वैदिक उपासना….
वैदिक निर्णय के अनुसार वैदिक उपासना प्रति दिन करनी चाहिए। द्विजमात्र को इस उपासना का अधिकार है। इस अनुष्ठान से अनजाने में भी किए गए पाप का लोप होता है। उपर्युक्त किसी तरह का पाप यदि दिन में विहित हो तो सायंकाल की संध्या से दूर होता है। प्रत्येक वेद की संध्या का विधान विभिन्न गृह्यसूत्रों द्वारा प्रतिपादित है। इस अनुष्ठान के द्वारा दिव्यज्योति, सूर्य या ब्रह्म की उपासना की जाती है।
इसका प्रारंभ करने से पूर्व उषाकाल में निद्रा का विसर्जन कर उठ बैठना चाहिए। सर्वप्रथम अपने इष्टदेव का स्मरण ओर वंदन करना चाहिए। अनंतर दैनिक दैहिक कृत्य से निवृत्त होकर संविधि स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करे। पवित्र आसन पर बैठकर तिलक लगावे और शिखाबंधन करे। सायंकाल की संध्या पश्चिम दिशा की ओर और प्रात:काल, मध्यान्हकाल की संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। जिस दिन यज्ञोपवीत होता है उसी दिन से इसका अनुष्ठान प्रारंभ होता है। यह उपासना प्रति दिन और यावज्जीवन अनुष्ठेय है।
भगवान् के अनेक नाम उसके अनेक गुणों के आधार पर ही हैं | उपासक अपनी उपासना में जब भगवान के किसी नाम का उच्चारण करता है, तो उसका तत्पर्य होता है उस नाम से ध्वनित होने वाले उस गुण से अपनी आत्मा को अलंकृत करना | इस मन्त्र में भगवान को संबोधन करता हुआ उपासक भगवान के नाम का उच्चारण करता है, और वह नाम है ‘शतक्रतु’ | ऋषि दयानन्द नें ‘शत’ शब्द के ‘बहुत’ और ‘क्रतु’ शब्द के ‘कर्म’ और ‘ज्ञान अर्थ किए हैं |
इस शब्द का उच्चारण करते ही उपासक एक विशाल क्षेत्र में पहुँच जाता है और यह कहना आरम्भ कर देता है | अहो ! मैं यह क्या विचित्र दृष्य देख रहा हूं | यह महान प्रकाश का पुञ्ज आदित्य अनेक ग्रहों और नक्षत्रों को, अपने आकर्षण के रस्से से बांधे हुए कितने वेग से गोल चक्र में चला रहा है | और इनमें से भी कोई किसी की और, कोई किसी के चारों ओर घूम रहा है ; और इन सबका यह भ्रमण भी समान गति से नहीं विषम गति से सम्पादित होता दिखाई दे रहा है |
प्रभो ! आप अद्भुत हैं और अद्भुत शक्तियों के भण्डार हैं | आप के बिना इस अद्भुत कर्म चक्र का संचालक कोन हो सकता है | इन गति शील अनेक गोलों का अद्भुत निर्माण भी तो आपके ही अद्भुत कौशल का चमत्कार है | इसलिये तो आपके लिये कहा गया है “तदेजति तनैजति” वह सब को चला रहा है | परन्तु स्वयं अचल है |
करोड़ों-करोड़ों हिन्दू धर्मावलम्बियों की आस्था को अनुप्राणित रखने वाले ये मन्त्र उनके जीवन में विशिष्ट स्थान रखते है। ये उनके दैनिक प्रार्थना एवं उपासना के अनिवार्य भाग हैं। प्रायः ये मन्त्र भारतीय परम्परा में बाल्यकाल से ही संस्कार के रूप में कण्ठस्थ करा दिये जाते हैं। परन्तु सभी को मन्त्र का अर्थ ज्ञात नहीं रहता और इसका सीधा कारण है संस्कृत ज्ञान का न होना। इसी उद्देश्य को लेकर यहाँ हिन्दू उपासना में दैनन्दिनी प्रार्थना एवं उपासना में प्रयुक्त मन्त्रों को अर्थ सहित उपलब्ध कराया गया है। क्योंकि क्रिया के साथ ज्ञान आवश्यक हैं। यदि सम्यकतया जानकर किसी कार्य को किया जाता है तो उसका फल अलग होता है और बिना जाने किये गये कार्य का फल अलग होता है।
मन्त्र से सरल अभिप्राय मनन करने से है। एवं मनन उन बातों का किया जाता है जो श्रेष्ठ, कल्याण कारक होती हैं। वैदिक परम्परा में ऋषियों ने दीर्घ तप तथा साधना के मार्ग से जीवन के जिन आधारभूत सत्यों का साक्षात्कार किया वे ही मन्त्र का रूप हैं। उनका ही अनुगमन करके ही आर्य श्रेष्ठ कहलाए। ऋषियों द्वारा खोजे गये वैश्विक धरोहर के रूप में ये मन्त्र ज्ञान एवं विज्ञान से परिपूर्ण हैं । ये आज न केवल देश में वरन् विदेशों में अनेक शोधों का विषय बने हुये हैं।
वैदिक संध्या के अंतर्गत अघमर्षण मन्त्रों का चिंतन करते हुए मन व आत्मा को निष्पाप बनाएँ :—-
यथा….
