सूर्य उपासना/आराधना  का महत्व —–

( कब और केसे करें सूर्य पूजा..???)—-


वैदिक युग से भगवान सूर्य की उपासना का उल्लेख मिलता हैं। ऋग्वेद में सूर्य को स्थावर जंगम की आत्मा कहा जाता हैं। सूर्यात्मा जगत स्तस्थुषश्च ऋग्वेद ./115 वैदिक युग से अब तक सूर्य को जीवन स्वास्थ्य एवं शक्ति के देवता के रूप में मान्यता हैं। छान्दोग्य उपनिषद में सूर्य को ब्रह्म कहा गया हैं। आदित्यों ब्रह्मेती। पुराणों में द्वादश आदित्यों, सूर्याे की अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें उनका स्थान व महत्व वर्णित हैं। धारणा हैं, सूर्य संबधी कथाओं को सुनकर पाप एवं दुर्गति से मुक्ति प्राप्त होती हैं। एवं मनुष्य का अभ्युत्थान होता हैं। हमारे ऋषियों ने उदय होते हुए सूर्य को ज्ञान रूप ईश्वर स्वीकारते हुए सूर्योपसना का निर्देश दिया हैं। तेत्तिरीय आरण्यकसूर्य पुराण में भागवत में उदय एवं अस्तगामी सूर्य की उपासना को कल्याणकारी बताया गया हें। प्रश्नोंपनिषद में प्रातःकालीन किरणों को अमृत वर्षी माना गया हैं (विश्वस्ययोनिम) जिसमें संपूर्ण विश्व का सृजन हुआ हैं। वैदिक पुरूष सुक्त में विराट पुरूष सुक्त में विराट पुरूष ब्रहम के नेत्रों से सूर्य की उत्पत्ती का वर्णन हैं। 

सूर्य ब्रह्मण्ड की क्रेन्द्रक शक्ति हैं । यह सम्पूर्ण सृष्टि का गतिदाता हैं । जगत को प्रकाश ज्ञान, ऊजा, ऊष्मा एवं जीवन शक्ति प्रदान करने वाला व रोगाणु, कीटाणु (भूत-पिचाश आदि) का नाशक कहा गया है। वैदों एवं पुराणों के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान भी इन्ही निष्कर्षो को कहता हैं कि सूर्य मण्डल का केन्द्र व नियन्ता होने के कारण पृथ्वी सौर मण्डल का ही सदस्य हैं । अतः पृथ्वी व पृथ्वीवासी सूर्य द्वारा अवश्य प्रभावीत होते हैं । इस तथ्य को आधुनिक विज्ञान भी मानता हैं तथा ज्योतिष शास्त्र में इसी कारण इसे कालपुरूष की आत्मा एवं नवग्रहों में सम्राट कहा गया हैं । 

भारतीय संस्कृति में सूर्य को मनुष्य के श्रेय एवं प्रेय मार्ग का प्रवर्तक भी माना गया हैं। कहा जाता हैं कि सूर्य की उपासना त्वरित फलवती होती हैं। भगवान राम के पूर्वज सूर्यवंशी महाराज राजधर्म को सूर्य की उपासना  से दीर्ध आयु प्राप्त हुई थी। श्रीकृष्ण के पुत्र सांब की सूर्याेपसना से ही कुष्ठ रोग से निवृत्ति हुई, ऐसी कथा प्रसिद्ध हैं। चाक्षुषोपनिषद के नित्य पाठ से नेत्र रोग ठीक होते हैं। हमारे यहां पंच उपासन पद्धतियों का विधान हैं, जिनमें शिव, विष्णु, गणेश सूर्य एवं शक्ति की उपासना की जाती हैं। उपासना विशेष के कारण उपासकों के पांच संप्रदाय प्रसिद्ध हैं। शैव, वैष्णव, गणपत्य एवं शक्ति। वैसे भारतीय संस्कृति एवं धर्म के अनुयायी  धार्मिक सामथ्र्य भाव से सभी की पूजा अर्चना करते हैं, किन्तु सूर्य के विशेष उपासक और संप्रदाय के लोग आज भी उड़ीसा में अधिक है।

