तरीके बताए गये हैं। पूजा करते समय बैठने का ढंग ईश्वर के सामने दंडवत, नतमस्तक होना एक स्थान पर ध्यान केंद्रित करना श्वास प्रक्रिया आत्म नियंत्रण आदि ईश्वर की आराधना के मूलभूत तरीके हैं। इनके माध्यम से मनुष्य ईश्वर के समक्ष स्वयं के शरीर एवं मन को पूर्ण रूप से समर्पित करता है। यह कहना अत्यंत सरल है। परंतु इसका पालन करना कठिन होता है। सही अर्थो में देखा जाए तो शरीर एवं मन का ईश्वर को पूर्णतः समर्पण सबसे बड़ा साधन कहा जा सकता है। यदि हम इसमें सफल हो जाते हैं तो दैवीय शक्तियों की कृपा पात्र अवश्य बनते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार कोई भी पूजा एवं अर्चना तब तक पूरा फल नहीं देती है जब तक कि आराधक या याचक इसे पूर्ण शुद्धि एवं गहनता से नही करे तथा अपने आप को ईश्वर के चरणों में पूर्णतः समर्पित न करे। क्योंकि जरा भी अहंकार साधक की संपूर्ण शक्ति का क्षय कर देता है। यह समस्त ब्रह्मांड शिव एवं शक्ति के सहयोग से संचालित होता है।
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शिव का अर्थ संक्षेप में ब्रह्मांड में स्थित ऊर्जा से है जिसका कोई स्वरूप नही है। जबकि प्रकृति साक्षात शक्ति है तथा ब्रह्मांड में स्थित ऊर्जा को स्वरूप प्रकृति में स्थित पांच तत्वों के सहयोग से ही मिल पाता है। इन दोनों में से एक भी अभाव में साकार संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। शिव के बिना शक्ति बलहीन है तथा शक्ति के बिना निर्गुण, निराकार शिव स्वरूप हीन व आकार हीन है। अतः यह संसार शिव एवं शक्ति दोनों के सहयोग से ही संचालित होता है। मानव शरीर इसी ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप कहा जा सकता है तथा यह भी शिव (आत्मा) एवं शक्ति के संयोग से ही संचालित होता है। इस प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा शिव द्वारा नियंत्रित होती है जबकि मानव शरीर एवं मष्तिष्क प्रकृति जिसको कि महामाया भी कहा जाता है द्वारा संचालित होते है। इस प्रक्रिया में शिव रूप अनेक बार गौण हो जाता है तथा मस्तिष्क एवं शरीर का वर्चस्व हो जाता है जिससे आत्मा को कर्म बंधन में बंधकर जन्म-मरण की प्रक्रिया से बार-बार गुजरना पड़ता है तथा अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। अतः मानव जीवन के संतुलित रूप से संचालन हेतु शिव एवं शक्ति में संतुलन होना आवश्यक होता है। मानव जीवन में स्थित इस असंतुलन को दूर करने के लिये तथा इनमें आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिये भारतीय वेदों एवं पुराणों में अनेक विधियों का उल्लेख किया है। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र उनमें से प्रमुख है। मंत्र: भारतीय वैदिक साहित्य में हिंदी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को एक मंत्र की संज्ञा दी गई है। वही नाद ब्रह्म है। प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर होंगे। इसका चयन मंत्र के फल के अनुसार किया गया है। मंत्र में स्थित अक्षरों की संख्या क े अनसु ार मत्रं क े फल म ंे परिवतर्न हाते ा है। उदाहरणार्थ ऊँ नमः शिवाय में 6 अक्षर ह ंै इसलिय े इस े षडाक्षरी मत्रं कहते हैं। इसमें यदि ऊँ न प्रयुक्त किया जाये एवं केवल नमः शिवाय उच्चारित किया जाये तो यह पंचाक्षरी मंत्र बन जाता है। इसी प्रकार ऊँ नमो नारायणाय अष्टाक्षरी मंत्र कहलाता है तथा ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय द्वादशाक्षरी मंत्र कहलाता है। इस प्रकार मंत्रों का उचित चयन करके विभिन्न दैविय शक्तितयों का आवाहन किया जाता है तथा विभिनन उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र इन माध्यमों को अपनाकर दैवीय शक्तियों का आवाहन किया जाता है एवं उनसे प्रार्थना, याचना की जाती है जिससे कि वे मनुष्य के भौतिक, आध्यात्मिक विकास में संतुलन स्थापित कर सकें तथा मानव जीवन को सुखी बना सकें।


यंत्र, मंत्र एवं तंत्र शास्त्र को एक पूर्ण विकसित आध्यात्मिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। जिसका उद्ेश्य शरीर, मन एवं आत्मा के विकास में एक संतुलन स्थापित करना तथा मनुष्य का भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास करना है। यदि मंत्रों को वैदिक रीति से पूर्ण शुद्धता एवं श्रद्धा के साथ उच्चारित किया जाता है तो इनके उच्चारण से निकलने वाली तरंगे उस दैवीय शक्ति के तरंगों से संपर्क स्थापित कर सकती है जिसको प्रसन्न करने के लिये ये मंत्र उच्चारित किये जाते हैं। हमारे ऋषियों को इन तरंगों की जानकारी थी तथा उन्होंने मंत्रों के माध्यम से इन तरंगों का उपयोग मनुष्य की आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक शान्ति के लिये किया। मंत्रों का यदि विधिवत रूप से उच्चारण किया जाए तो इनसे निकलने वाली तरंगे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाती है और मानव शरीर से निकलने वाली तरंगे संबंधित दैवीय तरंगों के संपर्क में आकर मानव मस्तिष्क एवं शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। तथा शब्दों के क्रम का विपर्याय होने पर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। यंत्रों को सक्रिय एव शक्तिपूर्ण बनाने की क्षमता भी मंत्रों में ही हैं। उसके बिना यंत्र आकार मात्र रह जाऐंगे। यंत्र: मंत्रों की एक रेखाचित्र के माध्यम से अभिव्यक्ति को यंत्र कहते हैं। जिस प्रकार मानव शरीर विशालकाय ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप है। उसी प्रकार विशालकाय ब्रह्मांड को सूक्ष्म रूप में अभिव्यक्त करने के लिये ये यंत्र बनाये जाते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि मंत्रों एवं यंत्रों का आविष्कार किसने किया है यह कहना बहुत कठिन है क्योंकि इसका कहीं पर भी उल्लेख नहीं मिलता है। चूंकि इन यंत्रो का उल्लेख वेदों एवं पुराणों में मिलता है और वेदों के बारे में कहा जाता हैं कि वे अपौरूपेय है इसलिए उनमें मंत्रों के रचयिताओं का इतिहास और जीवनवृत न होकर जीवन दर्शन और रहस्य सूत्र रूप में ही निरूपित हुआ है। जो कि भाषा और शब्दों की श्लेष शक्ति का पूर्ण समावेश है। अतः यंत्र एवं मंत्रों का रचना भी दैविय शक्तियों द्वारा ही की गई है। इन मंत्रों का रहस्योदघाटन हमारे ऋषि एवं मुनियों ने किया है। जिससे आम आदमी इनका लाभ उठा सके।


यंत्र विशिष्ट देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली ऐसी आकृतियां होती हैं जो आकृति, क्रिया तथा शक्ति नामक तीन सिद्धांतों के आधार पर संयुक्त रूप से कार्य करती है। परंतु इन यंत्रों की आकृति निष्ठापूर्वक और विधि-विधान से की गई पूजा एवं प्राण प्रतिष्ठा से ही जागृत होती है। बिना प्राण-प्रतिष्ठा के यंत्र को पूजा स्थल पर भी नहीं रखा जाता है क्योंकि ऐसा करने से सकारात्मक प्रभाव के स्थान पर नकारात्मक प्रभाव होने लगते हैं। शास्त्रों में यंत्रों को देवी-देवताओं का निवास स्थान माना गया है।