ओ३म ऋतंच सत्यन्चाभीद्धातप्सोअध्यजायत !
तत्तो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअरणव: !!
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत !
अहोरात्रानि विदधद्विश्व्स्य मिषतो वशी !!
सूर्याचन्द्र्मसौ धाता यथापूर्वंम्कल्पयत !
दीवंच पृथ्वीन्चान्त्रिक्षमथो स्व: !!
उपरोक्त मन्त्र का भावार्थ —–
प्रभु सामर्थ्य सनातन रहता ! सृष्टि प्रलय क्रम जिससे बहता !!
प्रभु की शक्ति तपस के द्वारा ! पहले ऋत का हुआ पसारा !!
ऋक, यजु, साम वेद अथर्वा ! श्रुति के सत्य नियम ऋत सर्वा !!
ऋत के साथ सत्य चल पडता ! सत रज तम हो प्रकृति विविधता !!
महाप्रलय की रात्रि विराजे ! अंतरिक्ष-भू सागर साजे !!
महाजलधि से थल आ जाता ! सकल पदार्थ ईश बनाता !!
अंतरिक्ष पृथ्वी की सत्ता ! प्रकट हुई फिर काल महत्ता !!
क्षण मुहूर्त दिन प्रहार बनाए ! मॉस-वर्ष-संवत्सर आये !!
विश्ववशी का करतब जागा ! दिवस रात्रि का हुआ विभागा !!
सूर्य- चंद्र नक्षत्र उगाए ! पूर्व कल्प की भांति सजाये !!
द्दो-अंतरिक्ष-भूलोक बनाता ! सृष्टि पूर्ण यों रचता धाता !!
पाप-पुण्य प्रभु सबके लखता ! यथा योग्य फल निर्णय करता !!
सोच ईश विस्तार यह, लाख उसका निर्माण !
मनुज तनिक सी लब्धि पर, क्यों करता अभिमान !
विफल हुआ तो क्या हुआ, कर प्रभु से संवाद !
शातिमान प्रभु शरण से, मिट जाएँ अवसाद !!
क्या हें संध्या (वैदिक)..???
दिन और रात्रि के, रात्रि और दिन के तथा पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में एकाग्रचित्त होकर जो उपासना की जाती है, उसे संध्या कहते हैं। अथवा उपर्युक्त संधिकाल में विहित उपासना में किए जानेवाले कार्यकलाप को भी संध्या कहते हैं। इस प्रकार सायंकाल, प्रात:काल और मध्यान्हकाल में यह उपासना की जाती है। इन्हीं नामों से तीन संध्याएँ प्रचलित हैं। सूर्यास्त के समय से नक्षत्रोदय पर्वत सायंकाल की संध्या का, अरुणोदय से सूर्योदय पर्यंत प्रात:काल की संध्या का और पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में मध्याह्लकाल को संध्या का समय प्रशस्त है।
ब्रह्मा शब्द का अर्थ ही है वृद्ध, बढ़ा-चढ़ा, पहुंचा हुआ। जो स्वयं “पहुंचा हुआ’ हैवही अन्य को लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। ऐसा व्यक्ति मार्ग प्रदर्शक गुरु होने योग्य होता है। उसके हाथों में बागडोर सोंपी जा सकती है। उसे समर्पण किया जा सकता है। उस पर भरोसा किया जा सकता है। उसके आदेश बिना “किन्तु-परन्तु’ के माने जा सकते हैं। उसका वचन व्यर्थ नहीं जा सकता। वाणी ऐसे ब्रह्मा की दासी होती है।
जीवन यज्ञ की वेदि है। यज्ञ देव की पूजा, देव की संगति, देव का करण और देव के लिए दान को कहते हैं। यज्ञ द्वारा देव का अपने व्यक्तित्व में आविर्भाव किया जाता है। और तब यजमान मनुष्य से ऊपर देव हो जाता है। मनुष्य कहते हैं ऋतहीनता को, देव कहते हैं सत्यात्मता की। यथार्थ तथ्य यह है कि मनुष्य को अन्ततः देव बनना है। देव की जीवनचर्या ऋत कहाती है। देव के विपरीत है असुर। असुर की जीवनचर्या अन्‌-ऋत है। अनृतात्मा मनुष्य असुर होता है। उससे देव मैत्री नहीं करते। अनृत, असुर ये तो सृष्टि की विकृति “बिगाड़’ हैं। बिगाड़ की आयु कितनी भी हो, वह सनातन, शाश्वत काल तक टिक नहीं सकता। प्रकृति की करनी ही कुछ ऐसी है कि वह विकृति का संस्कार करके शोधन कर लेती है। अतः अन्ततः असुर को देख के हाथों परास्त होना ही है। अनृत को छोड़कर मनुष्य को सत्य को लेना ही है।
