गुरू-पूर्णिमा..GURU PURNIMA —–
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। [.]
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।[.]
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। [.]अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। [क] बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। [ख]
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
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आषाढ़ मास की पूर्णिमा ‘व्यास पूर्णिमा’ कहलाती है। गोवर्धन पर्वत की इस दिन लाखों श्रद्धालु परिक्रमा देते हैं । बंगाली साधु सिर मुंडाकर परिक्रमा करते हैं क्योंकि आज के दिन सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ था । ब्रज में इसे ‘मुड़िया पूनों’ कहा जाता है । आज का दिन गुरु–पूजा का दिन होता है । इस दिन गुरु की पूजा की जाती है। पूरे भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। वैसे तो व्यास नाम के कई विद्वान हुए हैं परंतु व्यास ऋषि जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, आज के दिन उनकी पूजा की जाती है। हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यास जी ही थे। अत: वे हमारे आदिगुरु हुए। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु की पूजा किया करते थे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा अर्पण किया करते थे। इस दिन केवल गुरु की ही नहीं अपितु कुटुम्ब में अपने से जो बड़ा है अर्थात माता-पिता, भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझना चाहिए।
आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि यानि कि पूर्णिमा ही गुरु पूर्णिमा के रूप जगत प्रसिद्ध है। इसी दिन से संन्यासी चातुर्मास प्रारंभ करते हैं। वे एक स्थान पर रुक जाते हैं, धर्म की शिक्षा देने के लिए। यही दिन वेदों का विभाजन करने वाले महर्षि वेद व्यास का जन्मदिन भी है और कालगणना की महत्वपूर्ण इकाई मन्वंतर का आदि दिन भी।
गुरु पूर्ण है, इसीलिए पूर्णिमा ही गुरु की तिथि है। इस संदेश के साथ कि गुरु के बगैर जीवन में गुरुता संभव नहीं है। गुरु का अर्थ है ज्ञान, गुरु का अर्थ है बड़ा। हम बड़े कैसे बनें, यह भी गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है। वरना मार्ग भटकने का अंदेशा है। मार्ग न भटकें इसीलिए गुरु का दर्शन और मार्गदर्शन आवश्यक है। गुरु से कुछ लिया है तो देना भी होगा। गुरु चूंकि गुरु है, इसलिए वे लेंगे तो कुछ नहीं पर हम आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ के समापन के साथ आभार का पर्व है। गुरु के प्रति आभार का और आशीर्वाद प्राप्त करने का। ताकि हम जीवन में कुछ बन सके। गुरु की कृपा से,आषाढ़ के अंतिम दिन।
इस दिन (गुरु पूजा) प्रात:काल स्नान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। उन्हें ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। इस पर्व को श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मन्त्र है-
‘गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।’
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।
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कैसे करें गुरुपूर्णिमा व्रत…
आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा कहते हैं। भारत में यह त्योहार पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है। प्राचीन काल में गुरु के आश्रम में जब विद्यार्थी निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन गुरु का पूजन करके उन्हें दान-दक्षिणा देकर उन्हें पादपूजन करता था।
इस व्रत के लिए ‍नीचे कुछ उपयोगी जानकारी दी जा रही है।
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ।
* श्रीपर्गी वृक्ष की चौकी पर अथवा घर में ही किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र फैलाकर उस पर प्रागपर (पूर्व से पश्चिम) तथा उदगपर (उत्तर से दक्षिण) गंध से बारह-बारह रेखाएँ बनाकर व्यासपीठ बनाएँ।
* तत्पश्चात ‘गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ मंत्र से संकल्प करें।
* इसके बाद दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ें।
* अब ब्रह्माजी, व्यासजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा, आवाहन आदि करें।
* फिर अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा कर उन्हें दक्षिणा दें।
क्या करें क्या न करें?
