श्रीकृष्ण तक पहुंचने का मार्ग हैं राधा—
भगवान श्रीकृष्ण को समझने और पाने के लिए युगों-युगों से ऋषि-मुनि, संत-विद्वान भगवती राधा का आश्रय लेते रहे हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण के प्रेम-रस का पान करने और भक्तों को कराने के लिए कवि भी राधा-भाव ग्रहण करने की कोशिश करते रहे हैं। सदा से श्रीराधाही श्रीकृष्ण-प्रेम के भजनों की प्रेरणास्त्रोत रही हैं।
श्रीकृष्ण की भक्ति, प्रेम और श्रृंगार रस की त्रिवेणी जब हृदय में प्रवाहित होती है, तब मन तीर्थराज बन जाता है। सत्यम्- शिवम्-सुंदरम्का यह महाभावही राधाभाव कहलाता है। श्रीकृष्ण हैं आनंदघन वैष्णवों के लिए श्रीकृष्ण परम आराध्य हैं। वे श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते हैं। संत जन यह जानते हैं कि श्रीकृष्ण ही परमपुरुष और आनंदघनहैं।
आनंद ही उनका स्वरूप है। श्रीकृष्ण ही मूर्तिमान आनंद हैं। इसलिए आनंदघनभगवान श्रीकृष्ण की उपासना मात्र वैष्णवों के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए आनंददायक है। प्रत्येक प्राणी जन्म से मृत्यु तक प्रतिक्षण आनंद की तलाश में रहता है, क्योंकि आनंद के सिवा अन्य कोई चीज उसके लिए दुर्लभ नहीं है।
आनंद किसे कहते हैं? आनंद कहां है? और वह आनंद कैसे मिल सकता है? ये बातें आम आदमी नहीं जान पाता है। वह सांसारिक विषयों में आनंद खोजता है, लेकिन वहां से उसे आनंद नहीं मिलता। अनेक जन्मों के पुण्यकर्मोका फल संचित होने पर ही प्राणी यह मर्म जान पाता है कि श्रीकृष्ण ही आनंद का मूर्तिमान स्वरूप हैं। सद्गुरु की कृपा और सत्संग से इस रहस्य के उजागर होते ही मनुष्य की जन्म-जन्मांतर की जिज्ञासा शांत हो जाती है। तब उसके समक्ष यह प्रश्न आता है कि आनंदघनश्रीकृष्ण को पाया कैसे जाए? ऐसी स्थिति में प्राणी कृष्ण-प्रेम की अधिष्ठात्री भगवती राधा की शरण लेता है।
यह ध्यान रखिए कि जहां आनंद है, वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है, वहीं आनंद है। आनंद बिना प्रेम के नहीं होता और प्रेम बिना आनंद नहीं होता।
जिस प्रकार श्रीकृष्ण आनंद का घनीभूत विग्रह हैं, उसी तरह राधाजीप्रेम की घनीभूत मूर्ति हैं। इसलिए जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां राधा हैं, वहीं श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण बिना राधा या राधा बिना कृष्ण की कल्पना के संभव नहीं हैं। इसी कारण श्रीराधामहाशक्ति कहलाती हैं। राधिका हैं राधा श्रीराधोपनिषदमें राधा का परिचय देते हुए कहा गया है- कृष्ण इनकी आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं और ये सदा कृष्ण की आराधना करती हैं, इसीलिए राधिका कहलाती हैं। ब्रज की गोपियां और द्वारकाकी रानियां इन्हीं श्रीराधाकी अंशरूपाहैं। ये राधा और ये आनंद-सागर श्रीकृष्ण एक होते हुए भी क्रीडा [लीला] के लिए दो हो गए हैं। श्रीराधिकाश्रीकृष्ण की प्राण हैं। इन राधा रानी की अवहेलना करके जो श्रीकृष्ण की भक्ति करना चाहता है, वह उन्हें कभी पा नहीं सकता। श्रीकृष्ण की आत्मा अथर्वेदीयराधिकातापनीयोपनिषत्का भी कहना है कि श्रीराधिकाजी और आनंदसिंधुश्रीकृष्ण एक ही शरीर और एक दूसरे से अभिन्न हैं। केवल लीला के लिए वे दो स्वरूपों में व्यक्त हुए हैं, जैसे शरीर अपनी छाया से शोभित हो। स्कंदपुराणके अनुसार श्रीराधाभगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। उनके साथ सदा रमण करने के कारण ही ऋषि-मुनि श्रीकृष्ण को आत्माराम कहते हैं।
इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें राधारमण कहकर पुकारते हैं। पद्म पुराण में परमानंद रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है। इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता। भविष्य पुराण और गर्ग संहिता के अनुसार, द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतरित हुए, तब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन महाराज वृषभानुकी पत्नी कीर्ति के यहां भगवती राधा अवतरित हुई। तब से भाद्रपद- शुक्ल- अष्टमी राधाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई।
वैष्णवजनइस तिथि के दिन बडी श्रद्धा और उल्लास के साथ व्रत-उत्सव करते हैं। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखेंगे, तो यह पाएंगे कि कृष्ण प्रेम की सर्वोच्च अवस्था ही राधाभावहै।
राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है। उनका सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पित है, लेकिन वे बदले में उनसे कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। राधा हमेशा श्रीकृष्ण को आनंद देने के लिए उद्यत रहती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब सर्वस्व-समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन हो जाता है, तभी वह राधा-भाव ग्रहण कर पाता है। इसलिए कृष्णप्रेमरूपीगिरिराज का शिखर है राधाभाव।तभी तो श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने के लिए हर कोई राधारानीका आश्रय लेता है।
महाभावस्वरूपात्वंकृष्णप्रियावरीयसी।
प्रेमभक्तिप्रदेदेवि राधिकेत्वांनमाम्यहम्॥

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