ऋत के विरोध अथवा ऋतहीनता का अभिप्राय है सत्य के बीज का विनाश अथवा अभाव। ऋत का परिणाम है सत्य। ऋत समष्टि में व्याप्त ऊर्जा वा शक्ति है। सत्य ऋत की ठोस, स्थूल, भोग्य व्यष्टि रूप परिणति है। ऋत को ग्रहण करके उसे ऋतुविधान अथवा कालचक्र के अनुसार सत्य में ढाल लिया जाता है।
केसे करें संध्या वंदन .???
इस संध्या की उपासना के प्रकरण में इसके आठ अंग महत्वपूर्ण बतलाए गए हैं। उनके नाम तथा क्रम इस प्रकार हैं – प्राणायाम, मंत्र आचमन, मार्जन, अघमर्षण, सूर्यार्घ, सूर्योपस्थान, गायत्रीजप और विसर्जन। प्राणायाम एक प्रकार का श्वास का व्यायाम है। इसके तीन अंग बतलाए हैं – पूरक, कुंभक और रेचक। पूरक करते समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाँए छिद्र का बंद करके दाहिने छिद्र से धीरे-धीरे श्वास खींचना चाहिए। गायत्री मंत्र का जप करते रहना चाहिए। साथ ही अपने नाभिप्रदेश में ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए।
कुंभक करने के समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाएँ छिद्र को और हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिदे का बंद करके पूरक द्वारा भरे हुए श्वास को अपने शरीर में रोकना चाहिए। साथ-साथ अपने हृदयप्रदेश में विष्णु का ध्यान करना चाहिए। रेचक करने में दाहिने हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिद को बंद करके बाएँ छिद्र से रोके हुए श्वास को धीरे-धीरे अपने शरीर में से बाहर निकालना चाहिए। इन तीनों ही क्रियाओं को करते हुए एक बार, कुंभक करते हुए चार बार और रेचक करते हुए दो बार मंत्र का आवर्तन करना चाहिए। इस प्रकार किया हुआ कृत्य प्राणायाम कहा जाता है।
प्राणायाम करने से शरीर के भीतरी अंगों की शुद्धि तथा पुष्टि होती है। बुद्धि निर्मल होकर शांति मिलती है। इसको करनेवाले सभी प्रकार के रोगों से मुक्त रहते हैं। प्राचीन काल में ऋषि लोग इसी प्राणायाम के सेवन से अनेकविध अलौकिक कार्यो को करने में समर्थ होते थे। मंत्र
आचमन – दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर मंत्र का पाठ करके हथेली का जल पीना मंत्र आचमन है। इस मंत्र का तात्पर्य यह है कि मैंने मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और जननेंद्रिय के द्वारा जो कुछ पाप किया हो वह सकल पाप नष्ट हो। जल में गंदगी दूर करने की स्वाभाविक शक्ति है। इसमें सकल प्रकार की औषधियों का जीवन निहित है। अन्न के लिए यही प्राण है। इससे विद्युत् की उत्पत्ति देखी जाती है। दुर्भावना, दुर्वासना एवं हर प्रकार के पाप को यह दूर करता है। इसी उद्देश्य से यहाँ पर मंत्र विहित हैं। मार्जन – जिस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए शारीरिक अंगों पर जल छिड़का जाता है उसे मार्जन कहते हैं। मार्जन करने से शारीरिक अंगों की शुद्धि होती है।