– व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए।
– इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।
– इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
– यह पर्व श्रद्धा से मनाया जाता है, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं।
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चातुर्मास के अन्दर देव शयनी एकादशी के बाद पूर्णिमा के पहले दिन गुरु पूर्णिमा यानि व्यास पूर्णिमा मनाने की परंपरा है। चतुर्दशी के दिन वायु परीक्षा भी की जाती है। वायु परीक्षा का सीधा सम्बन्ध मॉनसून के दौरान कृषि और बागवानी सहित पशु धन और अन्य साग सब्जी के उत्पादन का पूर्वानुमान लगाना निहित है।
वायु परीक्षा के दिन अगर पूर्व और पश्चिम की वायु चले तो आगामी खरीफ की फसल भरपूर होती है। अगर उत्तर और दक्षिण की वायु चलती है तो अनेक प्रान्तों में सूखा और बाढ़ की स्थिति होती है। मौसम का यह पूर्वानुमान लगाना वैदिक परम्परा के अनुसार आज भी हमारी कृषि संस्कृति में अचूक माना जाता है ।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यानी व्यास पूर्णिमा इसलिए भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में शिक्षा की गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार ग्रहण की जाती थी। इस दिन शिष्य गण अपने ग्राम या आवास से लौटकर उनके आश्रम में जाकर उनकी प्रसन्नता के लिए अन्न वस्त्र और द्रव्य से उनका पूजन करते थे। उसके उपरान्त चार महीने के विकट परिश्रम से उन्हें धर्म ग्रन्थ, वेद शास्त्र तथा अन्य विद्याओं की जानकारी और शिक्षण प्रशिक्षण का फल गुरु महाराज के आश्रम में मिलता था।
शिक्षा दीक्षा की इस अटूट परम्परा को आज भी हमारे कई गुरुकुल यथा पूर्व बनाए हुए हैं। हरिद्वार , ऋषिकेश व उत्तराखंड के कई स्थलों में और काशी, बनारस एवं उज्जैनी में भी आज भी विद्यार्थीगण गुरुओं के आश्रम में जाकर वेद – पुराण , ज्योतिष , आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। गुरु पूर्णिमा के दिन प्रधान गुरुओं की प्रतिष्ठा करके उन्हें अच्छे आसन में बैठाकर फूल माला अर्पित की जाती है। आश्रम के सभी शिष्यगण क्रमवार आकर अपनी गुरुदक्षिणा उन्हें समर्पित कर उनका पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं तथा ज्ञान , विज्ञान, धर्म शास्त्र जैसे गूढ़ विषयों में पारंगत होने के लिए दिनरात एक करके परिश्रम करते हैं।
गुरु कृपा से प्राप्त होने वाली यह विद्या न केवल भारत में बल्कि चीन , जापान , इंडोनेशिया , श्रीलंका , मलयेशिया , अरब , इंग्लैंड और अमेरिका आदि देशों के शिष्यगण भी प्राप्त करने के लिए प्राचीनकाल में भारत आए थे और उनकी यह अभिरुचि आज भी हमारे आश्रम मठ मंदिर और गुरुद्वारे एवं मस्जिद आदि में बरकरार है। धर्मो की शिक्षा के साथ ही वेद , राजनीति , अर्थशास्त्र , चिकित्सा , ज्योतिष जैसे विषय भी गुरु पूर्णिमा के तत्वावधान में भारत के विभिन्न धर्माचार्यों एवं गुरुओं के आश्रमों में निरन्तर रूप से पढ़ाए जा रहे हैं। आजकल ट्रस्ट एवं सम्पन्न गुरुओं के आश्रम एवं श्रद्धाधाम में अनेक प्रकार के तकनीकी और गैर तकनीकी विषयों पर गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार शिक्षा दी जा रही है। गुरु पूर्णिमा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में आज भी उतनी ही कारगर है , जितनी की हजारों साल पहले थी।
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The Guru Purnima—Hindus attach paramount importance to spiritual gurus. Gurus are often equated with God and always regarded as a link between the individual and the Immortal. Just as the moon shines by reflecting the light of the sun, and glorifies it, all disciples can dazzle like the moon by gaining from their Gurus.
What is Guru Purnima?
The full moon day in the Hindu month of Ashad (July-August) is observed as the auspicious day of Guru Purnima, a day sacred to the memory of the great sage Vyasa. All Hindus are indebted to this ancient saint who edited the four Vedas, wrote the 18 Puranas, the Mahabharata and the Srimad Bhagavata. Vyasa even taught Dattatreya, who is regarded as the Guru of Gurus.
Significance of Guru Purnima
On this day, all spiritual aspirants and devotees worship Vyasa in honor of his divine personage and all disciples perform a ‘puja’ of their respective spiritual preceptor or ‘Gurudevs’.
This day is of deep significance to the farmers, for it heralds the setting in of the much-needed rains, as the advent of cool showers usher in fresh life in the fields. It is a good time to begin your spiritual lessons. Traditionally, spiritual seekers commence to intensify their spiritual ‘sadhana’ from this day.