नवग्रहों में सर्वप्रथम ग्रह सूर्य हैं जिसे पिता के भाव कर्म का स्वामी माना गया हैं । ग्रह देवता के साथ-साथ सृष्टि के जीवनयापन में सूर्य का महत्वपूर्ण योगदान होने से इनकी मान्यता पूरे विश्व में हैं । नेत्र, सिर, दात, नाक, कान, रक्तचाप, अस्थिरोग, नाखून, हृदय पर सूर्य का प्रभाव होता हैं ये तकलीफें व्यक्ति को सूर्य के अनिष्टकारी होने के साथ-साथ तब भी होती हैं जब सूर्य जन्मपत्रिका में प्रथम, द्वितीय, पंचम, सप्तम या अष्टम भाव पर विराजमान रहता हैं । तब व्यक्ति को इसकी शांति उपाय से सूर्य चिकित्सा करनी चाहिये। जिन्हें संतान नहीं होती उन्हें सूर्य साधना से लाभ होता हैं । पिता-पुत्र के संबंधों में विशेष लाभ के लिए सूर्य साधना पुत्र को करनी चाहिए । यदि कोई सूर्य का जाप मंत्र पाठ प्रति रविवार को 11 बार कर ले तो व्यक्ति यशस्वी होता हैं । प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती हैं । सूर्य की पूजा-उपासना यदि सूर्य के नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं कृतिका में की जाये तो बहुत लाभ होता हैं । सूर्य के इन नक्षत्रों में ही सूर्य के लिए दान पुण्य करना चाहिए । संक्रांति का दिन सूर्य साधना के लिए सूर्य की प्रसन्नता में दान पुण्य देने के लिए सर्वोत्तम हैं । सूर्य की उपासना के लिए कुछ महत्वपूर्ण मंत्र की साधना इस प्रकार से हैंे – 


सूर्य मंत्र  –  ऊँ सूर्याय नमः । 


तंत्रोक्त मंत्र –  ऊँ ह्यं हृीं हृौं सः सूर्याय नमः । 

  ऊँ जुं सः सूर्याय नमः ।


सूर्य का पौराणिक मंत्र – 

जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम । 

तमोडरि सर्वपापघ्नं प्रणतोडस्मि दिवाकरम् । 


सूर्य का वेदोक्त मंत्र-विनियोग – 


ऊँ आकृष्णेनेति मंत्रस्य हिरण्यस्तूपऋषि, त्रिष्टुप छनदः 

सविता देवता, श्री सूर्य प्रीत्यर्थ जपे विनियोगः ।

मंत्र –  ऊँ आ कृष्णेन राजसा वत्र्तमानों निवेशयन्नमृतं मत्र्य च । 


हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् । 


सूर्य गायत्री मंत्र – 


1. ऊँ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहितन्नः सूर्य प्रचोदयात् । 

.. ऊँ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि तन्नो रविः प्रचोदयात् । 


अर्थ मंत्र –  ऊँ एहि सूर्य ! सहस्त्रांशो तेजोराशि जगत्पते । 

करूणाकर में देव गृहाणाध्र्य नमोस्तु ते । 


सूर्य मंत्र ऊँ सूर्याय नमः व्यक्ति चलते-चलते, दवा लेते, खाली समय में कभी भी करता रहे लाभ मिलता है । तंत्रोक्त मंत्रों में से किसी भी एक मंत्र का ग्यारह हजार जाप पूरा करने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं । नित्य एक माला पौराणिक मंत्र का पाठ करने से यश प्राप्त होता हैं । रोग शांत होते हंै । सूर्य गायत्री मंत्र के पाठ जाप या 24.00 मंत्र के पुनश्चरण से आत्मशुद्धि, आत्म-सम्मान, मन की शांति होती हैं । आने वाली विपत्ति टलती हैं, शरीर में नये रोग जन्म लेने से थम जाते हैं । रोग आगे फैलते नहीं, कष्ट शरीर का कम होने लगता हैं। अध्र्य मंत्र से अध्र्य देने पर यश-कीर्ति, पद-प्रतिष्ठा पदोन्नति होती हैं । नित्य स्नान के बाद एक तांबे के लोटे में जल लेकर उसमें थोड़ा सा कुमकुम मिलाकर सूर्य की ओर पूर्व दिशा में देखकर दोनों हाथों में तांबे का वह लोटा लेकर मस्तक तक ऊपर करके सूर्य को देखकर अध्र्य जल चढाना चाहिये । सूर्य की कोई भी पूजा-  आराधना उगते हुए सूर्य के समय में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं । 

जन्मांक में सूर्य द्वारा जातक की आरोग्यता, राज्य, पद, जीवन-शक्ति, कर्म, अधिकार, महत्वाकांक्षा, सामर्थय, वैभव, यश, स्पष्टता, उग्रता, उत्तेजना, सिर, उदर, अस्ति, एवं शरीर रचना, नैत्र, सिर, पिता तथा आत्म ज्ञान आदि का विचार किया जाता हैं । जातक का दिन में जन्म सूर्य द्वारा पिता का तथा रात्रि में जन्म, सूर्य द्वारा चाचा एवं दाए नैत्र का कारक कहा गया हैं। यात्रा प्रभाव व उपासना आदि के विचार में भी सूर्य की भूमिका महत्वपूर्ण हैं । कुछ ज्योतिर्विद सूर्य को उग्र व क्रुर होने के कारण पापग्रह भी मानते हैं । किन्तु कालपुरूष की आत्मा एवं सर्वग्रहों में प्रधान होने के कारण ऐसा मानना तर्कसंगत नहीं हैं । सर्वविदित हैं कि सूर्य की अपने पुत्र शनि से नहीं बनती । इसका भाग्योदय वर्ष 22 हैं । 