जब यंत्रों का निर्माण और प्राण-प्रतिष्ठा शास्त्रोक्त विधि द्वारा की गई हो और साधक पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के साथ उनकी आराधना करता हो तो यंत्र-साधना करने वालों को सुख-ऐश्वर्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। यंत्र क्या है? इसमें कितनी दिव्य शक्ति विद्यमान है? भिन्न प्रकार के यंत्रों की रेखाएं, बीजाक्षर और बीजांक दिव्य शक्तियों से प्रभावित होते हैं। रेखाओं की आकृति, क्रम व अंकों और अक्षरों के आधार पर ही यंत्र को कोई विशिष्ट नाम दिया जाता है। इसमें अंकित अंक और अक्षर देवता से संबंधित बीजांक शक्ति का प्रतीक होते हैं। यंत्र व मंत्र एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही अलौकिक हैं। अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण होने की वजह से ये इंसान की इच्छा-पूर्ति करने में समर्थ है। यंत्र-साधना में विश्वास और श्रद्धा के साथ-साथ साधना का सर्वांगीण ज्ञान भी आवश्यक है। तभी दिव्य यंत्रों का चमत्कार हम पा सकते हैं।


जिस प्रकार मंत्रों में ध्वनि तरंगों की आकृति का महत्व है, उसी प्रकार यंत्रों में बिंदु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त, चतुर्भुज इत्यादि का विशिष्ट महत्व होता है। तांत्रिक साधनाओं में यंत्र-साधना का बड़ा महत्व है। साधारण भाषा में यंत्र का तात्पर्य मशीन से होता है। जिस तरह देवी-देवताओं की मूर्ति पूजा की जाती है और उन मूर्तियों से लोगों की आस्था और श्रद्धा जुड़ी होती है, उसी तरह यंत्र भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। इनकी रचना ज्यामितीय होती है। यंत्र में सारी दैवीय शक्तियां सूक्ष्म रूप से विद्यमान होती है। यंत्र आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं। इसीलिए साधनाओं के माध्यम से इनमें जितनी शक्ति उत्पन्न की जाती है, यंत्र उतने ही चमत्कारी होते हैं।


यंत्रों में मुख्यतः 5 प्रकार की आकृतियों या रेखाचित्रों का प्रयोग किया जाता है। अर्थात बिंदु, वृत, त्रिकोण, वर्ग एवं षटकोण। बिंदु: बिंदु आकाश तत्व का द्योतक है। बिंदु प्रत्येक आकार का आधार एवं आरंभ इंगित करता है। दूसरे शब्दों में बिंदु के बिना किसी आकार का आरंभ व अंत निश्चित करना कठिन ही नहीं वरन् असंभव है। बिंदु के अंदर नैसर्गिक गतिशीलता होती है जिसके आधार पर यह प्रत्येक आकार एवं तत्व में अनुप्रविष्ठ ;च्मदमजतंजमद्ध होता है। बिंदु को आकाश की संज्ञा दी जाती है क्योंकि पृथ्वी पर स्थित समस्त चर अचर जगत का आरंभिक बिंदु या जड़ आकाश ही है। बिंदु एक प्रकार की शक्ति है जो कि ऊर्जा प्रवाहित करती है। ये बिंदु किसी भी यंत्र का केंद्र होती है। तंत्र शास्त्र में बिंदु को साक्षात शिव की संज्ञा दी गई है जो कि समस्त शक्तियों का स्रोत है। किसी भी यंत्र के मध्य में स्थित बिंदु विभिन्न रेखाचित्रों से घिरी रहती है ये रेखाचित्र विभिन्न दैवीय शक्तियों को दर्शाते हैं तथा बिंदु इनकी शक्ति के स्रोत के रूप में दिखाई जाती है। सरल रेखा: एक बिंदु को जब दूसरे बिंदुओं से मिलाते हैं तो सरल रेखा बनती है।


वस्तुतः रेखाएं बिंदु पथ ही है। ये दो बिंदु परमात्मा एक जीवात्मा, सुख-दुख, रात्री दिवस आदि को इंगित करते हैं। इस प्रकार सरल रेखा इंगित करता है कि जीवात्मा एवं परमात्मा, सुख दुख आदि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तथा इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में सरल रेखा यह इंगित करती है कि जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है। वृत्त: वृत की कल्पना करते ही एक चक्राकार आकृति आंखों के सामने उभर कर आती है। जब एक बिंदु के चारो ओर दूसरी बिदु को घुमाया जाए तो उसकी चक्राकार गति होती है। इस चक्राकार गति को प्राकृतिक जगत में घूर्णन क्रिया कहते हैं।


वायु सदैव चलायमान है अतः वृत वायु तत्व बन प्रतिनिधित्व करता है। त्रिकोण: त्रिकोण को वैदिक साहित्य में अत्यधिक महत्ता दी गई है। देखा जाए तो त्रिकोण वह पहला द्वि आयामी रेखाचित्र है जो कि एक स्थान को घेरता है।


उघ्र्व मुखी त्रिकोण —– अग्नि तत्व का बोध कराता है क्योंकि अग्नि की गति सदैव अघ्र्वमुखी होती है। यह त्रिकोण उन्नति एवं प्रगति का द्योतक है। वैदिक साहित्य में इसे शिव की संज्ञा दी जाती है। इसका ऊपर से संकरा तथा नीचे से फैला होना ये इंगित करता है कि जीवात्मा का जड़ आकाश में है तथा इसका विस्तार पृथ्वी पर होता है।


अधोमुखी त्रिकोण:—- जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। जल के बिना जीवन असंभव है। जल की गति अधोमुखी होती है। इसका नीचे से संकरा तथा ऊपर से फैला होना जीवात्मा का पांच तत्वो के माध्यम से पृथ्वी पर फैलाव एवं इसका सांसारिक जगत में बहुत गहरे तक उलझना इंगित करता है।



वर्ग:—- किसी भी यंत्र की बाहरी सीमा आम तौर पर वर्गाकार होती है तथा इसका आरंभ मध्य बिंदु से होता है। इस प्रकार प्रत्येक यंत्र ब्रह्मांड के विकास को सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत करता है जो कि आकाश से आरंभ होकर पृथ्वी पर पूर्ण विकसित होता है। वर्गाकार रेखाचित्र पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि विस्तार पृथ्वी का गुण है या दूसरे शब्दों में आकाश से आई ऊर्जा का विकास पृथ्वी पर ही होता है। अतः चतुर्भुज बिंदु का चारों दिशाओं में फैलाव पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। तांत्रिकों के क्षेत्र में सूर्य योग के द्वारा ही आकाशीय शक्ति में से भौतिक पदार्थों का सृजन किया जाता है।



षटकोण:— उध्र्वामुखी एवं अधोमुखी त्रिकोण से मिलकर बनने वाला षटकोण शिव एवं शक्ति दोनों के संयोग को प्रदर्शित करता है। इसके बिना संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इन षटकोणों के मध्य में स्थित खाली स्थानों को यंत्रों में शिव एवं शक्ति का क्रीडा स्थल माना जाता है। इसी कारण इन खाली स्थानों में विभिन्न अंक या मंत्र इस प्रकार लिखे जाते हैं जिससे कि इन दोनों की कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त किया जा सके। यंत्रों में उपर्युक्त आकृतियों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है तथा ब्रह्मांड के विशालकाय रूप को सूक्ष्म रूप में दर्शाया जाता है। इन आकृतियों का विभिन्न यंत्रों में विभिन्न शक्तियों के आवाहन लिए भिन्न-भिन्न रूप से प्रयोग किया गया है तथा इनमें प्रयुक्त किये जाने वाले मंत्रों एवं अंको का चयन भी संबंधित शक्ति के अनुसार ही किया गया है।