The period ‘Chaturmas’ (“four months”) begins from this day. In the past, wandering spiritual masters and their disciples used to settle down at a place to study and discourse on the Brahma Sutras composed by Vyasa, and engage themselves in Vedantic discussions.
The Role of the Guru
Swami Sivananda asks: “Do you realize now the sacred significance and the supreme importance of the Guru’s role in the evolution of man? It was not without reason that the India of the past carefully tended and kept alive the lamp of Guru-Tattva. It is therefore not without reason that India, year after year, age after age, commemorates anew this ancient concept of the Guru, adores it and pays homage to it again and again, and thereby re-affirms its belief and allegiance to it. For, the true Indian knows that the Guru is the only guarantee for the individual to transcend the bondage of sorrow and death, and experience the Consciousness of the Reality.”
At the Sivananda Ashram, Rishikesh, the Guru Purnima is celebrated every year on a grand scale.
1. All aspirants awake at Brahmamuhurta, at 4 o’clock. They meditate on the Guru and chant his prayers.
2. Later in the day, the sacred worship of the Guru’s Feet is performed. Of this worship it is said in the Guru Gita:
Dhyaana moolam guror murtih;
Pooja moolam guror padam;
Mantra moolam guror vakyam;
Moksha moolam guror kripa
“The Guru’s form should be meditated upon; the feet of the Guru should be worshipped; his words are to be treated as a sacred Mantra; his Grace ensures final liberation”.
3. Sadhus and Sannyasins are then worshipped and fed at noon.
4. There is continuous Satsang during which discourses are held on the glory of devotion to the Guru in particular, and on spiritual topics in general.
5. Deserving aspirants are initiated into the Holy Order of Sannyas, as this is a highly auspicious occasion.
6. Devout disciples fast and spend the whole day in prayer. They also take fresh resolves for spiritual progress.
The Guru’s Advice
Swami Sivananda recommends: “Wake up at Brahmamuhurta (at 4 a.m.) on this most holy day. Meditate on the lotus feet of your Guru. Mentally pray to him for his Grace, through which alone you can attain Self-realisation. Do vigorous Japa and meditate in the early morning hours.
“After bath, worship the lotus feet of your Guru, or his image or picture with flowers, fruits, incense and camphor. Fast or take only milk and fruits the whole day.
In the afternoon, sit with other devotees of your Guru and discuss with them the glories and teachings of your Guru.
“Alternatively, you may observe the vow of silence and study the books or writings of your Guru, or mentally reflect upon his teachings. Take fresh resolves on this holy day, to tread the spiritual path in accordance with the precepts of your Guru.
“At night, assemble again with other devotees, and sing the Names of the Lord and the glories of your Guru. The best form of worship of the Guru is to follow his teachings, to shine as the very embodiment of his teachings, and to propagate his glory and his message.”
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बॉलीवुड के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन का मानना है कि जीवन में उजियारा लाने का काम सिर्फ गुरु ही कर सकता है और गुरु-शिष्य परंपरा को सँजोकर रखने की जरूरत है।