सूर्य के अनिष्ट निवारण हेतु उपाय – 

1.  ढाई किलो गुड़ ले और जिस रविवार को भी सूर्य के नक्षत्रों में से एक भी नक्षत्र पड़े उस दिन सूर्य उदय के समय गुड़ के टुकड़े-टुकड़े करके सूर्य मंत्र का पाठ करके गुड़ को बहाकर सूर्य देव की कृपा प्राप्ति  हेतु प्रार्थना करें । ऐसा 9 बार लगातार करना चाहिए । दुर्लभ कार्य भी सफल होते हैं और रोग नियंत्रण में हो जाते हैं । 

2 सूर्य की प्रसन्नता के लिए आदित्य हृदय स्त्रोंत, सूर्य स्त्रोत एवं शिवप्रोक्तं सूर्याष्टकं का नियमानुसार पाठ करना चाहिए । 

.. प्रति रविवार को अग्नि में दूध इतना उबाले की दूध उबलकर अग्नि में गिरे और जलने लगे । अनिष्ट सूर्य की शांति के लिए ऐसा प्रति रविवार को 100 ग्राम दूध अग्नि में होम करना चाहिए । 

4.़ सूर्य नमस्कार नामक व्यायाम प्रातः सूर्योदय के समय करें । विष्णु भगवान का पूजन करें । ग्यारह या इक्किस रविवार तक गणेशजी को लाल फूलों का अर्पण करें । गुलाबी वस्त्र, नारंगी, चन्दन की लकड़ी आदि का दान करें । 

5. रविवार का अथवा शिवजी का व्रत रखें, इस दिन नमक का प्रयोग न करें । व्रत में पूर्ण ब्रम्हचर्य से रहें सत्कार्य करें । शिवपुराण या सूर्य पुराण पढें । पूजा या स्वाध्याय में अधिक से अधिक समय व्यतीत करें । 

       रविवार को गायत्री मंत्र की एक माला कम से कम सूर्योदय से पूर्व शुद्ध होकर जपे और सूर्योदय के समय सूर्यनमस्कार कर, सूर्य को अध्र्य देकर विष्णुसहस्त्र नाम का पाठ करें । 

6 लाल वस्त्र, लाल चन्दन, ताम्र पात्र, केसर, गुड़, गेहूॅ, अनाज, रोटी, सोना व माणिक्य रत्न का दान करे रविवार को प्रातः गाय को गाजर, टमाटर, गाजर का हलवा (लाल रंग का भोज्य पदार्थ) खिलावें ।

7. कहीं भी घर से बहार जावे तो थोड़ा से गुड़ का टुकड़ा मुह में खाते हुए जाए ।  


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  पं0 दयानन्द शास्त्री 

विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,  

पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार, 

झालरापाटन सिटी (राजस्थान) 326023

मो0 नं0 — .,

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सृष्टि के महत्वपूर्ण आधार हैं सूर्य देवता। सूर्य की किरणों को आत्मसात करने से शरीर और मन स्फूर्तिवान होता है। नियमित सूर्य को अर्घ्य देने से हमारी नेतृत्व क्षमता में वृद्धि होती है। बल, तेज, पराक्रम, यश एवं उत्साह बढ़ता है। 

मस्त जगत के जीवनदाता, ज्योति एवं उष्णता के परम पुंज तथा समस्त ज्ञान के स्वरूप सर्वोपकारी देव श्री सूर्य नारायण के महत्त्व से सभी भली भांति परिचित हें..

देवी अदिति के गर्भ से जिनकी उत्पति है, भगवान विराट के नेत्रों से जिनकी अभिव्यक्ति है, जो, श्रद्धा भाव से अर्घ्य प्रस्तुत करने मात्र से ही उपासक की समस्त पीडाओं को दूर कर, सफलता के मार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं, ऎसे सूर्यदेव निश्चय ही देवरूप में पूजे जाने के अधिकारी हैं. हिन्दु संस्कृ्ति में श्री गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य—-ये पाँचों देव आदि देव भगवान के ही 5 प्रमुख पूज्य रूप हैं.