अघमर्षण – इसके द्वारा मानव शरीर में विद्यमान दूषित वासनारूपी पापपुरुष को शरीर से पृथक् करना है। इसका विधान इस प्रकार है – दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए जलपूर्ण दाहिने हाथ को नाक के निकट ले जाना चाहिए। इसके साथ ही यह ध्यान करना चाहिए कि नाक के दक्षिण छिद्र से निकलकर पापपुरुष ने हथेली के जल में प्रवेश किया। इसके अनंतर हाथ का जल अपनी बाईं ओर भूमि पर फेंक देना चाहिए।
इस क्रिया का लक्ष्य अपने शरीर से पापपुरुष को बाहर निकालकर मन को पवित्र करना और अपने को उपासना करने के योग्य बनाना है। इस विधान का विस्तार “भूत शुद्धि” प्रकरण में देखना चाहिए। सूर्यार्ध – इस क्रिया के द्वारा अंजलि में जल लेकर गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य को अर्ध दिया जाता है। यह अर्ध तीन बार देना आवश्यक है।
यदि संध्या की उपासना का समय बीत चुका हो और यह उपासना विलंब से की जा रही हो तो प्रायश्चित्त के रूप में एक अर्ध अधिक देना चाहिए। किसी विशिष्ट व्यक्ति के आगमन के उपलक्ष में अर्ध देने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आती है। इसका मूल यही सूर्यार्ध है। “सूर्योपस्थान” – इस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य का उपस्थान किया जाता है। प्रात:काल की सूर्य की किरणें मानव शरीर में प्रविष्ट होकर मानव को स्फूर्ति तथा आरोग्य प्रदान करती हैं। इन किरणों में अनेक रोग दूर करने की शक्ति विद्यमान है। विशेषकर हृदयरोग के लिए ये अत्यंत लाभ करनेवाली सिद्ध हुई हैं। इस समय विद्यमान सूर्यकिंरणचिकित्सा का यही मूल स्रोत है। गायत्रीजप – किसी मंत्र के निरंतर अवर्तन को जप कहते हैं।
कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों से जप तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें मानसिक जप उत्तम कहा है। जप करते हुए मन को एकाग्र और शरीर को निश्चत्त रखना आवश्यक है। जप करते समय मंत्र के देवता का ध्यान करते रहने से देवता के साथ उपासक की तन्मयता हो जाती है। जप के अनंतर सूर्य देवता को जप का समर्पण करना चाहिए।
अंत में अपनी उपासना के निमित्त आवाहित देवता का विसर्जन करना चाहिए। इस प्रकार की हुई उपासना को सर्वव्यापी ब्रह्म को अर्पित कर देना चाहिए। इस विधान के अनुसार निरंतर उपासना करते रहने से मानव अपने शरीर में उत्पन्न होनेवाले समस्त रोगों से दूर रहता है, समस्त सुख प्राप्त करता है और अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है।
इस सत्योपासना के लिए ऋषि यज्ञ करते हैं। यज्ञ का स्थल वेदि कहाता है। वेदि देवनिर्माण की भूमि है। यहॉं मनुष्य को देव में ढाला जाता है। अतः ब्रह्मा ऋषि का याजक-वर्ग को आदेश है कि वेदी की महिमा को समझो। जीवनवेदी यों ही भोग-विलास में बरबाद करने के लिए नहीं है। भोगविलास तो इस मनुष्य योनि से पूर्व की पशु योनियों में खूब-खूब किया ही है। मनुष्य योनि सेतु है पशु से देव तक पहुंचने के लिए। अतः मनुष्य केवल पशु नहीं है, वह उससे कुछ अधिक है। पशु को अपने जीवन से असन्तोष नहीं होता। अतः वह अपने को बदलने की, कुछ उन्नति करने की नहीं सोचता। पशु को लज्जा और पश्चाताप नहीं होते। मनुष्य ही है जो अपने वर्तमान से असन्तुष्ट रहता है और अपने जीवन को बदलने की, उत्थान की सोचता है। अतः देव बनना पशु की नहीं, मनुष्य ही की नियति है। मनुष्य का भूतकाल और वर्तमान काल पशु-कोटि का है। पर वह चाहे तो अपने को पशुत्व से ऊपर उठाकर देव बना सकता है। यह सामर्थ्य उसे अर्थ और काम के वशीभूत होने से नहीं मिल सकती। देवारोहण के लिए उसे “स्व’ क्षेत्र को यज्ञ की “वेदि’ बनाना होगा।