यह माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित यंत्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है तो उसका मष्तिष्क एवं शरीर उस यंत्र की आकार शक्ति से प्रभावित होता है और धीरे-धीरे व्यक्ति को संबंधित शक्तियों की कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त होने लगता है। इस प्रकार यंत्र एवं मंत्र ब्रह्मांड में स्थित विभिन्न शक्तियों तक पहुंचने का या उनका आवाहन करने का एक सशक्त माध्यम है।


यदि इन यंत्रों को विधिवत प्रकार से अभिमंत्रित करके इनकी पूजा अर्चना की जाए तथा इन पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये हमें संबंधित शक्तियों की कृपा का पात्र बन सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र में यंत्र, मंत्र एवं तंत्र के अतिरिक्त बहुत सी दुर्लभ सामग्रियों जैसे औषधि, रत्न, रंगो एवं पदार्थों का भी अत्यधिक महत्व है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित सभी तत्व परस्पर संबंधित है। अतः एक ग्रह द्वारा मनुष्य ही नहीं वरन ब्रह्मांड के अनेक दूसरे तत्व भी नियंत्रित होते हें। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में यदि किसी ग्रह से संबंधित किसी तत्व की मानव जीवन में कमी पाई जाती है तो उसे ;उनजनंस तमेवदंदबमद्ध परस्पर संबंध के इस सिद्धांत के आधार पर उस ग्रह से नियंत्रित अन्य तत्वों का प्रयोग करके पूरा करने का प्रयास किया जाता है।
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यंत्र विभिन्न आकृतियों का रेखा समूह मात्र होता है जबकि वास्तविकता यह है कि यंत्र का प्रत्येक आकार एक विशेष देवता और तत्व की शक्ति का प्रतीक होता है। जिसे एक निश्चित विधि-विधान के अंतर्गत मंत्रों द्वारा जागृत करके लक्ष्य सिद्धि हेतु प्रयोग किया जाता है। इन यंत्रों का वर्गीकरण उनके उद्देश्य और प्रयोजनों पर आधारित है जिसके बारे में सुविस्तृत जानकारी इस लेख में दी गयी है। सिद्धयंत्र जो आड़ी, तिरछी रेखाओं, बिंदुओं, अंकों, चतुर्भुजों, त्रिकोण आदि से पूरित होते हैं वास्तव में इन्हीं चिह्नों से संचालित होते हैं। इन यंत्रों को यही कल पुर्जे चलाते हैं।


भौतिक यंत्र की कार्य-संरचना दिखाई पड़ती है और उसको देखकर मनुष्य प्रभावित होता है जबकि यंत्र मनुष्य की जीवनशैली बदलकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। यंत्रों में बहुत शक्ति होती है। यह असंभव कार्य को भी संभव करके दिखाने की शक्ति रखते हैं। यंत्रों की शक्ति इनमें अंकित चिह्न एवं यंत्रों के द्वारा जागृत होती है। मंत्रों के कंपन से सृष्टि के सब पदार्थ बनते हैं और बिगड़ते हैं, यह विज्ञान भी कहता है। इस कारण से मंत्रों में शक्ति होती है। कालांतर में हमारे ऋषियों-मुनियों ने देखा कि दुष्ट लोग भी मंत्रों के माध्यम से घृणित कार्य कर लेते हैं तो इन्होंने इस मंत्र शक्ति को गुप्त रखने के लिए मंत्रों, रेखाओं, चिह्नों से पूरित कर यंत्रों की रचना की जिससे मंत्रों का दुरुपयोग न हो सके, वास्तव में यंत्र भी इलेक्ट्राॅनिक यंत्रों के जैसे सर्किट होते हैं जो देखने में आड़ी-तिरछी रेखाएं होती हैं परंतु उनका जानकार इंजीनियर उन्हीं के माध्यम से रेडियो, टी.वी., कम्प्यूटर आदि का प्रयोग कर लेता है और सामान्यजन को लाभ पहुंचा देता है।


यदि ग्रह पृथ्वी तत्व राशि (2, 6, 10) राशि में है तो रत्न, यंत्र आदि से लाभ मिलता है। ग्रह यदि वायु तत्व (3, 7, 11) राशि में है तो मंत्र जाप करने से लाभ मिलता है और ग्रह यदि जल तत्व (4, 8, 12) राशि में है तो वस्तुओं को पानी में बहाने से लाभ मिलता है। योग कारक ग्रह यदि निर्बल हो, तो यंत्र-धातु से उपचार करें, अशुभ और मारक ग्रहों का उपाय पूजा-पाठ-दान ग्रह की वस्तु को बहाकर करना चाहिए।
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जानिए कुछ बहुउपयोगी यंत्र को—-
(लेखक–रामेन्द्र सिंह जी भादिरिया,जयपुर )


श्री यंत्र—–
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यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचीन यन्त्र है,इसकी अधिष्टात्री देवी स्वयं श्रीविद्या अर्थात त्रिपुर सुन्दरी हैं,और उनके ही रूप में इस यन्त्र की मान्यता है। यह बेहद शक्तिशाली ललितादेवी का पूजा चक्र है,इसको त्रैलोक्य मोहन अर्थात तीनों लोकों का मोहन यन्त्र भी कहते है। यह सर्व रक्षाकर सर्वव्याधिनिवारक सर्वकष्टनाशक होने के कारण यह सर्वसिद्धिप्रद सर्वार्थ साधक सर्वसौभाग्यदायक माना जाता है। इसे गंगाजल और दूध से स्वच्छ करने के बाद पूजा स्थान या व्यापारिक स्थान तथा अन्य शुद्ध स्थान पर रखा जाता है। इसकी पूजा पूरब की तरफ़ मुंह करके की जाती है,श्रीयंत्र का सीधा मतलब है,लक्ष्मी यंत्र जो धनागम के लिये जरूरी है। इसके मध्य भाग में बिन्दु व छोटे बडे मुख्य नौ त्रिकोण से बने ४३ त्रिकोण दो कमल दल भूपुर एक चतुरस ४३ कोणों से निर्मित उन्नत श्रंग के सद्रश्य मेरु प्रुष्ठीय श्रीयंत्र अलौकिक शक्ति व चमत्कारों से परिपूर्ण गुप्त शक्तियों का प्रजनन केन्द्र बिद्नु कहा गया है। जिस प्रकार से सब कवचों से चन्डी कवच सर्वश्रेष्ठ कहा गया है,उसी प्रकार से सभी देवी देवताओं के यंत्रों में श्रीदेवी का यंत्र सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसी कारण से इसे यंत्रराज की उपाधि दी गयी है। इसे यन्त्रशिरोमणि भी कहा जाता है। दीपावली धनतेरस बसन्त पंचमी अथवा पौष मास की संक्रान्ति के दिन यदि रविवार हो तो इस यंत्र का निर्माण व पूजन विशेष फ़लदायी माना गया है,ऐसा मेरा विश्वास है।