बच्चन ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि गुरु पूर्णिमा का शुभ दिन हमें अपने जीवन में गुरु का महत्व बताता है। गुरु वह है, जो हमें जीवन जीना सिखाने के साथ ज्ञान और प्रेरणा देता है।
बच्चन के मुताबिक गुरू हमें शिक्षा देकर हमारे जीवन में उजियारा लाता है और हमें बेहतर इनसान बनाता है।
बच्चन ने लिखा है कि गुरु से मिली शिक्षा की ही बदौलत किसी भी व्यक्ति का विकास होता है, जिससे अंतत: देश का विकास होता है।
बच्चन ने गुरु पूर्णिमा के अवसर पर लिखा है कि हमारे देश में लंबे समय से गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है, जिसे सँजोकर रखने की जरूरत है।
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अपना ईश्वरीय वैभव जगाने का पर्वः
गुरु पूर्णिमा
पूज्य श्री की दिव्य अमृतवाणी
गुरुपूर्णिमा का दूसरा नाम है व्यास पूर्णिमा। वेद के गूढ़ रहस्यों का विभाग करने वाले कृष्णद्वैपायन की याद में यह गुरुपूर्णिमा महोत्सव मनाया जाता है। भगवान वेदव्यास ने बहुत कुछ दिया मानव-जाति को। विश्व में जो भी ग्रंथ है, जो भी मत, मजहब, पंथ है उनमें अगर कोई ऊँची बात है, बड़ी बात है तो व्यासजी का ही प्रसाद है।
व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।
एक लाख श्लोकों का ग्रंथ ‘महाभारत’ रचा उन महापुरुष ने और यह दावा किया कि जो महाभारत में है वही और जगह है व जो महाभारत में नहीं है वह दूसरे ग्रन्थों में नहीं हैः यन्न भारते तन्न भारते। चुनौती दे दी और आज तक उनकी चुनौती को कोई स्वीकार नहीं कर सका। ऐसे व्यासजी, इतने दिव्य दृष्टिसम्पन्न थे कि पद-पद पर पांडवों को बताते कि अब ऐसा होगा और कौरवों को भी बताते कि तुम ऐसा न करो। व्यासजी का दिव्य ज्ञान और आभा देखकर उनके द्वारा ध्यानावस्था में बोले गये ‘महाभारत’ के श्लोकों का लेखनकार्य करने के लिए गणपति जी राजी हो गये। कैसे दिव्य आर्षद्रष्टा पुरुष थे।
ऐसे वेदव्यासजी को सारे ऋषियों और देवताओं ने खूब-खूब प्रार्थना की कि हर देव का अपना तिथि-त्यौहार होता है। शिवजी के भक्तों के लिए सोमवार और शिवरात्रि है, हनुमानजी के भक्तों के लिए मंगलवार व शनिवार तथा हनुमान जयंती है, श्री कृष्ण के भक्तों को लिए जन्माष्टमी है, रामजी के भक्तों के लिए रामनवमी है तो आप जैसे महापुरुषों के पूजन-अभिवादन के लिए भी कोई दिन होना चाहिए। हे जाग्रत देव सदगुरु ! हम आपका पूजन और अभिवादन करके कृतज्ञ हों। कृतज्ञनता के दोष से विद्या फलेगी नहीं।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः……
जैसे ब्रह्मा सृष्टि करते हैं ऐसे आप हमारे अंदर धर्म के संस्कारों की सृष्टि करते हैं, उपासना के संस्कारों की सृष्टि करते हैं, ब्रह्मज्ञान के संस्कारों की सृष्टि करते हैं। जैसे विष्णु भगवान पालन करते हैं ऐसे आप हमारे उन दिव्य गुणों का पोषण करते हैं और जैसे शिवजी प्रलय करते हैं ऐसे आप हमारी मलिन इच्छाएँ, मलिन वासनाएँ, मलिन मान्यताएँ, लघु मान्यताएँ, लघु ग्रन्थियाँ क्षीण कर देते हैं विनष्ट कर देते हैं। आप साक्षात् परब्रह्मस्वरूप हैं…. तो गुरु का दिवस भी कोई होना चाहिए। गुरूभक्तों के लिए गुरुवार तय हुआ और व्यासजी ने जो विश्व का प्रथम आर्ष ग्रंथ रचा ‘ब्रह्मसूत्र’, उसके आरम्भ दिवस आषाढ़ी पूर्णिमा की ‘व्यासपूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा’ नाम पड़ा।
तो इस दिन व्यासजी की स्मृति में ‘अपने-अपने गुरु में सत्-चित्-आनंदस्वरूप ब्रह्म परमात्मा का वास है’ ऐसा सच्चा ज्ञान याद करके उनका पूजन करते हैं। गुरुपूनम पर हम तो अपने गुरुदेव को मन ही मन स्नान करा देते थे, मन ही मन गुरूदेव को वस्त्र पहना देते थे, मन ही मन तिलक करते और सफेद, सुगंधित मोगरे के फूलों की माला गुरु जी को पहनाते, फिर मन ही मन आरती करते। और फिर गुरु जी बैठे हैं, उनका मानसिक दर्शन करते-करते उनकी भाव-भंगिमाएँ सुमिरन करके आनंदित होते थे, हर्षित होते थे। हम तो ऐसे व्यासपूनम मनाते थे। अपने व्यासस्वरूप गुरु के ध्यान में प्रीतिपूर्वक एकाकार….. फिर मानों, गुरूजी कुछ कह रहे हैं और हम सुन रहे हैं। गुरुजी प्रीतिभरी निगाहों से हम पर कृपा बरसा रहे हैं, हम रोमांचित हो रहे हैं, आनंदित हो रहे हैं। हम गुरुजी से मानसिकि वार्ताएँ करते थे और अब भी यह सिलसिला जारी है। गुरुदेव का शरीर नहीं है तब भी गुरुतत्त्व तो व्यापक है, सर्वत्र है, अमिट है।
