शिव का प्रारूप शिवलिंग का अश्लीय व्याखान करना अनुचित है

4607626927_149ef11bdeआकाशं लिंगमित्याहु : पृथ्वी तस्य पितीकाआलय: सर्वदेवानाम लायानालिंग्मुच्यातेय आकाश लिंग है ,पृथ्वी उसकी पिटिका है.सब देवतौं का आलय है. इसमें सबका लय होता है. इसीलिए इसे लिंग कहते है शिवलिंग का अपने  प्रादुर्भाव की कथा शिवपुराण और लिंगपुराण दोनों में है.लिंग्पुरण के .7 वे अध्याय में एक कथा प्रचलित है और शिव महा पुराण में द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम सृष्टीखंड में यह प्रकरण आता है.वर्तमान स्वेत्वराह कल्प के पहले इस ब्रह्माण्ड की सृष्टी के समय जब देवो  की सृष्टी समाप्त हो गयी और चार हजार युग के अंत में वर्षा नही हो पाई.  तब सूर्य के प्रकाश से पशु .मनुष्य ,वृछ ,सभी ताप से जर कर मर गये .सर्वनाश हो गया .तब ब्रम्हा जी शिव की माया से वशीभूत हो गये और आत्म बोध से रिक्त हो गये,और छीर सागर में जाकर श्री हरी से क्रोध में आकर कहा तू कौन -?विष्णु जी ने कहा पुत्र -स्वागत है. ब्रम्हा जी ने कहा की में सारे विश्व का रचेता हो और ये कोन मुर्ख है जो मुझे पुत्र कह रहा है .विष्णु जी ने कहा की मेने इस सृष्टी के करता धर्ता के लिए तुम्हे उत्पन किया है.दोनों देवो में विवाद हुवा और प्रलय समुद्र में युद्ध होता रहा .उन दोने के युद्ध को समाप्त करने के लिय ,एक ज्वाला अग्नि का महास्तंभ प्रगट हुवा जो ऊपर-नीचे से अनादी और अनंत था .विष्णु ने ब्रम्हा से कहा इस अग्नि लिंग का आदि अनादी का पता नही चल रहा हमने लाखो वर्षो तक विपरित दिशा गमन करने के बाद भी   इस लिंग का थाह नही पा रहे .तब विष्णु और ब्रम्हा ने साथ-साथ  शिव रूपी अग्निलिंग की पूजा अर्चना की और शिव का ध्यान किया .फिर देवो के देव महाकाल शिव ने दर्सन दिए और कहा की ब्रम्हा जी का कार्य सृष्टी की उत्पति करना ,विष्णु जी का पालन ,और शंकर का संहार करना कर्तव्य है.इसी समय से भगवान ब्रम्हा का नाम हंस और विष्णु का वराह नाम पड़ा  इसी कारण वर्तमान कल्प का नाम स्वेत्वराह   पड़ा .उसी समय शिव की कृपा से ब्रम्हा ने सृष्टी का कार्य आरम्भ  किया…इस कथा के अंतर्गत शिव के लिंग का पहली बार प्रादुर्भाव हुवा .श्री राम ,श्री कृष्ण ने भी अपने जीवन काल में शिव के लिंग के ही पूजन से शिव की कृपा प्राप्त कर पाए. लिंग पुराण में यह श्लोक उधरित है. आकाश लिंग है ,पृथ्वी उसकी पिटिका है.सब देवतौं का आलय है. इसमें सबका लय होता है. इसीलिए इसे लिंग कहते है. यह एक संयोग की ही बात है की लिंग शब्द के अनेक अर्थो में लोक प्रचलित अर्थ अश्लील है. वैदिक शब्दों का यौगिक अर्थ लेना ही समीचीन माना जाता है. यौगिक अर्थ में कोई अश्लीलता नही रह जाती है. इसके आलावा अश्लीलता और अनुचित दीखता है वही वैज्ञानिक और अध्यात्मिक भावो में और श्लील और समुचित हो जाता है. .