******सर्वोपरि साधना ——वाक्–संयम****पवन तलहन *****
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महर्षि वेदव्यास के सारर्भित चिंतन को विश्व-कल्याण की कामना से लिपिबद्ध करने के कार्य में सर्वविध्न-विनाशक श्रीविनायक तन्मयतापूर्वक लगे हुये थे! महाभारत-ग्रन्थ के लेखन का कार्य आज पूर्ण हो रहा था! विध्नोश्वर ने अपनी लेखनी से “इति” लिखते हुए अंतिम भूर्जपत्र रख दिया! दोनों मुखमंडल इस सारस्वत-साधना के समापन से दीप्तिमान हो उठे थे!
सहसा महर्षि वेदव्यास ने कहा–
लम्बोदर! प्रणम्य है आप का परिश्रम, जिसके बल पर मैं अपने चिंतन को मूर्तरूप दे पाया, परन्तु इससे भी वन्दनीय है आपका मौन! सुदीर्घकालतक हमारा आपसे सम्पर्क रहा ! इस अवधि में मैं निरंतर बोलता भी रहा, परन्तु आपके मुख से मैंने कभी एक भी शब्द नहीं सूना और अब भी आप मौन हैं?
भगवान गणेश ने मधुर वाणी में प्रत्युत्तर देते हुए कहा—-महर्षि बादरायण ! दीपक की लौका आधार तैल होता है! तैल के अनुपात से ही दीपक की लौ प्रखर और क्षीण होती रहती है! तैल का अक्षय भण्डार किसी दीपक में नहीं होता! देव, मानव या दानव सभी तानुधारियों की प्राणशक्ति का मापदण्ड होता है, जिसके अनुसार वह किसी में कम और किसी में अधिक होती है, परन्तु असीम की गणना में कोई नहीं आता! प्राणशक्ति का उपयोग भी अपने विवेक पर आधारित है—कौन कितन्ज़ व्यय करता है और कौन कितना संग्रह! जो संयमपूर्वक इस शक्ति को दुरुपयोग से बचा लेते हैं, वे वांछित सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं! इसका मूलाधार है वाणी का संयम! जो अपनी वाणी को वश में नहीं रख पाते, उनकी जिह्वा अनावश्यक बोलती रहती है! अर्थहीन शब्द विग्रह और द्वेष की जड़ें हैं, जो हमारी प्राणशक्ति क्र मधुर रसको सोखती रहती हैं! वाणी का संयम इस समस्त अनर्थपरम्परा को दग्ध करने में समर्थ है, अत: मैं मौन की उपासना को सर्वोपरि साधना मानता हूँ!!
जय हो—-