व्यासपूर्णिमा का पर्व हमारी सोयी हुई शक्तियाँ जगाने को आता है। हम जन्म-जन्मान्तरों से भटकते-भटकते सब पाकर सब खोते-खोते कंगाल होते आये। यह पर्व हमारी कंगालियत मिटाने, हमारे रोग-शोक को हरने और हमारे अज्ञान को हर के भगवदज्ञान, भगवत्प्रीति, भगवदरस, भगवत्सामर्थ्य भरने वाला पर्व है। हमारी दीनता-हीनता को छीनकर हमें ईश्वर के वैभव से, ईश्वर की प्रीति से, ईश्वर के रस से सराबोर करने वाला पर्व है गुरुपूर्णिमा। व्यासपूर्णिमा हमें स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र ज्ञान, स्वतंत्र जीवन का संदेश देती है, हमें अपनी महानता का दीदार कराती है।
मानव! तुझे नहीं याद क्या,
तू ब्रह्म का ही अंश है।
व्यासपूर्णिमा कहती है कि तुम अपने भाग्य के आप विधाता हो, तुम अपने आनंद के स्रोत आप हो, सुख हर्ष देगा, दुःख शोक देगा लेकिन ये हर्ष-शोक आयेंगे-जायेंगे, तुम तुम्हारे आनंदस्वरूप को जगाओ और सब बौने हो जायेंगे। यह वह पूनम है जो हर जीव को अपने भगवत्स्वभाव में स्थिति करने में बड़ा सहयोग देती है।
जैसे बनिये के लिए हर दिवाली हिसाब-किताब और नया कदम आगे बढ़ाने के लिए है, ऐसे भी साधकों के लिए गुरुपूर्णिमा एक आध्यात्मिक हिसाब-किताब का दिवस है। पहले के वर्ष में सुख-दुःख में जितनी चोट लगती थी, अब उतनी नहीं लगनी चाहिए। पहले जितना समय देते थे नश्वर चीजों के लिए, उसे अब थोड़ा कम करके शाश्वत में शांति पायेंगे, शाश्वत का ज्ञान पायेंगे और शाश्वत ‘मैं’ को मैं मानेंगे, इस मरने वाले शरीर को मैं नहीं मानेंगे। दुःख आता है चला जाता है, सुख आता है चला जाता है, चिंता आती है चली जाती है, भय आता है चला जाता है लेकिन एक ऐसा तत्त्व है जो पहले था, अभी है और बाद में रहेगा, वह मैं कौन हूँ ?…. उस अपने ‘मैं’ को जाँचो तो आप पर इन लोफरों के थप्पड़ों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। इनके सिर पर पैर रखकर मौत के पहले अमर आत्मा का साक्षात्कार हो जाय, इसी उद्देश्य से गुरू पूनम आती है।
गुरुपूनम का संदेश है कि आप दृढ़निश्चयी हो जाओ सत् को पाने के लिए, समता को पाने के लिए। आयुष्य बीता जा रहा है, कल पर क्यों रखो !
संत कबीर जी ने कहाः
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय।।
जितना इस नश्वर संसार से, छल कपट से और दुःख देने वाली चीजों से प्रीति है, उससे आधी अगर भगवान से हो जाय तो तुम्हारा तो बेड़ा पार हो जायेगा, तुम्हारे दर्शन करने वाले का भी पुण्योदय हो जायेगा।
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कौन होता है गुरु?
आश्रमों में गुरु और शिष्य की प्राचीन भारत में परंपरा रही है। अब ना गुरु, गुरु जैसा है और ना शिष्य, शिष्य जैसा। बदल गए हैं आश्रम, तो फिर सब कुछ बदलेगा ही।
क्या स्कूल या कॉलेज का शिक्षक गुरु नहीं होता? भागवत कथा बाँचने वाला या चार वेद या फिर चार किताब पढ़कर प्रवचन देने वाला गुरु नहीं होता? किताब, चूरण, ऑडियो-वीडियो कैसेट, माला या ध्यान बेचने की नौकरी देने वाला भी गुरु नहीं होता?
कुछ लोग कहते हैं कि शास्त्रों अनुसार और गुरु-शिष्य की परंपरा अनुसार पता चलता है कि गुरु वह होता है जो आपकी नींद तोड़ दे और आपको मोक्ष के मार्ग पर किसी भी तरह धकेल दे।
हालाँकि कहा जा सकता है कि जो भी जिस भी प्रकार की शिक्षा दे वह सभी गुरु ही होते हैं। गुरु द्रोण ने धनुष विद्या की शिक्षा दी, तो क्या वे गुरु नहीं थे? क्या जो सिर्फ मोक्ष का मार्ग ही दिखाए वहीं गुरु होते हैं, जो डॉट नेट‍, डॉक्टरी या इंजीनियरिंग सिखाए वे गुरु नहीं होते?