मनुष्य अपने पूर्व संस्कारों से पशु है। अतः उसके चित्त में सब पशुओं के संस्कार संचित हैं। कभी उसका व्यवहार डंक मारने का होता है, कभी डसने का। कभी वह सींग मारता सा प्रतीत होता है, कभी दुलत्ती मारता सा। कभी वह अपनों पर भौंकता है, कभी अपनों को चबाता है। ये सब पशु उसके साथ हैं। पर इन्हें अपनी जीवनवेदि पर चढ़ने नहीं देना है। मनुष्य को चाहिए कि इन पशुओं के साथ जीवनवेदि की पूज्य भाव से परिक्रमा करे। इससे पशु भाव का संयमन होगा और फिर शमन होगा। अभ्य्‌ आ वर्तस्व पशुभिः सहैनां से यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।
पशुशमन से मनुष्य में अब देवताओं का आगमन जीवनवेदि पर होने लगता है। देवता वे शक्तियॉं हैं जो यज्ञ के ऋषि-यजमान की कामना को अर्थ रूप फल से समृद्ध बना सकती हैं। पशु शक्तियों का परिष्कृत, सुसंस्कृत रूपान्तर ही देवता-शक्तियॉं है। कूरता पशुशक्ति है, करुणा देवता शक्ति है। ममता पशु है, त्याग देवता है। भोग की ललक पशु है, संयम देवता है। अविचार पशु है, विचारशीलता देवता है। देवताओं के साथ जीवनवेदि के सामने रहना चाहिए। सामने रहना देवयान से पथ पर रहना है। देवयान से देव स्वर्ग और वेदि के बीच आते जाते हैं। यह यज्ञ के देवों तक पहुंचने का पथ है। देव “स्वः’ तक गमन का पथ जानते हैं। अतः “स्व’ क्षेत्र को “स्वः’ लोक (स्वर्‌-ग)) बनाने के लिए वेदि के सम्मुख देवताओं की संगति में रहना चाहिए। स्व को स्वः बनाने में यज्ञ की सुफलता है और वेदि की सार्थकता है। देवताओं की संगति से पशु कोटि का जीवन एक नवीन रूपान्तर पाकर “वेदि’ उपलब्धि स्थल बन जाता है। इस लब्धि-बिन्दु पर देव मिलते हैं, स्वयं को देवत्व मिलता है, स्वः मिलता है। वेद से वेदि बनती है। वेद कहते हैं ज्ञान को, सत्ता को, लाभ को। वेदि पर आत्म ज्ञान की उपलब्धि, अपनी अजर-अमर-शाश्वत सत्ता का बोध और चिर स्थिर अनन्त आनन्द का लाभ, ये सब सिद्ध हो जाते हैं। वेद क्रमशः ज्ञान-क्रिया-भावना है। यजमान के ज्ञान-क्रिया-भावना, सब देवकोटि के हो जाते हैं। इस प्रकार वेद द्वारा यज्ञ सम्पन्न कर ऋषि देव बनकर आप्तकाम हो जाते हैं।
जिस प्रकार अच्छा सारथी ही रथ को उचित मार्ग पर ले जा सकता है | उसी प्रकार अच्छा ब्रह्म ज्ञानी ही ब्रह्म के जिज्ञासुओं एवं ब्रह्म संस्थानों को आगे बढ़ा सकता है | इस प्रकार के इस उपासक का फल है अपना निर्माण और पर निर्माण | उपासक का यह प्रकार ही सर्व श्रेष्ठ प्रकार है | और सब प्रकार इसी की और ले जाने के साधन हैं |
आपके ज्ञान से बचा हुआ संसार का कोई भी तो अणु नहीं | कारण और कार्य रूप प्रत्येक तत्व आपके विज्ञान से जगमगा रहा है | फलतः आपकी दी हुई गति और आपके विज्ञान का प्रत्येक अणु में प्रसार है |
आप का अपना —
—-पंडित दयानन्द शास्त्री””अंजाना””
—.(. —राजस्थान )

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