जो सूर्य ग्रह रूप में आकाश में दृ्ष्ट है, वह तो मात्र एक स्थूल रूप है. वास्तविकता में सूर्य का विस्तार तो अनन्त है. इस ब्राह्मंड में अनगिनत आकाश गंगाएं हैं तथा प्रत्येक में असँख्य सूर्य प्रकाशमान हैं. अत: यह जानना ही लगभग असंभव है कि सम्पूर्ण ब्राह्मंड कितने सूर्यों से जगमगा रहा है. शास्त्रानुसार तो यह सभी उस अज्ञात महासूर्य का भौतिक जगत में स्थूलरूप से विस्तार है. प्राणदायिनी उर्जा एवं प्रकाश का एकमात्र स्त्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है. निश्चय ही भारतीय संस्कृ्ति नें सूर्य के इस सर्वलोकोपकारी स्वरूप को बहुत पहले ही जान लिया था. इसीलिए भारतीय संस्कृ्ति में सूर्य की उपासना पर पर्याप्त बल दिया गया है. सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के अनेकानेक लाभ हैं. निष्काम भाव से दिन रात निरन्तर अपने कार्य में रत सूर्य असीमित विसर्ग (त्याग) की प्रतिमूर्ति हैं.
सूर्य द्वारा ग्रीष्म काल में पृ्थ्वी के जिस रस को खींचा जाता है, उसे ही चतुर्मास (चौमासे) में हजारों गुणा करके पृ्थ्वी को सिंचित कर दिया जाता है. ऎसे सूर्य देव सबको इतना ही समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल तत्व है. भारतीय संस्कृ्ति भी तो इसी भावना से ओतप्रोत रही है. आज भौतिकता की दौड नें भले ही हमारी जीवन शैली को अत्यधिक प्रभावित कर दिया हो, पर सच तो यह है कि इस परिस्थितिजन्य दुष्प्रभावों से बचने के लिए सूर्योपासना और भी आवश्यक हो गई है तथा समय के साथ इसका महत्व और भी बढ गया है.
सही मायनों में तो बाल्याकाल से ही हर मनुष्य को सूर्योपासना का महत्व समझाया जाना चाहिए. यदि बचपन से ही बालक सूर्य नमस्कार करे तथा सूर्य को अर्घ्य दे, तो निश्चित ही बालक बलवान, तेजस्वी एवं यशस्वी बनेगा तथा उसे जीवन में कभी भी नेत्र और ह्रदय रोग आदि से पीडित होने का कोई भय नहीं रहेगा.
अत: प्रात:काल सूर्य को अर्घ्य(जल) प्रदान करना निश्चित ही लाभकारी है. यह क्रिया वैज्ञानिक कारणों से भी अत्यंत श्रेष्ठ है, क्यों कि प्रात: उदित होते हुए सूर्य में लाभदायक किरणें होती हैं, जो नेत्रों के लिए स्वास्थय्वर्द्धक हैं. सूर्य को जल देने का सही तरीका यह है कि जल पात्र को ह्रदय की ऊँचाई तक ले जाकर फिर जल गिराना चाहिए और नेत्रों को पात्र के दोनों किनारों पर बनने वाले सूर्य के प्रतिबिम्ब पर स्थिर रखना चाहिए; साथ ही यदि सभव हो तो निम्नांकित मन्त्र का भी उच्चारण करते रहें तो समझिए सोने पे सुहागा.

एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजो राशे: जगत्पते
अनुकंपय मां भक्तया गृ्हणार्घ्य दिवाकर: !!

सूर्य की किरणें अपने प्रभाव के द्वारा इस जगत के समस्त जीवों एवं वनस्पतियों का पालन करने में सक्षम हैं. इस प्रभाव के कारंण पृ्थ्वी के भिन्न भिन्न स्थानों पर पाये जाने वाली वनस्पतियाँ एवं जीव-जन्तुओं में विविधता पायी जाती है तथा जीवन के विकास में इस तथ्य का महत्वपूर्ण स्थान है. जैव विविधता के साथ ही सूर्य किरणें अलग अलग स्थान पर रहने वाले प्राणियों की प्रकृ्ति एवं उनके मन-मस्तिष्क को भी प्रभावित करती हैं.
सूर्य के इसी महत्व को देखते हुए भारतीय ज्योतिष में भी सूर्य को अति विशिष्ट स्थान दिया गया है. ज्योतिष में इसे ग्रहराज और चक्षु कहा गया है. मानव शरीर में यह नेत्रों तथा आत्मा का कारक है तथा पारिवारिक दृ्ष्टि से पिता एवं सामाजिक दृ्ष्टि से राजसुख एवं स्वाभिमान का कारकत्व प्राप्त है. यदि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में सूर्य बलवान हो, तो, उसे जीवन में कदापि पुत्रहीनता का सामना नहीं करना पडता, इसके साथ ही उसका पिता सुख भी अच्छा होगा.
सूर्य अनुकूलता हेतु कुछ अनुभवसिद्ध उपाय :-
* सूर्य को नित्य प्रात:काल स्नान उपरांत उपरोक्त वर्णित मन्त्र बोलते हुए, ताँबे के पात्र से अर्घ्य(जल) दें. यदि सम्भव हो तो लाल पुष्प भी अर्पित करें. 
* जो इन्सान पुत्रहीनता का कष्ट झेल रहे हैं अथवा जिनका अपनी संतान संग वैचारिक मतभेद रहता है, संतान आज्ञाकारी नहीं है तो ऎसे व्यक्तियों को पूर्ण श्रद्धा भाव से नित्य सूर्य के द्वादश नामों का उचारण करना चाहिए—

