आइये जाने षटतिला एकादशी का  महात्म्य व  कथा——


आज .9 -1 -..12 (गुरुवार ) को   षटतिला एकादशी है :—

माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को षटतिला एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी 19 जनवरी, गुरुवार को है। षटतिला एकादशी का महात्मय पुराणों में वर्णित है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इस दिन काले तिलों के दान का विशेष महत्व है। शरीर पर तिल के तेल की मालिश, तिल जल स्नान, तिल जलपान तथा तिल पकवान की इस दिन विशेष महत्ता है। इस दिन तिलों का हवन करके रात्रि जागरण किया जाता है। इस दिन पंचामृत में तिल मिलाकर भगवान को स्नान कराएं। तिल मिश्रित पदार्थ स्वयं खाएं तथा ब्राह्मण को खिलाएं।
इस दिन छ: प्रकार के तिल प्रयोग होने के कारण इसे षट्तिला एकादशी के नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार मनुष्य जितने तिल दान करता है । वह उतने ही सहस्त्र वर्ष स्वर्ग में निवास करता है । १. तिलस्नान, २. तिल की उबटन, ३. तिलोदक, ४. तिल का हवन, ५. तिल का भोजन, ६. तिल का दान, इस प्रकार छः रुपों में तिलों का प्रयोग षट्‌तिला कहलाती है । इससे अनेक प्रकार के पाप दूर हो जाते हैं । ऐसा कहकर पुलस्त्य ऋषि बोले – “अब मैं एकादशी की कथा कहता हूं – एक दिन नारद ऋषि ने भगवान् से षट्‌तिला एकादशी के संबंध में पूछा, वे बोले – “हे भगवन् ! आपको नमस्कार है । षट्‌तिला एकाद्शी के व्रत का पुण्य क्या है ? उनकी क्या कथा है, सो कृपा कर कहिए ।”
इस व्रत से जहां हमें शारीरिक शुद्धि और आरोग्यता प्राप्‍त होती है, वहीं अन्न, तिल आदि दान करने से धन-धान्य में वृद्धि होती है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्राणी जो-जो और जैसा दान करता है, शरीर त्यागने के बाद उसे वैसा ही प्राप्‍त होता है । अतः धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ हमें दान आदि अवश्य करना चाहिए । शास्त्रों में वर्णन है कि बिना दानादि के कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं माना जाता ।

इससे संबंधित एक कथा भी है जो इस प्रकार है- —
    

क बार नारद मुनि भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां उन्होंने भगवान विष्णु से षटतिला एकादशी की क्या कथा तथा उसके महत्व के बारे में पूछा। तब भगवान विष्णु ने उन्हें बताया कि- प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की पत्नी रहती थी। उसके पति की मृत्यु हो चुकी थी। वह मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी। एक बार उसने एक महीने तक व्रत रखकर मेरी आराधना की। व्रत के प्रभाव से उसका शरीर तो शुद्ध तो हो गया परंतु वह कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री वैकुण्ठ में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं स्वयं एक दिन उसके पास भिक्षा लेने गया।

ब्राह्मण की पत्नी से जब मैंने भिक्षा की याचना की तब उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों पश्चात वह देह त्याग कर मेरे लोक में आ गई। यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह घबराकर मेरे पास आई और बोली की मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली? तब मैंने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है। मैंने फिर उसे बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब तक वे आपको षटतिला एकादशी के व्रत का विधान न बताएं।

स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से षटतिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गई। इसलिए हे नारद इस बात को सत्य मानों कि जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्नदान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।

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