श्री महालक्ष्मी यंत्र——-
श्री महालक्षमी यंत्र की अधिष्ठात्री देवी कमला हैं,अर्थात इस यंत्र का पूजन करते समय श्वेत हाथियों के द्वारा स्वर्ण कलश से स्नान करती हुयी कमलासन पर बैठी लक्ष्मी का ध्यान करना चाहिये,विद्वानों के अनुसार इस यंत्र के नित्य दर्शन व पूजन से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इस यंत्र की पूजा वेदोक्त न होकर पुराणोक्त है इसमे बिन्दु षटकोण वृत अष्टदल एवं भूपुर की संरचना की गयी है,धनतेरस दीवावली बसन्त पंचमी रविपुष्य एवं इसी प्रकार के शुभ योगों में इसकी उपासना का महत्व है,स्वर्ण रजत ताम्र से निर्मित इस यन्त्र की उपासना से घर व स्थान विशेष में लक्ष्मी का स्थाई निवास माना जाता है।इस यंत्र की संरचना विचित्र है, यंत्रों में जो भी अंक लिखे होते हैं या जो भी आकृतियां निर्मित होती हैं वह देवी देवताओं की प्रतीक होती हैं. यंत्र-शक्ति द्वारा वातावरण में सकारात्मक उर्जा क अप्रवाह होत है. श्री यंत्र को पास रखने से शुभ कार्य सम्पन्न होते रहते हैं. श्रीयंत्र को सर्व सिद्धिदाता, धनदाता या श्रीदाता कहा गया है. इसे सिद्ध या अभिमंत्रित करने के लिए लक्ष्मी जी का मंत्र अति प्रभावशाली माना जाता है मंत्र जप के लिए कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए.पौराणिक कथा के अनुसार एक बार लक्ष्मी जी पृथ्वी से बैकुंठ धाम चली जाती हैं, इससे पृथ्वी पर संकट आ जाता है तब प्राणियों के कल्याण हेतु वशिष्ठ जी लक्ष्मी को वापस लाने का प्रयास करते हैं. पृथ्वी पर ‘‘श्रीयंत्र’’ की साधना करते हैं श्रीयंत्र को स्थापित कर, प्राण-प्रतिष्ठा एवं पूजा करते हैं उनकी इस पूजा एवं श्री यंत्र स्थापना द्वारा लक्ष्मी जी वहां उपस्थित हो जाती हैं. इस यंत्र का प्रयोग दरिद्रता का नाश करता है. इसकी कृपा से व्यक्ति एकाएक धनवान हो जाता है.


बगलामुखी यंत्र—–
बगला दस महाविद्याओं में एक है इसकी उपासना से शत्रु का नाश होता है,शत्रु की जिव्हा वाणी व वचनों का स्तम्भन करने हेतु इससे बढकर कोई यंत्र नही है। इस यंत्र के मध्य बिंदु पर बगलामुखी देवी का आव्हान व ध्यान करना पडता है,इसे पीताम्बरी विद्या भी कहते हैं,क्योंकि इसकी उपासना में पीले वस्त्र पीले पुष्प पीली हल्दी की माला एवं केशर की खीर का भोग लगता है। इस यंत्र में बिन्दु त्रिकोण षटकोण वृत्त अष्टदल वृत्त षोडशदल एवं भूपुर की रचना की गयी है,नुकसान पहुंचाने वाले दुष्ट शत्रु की जिव्हा हाथ से खींचती हुयी बगलादेवी का ध्यान करते हुये शत्रु के सर्वनाश की कल्पना की जाती है। इस यंत्र के विशेष प्रयोग से प्रेतबाधा व यक्षिणीबाधा का भी नाश होता है।बगलामुखी यंत्र की उपासना से शत्रु का नाश होता है, स्तम्भन करने हेतु इससे बढकर कोई यंत्र नही है. प्रेत बाधा निवारक यंत्र इस यंत्र के विशेष प्रयोग से प्रेतबाधा व यक्षिणीबाधा का भी नाश होता है. महामृत्युंजय इस यंत्र के उपयोग से अकाल मृत्यु से मुक्ति प्राप्त होती है. यह शिव भगवान का प्रिय यंत्र है. भगवान शंकर की स्तुति व उक्त यंत्र की स्थापना भक्त को समस्त बाधाओं से मुक्त कर देती है. रोगों की निवृत्ति के लिये एवं दीर्घायु की कामना के लिये इस यंत्र का उपयोग बहुत लाभदायक होता है.


श्रीमहाकाली यन्त्र—–
शमशान साधना में काली उपासना का बडा भारी महत्व है,इसी सन्दर्भ में महाकाली यन्त्र का प्रयोग शत्रु नाश मोहन मारण उच्चाटन आदि कार्यों में किया जाता है। मध्य बिन्दु में पांच उल्टे त्रिकोण तीन वृत अष्टदल वृत एव भूपुर से आवृत महाकाली का यंत्र तैयार होता है। इस यंत्र का पूजन करते समय शव पर आरूढ मुण्डमाला धारण की हुयी कडग त्रिशूल खप्पर व एक हाथ में नर मुण्ड धारण की हुयी रक्त जिव्हा लपलपाती हुयी भयंकर स्वरूप वाली महाकाली का ध्यान किया जाता है। जब अन्य विद्यायें असफ़ल होजातीं है,तब इस यंत्र का सहारा लिया जाता है। महाकाली की उपासना अमोघ मानी गयी है। इस यंत्र के नित्य पूजन से अरिष्ट बाधाओं का स्वत: ही नाश हो जाता है,और शत्रुओं का पराभव होता है,शक्ति के उपासकों के लिये यह यंत्र विशेष फ़लदायी है। चैत्र आषाढ अश्विन एवं माघ की अष्टमी इस यंत्र के स्थापन और महाकाली की साधना के लिये अतिउपयुक्त है।


महामृत्युंजय यंत्र—-
इस यंत्र के माध्यम से मृत्यु को जीतने वाले भगवान शंकर की स्तुति की गयी है,भगवान शिव की साधना अमोघ व शीघ्र फ़लदायी मानी गयी है। आरक दशाओं के लगने के पूर्व इसके प्रयोग से व्यक्ति भावी दुर्घटनाओं से बच जाता है,शूल की पीडा सुई की पीडा में बदल कर निकल जाती है। प्राणघातक दुर्घटना व सीरियस एक्सीडेंट में भी जातक सुरक्षित व बेदाग होकर बच जाता है। प्राणघातक मार्केश टल जाते हैं,ज्योतिषी लोग अरिष्ट ग्रह निवारणार्थ आयु बढाने हेतु अपघात और अकाल मृत्यु से बचने के लिये महामृत्युयंत्र का प्रयोग करना बताते हैं। शिवार्चन स्तुति के अनुसार पंचकोण षटकोण अष्टदल व भूपुर से युक्त मूल मन्त्र के बीच सुशोभित महामृत्युंजय यंत्र होता है। आसन्न रोगों की निवृत्ति के लिये एवं दीर्घायु की कामना के लिये यह यंत्र प्रयोग में लाया जाता है। इस यंत्र का पूजन करने के बाद इसका चरणामृत पीने से व्यक्ति निरोग रहता है,इसका अभिषिक्त किया हुआ जल घर में छिडकने से परिवार में सभी स्वस्थ रहते हैं,घर पर रोग व ऊपरी हवाओं का आक्रमण नहीं होता है।


कनकधारा यंत्र—-
लक्ष्मी प्राप्ति के लिये यह अत्यन्त दुर्लभ और रामबाण प्रयोग है,इस यंत्र के पूजन से दरिद्रता का नाश होता है,पूर्व में आद्य शंकराचार्य ने इसी यंत्र के प्रभाव से स्वर्ण के आंवलों की वर्षा करवायी थी। यह यंत्र रंक को राजा बनाने की सामर्थय रखता है। यह यंत्र अष्ट सिद्धि व नव निधियों को देने वाला है,इसमें बिन्दु त्रिकोण एवं दो वृहद कोण वृत्त अष्टदल वृत्त षोडस दल एव तीन भूपुर होते हैं,इस यंत्र के साथ कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना अनिवार्य होता है।


श्रीदुर्गा यंत्र—-
यह श्री दुर्गेमाता अम्बेमाता का यंत्र है,इसके मूल में नवार्ण मंत्र की प्रधानता है,श्री अम्बे जी का ध्यान करते हुये नवार्ण मंत्र माला जपते रहने से इच्छित फ़ल की प्राप्ति होती है। विशेषकर संकट के समय इस यंत्र की प्रतिष्ठा करके पूजन किया जाता है। नवरात्र में स्थापना के दिन अथवा अष्टमी के दिन इस यंत्र निर्माण करना व पूजन करना विशेष फ़लदायी माना जाता है,इस यन्त्र पर दुर्गा सप्तशती के अध्याय चार के श्लोक १७ का जाप करने पर दुख व दरिद्रता का नाश होता है। व्यक्ति को ऋण से दूर करने बीमारी से मुक्ति में यह यंत्र विशेष फ़लदायी है।