हिन्दू समाज में मनुष्य का जीवन परम पुरुषार्थ मुक्ति अथवा मोक्छ है.जो देवाधिदेव ,भूतनाथ ,भवानीपति भगवान शिव की आराधना से सहज संभव है. जैसे वृछ के मूल को जल देने से शाखा आदि की पुष्टि होती है उसी प्रकार से शिव पूजन से संसार रूपी शरीर की पुष्टि होती है. .भगवान महेश्वर अलिंग है. प्रकृत ही प्रधान लिंग है.महेश्वर निर्गुण है.प्रकित सगुण है. लिंग शब्द का अर्थ चिन्ह होता है.देव चिन्ह के रूप में लिंग -शब्द-लिंग-के लिए ही उपयोग होता है.अन्य प्रतिमाओ को हम मूर्ति कहते है ,करण यह है की औरों का आकर मूर्तिमान के ध्यान के अनुसार होता है.परन्तु लिंग में आकर और रूप का आलेख नही है ,लिंग तो एक चिन्ह मात्र ही है.शिवलिंग का अर्थ ज्ञापक अर्थात प्रगट करने वाला है.क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पति हुवी है ,दूसरा अर्थ आलय है ,अर्थात यह प्राणियों का परम कारण और निवास स्थान है.तीसरा अर्थ “लीयते यस्मिन्त्न्नती लिगं “अर्थात सब द्रश्य जिसमे लय हो जाएँ .वह परम कारण लिंग है. लिंग शब्द की भीं यही स्थिति है. लिंगार्चन में अश्लीलता के भाव की कल्पना परम मुर्खता ,परम नास्तिकता और घोर अनभिज्ञता है,यह वेद ,पुराणों,उपनिषद ,संहिता ,ऋषि ,मुनियों देवता व् आचार्यो का सर्वमत है. लिंग पुराण के शिव अविनाशी ,निर्दोष ,निर्गुण ,अलख ,देवादिदेव महादेव,है.शिव महापुराण के अंतर्गत भगवान शिव के लिंगात्मक शवरूप का वर्रण होता है. शिव के लिंग रूप का पूजन अर्चन अनादिकाल से चला आ रहा है .और नित निरंतर चलता रहेगा सिर्फ भारत में नही अपितु पुरे संसार भर में है..भारत में ही नही पोरे विश्व में शिव का पूजन होता था ,इसके आधुनिक कल और आजकल के समय में भी अवशेष मिलते रहते है .ईसाई धर्म के प्रचार के पूर्व पाश्चात्य देशों की प्राय :सभी जातियों में किसी न किसी रूप में लिंग पूजा सर्वत्त प्रचलित रही है. रोम और यूनान में क्रमश :प्रियेपस और फल्लुस नाम से लिंग अर्चना होती थी ,और नंदी की भी पूजन के प्रमाण मिलते है.मिस्त्र देश में तो हर और ईशी :की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था .इन तीनों देशों में प्राय : फाल्गुन मास में ही वसंतोत्सव के रूप में लिंग पूजा वार्षिक समारोह पूर्वक होती थी.प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंगपूजा के प्रमाण मिलते है. पुरानी मूर्तियों से यह भी अनुमान होता है. की अमेरिका के महाद्वीपों के प्राचीन निवासी भी लिंगपूजा किया करते थे.वैसे अब पहले की तरह पूजा नही होती  फिर भी फ़्रांस के अनेक स्थानों में अब तक लिंग देखने में आते है. तुर्किस्तान के “बेबीलॉन”नगर में एक हजार दो सौ फुट का एक महालिंग है.पृथ्वी पर इतना बड़ा शिवलिंग अन्यत्र कही नही है.इसी तरेह हेड्रपोलिस नगर में एक विशाल शिवालय है. जिसमें तीन सौ फुट का शिवलिंग है.