भगवानश्री रजनीश कहते हैं गुरु की खोज बहुत मुश्किल होती है। गुरु भी शिष्य को खोजता रहता है। बहुत मौके ऐसे होते हैं कि गुरु हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हम उसे ढूँढ़ते हैं किसी मठ में, आश्रम में, जंगल में या किसी भव्य प्रेस कांफ्रेंस में।
अंधे भक्तों के अंधे गुरु :
बहुत साधारण से लोग हमें गुरु नहीं लगते, क्योंकि वे तामझाम के साथ हमारे सामने प्रस्तुत नहीं होते हैं। वे ग्लैमर की दुनिया में नहीं है और वे तुम्हारे जैसे तर्कशील भी नहीं है। वे बहस करना तो कतई नहीं जानते।
तुम जब तक उसे तर्क या स्वार्थ की कसौटी पर कस नहीं लेते तब तक उसे गुरु बनाते भी नहीं। लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो अंधे भक्त हैं, तो स्वाभाविक ही है कि उनके गुरु भी अंधे ही होंगे। मान जा सकता है कि वर्तमान में तो अंधे गुरुओं की जमात है, जो ज्यादा से ज्यादा भक्त बटोरने में लगी है।
जैन धर्म में कहा गया है कि साधु होना सिद्धों या अरिहंतों की पहली सीढ़ी है। अभी आप साधु ही नहीं हैं और गुरु बनकर दीक्षा देने लगे तो फिर सोचो ये कैसे गुरु। कबीर के एक दोहे की पंक्ति है- ‘गुरु बिन ज्ञान ना होए मोरे साधु बाबा।’ उक्त पंक्ति से ज्ञात होता है कि कबीर साहब कह रहे हैं किसी साधु से कि गुरु बिन ज्ञान नहीं होता।
जेतवन का पंछी :
जेतवन में भगवान बुद्ध प्रवचन देते थे। एक दिन एक भिक्षु ने पूछा- तथागत यह वातायन में एक पक्षी प्रतिदिन आपके प्रवचन के शुरू होने के कुछ क्षण पूर्व आकर चुपचाप बैठ जाता है और तब तक शांत बैठा रहता है तब तक आपके प्रवचन समाप्त नहीं हो जाते। यह आपके प्रवचन बड़े ध्यान से सुनता है कृपया इसका रहस्य बताएँ।
बुद्ध ने कुछ क्षण वातायन में बैठे उस पक्षी को देखा फिर कहा- भंते हम जीवन में अहंकारवश या अन्य सांसारिक कार्यों के चलते बहुत सारे ऐसे मौके छोड़ देते हैं जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यह पक्षी अपने पिछले जन्म में एक सेठ था और इसी तरह बुद्ध उसके नगर से गुजरते थे, लेकिन चूँकि यह सेठ था और इसे बुद्ध के चरणों में नमन करने की फुर्सत नहीं थी, लेकिन बुद्ध सब जानते हैं कि उसे कितनी फुर्सत थी।
यह व्यक्ति बुद्ध को देखने और उन्हें सुनने का मौका चूक गया, लेकिन मरने के बाद जब यह पक्षी बना तो इसकी चेतना में स्मृति शेष रही और यह ‘भाव बोध’ द्वारा जानता है कि इससे कुछ गलत हुआ है, लेकिन इसका ‘भाव बोध’ भी अच्छा है कि इसने फिर से चूके हुए मौके को पकड़ लिया।
हमारे जीवन में भी ऐसे बहुत से मौके आते हैं जबकि हम भगवानश्री को देखने और सुनने से चूक जाते हैं, क्योंकि हम किसी अन्य तथाकथित के चक्कर में लगे रहते हैं। ऐसे आदरणीय और सच्चे गुरुओं को गुरु पूर्णिमा पर शत: शत: नमन…।
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गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है।
वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।
गुरु क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य। गुरु वह है ‍जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्‍य भी वह है जो जान-परखकर गुरु बनाता है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानंद) मेरा शिष्य हो जाए क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि यह वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष के मार्ग पर दौड़ने लगेगा।
लेकिन स्वामी विवेकानंद बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं। वे रामकृष्‍ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती।
तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं।
गुरु और शिष्य की परम्परा के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह जाहिर होता है कि गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु बनाने में कितनी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा।
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