सिद्धि श्री बीसा यंत्र—-
कहावत प्रसिद्ध है कि जिसके पास हो बीसा उसका क्या करे जगदीशा,अर्थात साधकों ने इस यंत्र के माध्यम से दुनिया की हर मुश्किल आसान होती है,और लोग मुशीबत में भी मुशीबत से ही रास्ता निकाल लेते हैं। इसलिये ही इसे लोग बीसा यंत्र की उपाधि देते हैं। नवार्ण मंत्र से सम्पुटित करते हुये इसमे देवी जगदम्बा का ध्यान किया जाता है। यंत्र में चतुष्कोण में आठ कोष्ठक एक लम्बे त्रिकोण की सहायता से बनाये जाते हैं,त्रिकोण को मन्दिर के शिखर का आकार दिया जाता है,अंक विद्या के चमत्कार के कारण इस यंत्र के प्रत्येक चार कोष्ठक की गणना से बीस की संख्या की सिद्धि होती है। इस यंत्र को पास रखने से ज्योतिषी आदि लोगों को वचन सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। भूत प्रेत और ऊपरी हवाओं को वश में करने की ताकत मिलती है,जिन घरों में भूत वास हो जाता है उन घरों में इसकी स्थापना करने से उनसे मुक्ति मिलती है।


श्री कुबेर यंत्र—-
यह धन अधिपति धनेश कुबेर का यंत्र है,इस यंत्र के प्रभाव से यक्षराज कुबेर प्रसन्न होकर अतुल सम्पत्ति की रक्षा करते हैं। यह यंत्र स्वर्ण और रजत पत्रों से भी निर्मित होता है,जहां लक्ष्मी प्राप्ति की अन्य साधनायें असफ़ल हो जाती हैं,वहां इस यंत्र की उपासना से शीघ्र लाभ होता है। कुबेर यंत्र विजय दसमीं धनतेरस दीपावली तथा रविपुष्य नक्षत्र और गुरुवार या रविवार को बनाया जाता है। कुबेर यंत्र की स्थापना गल्ले तिजोरियों सेफ़ व बन्द अलमारियों में की जाती है। लक्ष्मी प्राप्ति की साधनाओं में कुबेर यंत्र अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।


श्री गणेश यंत्र—–
गणेश यंत्र सर्व सिद्धि दायक व नाना प्रकार की उपलब्धियों व सिद्धियों के देने वाला है,इसमें देवताओं के प्रधान गणाध्यक्ष गणपति का ध्यान किया जाता है। एक हाथ में पास एक अंकुश एक में मोदक एवं वरद मुद्रा में सुशोभित एक दन्त त्रिनेत्र कनक सिंहासन पर विराजमान गणपति की स्तुति की जाती है। इस यंत्र के प्रभाव से और भक्त की आराधना से व्यक्ति विशेष पर रिद्धि सिद्धि की वर्षा करते हैं,साधक को इष्ट कृपा की अनुभूति होने लगती है। उसके कार्यों के अन्दर आने वाली बाधायें स्वत: ही समाप्त हो जातीं हैं,व्यक्ति को अतुल धन यश कीर्ति की प्राप्ति होती है,रवि पुष्य गुरु पुष्य अथवा गणेश चतुर्थी को इस यंत्र का निर्माण किया जाता है,इन्ही समयों में इस यंत्र की पूजा अर्चना करने पर सभी कामनायें सिद्धि होती हैं।


गायत्री यंत्र—–
गायत्री की महिमा शब्दातीत है,इस यंत्र को बनाते समय कमल दल पर विराजमान पद्मासन में स्थिति पंचमुखी व अष्टभुजा युक्त गायत्री का ध्यान किया जाता है,बिन्दु त्रिकोण षटकोण व अष्टदल व भूपुर से युक्त इस यंत्र को गायत्री मंत्र से प्रतिष्ठित किया जाता है। इस यंत्र की उपासना से व्यक्ति लौकिक उपलब्धियों को लांघ कर आध्यात्मिक उन्नति को स्पर्श करने लग जाता है। व्यक्ति का तेज मेधा व धारणा शक्ति बढ जाती है। इस यंत्र के प्रभाव से पूर्व में किये गये पाप कर्मों से मुक्ति मिल जाती है। गायत्री माता की प्रसन्नता से व्यक्ति में श्राप व आशीर्वाद देने की शक्ति आ जाती है। व्यक्ति की वाणी और चेहरे पर तेज बढने लगता है। गायत्री का ध्यान करने के लिये सुबह को माता गायत्री श्वेत कमल पर वीणा लेकर विराजमान होती है,दोपहर को गरूण पर सवार लाल वस्त्रों में होतीं है,और शाम को सफ़ेद बैल पर सवार वृद्धा के रूप में पीले वस्त्रों में ध्यान में आतीं हैं।


दाम्पत्य सुख कारक मंगल यंत्र—-
विवाह योग्य पुत्र या पुत्री के विवाह में बाधा आना,विवाह के लिये पुत्र या पुत्री का सीमाओं को लांघ कर सामाजिक मर्यादा को तोडना विवाह के बाद पति पत्नी में तकरार होना,विवाहित दम्पत्ति के लिये किसी न किसी कारण से सन्तान सुख का नहीं होना,गर्भपात होकर सन्तान का नष्ट हो जाना, मनुष्य का ध्यान कर्ज की तरफ़ जाना और लिये हुये कर्जे को चुकाने के लिये दर दर की ठोकरें खाना,किसी को दिये गये कर्जे का वसूल नहीं होना,आदि कारणों के लिये ज्योतिष शास्त्र में मंगल व्रत का विधान है,मंगल के व्रत में मंगल यंत्र का पूजन आवश्यक है। यह यंत्र जमीन जायदाद के विवाद में जाने और घर के अन्दर हमेशा क्लेश रहने पर भी प्रयोग किया जाता है,इसके अलावा इसे वाहन में प्रतिष्ठित कर लगाने से दुर्घटना की संभावना न के बराबर हो जाती है।


श्री पंचदसी यंत्र—-
पंचदसी यंत्र को पन्द्रहिया यन्त्र भी कहा जाता है,इसके अन्दर एक से लेकर नौ तक की संख्याओं को इस प्रकार से लिखा जाता है दायें बायें ऊपर नीचे किधर भी जोडा जाये तो कुल योग पन्द्रह ही होता है,इस यन्त्र का निर्माण राशि के अनुसार होता है,एक ही यन्त्र को सभी राशियों वाले लोग प्रयोग नहीं कर सकते है,पूर्ण रूप से ग्रहों की प्रकृति के अनुसार इस यंत्र में पांचों तत्वों का समावेश किया जाता है,जैसे जल तत्व वाली राशियां कर्क वृश्चिक और मीन होती है,इन राशियों के लिये चन्द्रमा का सानिध्य प्रारम्भ में और मंगल तथा गुरु का सानिध्य मध्य में तथा गुरु का सानिध्य अन्त में किया जाता है। संख्यात्मक प्रभाव का असर साक्षात देखने के लिये नौ में चार को जोडा जाता है,फ़िर दो को जोड कर योग पन्द्रह का लिया जाता है,इसके अन्दर मंगल को दोनों रूपों में प्रयोग में लाया जाता है,नेक मंगल या सकारात्मक मंगल नौ के रूप में होता है और नकारात्मक मंगल चार के रूप में होता है,तथा चन्द्रमा का रूप दो से प्रयोग में लिया जाता है। यह यंत्र भगवान शंकर का रूप है,ग्यारह रुद्र और चार पुरुषार्थ मिलकर ही पन्द्रह का रूप धारण करते है। इस यंत्र को सोमवार या पूर्णिमा के दिन बनाया जाता है,और उसे रुद्र गायत्री से एक बैठक में पन्द्रह हजार मंत्रों से प्रतिष्टित किया जाता है।