आदित्य: प्रथमं नाम द्वितीयं तु विभाकर:
तृ्तीयं भास्कर: प्रोक्तं चतुर्थं च प्रभाकर:!!
पंचम च सहस्त्रांशु षष्ठं चैव त्रिलोचन:
सप्तमं हरिदश्वश्च अष्टमं च विभावसु:!!
नवमं दिनकृ्त प्रोक्तं दशमं द्वादशात्मक:
एकादशं त्रयोमूर्तीद्वादशं सूर्य एव च!!
द्वादशैतानि नामानि प्रात:काले पठेन्नर:
दु:स्वप्ननाशनं सद्य: सर्वसिद्धि: प्रजायते!!
आयुरारोग्यमैश्वर्य पुत्र-पौत्र प्रवर्धनम
ऎहिकामुष्मिकादीनि लभन्ते नात्र संशय:!!

* प्रात:कल नियमित सूर्य नमस्कार करने से शरीर हष्ट पुष्ट रहता है. रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृ्द्धि होती है.
* सूर्य प्रकाश(धूप) में बैठकर कनेर, दुपहरिया, देवदारू, मैनसिल, केसर और छोटी इलायची मिश्रित जल से नियमित स्नान से पक्षाघात, क्षय(टीबी), पोलियो, ह्रदय विकार, हड्डियों की कमजोरी आदि रोगों में शर्तिया विशेष लाभ प्राप्त होता है.


पराक्रम बढ़ाए सूर्य आराधना —

 ‘ॐ घृणिं सूर्य्य: आदित्य: ।।’ 
सृष्टि के महत्वपूर्ण आधार हैं सूर्य देवता। सूर्य की किरणों को आत्मसात करने से शरीर और मन स्फूर्तिवान होता है। नियमित सूर्य को अर्घ्य देने से हमारी नेतृत्व क्षमता में वृद्धि होती है। बल, तेज, पराक्रम, यश एवं उत्साह बढ़ता है। 

सूर्य अर्घ्य देने की विधि —–– सर्वप्रथम प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व शुद्ध होकर स्नान करें। 
– तत्पश्चात उदित होते सूर्य के समक्ष आसन लगाए। 
– आसन पर खड़े होकर तांबे के पात्र में पवित्र जल लें। 
– उसी जल में मिश्री भी मिलाएँ। कहा जाता है कि सूर्य को मीठा जल चढ़ाने से जन्मकुंडली के दूषित मंगल का उपचार होता है। 
– मंगल शुभ हो तब उसकी शुभता में वृद्दि होती है। 
– जैसे ही पूर्व दिशा में सूर्यागमन से पहले नारंगी किरणें प्रस्फूटित होती दिखाई दे आप दोनों हाथों से तांबे के पात्र को पकड़कर इस तरह जल चढ़ाएँ कि सूर्य जल चढ़ाती धार से दिखाई दें। 
– प्रात:काल का सूर्य कोमल होता है उसे सीधे देखने से आँखों की ज्योति बढ़ती है। 
– सूर्य को जल धीमे-धीमे इस तरह चढ़ाएँ कि जलधारा आसन पर आ गिरे ना कि जमीन पर। 
– जमीन पर जलधारा गिरने से जल में समाहित सूर्य-ऊर्जा धरती में चली जाएगी और सूर्य अर्घ्य का संपूर्ण लाभ आप नहीं पा सकेंगे। 
– अर्घ्य देते समय निम्न मंत्र का पाठ करें – 

‘ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते। 
अनुकंपये माम भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर:।। (11 बार) 

– ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय, सहस्त्रकिरणाय। 
मनोवांछित फलं देहि देहि स्वाहा : ।। ( 3 बार) 


– तत्पश्चात सीधे हाथ की अँजूरी में जल लेकर अपने चारों ओर छिड़कें। 
– अपने स्थान पर ही तीन बार घुम कर परिक्रमा करें। 
– आसन उठाकर उस स्थान को नमन करें। 

