ख्वाब चाँद का….
इतरा कर चाँद का मौन यूँ पुकारा है
सब आशिक हमारे हैं कौन “विशाल” तुम्हारा है।
हर नूर हम से बरसे कि नूर ही हैं हम
चिलमन से न छुपे ऐसा रूप “विशाल” हमारा है।
चाँदनी हमी से रौशन है इस जहाँ में
शफ्फाफ़ बदन भी हमी को “विशाल” पुकारा है।
चाँद हूँ ख्वाब हूँ धड़कता हूँ दिलों में
आशिकों की आशिकी का यही “विशाल” सहारा है।
शायरों की शायरी मंझधार में ही तैरती
कलम को भी मिला मुझसे ही “विशाल” किनारा है।…
———-पंडित दयानन्द शास्त्री”विशाल”
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