सम्पुटित गायत्री यंत्र—–
वेदमाता गायत्री विघ्न हरण गणपति महाराज समृद्धिदाता श्री दत्तात्रेय के सम्पुटित मंत्रों द्वारा इस गायत्री यंत्र का निर्माण किया जाता है। यह यंत्र व्यापारियों गृहस्थ लोगों के लिये ही बनाया जाता है इसका मुख्य उद्देश्य धन,धन से प्रयोग में लाये जाने वाले साधन और धन को प्रयोग में ली जाने वाली विद्या का विकास इसी यंत्र के द्वारा होता है,जिस प्रकार से एक गाडी साधन रूप में है,गाडी को चलाने की कला विद्या के रूप में है,और गाडी को चलाने के लिये प्रयोग में ली जाने वाली पेट्रोल आदि धन के रूप में है,अगर तीनों में से एक की कमी हो जाती है तो गाडी रुक जाती है,उसी प्रकार से व्यापारियों के लिये दुकान साधन के रूप में है,दुकान में भरा हुआ सामान धन के रूप में है,और उस सामान को बेचने की कला विद्या के रूप में है,गृहस्थ के लिये भी परिवार का सदस्य साधन के रूप में है,सदस्य की शिक्षा विद्या के रूप में है,और सदस्य द्वारा अपने को और अपनी विद्या को प्रयोग में लाने के बाद पैदा किया जाने फ़ल धन के रूप में मिलता है,इस यंत्र की स्थापना करने के बाद उपरोक्त तीनों कारकों का ज्ञान आसानी से साधक को हो जाता है,और वह किसी भी कारक के कम होने से पहले ही उसे पूरा कर लेता है।


श्री नित्य दर्शन बीसा यंत्र—-
इस यंत्र का निर्माण अपने पास हमेशा रखने के लिये किया जाता है,इसके अन्दर पंचागुली महाविद्या का रोपण किया जाता है,अष्टलक्ष्मी से युक्त इस यंत्र का निर्माण करने के बाद इसे चांदी के ताबीज में रखा जाता है,जब कोई परेशानी आती है तो इसे माथे से लगाकर कार्य का आरम्भ किया जाता है,कार्य के अन्दर आने वाली बाधा का निराकरण बाधा आने के पहले ही दिमाग में आने लगता है,इसे शराबी कबाबी लोग अपने प्रयोग में नही ला सकते हैं।


श्री बीसा यंत्र—–
विधान एवं प्रभाव :—-इस यंत्र को शुभ महूर्त में ताम्र पत्र पर खुदवा लें फिर सूर्य उदय के समय इस यंत्र का केसर और चन्दन से पूजन करें ।
मंत्र :- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं लक्ष्मी दैव्य: नमः


इस मंत्र की 21 माला करें साथ में श्री शुक्त का भी पाठ करें । इस यंत्र के प्रभाव से कभी कोई अभाव नहीं रहता । माँ लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है ।
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जानिए आपकी राशि अनुसार कैसे करें श्री यन्त्र का प्रयोग—
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ज्योतिष के मुताबिक धनेश का छठे, आठवें, बारहवें भाव में स्थित होना धन बाधा योग का निर्माण करता है। कुछ छोटे-छोटे उपाय अपनाकर इन बाधाओं को दूर किया जा सकता है। वर्ष भर आपके घर में सुख-समृद्धि बनी रहे इसलिए कुछ उपाय दिए जा रहे हैं, जो छोटे होते हुए बड़े काम के साबित होंगे।


मेष-मंगलवार के दिन लाल चंदन, लाल गुलाब के दो फूल, रोली का पैकेट लाल कपड़े में बांधें। प्रणाम करें और धूप-दीप दिखाकर तिजोरी में रख दें, इससे धन वृद्धि होगी। 
चांदी का ‘श्री’ बनवाकर उसके चारों ओर सफेद तथा नीले जरकन जड़वा कर लॉकेट बनवाएं। शुद्ध कर शुक्रवार को श्रीमंत्र की तीन माला जाप के बाद गले में धारण करें।
श्रीगणोश यंत्र घर के पूजन स्थल पर रखकर नित्य दर्शन व पूजन करें। ओम गं गणपतये नम: का मूंगे की माला से तीन माला जाप करें, वर्ष भर दौलत कदम चूमेगी।


वृष-सोने या चांदी में श्री बनवा लें। हरा ऑनेक्स लगवाकर शुक्रवार को गले में धारण करें। श्री सूक्त का पाठ करें।
कमलगट्टे की माला पर श्रीयंत्र घर में स्थापित करें। 
ओम गोपालाय उत्तरध्वजाय नम: का एक माला जाप करें। हरे रंग का रूमाल अपने पास रखें। गाय को प्रतिदिन तेल लगी रोटी दें।
वट वृक्ष के पत्ते पर कुमकुम से स्वस्तिक बनाएं। उस पर साबुत चावल व एक सुपारी रखकर माता लक्ष्मी के मंदिर में चढ़ा दें। इस उपाय से आर्थिक समृद्धि प्राप्त होगी।


मिथुन-धनदा यंत्र घर में स्थापित कर नित्य दर्शन करें तो आशातीत लाभ होगा।
भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर या मूर्ति के सम्मुख ú क्लीं कृष्णाय नम: का एक माला जाप तुलसी की माला से प्रतिदिन करें।
चांदी के पतरे पर चंद्र यंत्र तथा मंगल यंत्र बनवाकर क्रमश: मोती व मूंगा लगवाकर घर के मंदिर में बुधवार को स्थापित करें। जिनके ऊपर ऋण हो वह इस यंत्र के आगे ऋण्हर्ता मंगल स्तोत्र का पाठ करेंगे तो ऋण उतरने लगेगा।
पक्षियों को गुड़ के साथ सतनाजा डालें। 


कर्क-चांदी की दो गायों की किसी विद्वान से प्राण प्रतिष्ठित कराकर एक गाय विद्वान को दक्षिणा सहित दान दें। दूसरी गाय कामधेनु दैव्ये की तरह घर के पूजन स्थल में रख कर नित्य दर्शन व पूजन करें, जो मांगेंगे वही प्राप्त होगा। 
शिवयंत्र को घर के पूजन स्थल पर स्थापित करें व प्रतिदिन ú नम: शिवाय का एक रुद्राक्ष माला जप करें।
सुबह आजीविका संबंधी कार्य से पहले ú हिरण्यगर्भाय अव्यक्त रूपिणो नम: का मोती की माला से जाप करें। 
ग्यारह रविवार दोपहर दही-भात का भोग लगाकर खाएं। 


सिंह-दुर्गा मां की तस्वीर के आगे देवी के 108 नामों का नित्य स्मरण करें। यह कार्य वर्ष भर करें।
हरे गणपति (हकीक या ऑनेक्स के बने) घर के पूजन स्थल में स्थापित करें। ऋणहर्ता गणपति स्तोत्र का पाठ करें। यदि ऋण है तो जल्द ही ऋण मुक्त हो जाएंगे।
ओम हीं घृणि सूर्य आदित्य श्री का नित्य सूर्य उदय के समय तीन माला जाप लाल चंदन की माला से करें।
मां लक्ष्मी को प्रतिदिन लाल पुष्प अर्पित करें। दूध से निर्मित नैवेद्य का भोग लगाएं। धन लाभ होगा।