ऐसे करें पोष मास में सूर्य आराधना—-

पुराणों में प्रत्येक माह में सूर्य के एक विशिष्ट रूप की उपासना बताई गई है। पौषमाह में भग नामक सूर्य की आराधना का विधान बताया गया है। पौषमाह के हर रविवार को ताम्र पात्र में शुद्ध जल, लाल चंदन और लाल रंग के फूल डालकर सूर्य के ही एक स्वरूप भग को अ‌र्घ्यदें।
इस दिन उन्हें तिल-चावल की खिचडी का भोग लगाने और व्रत रखने से मनुष्य तेजस्वी होता है, ऐसी मान्यता है। कहते हैं कि पौषके जाडे में भग सूर्य ग्यारह हजार रश्मियोंके साथ तपकर सर्दी से राहत देते हैं। इनका वर्ण रक्त के समान है। शास्त्रों में ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य को भग कहा गया है और इनसे युक्त को ही भगवान माना गया है।
यह तथ्य भग नामक सूर्य को साक्षात नारायण का स्वरूप मानने के लिए पर्याप्त है। इस माह के प्रत्येक रविवार को ॐ विष्णवेनम: मंत्र पढकर सूर्य को अ‌र्घ्यदेना चाहिए। रविवार-व्रत में सूर्य को तिल-चावल की खिचडी का भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि यह व्रत रखने से मनुष्य तेजस्वी बनता है। क्षारसिद्धमोदक का भोग पौषमास के शुक्लपक्ष की सप्तमी मार्तण्ड सप्तमी के नाम से मशहूर है। इस तिथि को सुबह, दोपहर और शाम पूजन करने और क्षारसिद्धमोदक का भोग लगाने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं। पकते हुए घी में नमक डालकर उसे निकाल दें और फिर आटे को भूनकर क्षारसिद्ध मोदक बनाएं। भोजन, गोदान और भूमि पर शयन करने से यह व्रत पूर्ण होता है।
मान्यता है कि आदित्य पुराण में वर्णित इस विधि का पालन करने से व्रती की मनोकामना पूरी होती है। ध्यान रहे कि रविवार को नमक नहीं खाना चाहिए और सूर्यास्त के बाद भोजन न करें। पौषमास से प्रारंभ करके साल भर तक प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन सूर्य के निमित्त व्रत और पूजन से मनोबल, आरोग्य, तेजस्विता और प्रसिद्धि प्राप्त होती है। व्रत के साथ गायत्री मंत्र के जाप से कई गुना शक्ति मिलती है। रुक्मिणी की पूजा पौष-कृष्ण-अष्टमीके दिन भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी भगवती रुक्मिणी की पूजा करने से सुख-सौभाग्य मिलता है। पौषके कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन उपवास करने और श्रीहरिको फलों का भोग लगाने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
पौषके शुक्लपक्ष की द्वितीया से शुरू करके प्रत्येक माह शुक्लपक्ष की दूज को बालेंदु [द्वितीया के चन्द्रमा] की पूजा करने से आरोग्य प्राप्त होता है। इस दिन सफेद कपडे पहनकर, ब्राह्मणों को गुड, दही, खीर खिलाकर और स्वयं छाछ पीकर व्रत करना चाहिए। इस माह में शीत ऋतु से संबंधित वस्तुओं-ऊनी वस्त्र, कंबल, जलाने की लकडी आदि का दान करना चाहिए।
व्रत-उपवास में असमर्थ व्यक्ति दान देकर पुण्य अर्जित कर सकते हैं। ब्रजमंडलमें धनुर्मास[सौर पौषमास] में कुछ देवालयों में ठाकुरजीको खिचडी का ही भोग लगाया जाता है। पौषके प्रत्येक बृहस्पतिवार के दिन बेलवनमें लक्ष्मीजीकी पूजा-अर्चना होती है। दक्षिण भारत के मंदिरों में इस मास में अनेक उत्सव सम्पन्न होते हैं।

सूर्य आराधना का विशेष अवसर देता हें-मकर संक्रांति—-
मकर संक्रांति का पर्व पूरे भारत में मनाया जाता है। यह सूर्य आराधना का पर्व है जिसे दक्षिण भारत में पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन से सौर नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है जबकि सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में गति करने लगता है। इसे सौरमास भी कहा जाता है। ज्योतिषानुसार इस दिन से सूर्य मकर राशि में गमन करने लगता है इसीलिए इसे मकर संक्रांति कहते हैं।
भारत के अलग-अलग प्रांतों में इस त्योहार को मनाए जाने के ढंग भी अलग हैं, लेकिन इन सभी के पीछे मूल ध्येय मानव की एकता और समानता है। मकर सक्रांति को पोंगल, लोहड़ी, पतंग उत्सव, तिल सक्रांति आदि नामों से भी जाना जाता है। इस दिन पवित्र नदी में स्नान करने का, तिल-गुड़ खाने का तथा सूर्य को अर्घ्य देने का अपना एक महत्व है। इस दिन से दिन धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है। यह दिन दान और आराधना के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। मकर संक्रांति से सभी तरह के रोग और शोक मिटने लगते हैं। माहौल की शुष्कता कम होने लगती है।
* क्या है सौरमास?