ब्राजील में बहुत से शिवलिंग हैं जो की अती प्राचीन है. यूरोप के कारिन्थ नगर में तो पार्वती मंदिर भी पाया जाता है.स्कॉट्लैंड (ग्लासगो )में एक सुवर्णाच्चित्त  शिवलिंग है.जिसकी पूजा वह के लोग बड़े भक्ति भाव से करते है.फरक इतना सा है की उनके और हमारे पूजन में फरक है.भगवान शिव का आस्तिव्य सिर्फ भारत में नही अपितु पुरे संसार भर में है.यहूदियों के देशों में शिवलिंग बहुत है, काबुल बलख बुखारा आदि में शिवलिंग प्राय मिलते है झा इन्हें पंच्शेखर और पंचविर नामो से पुकारते है.साथ ही साथ वहा पर भगवान बुध के भी प्रतिमाये पाई जाती है. इंडोचाइना के अनाम देश जिसे पुराण में चंपा कहा जाता था वहा के रजा कट्टर शिवभक्त थे.और उन्होंने ही कम्बोडिया ,जवाद्विप सुमात्रा ,जिनका प्राचीन नाम यब और सुवरंद्विप था ,वहा अनेको शिवलिंग है.जावाद्विपके बीच “प्र्बनन “नगर के समीप .लाराजोग्रंग नामक प्रसिद्ध शिव मंदिर है. इस मंदिर में मनुस्याकर महादेव,जी विराजित है.जिनकी लम्बाई तक़रीबन 11 फुट से ज्यादा है. इस शिव मंदिर में शिवगुरु (ऋषि अगस्त )गणपति ,दुर्गा ,आदि की भी मुर्तिया भी है.  शिवलिंग की पूजा व्यापक और अत्यंत प्राचीन है. हमारे देश में तो हिमालय में मानसरोवर और कलास से लेकर कन्याकुमारी और रामेश्वरम तक और अटक से लेकर कटक शिव लिंगों और शिवालयो की कोई गणना नही है. अगिनित लिंग और शिवालय है.शिव करुणा के सागर है जब जब किसी ने उन्हें प्रेम से पुकारा वो वही कल्याण की दृष्टी से वही आविभूर्त हुवे और ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा सदा के लिय वास कर गये .आदि कल में शिव के लिंग या शिव द्रोही जो धर्म के बारे में दुराग्रह पालते है ,और धार्मिक विषयों पर ऊँगली उठाते है.पहले के काल में शिव और शिव लिंग के शब्द के बारे अश्लील व्याख्यान करने वाले लोग नही होते थे ,लेकिन पश्चिमी संस्कृति के वासी भूत होकर प्राय लोग धर्म की पवित्र आस्थाओ को दुसित और कलंकित करते है .और लिंग शब्द का अपमान भी करते है कुछ लोग धर्म को नही जानते और धर्मिता की बाते करते है .किसी भी धर्म को जाने बिना उसकी बुराई या धार्मिक चिन्हों देवी देवताओ का अपमान करना निंदनीय है.किसी भी देश का धर्म उस देश को जोड़ने और एकजुट रहने में एक अहम् भूमिका निभाता है.तोडना आशान है और जोड़ना मुस्किल .एक महापुरुष ने कहा है की जो धर्म किसी दुसरे धर्म की बुराई करता है उसमे खुद कही खोट होता है.और हिन्दू धर्म तो सत्य सनातन धर्म .है .ऋषि वात्सायन ने भी जब आपने ग्रन्थ कामसूत्र को लिखा तो इस बात को पहले भी साफ किया की रति कार्य में लिंग की अपनी अलग प्रसिंग्कता है और उन्होंने बार बार जोर देके कहा भी की अश्लील समझने वाले शब्दों का जोड़ तरोड़ करके कुछ  और ही मतलब निकल सकते है . देवादि देव महादेव उन को सन्मति दे.

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