कन्या-कूर्म पृष्ठ पर बने श्रीयंत्र या महालक्ष्मी यंत्र को घर के पूजा स्थल में स्थापित करें। श्री सूक्त का पाठ करें।
चांदी के पतरे पर गुरुमंत्र पर सुनहला लगवा कर शुद्ध करें। बुधवार को धूप-दीप दिखा कर गले में धारण करें।
सफेद गुंजा को लक्ष्मी मंत्रों से अभिमंत्रित कर चांदी की डिबिया में शहद में डुबो कर पूजा स्थल या तिजोरी में रखें।
तीन गोमती चक्र, तीन पीली कौड़ियां तथा तीन हल्दी की गांठें पीले कपड़े में बांधकर अपनी तिजोरी में रख दें। घर में धन वृद्धि व बरकत होगी।


तुला-श्रीलक्ष्मी सिद्ध यंत्र घर में स्थापित करें। रोज दर्शन कर ú लक्ष्मीनारायणाय नम: का स्फटिक माला से जाप करें। 
यदि अचानक धनहानि होती हो, तो किसी भी मंदिर में कम से कम 40 शनि व सरस्वती चालीसा रखवाएं। 
गरीब सुहागिन स्त्री को अपनी पत्नी के द्वारा सुहाग सामग्री दिलवाएं। सामग्री में कोई भी इत्र अवश्य रखें। 
महीने में एक बार मिट्टी के कुल्हड़ में मशरूम भरकर किसी भी धार्मिक स्थान में रख आएं। मिट्टी के कुल्हड़ पर मिट्टी का ढक्कन अवश्य लगाएं। 


वृश्चिक-श्रीहनुमान जी का यंत्र स्थापित कर नित्य पूजन-दर्शन करें।
धनदा यंत्र भी स्थापित कर नित्य दर्शन करें। ú नमो नारायणाय का तीन माला जाप चमत्कार से कम नहीं रहेगा।
इष्टदेव का स्मरण कर केसर का तिलक प्रतिदिन नाभि, कंठ व माथे पर लगाएं।
छह-छह ग्राम की चार ठोस चांदी की गोलियां सफेद कपड़े में लपेटकर हमेशा पास रखें। इससे समृद्धि के साथ-साथ शांति भी बनी रहेगी।


धनु-लाजवर्त नग को चांदी की अंगूठी में जड़वा श्रीमंत्र के जाप के साथ शुक्रवार को मध्यमा अंगुली में धारण करें।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय का जाप स्फटिक माला से करें।
अशोक के वृक्ष की जड़ का पूजन कर तिजोरी में रखें। धन-संपत्ति की प्रचुरता वर्ष भर बनी रहेगी।
धन-संपदा के लिए तिजोरी के नीचे या तिजोरी के अंदर काली गुंजा के ग्यारह दाने रखें। नववर्ष के विशेष मुहूर्त में यह उपाय अवश्य करें।


मकर-सात पीपल के पत्ते लेकर कुमकुम से स्वस्तिक बनाएं। फिर कलावे से एक साथ सारे पत्तों को लपेटकर वीरान स्थान पर फेंक दें। आर्थिक संकट दूर हो जाएगा।
कुत्ते को पंद्रह दिन तक प्रतिदिन दूध पिलाएं। इन्हीं पंद्रह दिनों में मंदिर में भी दूध का दान दें।
प्रत्येक शुक्रवार को नियम से किसी भूखे को भोजन कराएं व रविवार को गाय को गुड़ खिलाएं। 
घर में समृद्धि पोटली लगाएं। लाल रंग का रिबन, तांबे के सिक्के के साथ मुख्य द्वार पर बांधें।


कुंभ-सोने का गुरुयंत्र शुद्ध करके शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार को गले में धारण करें। साथ ही चांदी की गाय घर के मंदिर में स्थापित करें व नित्य नियम से दर्शन करें।
ओम श्री उपेन्द्राय अच्युताय नम: का रुद्राक्ष की एक माला से नित्य जाप करें। धन की कोई समस्या नहीं रहेगी। 
पंडितजी से पूर्णिमा को घर में सत्यनारायण कथा कराएं, उन्हें पांच वस्त्र, पांच फल, पांच मिठाई दक्षिणा सहित दें व आशीर्वाद पाएं।
कार्य सिद्धि यंत्र घर में स्थापित करें।


मीन- नववर्ष में मूंगे के गणपति स्थापित करें।  ॐ एकदन्ताय विद्यमहे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात मंत्र का जाप मूंगे की माला से नियमित करें। 
मत्स्य यंत्र अवश्य स्थापित करें। नित्य विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें, धन की कमी नहीं होगी।
ड्रॉईंग रूम में उत्तर या पूर्व दिशा में एक्वेरियम रखें।
काली मिर्च के 5 दाने अपने सिर से 7 बार उतारकर 4 दाने चारों दिशाओं में फेंक दें तथा पांचवे दाने को आकाश की ओर उछाल दें। इससे आकस्मिक धन लाभ होगा।
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रहस्यमय और अदभुत श्री यंत्र
भगवती महालक्ष्मी की कृपा प्राप्ति का सबसे प्रभावी उपाय है श्री यंत्र की विधिवत साधना. यह एक ऐसा विधान है जोअभूतपूर्व सफलता प्रदायक है. जब किसी भी अन्य उपाय से भगवती की प्रसन्नता प्राप्त  हो पा रही हो तो यहसाधना विधान प्रयोग करना चाहिए. श्री यंत्र के बारे में कहा गया है कि.
       चतुः षष्टया तंत्रै सकल मति संधाय भुवनम 
स्थितस्तत्सिद्धि प्रसव परतंत्रैः पशुपतिः 
पुनस्त्वनिर्बन्धादखिल पुरूषार्थैक घटना 
स्वतंत्रं ते तंत्रं क्षितितलमवातीतरदिदम 
देवाधिदेव भगवान महादेव शिव ने इस सकल भुवन को ६४ तंत्रो से भर दिया और फिर अपने दिव्य तापसीतेज से समस्त पुरूषार्थों को प्रदान करने में सक्षम श्री तंत्र को इस धरा पर प्रतिष्ठित किया. आशय यह कि श्री विद्या से संबंधित तंत्र ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ तंत्र है जिसकी साधना ऐसे योग्य साधकों और शिष्यों को प्राप्त होती हैजो समस्त तंत्र साधनाओं को आत्मसात कर चुके हों. इस साधना को प्रदान करने के लिए कहा गया है कि :-
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः, पिता पुत्रो  दातव्यं गोपनीयं महत्वतः …
इस विद्या को सप्रयास गोपनीय रखना चाहिये, यह इतनी गोपनीय विद्या है कि इसे पिता को पुत्र से भीछुपाकर रखना चाहिये.
तंत्र के क्षेत्र में श्री विद्या को निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे गोपनीय माना जाता है. श्री विद्या कीसाधना का सबसे प्रमुख साधन है श्री यंत्र… इसकी विशिष्टता का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि सनातनधर्म के पुनरूद्धारक, भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले, जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने जिन चार पीठों कीस्थापना की, उनमें उन्होने पूरी प्रामाणिकता के साथ श्री यंत्र की स्थापना की. जिसके परिणाम के रूप में आज भीचारों पीठ हर दृष्टि से, फिर वह चाहे साधनात्मक हो या फिर आर्थिक, पूर्णता से युक्त हैं.
श्री यंत्र की आकृति
 