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सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है। यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी अट्ठईस और उन्तीस दिन का भी होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है।

12 राशियों को बारह सौरमास माना जाता है। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। इस राशि प्रवेश से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है। सौर-वर्ष के दो भाग हैं- उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। पुराणों अनुसार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है। उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा होता है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है जबकि सूर्य कुंभ से मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का समय होता है जबकि चंद्रमास अनुसार आषाढ़ या श्रावण मास चल रहा होता है। व्रत से रोग और शोक मिटते हैं।

सौरमास के नाम : मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्‍चिक, धनु, कुंभ, मकर, मीन

आपके लग्न अनुसार ऐसे करें सूर्य आराधना—-
ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से सूर्य हमें नेत्र सुख, अन्न एवं यश-प्रसिद्धि देते हंै। सूर्य को प्रथम एवं नवम भाव का कारक ग्रह कहा जाता है। सूर्य का आधिपत्य दशम भाव पर भी है। आइए जानते हैं कि लग्न के अनुसार सूर्य से क्या प्राप्ति होती है और किसी भी दोष निवारण के लिए हमें सूर्य देव की आराधना कैसे करनी चाहिए- 
मेष लग्न—–
मेष लग्न के लिए सूर्य पंचम स्थान का स्वामी होता है। इन जातकों के लिए सूर्य से नेत्रसुख, संतान सुख एवं पूर्ण शिक्षा और उच्च शिक्षा का आशीर्वाद मिलता है। सूर्य का अपनी मित्र राशि में होने से आकस्मिक धन लाभ और आध्यत्मिक शक्ति प्रदान करता है। सूर्य देव की कृपा प्राप्ति के लिए इस दिन सूर्योदय से पहले स्नान कर सूर्य देव पर जल चढ़ाना चाहिए। लाल वस्त्र पर सूर्य देव की प्रतिमा लगाकर, तीन बार “आदित्यह्वदयस्त्रोतम” का जाप करें। 

वृष लग्न—-
वृष लग्न के लिए सूर्य का आधिपत्य चतुर्थ भाव पर होता है। इस लग्न के लिए सूर्य देव गृह सुख, माता सुख, भूमि, वाहन, भवन, संपत्ति, अन्त:करण की शुद्धता, उदर व्याधि जनता से सुख आदि देते हैं। किसी भी तरह के अशुभ फलों को दूर करने के लिए इस दिन पूजा का विशेष विधान है। इस दिन सूर्यदेव का व्रत रखें और प्रात:काल सूर्यदेव की पूजा करे जल चढ़ाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करते रहना श्रेष्ठकर होता है। “ॐ घृणि सूर्याय नम:”। 

मिथुन लग्न—
मिथुन लग्न पर सूर्य का आधिपत्य कुंडली के तृतीय भाव पर होता है। इस भाव पर सूर्यदेव अपना पूर्ण नियंत्रण रखते हैं। भाई एवं बहनों का सुख, आत्म नियंत्रण, पराक्रमी लेखक, चुगल खोरी, खांसी, क्षय, दमा इत्यादि बातों का शुभ एवं अशुभफल प्राप्ति में सूर्यदेव का पूर्ण योगदान रहता है। इन जातकों को इस दिन सुबह सूर्य को अध्र्य दें और एक बार “आदित्यह्वदयस्त्रोतम” का जाप करें। “ॐ ह्रा ह्रौं सूर्यायनम:” की माला जाप लाभदायक।

कर्क लग्न—
कर्क लग्न के लिए सूर्य द्वितीय भाव पर पूर्व आधिपत्य रखते हैं। इस लग्न के लिए सूर्य देव, सम्पत्ति, धन, वित्त, गायन, मारक विचार राज्यसभा एवं धातु ज्ञान आदि शुभ-अशुभ फल देते हैं। जातकों को सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिए इस दिन का उपवास करना चाहिए। यदि नेत्र रोग हो और अन्य कोई रोग हो तो सूर्य को जल चढ़ाते समय जल में आंकड़ें के पुष्प डालें। “आदित्यह्वदयस्त्रोतम” का तीन बार पठन लाभदायक। 

सिंह लग्न—-
सूर्य देव सिंह लग्न के लिए विशेष महत्व के होते हैं क्योंकि लग्न के स्वामी होने के साथ प्रथम भाव के कारकेश भी होते हंै। सूर्य देव इस लग्न के जातकों को इष्टसिद्धि, आयु, स्वभाव, कद-काठी, सिर के रोग, मान प्रतिष्ठा, नेत्र -रोग, जीवन संघर्ष मुख का ऊपरी भाग, सद्गुण और शुभ-अशुभ फल देते हंै। ऎसे जातकों को जल में रोली और चावल डालकर सूर्य पर चढ़ाना चाहिए। साथ ही लाल वस्त्र पर सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित कर “ॐ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहि तन्नो: सूर्य: प्रचोदयात” का तीन मालाओं का जाप करना चाहिए। 

