*****###स्वप्न सुन्दरी##*******  

दुनिया ने तो हरदम मुझको, हंस हंस खूब सताया। 
अपना बनकर लूटा जी भर कर खूब रूलाया।।
एक तुम्हीं थी जिसको मैंने, अपना था हर जख्म दिखाया। 
तुमने ही तो प्यार का मरहम जख्मों पर था सदा लगाया।। 
लेकिन हवा बही कुछ ऐसी, जो अपना था हुआ पराया। 
कारण सबसे पूछा लेकिन नहीं किसी ने मुझे कुछ बताया।। 
तुझसे प्रीति लगाकर जालिम, अब छोड़ा हमें नहीं जाता।
अपनों की इस भीड़-भाड़ में, सदा अकेला खुद को पाता।। 
खुद को भूल गया मैं लेकिन, तुझको भुला न पाया।
सबसे दूर हो गया मैं, अच्छा अपना तुम्हें बनाया।। 
घुटा जा रहा दम सीने में, फिर भी हिम्मत नहीं हारता। 
देखो मेरा दीवानापन, अब भी मैं तुमको की पुकारता।।
सहकर हर पीड़ा को मैं तो अब तक आगे बढ़ता आया।
लेकिन अब मुश्किल लगता हैं मन में घोर अंधेरा छाया।। 
खत कैसे मैं तुमको लिखता, मन अपना मैं रहा मारता।
दिल का हाल कहूं मैं कैसे, लिख-लिख खत मैं रहा फाड़ता।।
पंडित दयानन्द शास्त्री ’’बंधु’’ 
विनायक एस्ट्रो-वास्तु शोध संस्थान
पुराने पावर हाऊस के पास, 
कसेरा बाजार, झालरापाटन 
जिला झालावाड़ (राज.) ..6.23
ोबा.: . ;;;.    

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