श्री यंत्र से होने वाले लाभ
श्री यंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है. यह यंत्र सही अर्थों में यंत्रराज है. इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ आमंत्रितकरना होता है. कहा गया है कि :-
श्री सुंदरी साधन तत्पराणाम् , भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव….
अर्थात जो साधक श्री यंत्र के माध्यम से त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना के लिए प्रयासरत होता है, उसकेएक हाथ में सभी प्रकार के भोग होते हैं, तथा दूसरे हाथ में पूर्ण मोक्ष होता है. आशय यह कि श्री यंत्र का साधकसमस्त प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है. इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना हैजो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्रदान करती है, इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को प्राप्त करने के लिएसतत प्रयत्नशील रहता है.
इस अद्भुत यंत्र से अनेक लाभ हैं, इनमें प्रमुख हैं :-
·         श्री यंत्र के स्थापन मात्र से भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है.
·         कार्यस्थल पर इसका नित्य पूजन व्यापार में विकास देता है.
·         घर पर इसका नित्य पूजन करने से संपूर्ण दांपत्य सुख प्राप्त होता है.
·         पूरे विधि विधान से इसका पूजन यदि प्रत्येक दीपावली की रात्रि को संपन्न कर लिया जाय तो उस घर मेंसाल भर किसी प्रकार की कमी नही होती है.
·         श्री यंत्र पर ध्यान लगाने से मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है. उच्च यौगिक दशा में यह सहस्रार चक्र केभेदन में सहायक माना गया है.
·         यह विविध वास्तु दोषों के निराकरण के लिए श्रेष्ठतम उपाय है.
विविध पदार्थों से निर्मित श्री यंत्र—-
श्री यंत्र का निर्माण विविध पदार्थों से किया जा सकता है. इनमें श्रेष्ठता के क्रम में प्रमुख हैं –
क्र.
पदार्थ
विशिष्टता
1
पारद श्रीयंत्र
पारद को शिववीर्य कहा जाता है. पारद से निर्मित यह यंत्र सबसे दुर्लभतथा प्रभावशाली होता है. यदि सौभाग्य से ऐसा पारद श्री यंत्र प्राप्त हो जाए तो रंक को भी वह राजा बनाने में सक्षम होता है.
स्फटिक श्रीयंत्र
स्फटिक का बना हुआ श्री यंत्र अतिशीघ्र सफलता प्रदान करता है. इस यंत्र की निर्मलता के समान ही साधक का जीवन भी सभी प्रकार की मलिनताओं से परे हो जाता है.
स्वर्ण श्रीयंत्र
स्वर्ण से निर्मित यंत्र संपूर्ण ऐश्वर्य को प्रदान करने में सक्षम माना गया है. इस यंत्र को तिजोरी में रखना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था रखनी चाहिये कि उसे कोई अन्य व्यक्ति स्पर्श न कर सके.
मणि श्रीयंत्र
ये यंत्र कामना के अनुसार बनाये जाते हैं तथा दुर्लभ होते हैं
रजत श्रीयंत्र
ये यंत्र व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की उत्तरी दीवाल पर लगाए जाने चाहिये. इनको इस प्रकार से फ्रेम में मढवाकर लगवाना चाहिए जिससेइसको कोई सीधे स्पर्श न कर सके.
ताम्र श्रीयंत्र
ताम्र र्निमित यंत्र का प्रयोग विशेष पूजन अनुष्ठान तथा हवनादि केनिमित्त किया जाता है. इस प्रकार के यंत्र को पर्स में रखने सेअनावश्यक खर्च में कमी होती है तथा आय के नए माध्यमों काआभास होता है.
भोजपत्र श्रीयंत्र
आजकल इस प्रकार के यंत्र दुर्लभ होते जा रहे हैं. इन पर निर्मित यंत्रोंका प्रयोग ताबीज के अंदर डालने के लिए किया जाता है. इस प्रकार केयंत्र सस्ते तथा प्रभावशाली होते हैं.
उपरोक्त पदार्थों का उपयोग यंत्र निर्माण के लिए करना श्रेष्ठ है. लकडी, कपडा या पत्थर आदि पर श्री यंत्रका निर्माण  करना श्रेष्ठ रहता है.
श्री यंत्र के निर्माण के समान ही इसका पूजन भी श्रम साध्य होने के साथ-साथ विशेष तेजस्विता की अपेक्षाभी रखता है. कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने के लिए श्रेष्ठ मुहूर्त का होना भी अनिवार्य होता है. श्री यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा केनिमित्त श्रेष्ठतम मुहूर्तों पर एक दृष्टिपात करते हुए पूजन विधि पर प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा.
श्रेष्ठ मुहूर्त—–
श्री यंत्र के निर्माण  पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त है कालरात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि. इस रात्रि में स्थिरलग्न में यंत्र का निर्माण  पूजन संपन्न किया जाना चाहिये.
इसके बाद माघ माह की पूर्णिमा, शिवरात्रि, शरद पूर्णिमा, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का मुहूर्त श्रेष्ठ होता है. यद्यपि ग्रहण को सामान्यतः शुभ कर्मों के लिए प्रयोग नही किया जाता इसलिए यहां संदेह होना स्वाभाविक है, मगरश्री विद्या पूर्णते तांत्रोक्त विद्या है तथा तांत्रोक्त साधनाओं के लिए ग्रहण को श्रेष्ठतम मुहूर्त मान गया है.
उपरोक्त मुहूर्तों के अलावा अक्षय तृतीया, रवि पुष्य योग, गुरू पुष्य योग, आश्विन माह को छोडकर किसीभी अमावस्या या किसी भी पूर्णिमा को भी श्रेष्ठ समय मे यंत्र निर्माण  पूजन किया जा सकता है.
यहां मैं यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य समझता हूं कि, सभी तांत्रोक्त विधानों की तरह, यदि श्री यंत्र कानिर्माण तथा पूजन करने वाला, श्री विद्या का सिद्ध साधक या गुरू हो, तो उनके द्वारा निर्दिष्ट समय उपरोक्तमुहूर्तों से भी ज्यादा श्रेष्ठ तथा फलदायक होगा. किसी भी पूजन की विधि से ज्यादा महत्व पूजन को संपन्न करानेवाले साधक की साधनात्मक तेजस्विता का होता है. यदि पूजनकर्ता की साधनात्मक उर्जा नगण्य है तो पूजन औरप्राण-प्रतिष्ठा अर्थहीन हो जाएगी. इसलिए श्री यंत्र के पूजन से पहले पूजनकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि, वह कमसे कम एक बार श्री विद्या या महालक्ष्मी मंत्र का पुरश्चरण पूर्ण कर चुका हो.
पूजन विधि—-
सबसे पहले शुद्ध जल से स्नान करके पूर्व दिशा की ओर देखते हुए बैठ जायें. सामने यंत्र को स्थापित करें.
1.      सर्वप्रथम ÷क्क श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमे’ से आचमन करें .
2.      पवित्री करण करें.
3.      संकल्प लें अपनी कामना को व्यक्त करें.
4.      भूमि पूजन करें.
5.      गणपति पूजन करें.
6.      भैरव पूजन करें.
7.      गुरू पूजन करें.
8.      भूतशुद्धि करें, इसके लिए पुरूष सूक्त का पाठ करें.
9.      घी का दीपक जलायें.
10.  ऋष्यादिन्यास. करन्यास तथा अंगन्यास संपन्न करें.
11.  श्री विद्या का ध्यान करने के बाद श्री सूक्त के सोलह पाठ संपन्न करें.
12.  इसके पश्चात लक्ष्मी सूक्त का एक पाठ संपन्न करें.
13.  श्री सूक्त के सोलह श्लोकों से श्री यंत्र का षोडशोचार पूजन संपन्न करें.
14.  प्रत्येक श्लोक के साथ यंत्र के मध्य में केसर से बिंदी लगायें जैसे आप षोडशी की सोलह कलाओं को वहांस्थापित कर रहे हों.
15.  अंत में श्री सूक्त के सोलह श्लोकों के साथ आहुति संपन्न करें. विधान १००० बार पाठ तथा १०० बार हवन का है.
16.  इसमें प्रत्येक श्लोक के साथ स्वाहा लगाकर आहुति देंगें.



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