कन्या लग्न—-
कन्या लग्न के लिए सूर्य का आधिपत्य कुंडली के बारहवें भाव पर होता है। इस लग्न के जातकों को सूर्यदेव से अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिए जातकों को सूर्य षष्ठी के दिन अवश्य पूजा अर्चना करनी चाहिए। इन जातकों को सूर्यदेव की पूजा अर्चना निम्न मंत्र की एक माला जप करनी चाहिए। “ॐ आकृष्णेनरजसा वर्तमानों निवेशयन्त्रमृतं मत्र्यं्च हिरण्ययेन सविता रयेनादेवोयाति भुवनानि पश्यन”। 

तुला लग्न —-
तुला लग्न के लिए भी सूर्य का विशेष महत्व होता है क्योंकि कि तुला लग्न के लिए सूर्यदेव आय भाव पर अपना आधिपत्य रखते हंै। आय सम्पत्ति ऎश्वर्य, इच्छापूर्ति, रोगों से निदान, पुत्रवधु, दामाद, पिंडली के रोग, गु# धन, पैतृक सम्पत्ति आदि शुभ एवं अशुभ फल तुला लग्न के जातकों को सूर्यदेव से प्रसन्न होते हंै। तुला लग्न के जातकों को इस दिन व्रत रख बच्चों को अनाज से बनी मिठाई बांटनी चाहिए। 

वृश्चिक लग्न—
सूर्यदेव वृश्चिक लग्न के दशम भाव पर अपना पूर्ण आधिपत्य रखते हैं। आदर, सम्मान, पिता की प्रतिष्ठा, उच्च पद, सरकारी सम्मान, धार्मिक उत्सव, माता पिता की अंत्येष्टि, मुंह एवं घुटने के रोग आदि शुभ एवं अशुभ फलों की प्राप्ति सूर्यदेव की कृपा से प्राप्त होती है। इस दिन सूर्योदय से पहले सूर्य पर जल चढ़ाते समय “ॐ घृणि: सूर्याय नम:” का जप करना चाहिए। आदित्यह्वदयस्त्रोतम” का पठन भी लाभदायक होता है। 

धनु लग्न—
धनु लग्न के लिए सूर्य भाग्यभाव का स्वामी होता है। नवम का कारकेश भी ज्योतिषशास्त्र में सूर्यदेव ही होते हंै। इस लग्न के लिए सूर्य देव भाग्य, धर्म, पुत्र की उच्च शिक्षा, विलम्ब, तपस्या, पूर्ण संचित द्रव्य, पाप-पुण्य, बुद्धिमत्ता, स्वप्न, आत्माओं से संपर्क आदि अच्छे एवं बुरे फल देते हैं। इस दिन सूर्यदेव की पूजा अर्चना धनुलग्न के जातकों को अवश्य करनी चाहिए। पूजा के घी का अखंड दीप भी सूर्यदेव के लिए जलाना भाग्य वृद्धि में विशेष सहायक होता है। इस दिन किसी पुजारी को लाल वस्त्र दान करना गरीबों को गेहंू दान करना अतिश्रेष्ठ होता है। 

मकर लग्न —-
मकर लग्न के लिए सूर्य का आधिपत्य कुंडली के अष्टम भाव पर होता है। इस लग्न के लिए सूर्य देव से आयु, मृत्यु का कारण, व्याधि, संकट गु# रोग इत्यादि शुभ एवं अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। इन अशुभफलों को कम करने के लिए सुबह सूर्यदेव को जल चढ़ाएं और “आदित्यह्वदयस्त्रोतम” का जप करें। “ॐ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहि तन्नो: सूर्य: प्रचोदयात” इस मंत्र की एक माला जरूर जपें। 

कुंभ लग्न—–
कुंभ लग्न में सूर्य का आधिपत्य कुंडली के स#म भाव पर होता है। इस लग्न के लिए सूर्य देव से स्त्री, कामवासना, वस्तु, का खोना, व्यापार, विवाह, सांसारिक संबंध, विदेश से मान-सम्मान, जीवन में संकट, मारक भाव, जननेन्दियों के रोग, बवासीर रोग आदि शुभ एवं अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। इस दिन पुरूष जातक को अपनी पत्नी एवं स्त्री जातक को अपने पति की मंगल कामना के लिए सूर्यदेव का व्रत रखकर सूर्यदेव की आराधना करनी चाहिए।

मीन लग्न—-
मीन लग्न में सूर्य का आधिपत्य कुंडली के छठे भाव पर होता है। इस लग्न के लिए सूर्यदेव से ऋण, रोग, वैरी, पीड़ा, संदेह, चिंता, शंका आदि शुभ एवं अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। सूर्य देव इस लग्न के शुभ फल ही देते हंै। इस दिन सूर्य पर जल चढ़ाते समय 31 लाल मिर्च के बीजों के साथ जल चढ़ाने से शुभफल प्राप्त होते हैं। इस दिन “ॐ हा्रं ह्रीं ह्रौं सूर्याय नम:” की एक माला जप करने से अशुभ फलों में कमी एवं शुभफलों की प्राप्ति होती है।

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